श्रीराधा बनीं जानकी

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          आज ब्रज में बहुत बड़ा उत्सव सा हो रहा है। जहाँ देखो तहाँ ब्रजवासी गीत गाने में मगन है। सब अपने अपने घरों में मिठाई बना मंदिरो में भोग लगा रहे हैं। जहाँ देखो तहाँ ब्रजवासी अच्छे अच्छे वस्त्र पहन नाच रहे है। ब्रज में तो उत्सव है परंतु कन्हैया को कुछ समझ नहि आता वो अपनी मैया से जा पूछते हैं, मैया जे ब्रज में का हो रह्यो है, काहे को उत्सव है यह ?
          मैया लाला पर वारी जाती है और बोलती है, ‘लाला तू अब बड़ों ह्य गयो है। हर वर्ष तुझे नाँय मालूम कैसा उत्सव होते हैं।’ मैया लाल के मुख पर स्नेहभारी चपत लगाती हुई बोलीं, ‘अरे लाला आज जानकी को जनम है। श्रीरामचंद्र की शक्ति सीता माता का।’
          सीता माता का नाम सुन  कन्हैया बोले, ‘मैया अब समझ आयो यह वो ही है ना जिसको दुष्ट रावण लै गयों था, और रामजी ने उसे मार दिया था।’ मैया बोली, ‘हाँ हाँ वही।’
          बस फिर क्या था, कन्हैया को एक रसमय लीला सूझी। सोचा आज वो यह लीला करेंगे, और सीता होंगी मेरी राधारानी।
          कन्हैया पहुँच गए सखामंडल में और बोले, ‘देखो रे मधुमंगल, श्रीदामा आदि आज मेरो रामजी की लीला करिवै को मन ह्य रह्यो है। आप सब मेरो संग दोगे ?’
          मधुमंगल टेढ़ों सा मुख बनाय के बोला, ‘राम जी की लीला” अरे कन्हैया हमने तो कहीं नाँय रामलीला पड़ी ना सुनी हम कैसे करेंगे ?’
          कन्हैया कूदकर गर्दन हिला बोले, ‘अरे मेरे प्राण प्रिय सखा मैं लीला करूँगा। जैसा कहूँ वैसा करना।’
          मधुमंगल डंडा बजाय के बोला, ‘अब जब संग गोपाल है, तो काहे का डर। करेंगे कन्हैया करेंगे, बहुत आनंद आएगो ना ?’
          कन्हैया बोला, ‘देखो मैं राम बनूँगा, श्रीदामा लक्ष्मण और मधुमंगल आप ब्राह्मण हो तो पंडित बनोगे शादी कराने वाले।’
          मधुमंगल ठहाका मार हंस कर बोले, ‘शादी को पंडित, अरे लाला यहाँ जंगल में शादी कौन ते कारेगो। वृक्ष से लता पता से या अपनी गईया से।’ और सब हँसने लगे।
          कन्हैया मुख से जीभ निकाल बोले, ‘ब्राह्मण तू केवल दान दक्षिणा ते मतलब रख और मेरो विवाह करा।’
          सखा बोले, ‘पर कन्हैया हमने तो सुना था राम की पत्नी भी थी, सीता माता। तो तेरी पत्नी कौन होवेगी ? ऐसा बोला सब सखा एक दूसरे को आँख मार देखने लगे।
          कन्हैया बोले, ‘देखो आज जानकी दिवस है। ब्रज में और मैंने सुबह-सुबह मैया संग मंदिर में जानकी जी से विनय करी के मोको भी आप जैसी पत्नी देना। तभी अचानक मंदिर में आकाशवाणी हुई
‘ओह कान्हा! तेरी विनय मैंने सुन ली तेरी पत्नी, (श्याम कुछ शर्माते हुए बोले) तेरी पत्नी वृषभानु की पुत्री राधा होवेगी।’
          सखा भोला-सा मुख बनाकर बोले, ‘हैं लाला! ऐसा बोला जानकी मैया ने।
          कन्हैया बोले, ‘हाँ हाँ तुम्हारे धोती लंगोटन डंडा की क़सम।’
          मधुमंगल बोले, ‘तो लाला तू राम बनेगो, तो सीता कौन होवेगी ?’
          कन्हैया सर पर हाथ मार बोले, ‘अरे भोले ब्राह्मण सीता बनेगी वृषभान की पुत्री। ‘राधारानी। बस सब सखामंडल डंडा बजान लग गए।
          कन्हैया बोले, ‘अब राधारानी को यहाँ कौन लावेगो मेरी दुल्हन बनाने को ?’ कन्हैया टेडी हँसी हँसते हुए बोले, ‘मैं तो राम हूँ ना।’
          सखा बोले, ‘कन्हैया तू ही बता कौन जा लेकर आवेगों राधारानी को ?’
