गुरुदेव ने दिखाया तीन जन्मों का रहस्य…..

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प्रख्यात संत को उनके तीन जन्मों का दृश्य उनके गुरुदेव ने दिखाया उनमें से प्रथम थे सन्त कबीर, दूसरे समर्थ रामदास, तीसरे रामकृष्ण परमहंस। इन तीनों का कार्यकाल इस प्रकार रहा है- कबीर ई. (सन् 1398 से 1518) समर्थ रामदास (सन् 1608 से 1682) श्री रामकृष्ण परमहंस (सन् 1836 से 1896)। यह तीनों ही भारत की सन्त सुधारक परम्परा के उज्ज्वल नक्षत्र हैं। उनके शरीरों द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए जिससे देश, धर्म, समाज और संस्कृति का महान कल्याण हुआ।
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भगवान के भक्त तीनों ही थे। इसके बिना आत्म बल की समर्थता और कषाय-कल्मषों का निराकरण कठिन है। किन्तु साथ ही भगवान के विश्व उद्यान को सींचने और समुन्नत सुविकसित करने की प्रक्रिया भी साथ-साथ ही चलनी चाहिए तो इन तीनों के जीवनों में यह परम्पराऐं भली प्रकार समाहित रहीं।
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कबीर को एक मुसलमान जुलाहे ने तालाब किनारे पड़ा हुआ पाया था। उन्हें कोई ब्राह्मण कन्या अवैध सन्तान होने के कारण इस प्रकार छोड़ गई थी। जुलाहे ने उन्हें पाल लिया। वे सन्त तो आजीवन रहे पर गुजारे के लिए रोटी अपने पैतृक व्यवसाय से कमाते रहे।
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अपने बारे में उनने लिखा है-
काशी का मैं वासी ब्राह्मण, नाम मेरा परबीना। एक बार हर नाम बिसारा, पकरि जुलाहा कीन्हा॥ भई मेरा कौन बुनेगा ताना॥
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कबीर ने तत्कालीन हिन्दू समाज की कुरीतियाँ और मत-मतान्तरों की विग्रह विडम्बनाओं को दूर करने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न किये। उन पर इस्लाम विरोधी होने का इल्जाम लगाया गया और हाथ-पैरों में लोहे की जंजीर बाँधकर नदी में डलवा दिया गया पर ईश्वर कृपा से जंजीर टूट गई और वे जीवित बच गये। कुल वंश को लेकर उन्हें समाज का विग्रह विरोध सहना पड़ा पर वे एकाकी अपने प्रतिपादन पर अड़े रहे। उन दिनों काशी में मृत्यु से स्वर्ग मिलने और मगहर में मरने पर नरक जाने की मान्यता प्रचलित थी। वे इसका खण्डन करने के लिए अन्तिम दिनों मगहर ही चले गये और वहीं शरीर छोड़ा। कबीर विवाहित थे। उनकी पत्नी का नाम लोई था वह आजीवन उनके हर कार्य में उनके साथ रहीं। जीवन का एक भी दिन उनने ऐसा न जाने दिया, जिसमें भ्रान्तियों के निवारण और सत्परम्पराओं के प्रतिपादन में प्राणपण से प्रयत्न न किया हो। विरोधियों में से कोई उन्हें तनिक भी न झुका सका।
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मरते समय उनकी लाश को हिन्दू जलाना चाहते थे मुसलमान दफनाना। इसी बात को लेकर विग्रह खड़ा हो गया। चमत्कार यह हुआ कि कफ़न के नीचे से लाश गायब हो गई। उसके स्थान पर फूल पड़े मिले। इनमें से आधों को मुसलमानों ने दफनाया और आधों को हिन्दुओं ने जलाया। दोनों ही सम्प्रदाय वालों ने उनकी स्मृति में भव्य भवन बनाये। कबीर पन्थ को मानने वाले लाखों व्यक्ति हिन्दुस्तान में हैं।
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दूसरे समर्थ रामदास महाराष्ट्र के उच्चस्तरीय सन्त थे। उन्होंने शिवाजी को स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार किया। भवानी से अक्षय पराक्रम वासी तलवार दिलवाई। उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर 700 महावीर मन्दिर बनवाये। जिनमें हनुमान जी की प्रतिमा तो थी ही साथ ही व्यायामशाला और सत्संग प्रक्रिया भी नियमित रूप से चलती थी। इन देवालयों के माध्यम से शिवाजी को सैनिक, शस्त्र और धन मिलता था। ताकि स्वतन्त्रता संग्राम सफलता पूर्वक चलता रहे। शिवाजी ने राज्य की स्थापना की। उसकी गद्दी पर गुरु के खड़ाऊँ स्थापित किये और स्वयं प्रबन्धक मात्र रहे। शिवाजी द्वारा छेड़ा गया आन्दोलन बढ़ता ही गया और अन्त में गान्धी जी के नेतृत्व में भारत स्वतन्त्र होकर रहा।
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तीसरे रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के पास एक देहात में जन्मे थे। वे कलकत्ता दक्षिणेश्वर मन्दिर में पूजा करते थे। हजारों जिज्ञासु नित्य उनके पास आकर ज्ञान पिपासा तृप्त करते थे और उनके आशीर्वाद अनुदानों से लाभ उठाते थे। उनकी धर्मपत्नी शारदामणि थी।
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उन्होंने नरेन्द्र के रूप में सुपात्र पाया और संन्यास देकर विवेकानन्द नाम दिया और देश देशान्तरों में भारतीय संस्कृति की गरिमा समझाने भेजा। देश में शिक्षित वर्ग ईसाई एवं नास्तिक बनता चला जा रहा था। विवेकानन्द के प्रवचनों से लाखों के मस्तिष्क सुधरे। उनने संसार भर में रामकृष्ण परमहंस मिशन की स्थापनाऐं कीं, जो पीड़ा निवारण की सेवा करता है। विवेकानन्द स्मारक कन्या कुमारी पर, जहाँ उन्हें नव जागृति का सन्देश गुरु से मिला था, बना है एवं देखने ही योग्य है।
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यह एक आत्मा के विभिन्न शरीरों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त अन्यान्य आत्माओं में प्रेरणाऐं भरकर उस दैवी सत्ता ने समय-समय पर उनसे बड़े-बड़े काम कराये। चैतन्य महाप्रभु बंगाल के एवं बाबा जलाराम गुजरात के उन्हीं के संरक्षण में ऊँची स्थिति तक पहुँचे और देश को ऊँचा उठाने में, भगवद् भक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप में जन-जन तक पहुँचाने में उस अन्धकार युग में अभिनव सूर्योदय का काम किया।
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यह तीन प्रधान जन्म थे जिनकी हमें जानकारी दी गयी। इनके बीच-बीच मध्यकालों में हमें और भी महत्वपूर्ण जन्म लेने पड़े हैं पर वे इतने प्रख्यात नहीं हैं, जितने उपरोक्त तीन। हमें समग्र जीवन की रूपरेखा इन्हीं में दिखायी गयी और बताया गया कि गुरुदेव इन जन्मों में हमें किस प्रकार अपनी सहायता पहुँचाते-ऊँचा उठाते और सफल बनाते रहे हैं।
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अधिक जानने की अपनी इच्छा भी नहीं हुई जब समझ लिया गया कि इतनी महान आत्मा स्वयं पहुँच-पहुँचकर सत्पात्र आत्माओं को ढूंढ़ती और उनके द्वारा बड़े काम कराती रही हैं, तो हमारे लिए इस जन्म में भी यही उचित है कि एक का पल्ला पकड़े, एक नाव में बैठें और अपनी निष्ठा डगमगाने न दें। इन तीन महान जन्मों के माध्यम से जो समय बचा, उसे हमें कहाँ-कहाँ किस रूप में, कैसा खर्च करना पड़ा, यह पूछने का अर्थ उन पर अविश्वास व्यक्त करना था। अनेक गवाहियाँ माँगना था। हमारे सन्तोष के लिए यह तीन जन्म ही पर्याप्त थे।
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महान कार्यों का बोझ उत्तरदायित्व सम्भालने वाले को समय-समय पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अनेक प्रकार के असाधारण पराक्रम दिखाने पड़ते हैं। यह हमारे साथ भी घटित होता रहा है। दौड़-दौड़कर गुरुदेव सहायता के लिए पहुँचते रहे हैं। हमारी नन्हीं सी सामर्थ्य में अपनी महती सामर्थ्य मिलाते रहे हैं, संकटों से बचाते रहे हैं, लड़खड़ाते पैरों को सम्भालते रहे हैं। इन तीन जन्मों की घटनाओं से ही पूरी तरह विश्वास हो गया। इसलिए उसी दिन निश्चय कर लिया कि अपना जीवन अब इन्हीं के चरणों पर समर्पित रहेगा। इन्हीं के संकेतों पर चलेगा।
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इस जन्म में उन्होंने श्री राम आचार्य को धर्मपत्नी समेत पाया और कहा- इस विषम समय में आध्यात्मिक जीवन धर्मपत्नी समेत अधिक अच्छी तरह बिताया जा सकता है। विशेषतया जब आश्रम बनाकर शिक्षा व्यवस्था करनी हो, माता द्वारा भोजन, निवास, स्नेह-दुलार आदि का प्रबन्ध और पिता द्वारा अनुशासन, अध्यापन, मार्गदर्शन का कार्य चलने में सुविधा रहती है।



* प्रख्यात संत को उनके तीन जन्मों का दृश्य उनके गुरुदेव ने दिखाया उनमें से प्रथम थे सन्त कबीर, दूसरे समर्थ रामदास, तीसरे रामकृष्ण परमहंस। इन तीनों का कार्यकाल इस प्रकार रहा है- कबीर ई. (सन् 1398 से 1518) समर्थ रामदास (सन् 1608 से 1682) श्री रामकृष्ण परमहंस (सन् 1836 से 1896)। यह तीनों ही भारत की सन्त सुधारक परम्परा के उज्ज्वल नक्षत्र हैं। उनके शरीरों द्वारा ऐसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए जिससे देश, धर्म, समाज और संस्कृति का महान कल्याण हुआ। . भगवान के भक्त तीनों ही थे। इसके बिना आत्म बल की समर्थता और कषाय-कल्मषों का निराकरण कठिन है। किन्तु साथ ही भगवान के विश्व उद्यान को सींचने और समुन्नत सुविकसित करने की प्रक्रिया भी साथ-साथ ही चलनी चाहिए तो इन तीनों के जीवनों में यह परम्पराऐं भली प्रकार समाहित रहीं। . कबीर को एक मुसलमान जुलाहे ने तालाब किनारे पड़ा हुआ पाया था। उन्हें कोई ब्राह्मण कन्या अवैध सन्तान होने के कारण इस प्रकार छोड़ गई थी। जुलाहे ने उन्हें पाल लिया। वे सन्त तो आजीवन रहे पर गुजारे के लिए रोटी अपने पैतृक व्यवसाय से कमाते रहे। . अपने बारे में उनने लिखा है- काशी का मैं वासी ब्राह्मण, नाम मेरा परबीना। एक बार हर नाम बिसारा, पकरि जुलाहा कीन्हा॥ भई मेरा कौन बुनेगा ताना॥ . कबीर ने तत्कालीन हिन्दू समाज की कुरीतियाँ और मत-मतान्तरों की विग्रह विडम्बनाओं को दूर करने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न किये। उन पर इस्लाम विरोधी होने का इल्जाम लगाया गया और हाथ-पैरों में लोहे की जंजीर बाँधकर नदी में डलवा दिया गया पर ईश्वर कृपा से जंजीर टूट गई और वे जीवित बच गये। कुल वंश को लेकर उन्हें समाज का विग्रह विरोध सहना पड़ा पर वे एकाकी अपने प्रतिपादन पर अड़े रहे। उन दिनों काशी में मृत्यु से स्वर्ग मिलने और मगहर में मरने पर नरक जाने की मान्यता प्रचलित थी। वे इसका खण्डन करने के लिए अन्तिम दिनों मगहर ही चले गये और वहीं शरीर छोड़ा। कबीर विवाहित थे। उनकी पत्नी का नाम लोई था वह आजीवन उनके हर कार्य में उनके साथ रहीं। जीवन का एक भी दिन उनने ऐसा न जाने दिया, जिसमें भ्रान्तियों के निवारण और सत्परम्पराओं के प्रतिपादन में प्राणपण से प्रयत्न न किया हो। विरोधियों में से कोई उन्हें तनिक भी न झुका सका। . मरते समय उनकी लाश को हिन्दू जलाना चाहते थे मुसलमान दफनाना। इसी बात को लेकर विग्रह खड़ा हो गया। चमत्कार यह हुआ कि कफ़न के नीचे से लाश गायब हो गई। उसके स्थान पर फूल पड़े मिले। इनमें से आधों को मुसलमानों ने दफनाया और आधों को हिन्दुओं ने जलाया। दोनों ही सम्प्रदाय वालों ने उनकी स्मृति में भव्य भवन बनाये। कबीर पन्थ को मानने वाले लाखों व्यक्ति हिन्दुस्तान में हैं। . दूसरे समर्थ रामदास महाराष्ट्र के उच्चस्तरीय सन्त थे। उन्होंने शिवाजी को स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार किया। भवानी से अक्षय पराक्रम वासी तलवार दिलवाई। उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर 700 महावीर मन्दिर बनवाये। जिनमें हनुमान जी की प्रतिमा तो थी ही साथ ही व्यायामशाला और सत्संग प्रक्रिया भी नियमित रूप से चलती थी। इन देवालयों के माध्यम से शिवाजी को सैनिक, शस्त्र और धन मिलता था। ताकि स्वतन्त्रता संग्राम सफलता पूर्वक चलता रहे। शिवाजी ने राज्य की स्थापना की। उसकी गद्दी पर गुरु के खड़ाऊँ स्थापित किये और स्वयं प्रबन्धक मात्र रहे। शिवाजी द्वारा छेड़ा गया आन्दोलन बढ़ता ही गया और अन्त में गान्धी जी के नेतृत्व में भारत स्वतन्त्र होकर रहा। . तीसरे रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के पास एक देहात में जन्मे थे। वे कलकत्ता दक्षिणेश्वर मन्दिर में पूजा करते थे। हजारों जिज्ञासु नित्य उनके पास आकर ज्ञान पिपासा तृप्त करते थे और उनके आशीर्वाद अनुदानों से लाभ उठाते थे। उनकी धर्मपत्नी शारदामणि थी। . उन्होंने नरेन्द्र के रूप में सुपात्र पाया और संन्यास देकर विवेकानन्द नाम दिया और देश देशान्तरों में भारतीय संस्कृति की गरिमा समझाने भेजा। देश में शिक्षित वर्ग ईसाई एवं नास्तिक बनता चला जा रहा था। विवेकानन्द के प्रवचनों से लाखों के मस्तिष्क सुधरे। उनने संसार भर में रामकृष्ण परमहंस मिशन की स्थापनाऐं कीं, जो पीड़ा निवारण की सेवा करता है। विवेकानन्द स्मारक कन्या कुमारी पर, जहाँ उन्हें नव जागृति का सन्देश गुरु से मिला था, बना है एवं देखने ही योग्य है। . यह एक आत्मा के विभिन्न शरीरों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त अन्यान्य आत्माओं में प्रेरणाऐं भरकर उस दैवी सत्ता ने समय-समय पर उनसे बड़े-बड़े काम कराये। चैतन्य महाप्रभु बंगाल के एवं बाबा जलाराम गुजरात के उन्हीं के संरक्षण में ऊँची स्थिति तक पहुँचे और देश को ऊँचा उठाने में, भगवद् भक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप में जन-जन तक पहुँचाने में उस अन्धकार युग में अभिनव सूर्योदय का काम किया। . यह तीन प्रधान जन्म थे जिनकी हमें जानकारी दी गयी। इनके बीच-बीच मध्यकालों में हमें और भी महत्वपूर्ण जन्म लेने पड़े हैं पर वे इतने प्रख्यात नहीं हैं, जितने उपरोक्त तीन। हमें समग्र जीवन की रूपरेखा इन्हीं में दिखायी गयी और बताया गया कि गुरुदेव इन जन्मों में हमें किस प्रकार अपनी सहायता पहुँचाते-ऊँचा उठाते और सफल बनाते रहे हैं। . अधिक जानने की अपनी इच्छा भी नहीं हुई जब समझ लिया गया कि इतनी महान आत्मा स्वयं पहुँच-पहुँचकर सत्पात्र आत्माओं को ढूंढ़ती और उनके द्वारा बड़े काम कराती रही हैं, तो हमारे लिए इस जन्म में भी यही उचित है कि एक का पल्ला पकड़े, एक नाव में बैठें और अपनी निष्ठा डगमगाने न दें। इन तीन महान जन्मों के माध्यम से जो समय बचा, उसे हमें कहाँ-कहाँ किस रूप में, कैसा खर्च करना पड़ा, यह पूछने का अर्थ उन पर अविश्वास व्यक्त करना था। अनेक गवाहियाँ माँगना था। हमारे सन्तोष के लिए यह तीन जन्म ही पर्याप्त थे। . महान कार्यों का बोझ उत्तरदायित्व सम्भालने वाले को समय-समय पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अनेक प्रकार के असाधारण पराक्रम दिखाने पड़ते हैं। यह हमारे साथ भी घटित होता रहा है। दौड़-दौड़कर गुरुदेव सहायता के लिए पहुँचते रहे हैं। हमारी नन्हीं सी सामर्थ्य में अपनी महती सामर्थ्य मिलाते रहे हैं, संकटों से बचाते रहे हैं, लड़खड़ाते पैरों को सम्भालते रहे हैं। इन तीन जन्मों की घटनाओं से ही पूरी तरह विश्वास हो गया। इसलिए उसी दिन निश्चय कर लिया कि अपना जीवन अब इन्हीं के चरणों पर समर्पित रहेगा। इन्हीं के संकेतों पर चलेगा। . इस जन्म में उन्होंने श्री राम आचार्य को धर्मपत्नी समेत पाया और कहा- इस विषम समय में आध्यात्मिक जीवन धर्मपत्नी समेत अधिक अच्छी तरह बिताया जा सकता है। विशेषतया जब आश्रम बनाकर शिक्षा व्यवस्था करनी हो, माता द्वारा भोजन, निवास, स्नेह-दुलार आदि का प्रबन्ध और पिता द्वारा अनुशासन, अध्यापन, मार्गदर्शन का कार्य चलने में सुविधा रहती है।

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