आनन्द कहाँ ?

buddha ghost india

पञ्चतन्त्र में एक कथा आती है एक कुत्तेकी, जो कई दिनोंसे भूखा था। खाना खोजता-फिरता था। चलते-चलते वह एक नदीके पास पहुँचा। तटपर एक वृक्ष था। वृक्षपर पत्ते नहीं थे, केवल शाखाएँ थीं। उनमेंसे एक शाखापर एक रोटी लटक रही थी। वृक्षका और रोटीका प्रतिबिम्ब पानीमें पड़ रहा था। कुत्तेने पानीकी ओर देखा। समझा सामने रोटी है। उसने छलाँग लगा दी। पानी हिला तो रोटी आगे जाती प्रतीत हुई। वह आगे बढ़ा तो रोटी और आगे बढ़ती मालूम हुई। इस प्रकार वह बार-बार आगे बढ़ता, बार-बार रोटी आगे बढ़ जाती। अन्तमें मझधारमें पहुँचा, डूबा और समाप्त हो गया।

इस बोध कथाको उद्धृत करते हुए एक महात्मा उपदेश दे रहे थे-अरे मनुष्य! तू भी भूखा फिरता है। जन्म-जन्मसे जिस आनन्दकी प्राप्तिकी अभिलाषा तेरे चित्तमें हैं, उसे खोजता-फिरता है। तूने सोचा- ‘जिसके पास धन है, वह आनन्दित है और मार दी धनके पानीमें छलाँग, किंतु आनन्द तो मिला नहीं, आनन्दकी रोटी आगे हो गयी।’

तूने सोचा कि विवाहमें आनन्द हैं। पकी पकायी रोटी मिल जाती है।

लगा दी छलाँग विवाहके जलमें, किंतु आनन्द तो मिला नहीं। आनन्दकी रोटी और आगे हो गयी।

तूने सोचा कि आनन्द संतानमें है। तूने लगा दी छलाँग प्यारके पानीमें, पानी हिल गया और आनन्दकी रोटी आगे हो गयी।

इस प्रकार कहीं भी आनन्द हाथ नहीं लगता, न मान सम्मानमें, न शासनमें, न मकानमें, न सम्पत्तिमें। यदि छलाँग लगाना चाहते हो तो लगाओ, किंतु आनन्दकी रोटी हाथ लगेगी नहीं। कुत्तेमें यदि बुद्धि होती तो वह पानीमें छलाँग लगानेके स्थानपर निहारता ऊपरकी ओर। वृक्षपर चढ़नेका प्रयत्न करता, ‘रोटी मिल जाती। आनन्दकी यह रोटी नीचे नहीं, वृक्षके ऊपर है। आनन्दकी इच्छा हो तो ऊपर चढ़ो, नीचे मत गिरो ।

इस ऊपर उठनेको ही चाहे हम निर्वाण कहें या मोक्ष, मुक्ति कहें या भगवत्प्राप्ति, आत्म-साक्षात्कार कहें या भगवद्दर्शन। मानव-जीवनका चरम लक्ष्य ही है और यही है मनुष्य-जीवनकी प्रगतिकी पराकाष्ठा ।

Share on facebook
Share on twitter
Share on linkedin
Share on pinterest
Share on reddit
Share on vk
Share on tumblr
Share on mix
Share on pocket
Share on telegram
Share on whatsapp
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *