मीरा चरित भाग- 37
भोजराज की अंतर्वेदना और अंतर्द्वंद्व …. डेरे पर आकर वे कटे वृक्ष की भाँति पलंग पर जा गिरे। पर वहाँ
भोजराज की अंतर्वेदना और अंतर्द्वंद्व …. डेरे पर आकर वे कटे वृक्ष की भाँति पलंग पर जा गिरे। पर वहाँ
उसने रैदासजी का इकतारा उठाया और गाने लगी- म्हारे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति
ऐसी आशीष अब कभी मत दीजियेगा। आपके इस छोटे से भाई में इतना बड़ा आशीर्वाद झेलने का बल नहीं है।’कभी
रनिवास में कानाफूसी….. राज्याभिषेक के समय वीरमदेवजी की आयु अड़तीस वर्ष थी। संवत् १५५३ में राणा रायमल की पुत्री और
दूदाजी लेट गये—’आपके रूपमें आज भगवान् पधारे हैं महाराज! यों तो सदा ही संतों को भगवत्स्वरूप समझकर जैसी बन पड़ी,
‘हाँ, मीरा-जयमल मेरे पास आओ बेटा! मैं जयमल को योद्धा वेष में और मीरा को अपनी राजसी पोशाक में देखना
मैं कैसे अब दूसरा पति वर लूँ? और कुछ न सही, शरणागत समझकर ही रक्षा करो…. रक्षा करो! अरे, ऐसा
‘हाँ हजूर ।’दासी ने आकर बताया कि स्नानकी सामग्री प्रस्तुत है। ‘मैं जाऊँ स्नान करने?’—उन्होंने अपनी दोनों बेटियों से पूछा।‘पधारो।’-
मीरा ने एक बार और लौट जाना चाहा, किन्तु फूलाँ की जिद्द से विवश होकर वह साथ हो ली। यों
‘बस, इतनी-सी बात? लो पधारो। मैं चलती हूँ भोजन करनेके लिये। आपके मुख से भोजन का नाम सुनते ही जोर