“गुरु बनने का अधिकार किसको ?”

गुरु की महिमा गोविन्द से भी अधिक बतायी गयी हैं, पर यह महिमा उस गुरु की है, जो शिष्य का उद्धार कर सके। श्रीमद्भागवत में आया हैं- गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्। दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या- न्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्॥ (श्रीमद्भा० ५। ५। १८) जो समीप आयी हुई मृत्यु से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है। इसलिये सन्तों की वाणी में आया है- चौथे पद चीन्हे बिना शिष्य करो मत कोय। तात्पर्य हैं कि जब तक अपने में शिष्यका उद्धार करने की ताकत न आये, तब तक कोई गुरु मत बनो। कारण कि गुरु बन जाय और उद्धार न कर सके तो बड़ा दोष लगता है- हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥ (मानस, उत्तर० ९९ । ४) वह घोर नरक में इसलिये पड़ता है कि मनुष्य दूसरी जगह जाकर अपना कल्याण कर लेता पर उसको अपना शिष्य बनाकर एक जगह अटका दिया ! उसको अपना कल्याण करने के लिये मनुष्य शरीर मिला था, उसमें बड़ी बाधा लगा दी ! जैसे एक घर के भीतर कुत्ता आ गया तो घर के मालिक ने दरवाजा बन्द कर दिया। घर में खाने को कुछ था नहीं। अब उस कुत्ते को वहाँ तो कुछ खाने को मिलेगा नहीं और दूसरी जगह जा सकेगा नहीं। यही दशा आजकल चेले की होती है। गुरुजी खुद तो चेले का कल्याण कर सकते नहीं और दूसरी जगह जाने देते नहीं। वह कहीं और चला जाय तो उसको धमकाते हैं कि मेरा चेला होकर दूसरे के पास जाता है। श्रीकरपात्रीजी महाराज कहते थे कि जो गुरु अपना शिष्य तो बना लेता है, पर उसका उद्धार नहीं करता, वह अगले जन्म में कुत्ता बनता है और शिष्य चींचड़ बनकर उसका खून चूसते हैं! मन्त्रिदोषश्च राजानं जायादोषः पतिं यथा। तथा प्राप्नोत्यसन्देहं शिष्यपापं गुरुं प्रिये॥ (कुलार्णवतन्त्र) 'जिस प्रकार मन्त्री का दोष राजा को और स्त्री का दोष पति को प्राप्त होता है, उसी प्रकार निश्चय ही शिष्य का पाप गुरु को प्राप्त होता है।' दापयेत् स्वकृतं दोषं पत्नी पापं स्वभर्तरि। तथा शिष्यार्जितं पापं गुरुमाप्नोति निश्चितम्॥ (गन्धर्वतन्त्र) ‘जैसे स्त्री का दोष और पाप उसके स्वामी को प्राप्त होता है, वैसे ही शिष्य का अर्जित पाप गुरु को अवश्य ही प्राप्त होता है।' एक सन्त के पूर्वजन्म की सच्ची घटना है। पूर्वजन्म में वे एक राजा के मन्त्री थे। उनको वैराग्य हो गया तो वे सब छोड़कर अच्छे विरक्त सन्त बन गये। उनके पास कई साधु आकर रहने लगे। राजा के मन में भी विचार आया कि मैं इन मन्त्री महाराज को ही गुरु बना लें और भजन करूं। वे जाकर उनके शिष्य बन गये। आगे चलकर जब गुरुजी (पूर्व मन्त्री) का शरीर शान्त हो गया तो उनकी जगह उस राजा को महन्त बना दिया गया। महन्त बनने के बाद राजा भोग भोगने में लग गया; क्योंकि भोग भोगने की पुरानी आदत थी ही। परिणामस्वरूप वह राजा मरने के बाद नरकों में गया। गुरुजी (पूर्व मन्त्री) ऊँचे लोकों में गये थे। नरकों को भोगने के बाद जब उस राजा ने पुनर्जन्म लिया, तब उसके साथ गुरुजी को भी जन्म लेना पड़ा। फिर गुरुजी ने उनको पुन: भगवान् में लगाया, पर उनको शिष्य नहीं बनाया, प्रत्युत मित्र ही बनाया। उम्रभर में उन्होंने किसी को भी शिष्य नहीं बनाया। इस घटना से सिद्ध होता है कि अगर गुरु अपने शिष्य का उद्धार न कर सके तो उसको शिष्य के उद्धार के लिये पुन: संसार में आना पड़ता है। इसलिये गुरु उन्हीं को बनना चाहिये, जो शिष्य का उद्धार कर सकें। आजकल के गुरु चेले को