क्या ध्यान में जाना जा सकता है कि मैं कौन हूँ?

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आत्मज्ञान ;-

1-ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते। लेकिन चाहो तो स्वयं ईश्वर अवश्य हो सकते हो।ईश्वर को पाने और जानने की खोज बिलकुल ही अर्थहीन है।

जिसे खोया ही नहीं है, उसे पाओगे कैसे?

और जो तुम स्वयं ही हो, उसे जानोगे कैसे?

वस्तुत: जिसे हम देख सकते हैं, वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। दृश्य बन जाने के कारण ही वह हमसे बाहर और पर हो जाता है।

परमात्मा है हमारा स्वरूप और इसलिए उसका दर्शन असंभव है।वास्तव में, परमात्मा के नाम से जो दर्शन होते हैं, वे हमारी ही कल्पनाएं है।

मनुष्य का मन किसी भी कल्पना को आकार देने में समर्थ है। किन्तु इन कल्पनाओं में खो जाना सत्य से भटक जाना है। सत्य को जानने के पूर्व स्वयं को जानना तो अनिवार्य ही है।और स्वयं को जानते ही जाना जाता है कि अब कुछ और जानने को शेष नहीं है।

आत्मज्ञान की कुंजी के पाते ही सत्य का ताला खुल जाता है।सत्य तो सब जगह है। समग्र सत्ता में वही है। किन्तु उस तक पहुंचने का निकटतम मार्ग स्वयं में ही है। स्वयं की सत्ता ही चूंकि स्वयं के सर्वाधिक निकट है, इसलिए उसमें खोजने से ही खोज होनी सम्भव है।

और जो स्वयं में ही खोजने मेंअसमर्थ है, जो निकट ही नहीं खोज पाता है तो दूर कैसे खोज पाएगा? दूर की खोज का विचार.. निकट की खोज से बचने का एक उपाय भी हो सकता है।

2-संसार की खोज चलती है ताकि स्वयं से बचा जा सके और फिर ईश्वर की खोज चलते लगती है। क्या स्वयं के अतिरिक्त शेष सब खोजें स्वयं से पलायन की ही विधियां नहीं है? भीतर देखें कि वहां क्या दिखता है …अंधकार, अकेलापन, रिक्तता? क्या इस अंधकार, इस अकेलेपन, इस रिक्तता से भागकर ही हम कहीं शरण लेने को नहीं भागते रहते हैं? किन्तु इस भांति के भगोड़ेपन से दुख के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगता है। स्वयं से भागे हुए के लिए विफलता ही भाग्य है। क्योंकि जो खोज स्वयं से पलायन है, वह कहीं भी नहीं ले जा सकती है।और दो ही विकल्प हैं : स्वयं से भागो या स्वयं में जागो। भागने के लिए बाहर लक्ष्य होना चाहिए और जानने के लिए बाहर के सभी लक्ष्यों की सार्थकता का श्रम—भंग। ईश्वर जब तक बाहर है, तब तक वह भी संसार है, वह भी माया है, वह भी मूर्च्छा है। उसका आविष्कार भी मनुष्य ने स्वयं से बचने और भागने के लिए ही किया है। इसलिए ईश्वर, सत्य, निर्वाण, मोक्ष—यह सब न खोजें। खोजें उसे जो सब खोज रहा है। उसकी खोज ही अन्‍ततः ईश्वर की, सत्य की और निर्वाण की खोज सिद्ध होती है।

3-ज्ञान की पूर्ण शुद्धावस्था का नाम ही है आत्मज्ञान। और भी उचित है कि हम उसे ज्ञान ही कहें, क्योंकि वहां न कोई आत्म है और न अनात्म। आत्मानुसंधान के अतिरिक्त और कोई खोज धार्मिक खोज नहीं है। लेकिन, ‘आत्म ज्ञान’, ‘आत्म दर्शन’, आदि शब्द बड़े भ्रामक हैं। क्योंकि, स्वयं का जान कैसे हो सकता है? ज्ञान के लिए द्वैत चाहिए, जहां दो नहीं हैं, वहां ज्ञान कैसे होगा? दर्शन कैसे होगा? वास्तव में, ज्ञान, दर्शनादि सभी शब्द द्वैत के जगत के हैं। और जहां अद्वैत है, जहां एक ही है, वहां वे एकदम अर्थहीन हो जाते हों तो कोई आश्रर्य नहीं। मेरे देखे, ‘आत्म दर्शन’ शब्द ही असंगत है। जो जाना जा सकता है, वह स्व कैसे होगा? वह तो पर ही हो सकता है। जानना तो पर का ही हो सकता है। स्व तो वह है जो जानता है।जहां ज्ञान/knowledge है, वहां कोई ज्ञाता/ knower है, कुछ ज्ञेय/known है। स्व अनिवार्यरूप से ज्ञाता knower है। उसे किसी भी उपाय से ज्ञेय known नहीं बनाया जा। उदाहरण के लिए कुत्तों को स्वयं अपनी ही पूंछ को पकड़ने की असफल चेष्टा करते आपने कभी देखा होगा । वे जितनी तीव्रता से झपटते हैं, पूंछ उतनी ही शीघ्रता से हट जाती है। इस प्रयास में वे पागल भी हो जाएं तो भी क्या उन्हें पूंछ की प्राप्ति हो सकती है? किन्तु हो सकता है कि वे अपनी पूछ पकड़ लें, लेकिन स्वयं को ज्ञेय बनाना, तो सम्मव नहीं है।