          कन्हैया बोले, ‘हमने सुना है राम अवतार में हनुमान ने मदद करी थी राम को सीता से मिलाने में। तो यहाँ हनुमान होगा हमारा सबसे प्रिय मित्र सुबल।’
          सुबल राधारानी के चाचा का लड़का है, और उसका रूप रंग सब राधारानी से मिलता जुलता है। तो कन्हैया ने सुबल को बोला और सुबल तैयार हो गया।
          अब सुबल चला बरसाने की और वहाँ स्वामिनीजी अपने निज महलन में अपनी मैया मंजरीगण आदि से घिरी हो जानकी जी की उपासना कर रही थीं।
          सुबल बरसाना पहुँच राधारानी के निज महल में पहुँचकर बोला, ‘ओह कीर्तिकुमारी कुल उज़ियारी आपको श्यामसुंदर ने भांडीर वन में बुलाया है।’
          जब स्वामिनीजी ने यह सुना श्याम बुला रहे है तब उनका रोम रोम आनंद से प्रफुलित हो गया, गला रूँध गया। राधा बोलीं, ‘कहाँ कहाँ है मेरे श्यामसुंदर ?’
          सुबल बोला, ‘जल्दी चलो, आज जानकी दिवस पर वो कुछ लीला रस का अस्वादन आपको कराना चाहते हैं।’
          स्वामिनीजी मंजरी आदि को देख भोए उठा बोलीं, ‘लीला रस! चलो-चलो भांडीरवन, पर सुबल मैया को क्या बोलूँ ?’
          सुबल मुस्कुराकर बोला, ‘अरे राधाजी आपका और मेरा रूप रंग एक समान है, मैं यहाँ आपकी चोली वस्त्रदी पहन बैठता हूँ मैया को कुछ पता नहीं चलेगा। आप जाओ जल्दी, कन्हैया आधीर है आपके लिए।’
          जैसे-तैसे स्वामिनीजी बरसाने से निकलीं। संग तीन चार मंजरी और ललिता आदि सखियों को संग लिए कन्हैया से मिलने भाण्डीरवन को चल दीं। वहाँ कन्हैया राम स्वरूप में तैयार हो रहे थे।
          कन्हैया बोला, ‘अरे मधुमंगल मैंने तो सुना था राम के हाथ में धनुष भी होता है। मेरो धनुष ?’
          मधुमंगल हँसता हुआ बोला, ‘अरे लाला देख तेरे लिए मैंने लकड़ी तोड़ अपने जनेऊ से डोरी बाँध कर तेरा धनुष बना दिया है।’
          स्वामिनी लीला रस को देखने को उत्सुक हो रही हैं। रास्ते में कभी सखी से पूछती हैं, ‘सखी क्या लीला कर रहे होगा मेरा गोपाल ?’ फिर मंजरी से (अपनी भोए चढ़ा बोलती है) सब लीला आवे है मेरे श्याम को।’ कभी आधीर हुए बोलती हैं, ‘सखी आज यह रास्ता लंबा कैसो लग रह्यो है। मोय श्याम से मिलन को है, कोई छोटा कर दो इस रास्ते को।’
          मंजरियाँ स्वामिनीजी के आगे-आगे चल काँटे-पत्थर आदि चुनती हुई जा रही है, और उन्हें तसल्ली भी देती हैं कि, ‘आ गए स्वामिनीजी, बस आ गए, पहुँच गए।  देखो-देखो आवाज सुनाई दे रही है श्याम की।’
          स्वामिनीजी कहती हैं, ‘अरी कींकरी जे रास्ता खत्म नाहिं ह्य रह्यो,  वो मेरी बाँट देख रह्ये होंगे। लीला कैसे करेंगे मेरे बिन। कींकरी तू कुछ कर।  अरे शुक, अरे सारिका, अरे कोयल, आज मोहे अपने पीठ पर बैठाय के उड़ाय ले चलो।’ मोहे श्याम मिलन की आस है।’ स्वामीनीजी अधीर हो रही हैं। उन्हें अधीर देख मंजरी भी विचलित हो रोने लगी है।
          मंजरी सोचती हैं, ‘स्वामिनी की अधीरता बढ़ती जा रही है। मैं इन्हें यहीं रोक कहतीं हूँ के पहुँच गए, और फिर चुपके से श्यामसुंदर को ले आती हूँ।’  विचार कर मंजरी ने ऐसा ही किया
          मंजरी पहुँची श्यामसुन्दर के पास। वहाँ श्यामसुंदर रामचंद्र बन चुके थे मधुमंगल ब्राह्मण पंडित के वेश में था। श्यामसुन्दर मंजरी के मुख को देख समझ गए कि स्वामिनी अधीर हैं। श्यामसुन्दर बिना कुछ विचारे मंजरी की ओर दौड़ते हुए  बोले, ‘कहाँ हैं, कहाँ हैं, ले चल मोहे।’