भगवान् की तरफ न लगाकर अपनी तरफ लगाते हैं, उनको भगवान् का न बनाकर अपना बनाते हैं। यह बड़ा भारी अपराध है। एक जीव परमात्मा की तरफ जाना चाहता है, उसको अपना चेला बना लिया तो अब वह गुरु में अटक गया। अब वह भगवान् की तरफ कैसे जायगा ? गुरु भगवान् की तरफ जाने में रुकावट डालने वाला हो गया! गुरु तो वह है, जो भगवान् के सम्मुख कर दे, भगवान् में श्रद्धा-विश्वास करा दे; जैसे-हनुमान्जी ने विभीषण का विश्वास अपने में न कराकर भगवान् में कराया- सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥ कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥ प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥ अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥ (मानस, सुन्दर० ७) श्रीशरणानन्दजी महाराज ने लिखा है- ‘जो उपदेष्टा भगवविश्वास की जगह पर अपने व्यक्तित्व का विश्वास दिलाते हैं और भगवत्सम्बन्ध के बदले अपने व्यक्तित्व से सम्बन्ध जोड़ने देते हैं, वे घोर अनर्थ करते हैं।' (प्रबोधनी) व्यक्ति में श्रद्धा-विश्वास करने की अपेक्षा भगवान् में श्रद्धा- विश्वास करने से ज्यादा लाभ होगा, जल्दी लाभ होगा और विशेष लाभ होगा। इसलिये जो गुरु अपने में विश्वास कराता है, अपनी सेवा कराता है, अपने नाम का जप करवाता है, अपने रूप का ध्यान करवाता है, अपनी पूजा करवाता है, अपनी जूठन देता है, अपने चरण धुलवाता है, वह पतन की तरफ ले जाने वाला है। उससे सावधान रहना चाहिये। भगवान् का ही अंश होने के कारण मनुष्यमात्र का सदा से ही भगवान् के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध स्वतः-स्वाभाविक है, बनावटी नहीं है। परन्तु गुरु के साथ जोड़ा गया सम्बन्ध बनावटी होता है। बनावटी सम्बन्ध से कल्याण नहीं होता, प्रत्युत बन्धन होता है; क्योंकि संसार के बनावटी सम्बन्ध से ही हम बँधे हैं। आप विचार करें, जिन लोगों ने गुरु बनाया है, क्या उन सबका कल्याण हो गया ? उनको तत्त्वज्ञान हो गया ? भगवान् की प्राप्ति हो गयी ? जीवन्मुक्ति हो गयी ? किसी को हो गयी हो तो बड़े आनन्द की बात है, पर हमें विश्वास नहीं होता। एक तो वे लोग हैं, जिन्होंने गुरु बनाया है और दूसरे वे लोग हैं, जिन्होंने गुरु नहीं बनाया है, पर सत्संग करते हैं-उन दोनों में आपको क्या फर्क दीखता है ? विचार करें कि गुरु बनाने से ज्यादा लाभ होता है अथवा सत्संग करने से ज्यादा लाभ होता है ? गुरुजी हमारा कल्याण कर देंगे-ऐसा भाव होने से अपने साधन में ढिलाई आ जाती है। इसलिये गुरु बनाने वालों में जितने राग-द्वेष पाये जाते हैं, उतना सत्संग करने वालों में नहीं पाये जाते। किसी को अच्छा संग भी मिल जाय तो वह किसी के साथ लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट नहीं करता, पर अपने को किसी गुरु का चेला मानने वाले दूसरे गुरु के चेलों के साथ मार-पीट भी कर देते हैं। गुरु बनाने वालों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दीखता। केवल एक वहम पड़ जाता है कि हमने गुरु बना लिया, इसके सिवाय और कुछ नहीं होता। इसलिये गुरु बनाने से मुक्ति हो जाती है—यह नियम है ही नहीं। गुरु बनना और बनाना बड़े जोखिम की बात है, कोई तमाशा नहीं है। कोई आदमी कपड़े की दूकान पर जाय और दूकानदार से कहे कि मेरे को अमुक कपड़ा चाहिये। दूकानदार उससे कपड़े का मूल्य तो ले ले, पर कपड़ा नहीं दे तो क्या यह उचित है ? अगर कपड़ा नहीं दे सकते थे तो मूल्य क्यों लिया ? और मूल्य लिया तो कपड़ा क्यों नहीं दिया ? ऐसे ही शिष्य