जो ठहर गया वो तर गया।

meditation meditating hands


“कुछ हासिल करने के लिए जरूरी नही कि हमेशा दौड़ा जाए…..
कुछ चीजें ठहरने से भी प्राप्त होती हैं जैसे सुख, शांति और सुकुन…….. “


सुख शांति की आवश्यकता बहुत लोग अनुभव करते हैं।करीब करीब सभी।जिसे नहीं आवश्यकता वह कहीं ओर व्यस्त है।वे कुछ हासिल करने के लिए बाहर की ओर दौड रहे हैं। सुख शांति की तलाश उसे है जिसकी बाहरी परिस्थितियां और भीतरी वृत्तियां प्रतिकूल हैं।


आदमी बाहरी से जुड़कर भीतरी से टूटा हुआ है या भीतरी से जुडकर बाहरी से टूटा हुआ है।
कोई ऐसा हो सकता है जो बाहरी से भी टूटा हुआ है और भीतरी से भी टूटा हुआ है। तूफान में हिचकोले खाती नैया।


कोई ही ऐसा हो सकता है जो बाहरी से भी जुडा हुआ है और भीतरी से भी।
‘पर’ से भी,’स्व’ से भी।वह पुल बना हुआ है सेतु।
यह तभी संभव है जब मन की जगह अमन हो,भेद की जगह अभेद।
“निर्वाण वह अवस्था है जिसमें पृथकता का भाव मिट जाता है और जब अहंकार उसके स्रोत-हृदय में डूब जाता है।”
जब तक मन है, अहंकार है तब तक माया का खेल जारी रहता है।मन का अमन हुआ, अहंकार का निरहंकार हुआ माया का खेल खत्म।सारे भेद तिरोहित हो जाते हैं।
अभी भेद है इसलिए अशांति है। अशांति है इसलिए शांति चाहिए,दुख है इसलिए सुख चाहिये।
चीजें चाहिए तो बाहर की ओर दौडना स्वाभाविक है, सुख शांति चाहिए तो बाहर की और दौड विपरीत दिशा में होती है।जो पूर्व में मिल सकता है उसे पाने के लिए पश्चिम की ओर दौडे जा रहे हैं।वह वहां है ही नहीं।
सुख शांति बाहर नहीं मिल सकती इसके लिए भीतर आना पडेगा और भीतर आने के लिए ठहरना पडेगा।
जो ठहर गया वो तर गया।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बाहरी तथा भीतरी दोनों उपलब्धियां संभव हों?
संभव है।
बहुत ऊंचे पदों पर कार्य करने वालों में यह विशेषता होती है। वस्तुत:वे पूरी तरह से ठहरे होते हैं अपने आपमें, फिर वे बाहर की ओर देखते हैं,कहां क्या करना है इसका विचार करते हैं।
महर्षि का कथन है-‘पहले पता लगा लो तुम कौन हो,बाद में समस्याओं का समाधान खोजना।”
समाधान कारक को भी समस्या बना लिया जाता है।
क्या हर आदमी “स्वयं” नहीं है?
मूलतः कोई भी आदमी “स्वयं” ही हो सकता है।और क्या हो सकता है? क्या स्वयं के बाद भी कोई है?
जैसे जीवात्मा के बाद परमात्मा?
ऐसा है तब भी जीवात्मा तो बने,जीव की आत्मा तो बने स्वयं। अहंकार क्यों बनता है? अहंकार का मतलब बहिर्मुखी, आत्मा का मतलब अंतर्मुखी,स्वयं,स्व में स्थित।
अब कोई स्वयं को पीछे छोडकर बाहरी चीजें पाने के लिए बाहर की ओर दौड रहा है तो वह “स्व” में स्थित नहीं है,वह “पर” में स्थित है।
जैसे मैं यह लिख रहा हूं और अचानक भूकंप आ जाय, धरती हिलने लगे तो क्या होगा?तब मैं क्या करुंगा-बाहर दौडूंगा या भीतर ठहरा रहूंगा?


क्या स्वयं भीतर ठहरा रहे तथा शरीर बाहर जाय यह संभव है?
बिल्कुल संभव है।


सुख शांति तथा विश्राम पूर्ण अवस्था में चित्त ठहर जाता है।चित्त के साथ शरीर भी ठहर जाता है। शरीर को हमेशा के लिए ठहराये रहना संभव नहीं है परंतु स्वयं का ठहरना संभव है।
स्थिर, अस्थिर का संतुलन न कर पाने के कारण समस्या आती है। लेकिन स्वयं स्थिर हो तो शरीर की अस्थिरता कोई समस्या नहीं है।आरंभ में फर्क पड़ता है, पूरी तरह से स्व में स्थिर होने पर शरीर की हलनचलन,शरीर की गतिशीलता प्रभावित नहीं करती।


चित्त के पूर्ण स्थिर होने पर समाधि लग जाती है।मगर यह व्यवस्था भी संभव है कि चित्त स्थिर हो तथा शरीर,चित्त की स्थिरता के वश में हो।साधक स्ववश हो,परवश नहीं।
संशय बहिर्मुखी,परवश को होता है। अंतर्मुखी,स्ववश स्थिति में कोई संशय उत्पन्न नहीं होता।पूरी तरह से विश्राम की,सुख की अनुभूति है तो शरीर की गति विक्षेप पैदा नहीं करती।
फिर शरीर का घूमना होता है सहज,न कि कोई घूम रहा है कर्ताभाव से।सब होता रहता है अपने आप। करना, होने में बदल जाता है।जिसका करना, होने में नहीं बदला उसके भेद और भेद का विक्षेप बना रहता है।
जैसे मैं यह सब लिख रहा हूं तो मेरा अनुभव क्या है?
मेरा अनुभव है मैं लिख नहीं रहा हूं, लिखना हो रहा है।भीतर से आता जा रहा है मैं लिखता जा रहा हूं।
ज्ञानी कुछ बोलते हैं तब क्या वे कर्ता भाव से बोलते हैं कि मैं बोल रहा हूं,मुझे कुछ बोलना है, क्या बोलना चाहिए यह चिंतन?
नहीं।उनके अनुभव से आता रहता है व उनके माध्यम से प्रकट होता रहता है।अगर वहां कोई कर्ता है तो वह सत्य है, ज्ञानी नहीं। दुनिया ज्ञानी को कर्ता मानकर आश्चर्य करती है।चलन ही यही है।
“अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।”
चित्रकार ने अद्भुत सुंदर चित्र बनाया या बना?गायक ने विलक्षण संगीत प्रकट किया या वह प्रकट हुआ उसके माध्यम से?
मूलस्रोत से जो होता है,जो आता है ऐसा कौन कर सकता है?वह परम शक्ति है।परम रहस्य है। बहुत चिंतन हुआ है उस पर, बहुत बोला गया है। कोई एक उसे पाना चाहता है तो जिन्होंने पाया है उन्होंने भीतर का रास्ता बताया है।
‘भीतर जाओ, अंतर्मुखी बनो, अपने में आओ।’
बात तो ठीक है लेकिन बाहर कुछ पाना है।
तो उसे कहा जाता है-‘अभ्यास करो,थोडा थोडा समय रोज निकालो स्व में स्थिर होने का। अपनी जगह रुको,ठहरो।भागो मत खुद से दूर।’
जैसे जैसे ठहराव बढता है,अपना रिमोट अपने हाथ में आने लगता है। आत्मस्थिति के साथ आत्मबल, आत्मविश्वास में वृद्धि महसूस होने लगती है।
सुख शांति, विश्राम की मौजूदगी का पता चलने लगता है।ऐसा साधक जब बाहर देखता है तब दौडता नहीं है।उसके प्रयत्न अनियंत्रित नहीं होते।
प्रयत्न अनियंत्रित तभी होते हैं जब कोई इच्छा होती है उससे बाहर की तरफ वेग उत्पन्न होता है वह स्वयं को भी खींचकर ले जाता है।
आवश्यकता और बात है।देह को भोजन की आवश्यकता है,उसकी पूर्ति करनी है।यह कोई इच्छा की बात नहीं है।
तब कोई वेग नहीं होता,शांत स्थिरता बनी रहती है।
ज्ञानी तो देह की आवश्यकता से भी पर होता है लेकिन कोई जिद नहीं होती कि देह को भोजन से वंचित रखेंगे।वह उसकी आवश्यकता पूरी कर देता है,स्वयं स्व में स्थित रहता है। शरीर को लेकर विचलित नहीं होता।
स्वयं,शरीर नहीं है।स्वयं,स्वयं है।शरीर साथ में लगा है तो उसकी व्यवस्था देखी जा सकती है।जैसे कोई व्यक्ति किसी घर में रहता है तो वह व्यक्ति स्वयं,घर नहीं है मगर घर को वह साफ सुथरा, स्वच्छ, व्यवस्थित रख सकता है। उससे उसकी स्वयंता में कहीं कोई बाधा नहीं आती।
व्यक्ति को स्वयं बनकर रहना चाहिए।वह “स्वयं” है ही, उससे न छूटा जा सकता है,न बचा सकता है।स्वयं दो नहीं है जो एक दूसरे से बचे।यह चित्त है जो दौड जाता है स्वयं से बचने के लिए स्वयं को पिंजरा मानकर मगर स्वयं तो परम मुक्ति है।
स्वयं मोक्षस्वरुप ही है।
इसलिए उचित यही है कि सदा स्वयं को अनुभव करके,स्वयं की तरह रहा जाय। शरीर स्वयं के चारों ओर फैला एक विस्तार है परंतु उसे लेकर कोई सुखदुख नहीं है।
चित्तविक्षेपरहित स्वयं सदा शांत है आनंदस्वरुप है।
स्वयं का अतिक्रमण करके देहारुढ होने से देहाभिमान उत्पन्न होता है,’मैं देह हूं ‘ यह भ्रम उत्पन्न होता है। इससे कर्ता भोक्ता भाव आता है और सभी तरह के सुख पाने,दुख हटाने के प्रयास होते हैं। अपनी महिमा का पता चलता ही नहीं। कभी किसी जन्म में कोई मिल जाता है जो कहता है-
ठहरो।कहां भाग रहे हो? भागने से नहीं होगी मूलभूत मांग की पूर्ति।
पूर्ति ठहरने से ही संभव होगी।
कोई अपवाद नहीं, कोई वीआईपी नहीं।हर आदमी को अपनी ही निद्रा से विश्राम मिलता है, दूसरों की निद्रा से नहीं।
‘आप मरे बिन स्वर्ग न दीखे।’
इसलिए जो दूसरों को बताने में लगे रहते हैं बजाय अपने लिए प्रयास करने के वे भटकते हैं।जो अपने लिए प्रयास करता है उसे दूसरों का पथप्रदर्शक बनने या पथप्रदर्शक कहलाने की उत्सुकता नहीं होती..!!
🙏🏼🙏🏽🙏🏿जय जय श्री राधे🙏🏾🙏🏻🙏

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