          मंजरी आगे और श्यामसुंदर मंजरी के पीछे पुकारते हुए दौड़ रहे हैं, कहाँ है मेरी स्वामिनी।’ ऐसा लगा जैसे, त्रेतायुग में राम दौड़ रहे है वनवास में सीता से मिलन के लिए। ऐसा लगता है मानो, त्रेतायुग में जैसे राम आधीर हुए सीता के मिलन के लिए जब वो रावण की लंका में थी।
          मंजरी आगे-आगे, श्यामसुन्दर उसके पीछे-पीछे, सखामंडल उनके पीछे  और ब्रज के सारे पशु पक्षी भी उनके पीछे दौड़ रहे हैं। जैसे त्रेतायुग में वानरो ने राम सीता के मिलन की सुन्दर लीला के रस का आस्वादन किया था, बैसे ही उसी रसास्वादन के लिये यह सब भी दौड़ रहे हैं। सारा ब्रज आनंद में मगन है। पशु पक्षी में मुख से मधुर गीत गा रहे है, ‘सीताराम राधेश्याम, सीताराम, राधेश्याम।’
          जैसे-तैसे मंजरी वहाँ पहुँची। श्यामसुन्दर ने जब स्वामिनी को दुखी देखा तो उनके चरणों में गिर गए। स्वामिनी उस समय नैन बन्द किए अश्रु बहाय श्याम ध्यान में मगन थीं। जैसे ही स्वामिनीजी ने श्यामसुन्दर का और श्यामसुन्दर ने स्वामीनीजी का स्पर्श पाया तभी प्रेम के अनन्तभाव दोनों को जकड़ लिया और दोनो प्रेम की महासमाधि में एक पल के लिए चले गए।
          जैसे तैसे जब बाहर आए उस महाप्रेमभाव लहरों से तब स्वामिनी ने पूछा, ‘अरे श्यामसुन्दर यह कैसा भेष है आपकी वंशी कहाँ है, आपका मोरपंख कहाँ है ? वही तो मेरे प्राण हैं,बोलो.., बोलो ना प्राणप्रिय।’
          श्यामसुंदर मुस्कुराते हुए बोले, ‘स्वामिनीजी आज जानकी दिवस पर हम रामरूप धरे हैं, श्रीदामा लक्ष्मण, और यह मधुमंगल पंडित बना है, विवाह कराने वाला।’
          इससे पहले श्यामसुन्दर आगे कुछ कहते स्वामिनी ताली मारती हुई बोल पड़ीं, और हम सीता महारानी बनेंगे।:
          श्यामसुन्दर बोले, ‘तभी तो आपको यहाँ बुलाया है।’
          पण्डित बना हुआ मधुमंगल बोला, ‘ओह रामचंद्र लगन का मुहुर्त निकला जा रहा है आप अपनी शक्ति सीतामाता को संग लिए बैठिए तब मैं विवाह के मंत्र पड़ देता हूँ।’
          राधारानी बोली, ‘कन्हैया हमें श्रृंगार तो करने दें। जैसे दुल्हन सजती है।’
          सारे वन में सब पशु पक्षी उस विवाह के साक्षी बन खड़े हो गए। राधारानी को ललिताजी सीतामाता का श्रृंगार करा रही हैं। कितनी मोतियों की माला जूड़े में लगायी, कितनी गले में पहनायी। कितना सुंदर चंदन से मकरी आदि का मुख पर निर्माण किया। देवियों को भी लज्जित करने वाले सुन्दर कंगन पहनाये। ललिताजी ऐसे श्रृंगार कर रही है जैसे सीता माँ की माता ने सीता माँ के विवाह के समय किया था।
          अब सीता माँ तैयार थी और वहाँ राम तो कब से तैयार थे। दोनो बीच में बैठ गए। ललिताजी ने अग्नि प्रज्वलित की’ मधुमंगल पंडित बन मंत्र गाने लगे। ललिताजी सीतामाता की माता का अभिनय करने लगी और माता की तरह सीतामाता के पास बैठ गयी और विशाखा सखी को पिता जनक बना कर सीतामाता के दूसरी तरफ़ बिठा दिया। सारे ब्रज के पशु पक्षी ऐसे लगे जैसे जनक के आँगन में राजारानी आदि विवाह समारोह में आए हैं। सखियाँ सीतामाता (राधा) के संग खड़ी गीत गाने लगीं।
          मधुमंगल ने जनकजी (विशाखा सखी) से कहा, ‘महाराज आप अब अपनी पुत्री का हाथ रामचंद्र के हाथ में दे कन्यादान करें।’
          महाराज जनक (विशाखा सखी) ने कन्यादान कर विवाह की रस्म को पूरा किया। रस्मों के पूर्ण होते ही श्रीसीताराम रूपी प्रेमीयुगल श्रीराधा और श्यामसुन्दर प्रेमभावलीला में लीन हो गये।
                     

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