तो बना ले, भेंट-पूजा ले ले और उद्धार करे नहीं तो क्या यह उचित है ? पहले चेला बन जाओ, उद्धार पीछे करेंगे—यह ठगाई है। अपना पूजन करवा लिया, भेंट ले ली, चेला बना लिया और भगवत्प्राप्ति नहीं करायी तो फिर आप गुरु क्यों बने ? गुरु बने हो तो भगवत्प्राप्ति कराओ और नहीं कराओ तो आपको गुरु बनने का कोई अधिकार नहीं है। अगर चेले का कल्याण नहीं कर सकते तो उसको दूसरी जगह जाने दो। खुद कल्याण नहीं कर सकते तो फिर उसको रोकने का क्या अधिकार है ? खुद कल्याण करते नहीं और दूसरी जगह जाने देते नहीं तो बेचारे शिष्य का तो नाश कर दिया! उसका मनुष्य-जन्म निरर्थक कर दिया! अब वह अपना कल्याण कैसे करेगा ? इसलिये जहाँ तक बने, गुरु-शिष्य का सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बिना जोड़े सन्त की बात मानोगे तो लाभ होगा और नहीं मानोगे तो नुकसान नहीं होगा। तात्पर्य है कि गुरु-शिष्य का सम्बन्ध न जोड़ने में लाभ-ही-लाभ हैं, नुकसान नहीं है। परन्तु गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जोड़ोगे तो बात नहीं मानने पर नुकसान होगा। कारण कि अगर गुरु असली हो और उसकी एक बात भी टाल दे, उनकी आज्ञा न माने तो वह गुरु का अपराध होता है, जिसको भगवान् भी माफ नहीं कर सकते ! शिवक्रोधाद् गुरुस्त्राता गुरुक्रोधाच्छिवो न हि। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरोराज्ञां न लङ्घयेत्॥ (गुरुगीता)

भगवान् शंकर के क्रोध से तो गुरु रक्षा कर सकता है, पर गुरु के क्रोध से भगवान् शंकर भी रक्षा नहीं कर सकते। इसलिये सब प्रकार से प्रयत्नपूर्वक गुरु की आज्ञा का उल्लंघन न करे।' राखइ गुर जौं कपि बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥ (मानस, बाल० १६६। ३) -




गुरु की महिमा गोविन्द से भी अधिक बतायी गयी हैं, पर यह महिमा उस गुरु की है, जो शिष्य का उद्धार कर सके। श्रीमद्भागवत में आया हैं- गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्। दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या- न्न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्॥ (श्रीमद्भा० ५। ५। १८) जो समीप आयी हुई मृत्यु से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है। इसलिये सन्तों की वाणी में आया है- चौथे पद चीन्हे बिना शिष्य करो मत कोय। तात्पर्य हैं कि जब तक अपने में शिष्यका उद्धार करने की ताकत न आये, तब तक कोई गुरु मत बनो। कारण कि गुरु बन जाय और उद्धार न कर सके तो बड़ा दोष लगता है- हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥ (मानस, उत्तर० ९९ । ४) वह घोर नरक में इसलिये पड़ता है कि मनुष्य दूसरी जगह जाकर अपना कल्याण कर लेता पर उसको अपना शिष्य बनाकर एक जगह अटका दिया ! उसको अपना कल्याण करने के लिये मनुष्य शरीर मिला था, उसमें बड़ी बाधा लगा दी ! जैसे एक घर के भीतर कुत्ता आ गया तो घर के मालिक ने दरवाजा बन्द कर दिया। घर में खाने को कुछ था नहीं। अब उस कुत्ते को वहाँ तो कुछ खाने को मिलेगा नहीं और दूसरी जगह जा सकेगा नहीं। यही दशा आजकल चेले की होती है। गुरुजी खुद तो चेले का कल्याण कर सकते नहीं और दूसरी जगह जाने देते नहीं। वह कहीं और चला जाय तो उसको धमकाते हैं कि मेरा चेला होकर दूसरे के पास जाता है। श्रीकरपात्रीजी महाराज कहते थे कि जो गुरु अपना शिष्य तो बना लेता है, पर उसका उद्धार नहीं करता, वह अगले जन्म में कुत्ता बनता है और शिष्य चींचड़ बनकर उसका खून चूसते हैं! मन्त्रिदोषश्च राजानं जायादोषः पतिं यथा। तथा प्राप्नोत्यसन्देहं शिष्यपापं गुरुं प्रिये॥ (कुलार्णवतन्त्र) ‘जिस प्रकार मन्त्री का दोष राजा को और स्त्री का दोष पति को प्राप्त होता है, उसी प्रकार निश्चय ही शिष्य का पाप गुरु को प्राप्त होता है।’ दापयेत् स्वकृतं दोषं पत्नी पापं स्वभर्तरि। तथा शिष्यार्जितं पापं गुरुमाप्नोति निश्चितम्॥ (गन्धर्वतन्त्र) ‘जैसे स्त्री का दोष और पाप उसके स्वामी को प्राप्त होता है, वैसे ही शिष्य का अर्जित पाप गुरु को अवश्य ही प्राप्त होता है।’ एक सन्त के पूर्वजन्म की सच्ची घटना है। पूर्वजन्म में वे एक राजा के मन्त्री थे। उनको वैराग्य हो गया तो वे सब छोड़कर अच्छे विरक्त सन्त बन गये। उनके पास कई साधु आकर रहने लगे। राजा के मन में भी विचार आया कि मैं इन मन्त्री महाराज को ही गुरु बना लें और भजन करूं। वे जाकर उनके शिष्य बन गये। आगे चलकर जब गुरुजी (पूर्व मन्त्री) का शरीर शान्त हो गया तो उनकी जगह उस राजा को महन्त बना दिया गया। महन्त बनने के बाद राजा भोग भोगने में लग गया; क्योंकि भोग भोगने की पुरानी आदत थी ही। परिणामस्वरूप वह राजा मरने के बाद नरकों में गया। गुरुजी (पूर्व मन्त्री) ऊँचे लोकों में गये थे। नरकों को भोगने के बाद जब उस राजा ने पुनर्जन्म लिया, तब उसके साथ गुरुजी को भी जन्म लेना पड़ा। फिर गुरुजी ने उनको पुन: भगवान् में लगाया, पर उनको शिष्य नहीं बनाया, प्रत्युत मित्र ही बनाया। उम्रभर में उन्होंने किसी को भी शिष्य नहीं बनाया। इस घटना से सिद्ध होता है कि अगर गुरु अपने शिष्य का उद्धार न कर सके तो उसको शिष्य के उद्धार के लिये पुन: संसार में आना पड़ता है। इसलिये गुरु उन्हीं को बनना चाहिये, जो शिष्य का उद्धार कर सकें। आजकल के गुरु चेले को भगवान् की तरफ न लगाकर अपनी तरफ लगाते हैं, उनको भगवान् का न बनाकर अपना बनाते हैं। यह बड़ा भारी अपराध है। एक जीव परमात्मा की तरफ जाना चाहता है, उसको अपना चेला बना लिया तो अब वह गुरु में अटक गया। अब वह भगवान् की तरफ कैसे जायगा ? गुरु भगवान् की तरफ जाने में रुकावट डालने वाला हो गया! गुरु तो वह है, जो भगवान् के सम्मुख कर दे, भगवान् में श्रद्धा-विश्वास करा दे; जैसे-हनुमान्जी ने विभीषण का विश्वास अपने में न कराकर भगवान् में कराया- सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥ कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥ प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥ अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥ (मानस, सुन्दर० ७) श्रीशरणानन्दजी महाराज ने लिखा है- ‘जो उपदेष्टा भगवविश्वास की जगह पर अपने व्यक्तित्व का विश्वास दिलाते हैं और भगवत्सम्बन्ध के बदले अपने व्यक्तित्व से सम्बन्ध जोड़ने देते हैं, वे घोर अनर्थ करते हैं।’ (प्रबोधनी) व्यक्ति में श्रद्धा-विश्वास करने की अपेक्षा भगवान् में श्रद्धा- विश्वास करने से ज्यादा लाभ होगा, जल्दी लाभ होगा और विशेष लाभ होगा। इसलिये जो गुरु अपने में विश्वास कराता है, अपनी सेवा कराता है, अपने नाम का जप करवाता है, अपने रूप का ध्यान करवाता है, अपनी पूजा करवाता है, अपनी जूठन देता है, अपने चरण धुलवाता है, वह पतन की तरफ ले जाने वाला है। उससे सावधान रहना चाहिये। भगवान् का ही अंश होने के कारण मनुष्यमात्र का सदा से ही भगवान् के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध स्वतः-स्वाभाविक है, बनावटी नहीं है। परन्तु गुरु के साथ जोड़ा गया सम्बन्ध बनावटी होता है। बनावटी सम्बन्ध से कल्याण नहीं होता, प्रत्युत