“प्रेम”मे राधा कृष्ण एक रूप


प्रेम ही समर्पण है। जिसने प्रेम किया हो और उसे समर्पण न आया हो,उसका जीवन ही व्यर्थ है।
वो प्रेम ही क्या जिसमे त्यागना नहीं आया, जिसमें समर्पण नहीं वो तो प्रेम नहीं आकर्षण है।
प्रेम वह है जो शरीर ना मिले बस मन में समा जाए,
चिरंतन मन का कोई कोना किसी के लिए खाली रह जाए,
वो प्रेमी या प्रेमिका न होकर बस एक मूरत बन जाए।
जिस” प्रेम” में स्वार्थ हो वह” प्रेम “ही व्यर्थ है।
सब के हित के लिए अगर त्यागना पड़े प्रेम , वही प्रेम सार्थक है, वरना निरर्थक “प्रेम”तो सभी कर लेते हैं।
कृष्ण और राधा कब विलग है, कृष्ण ही राधा और राधा में ही कृष्ण है ।
“प्रेम” एकाकार करता है,पृथक नहीं होता।
” प्रेम “एक ऐसा एहसास है,जिसे बयान नहीं किया जाता, बस रुह से महसूस किया जा सकता है।
“प्रेम” में हमेशा सूरत ही मायने नहीं रखता, व्यक्तित्व,नियत और सिरत मायने रखता है।
“प्रेम” देने का नाम है, अपने को खो देने का नाम है, हासिल करने का काम नहीं। इसलिए प्रेम ही समर्पण है। हरे कृष्ण हरे

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