शरीर मैं नहीं हूँ-

शरीर मैं नहीं हूँ- इसमें ज्यादा जोर नहीं लगाना है। एक सिद्धान्तकी बात है कि किसी दोषको मिटानेके लिये ज्यादा जोर लगाना उस दोषको पक्का करना है। कारण कि ज्यादा जोर लगानेसे सिद्ध होता है कि वह दोष मजबूत है। अतः हम तो दोषको मिटाने की चेष्टा करते हैं, पर उसका फल उल्टा होता है ! वह दोष दृढ़ हो जाता हैं! दोषको न मिटाना है, न उसका अनुमोदन करना है, प्रत्युत उसकी उपेक्षा करनी है। दोष अच्छा है—यह भी नहीं करना है और दोष खराब है – इस तरह उसके पीछे भी नहीं पड़ना है, प्रत्युत दोष अच्छा नहीं है— इतना समझकर भजनमें, अपने साधनमें लगा रहे । दोष अच्छा नहीं है- इतना काफी है, ज्यादा जोर नहीं लगाना है। न विरोध करना है, न अनुमोदन करना है। न ठीक समझना है, न बेठीक समझना है।

शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, बस, इतना काफी है। भजनमें लगे रहो, अपने-आप छूट जायगा । प्रकृति स्वतः – स्वाभाविक हित करती है। ऐसा समझते रहना चाहिये कि भगवान्‌की कृपासे सब काम ठीक हो रहा है।

राम ! राम !! राम !!!

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