बन्धन होता है; क्योंकि संसार के बनावटी सम्बन्ध से ही हम बँधे हैं। आप विचार करें, जिन लोगों ने गुरु बनाया है, क्या उन सबका कल्याण हो गया ? उनको तत्त्वज्ञान हो गया ? भगवान् की प्राप्ति हो गयी ? जीवन्मुक्ति हो गयी ? किसी को हो गयी हो तो बड़े आनन्द की बात है, पर हमें विश्वास नहीं होता। एक तो वे लोग हैं, जिन्होंने गुरु बनाया है और दूसरे वे लोग हैं, जिन्होंने गुरु नहीं बनाया है, पर सत्संग करते हैं-उन दोनों में आपको क्या फर्क दीखता है ? विचार करें कि गुरु बनाने से ज्यादा लाभ होता है अथवा सत्संग करने से ज्यादा लाभ होता है ? गुरुजी हमारा कल्याण कर देंगे-ऐसा भाव होने से अपने साधन में ढिलाई आ जाती है। इसलिये गुरु बनाने वालों में जितने राग-द्वेष पाये जाते हैं, उतना सत्संग करने वालों में नहीं पाये जाते। किसी को अच्छा संग भी मिल जाय तो वह किसी के साथ लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट नहीं करता, पर अपने को किसी गुरु का चेला मानने वाले दूसरे गुरु के चेलों के साथ मार-पीट भी कर देते हैं। गुरु बनाने वालों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दीखता। केवल एक वहम पड़ जाता है कि हमने गुरु बना लिया, इसके सिवाय और कुछ नहीं होता। इसलिये गुरु बनाने से मुक्ति हो जाती है—यह नियम है ही नहीं। गुरु बनना और बनाना बड़े जोखिम की बात है, कोई तमाशा नहीं है। कोई आदमी कपड़े की दूकान पर जाय और दूकानदार से कहे कि मेरे को अमुक कपड़ा चाहिये। दूकानदार उससे कपड़े का मूल्य तो ले ले, पर कपड़ा नहीं दे तो क्या यह उचित है ? अगर कपड़ा नहीं दे सकते थे तो मूल्य क्यों लिया ? और मूल्य लिया तो कपड़ा क्यों नहीं दिया ? ऐसे ही शिष्य तो बना ले, भेंट-पूजा ले ले और उद्धार करे नहीं तो क्या यह उचित है ? पहले चेला बन जाओ, उद्धार पीछे करेंगे—यह ठगाई है। अपना पूजन करवा लिया, भेंट ले ली, चेला बना लिया और भगवत्प्राप्ति नहीं करायी तो फिर आप गुरु क्यों बने ? गुरु बने हो तो भगवत्प्राप्ति कराओ और नहीं कराओ तो आपको गुरु बनने का कोई अधिकार नहीं है। अगर चेले का कल्याण नहीं कर सकते तो उसको दूसरी जगह जाने दो। खुद कल्याण नहीं कर सकते तो फिर उसको रोकने का क्या अधिकार है ? खुद कल्याण करते नहीं और दूसरी जगह जाने देते नहीं तो बेचारे शिष्य का तो नाश कर दिया! उसका मनुष्य-जन्म निरर्थक कर दिया! अब वह अपना कल्याण कैसे करेगा ? इसलिये जहाँ तक बने, गुरु-शिष्य का सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बिना जोड़े सन्त की बात मानोगे तो लाभ होगा और नहीं मानोगे तो नुकसान नहीं होगा। तात्पर्य है कि गुरु-शिष्य का सम्बन्ध न जोड़ने में लाभ-ही-लाभ हैं, नुकसान नहीं है। परन्तु गुरु-शिष्य का सम्बन्ध जोड़ोगे तो बात नहीं मानने पर नुकसान होगा। कारण कि अगर गुरु असली हो और उसकी एक बात भी टाल दे, उनकी आज्ञा न माने तो वह गुरु का अपराध होता है, जिसको भगवान् भी माफ नहीं कर सकते ! शिवक्रोधाद् गुरुस्त्राता गुरुक्रोधाच्छिवो न हि। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरोराज्ञां न लङ्घयेत्॥ (गुरुगीता)

Guru can protect from Lord Shankar’s anger, but even Lord Shankar cannot protect from Guru’s anger. That’s why don’t try to disobey the Guru’s orders in every way.’ Rakhai Gur Jaun Kapi Bidhata. There is no opposition to the Guru, no one in the world. (Manas, Bal 0 166. 3) –

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