4-हम सबको जान सकते है लेकिन उसी भांति स्वयं को नहीं। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी सरल घटना कठिन और दुरूह बनी रहती है। फिर इस ज्ञान को पाने की विधि ,मार्ग क्या है ?उदाहरण के लिए एक घर तो बड़ा था, किन्तु सामान की अधिकता से बिलकुल छोटा हो गया था। वस्तुत: वहां सामान ही सामान था और घर था नहीं, क्योंकि घर तो दीवारों से घिरे रिक्त स्थान का ही नाम है।गृहपति कहता है कि ‘घर में जगह बिलकुल नहीं है, लेकिन जगह लाएं भी कहां से।वास्तव में, रिक्त स्थान घर में पर्याप्त है। वह यहीं है, और कहीं गया नहीं, केवल सामान से आपने उसे ढांक लिया है। सामान हटावें और वह अभी और यहीं है।आत्म- ज्ञान की विधि भी यही है।सोते -जागते, उठते -बैठते, सुख में, दुख में …मैं तो हूं ही। ज्ञान हो, अज्ञान हो, मैं तो हूं ही। मेरा यह होना असंदिग्ध है। सब पर संदेह किया जा सके, लेकिन स्वयं पर तो संदेह नहीं किया जा सकता है। मेरा होना ,मेरा अस्तित्व और मेरी जानने की क्षमता ,मुझमें ज्ञान का होना, इन दोनों के आधार पर ही मार्ग खोजा जा सकता है।मैं हूं लेकिन ज्ञात नहीं कौन हूं? अब क्या करूं? ज्ञान जो कि क्षमता है, ज्ञान जो कि शक्ति है, उसमें झांकूं, और खोजूं। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प ही कहां है?

5-ज्ञान की शक्ति है, लेकिन वह ज्ञेय से /विषयों से ढंकी है। एक विषय हटता है, तो दूसरा आ जाता है।एक विचार जाता है तो दूसरे का आगमन हो जाता है। ज्ञान एक विषय से मुक्त होता है तो दूसरे से बंध जाता है, लेकिन रिक्त नहीं हो पाता।ज्ञान जहां ज्ञेय से /विषय से मुक्त है, वहीं वह शुद्ध है।और वह शुद्धता ,शून्यता ही आत्मज्ञान है।चेतना जहां निर्विषय है, निर्विचार है, निर्विकल्प है, वहीं जो अनुभूति है, वही स्वयं का साक्षात्कार है। किंतु यहां इस साक्षात्कार में न तो कोई ज्ञाता है, न ज्ञेय है। यह अनुभूति अभूतपूर्व है। उसके लिए शब्द असम्भव है।वास्तव में सत्य के संबंध में जो भी कहो, वह कहने से ही असत्य हो जाता है।ज्ञान है शब्दातीत।किन्तु सत्य के संबंध में किए गए अधूरे इंगितों को पकड़ लेने से बडी भ्रांति हो जाती है।आत्मज्ञान की खोज में जो व्यक्ति आत्मा को एक ज्ञेय पदार्थ की भांति खोजने निकल पड़ता है, वह प्रथम चरण में ही गलत दिशा में चल पड़ता है। आत्मा ज्ञेय नहीं है और न ही उसे किसी आकांक्षा का लक्ष्य ही बनाया जा सकता है, क्योंकि वह विषय भी नहीं है। वस्तुत: उसे खोजा भी नहीं जा सकता क्योंकि यह खोजनेवाले का ही स्वरूप है।

6-उस खोज में खोज और खोजी भिन्न नहीं है। इसलिए आत्मा को केवल वे ही खोज पाते है, जो सब खोज छोड़ देते है और वे ही जान पाते हैं जो सब जानने से शून्य हो जाते हैं।स्‍वप्‍न खोते ही सत्य उपलब्ध है। स्‍वप्‍न जहां नहीं है, तब जो शेष है, वही है स्‍व-सत्ता, वही है सत्य, वही है स्वतन्त्रता। मैं जिसे नहीं खौ सकता हूं वही तो है स्वरूप , वही तो है परमात्मा।और जो सदा है, सनातन है, वही तो है सत्य।रूप खोते ही सत्य उपलब्ध है। जिसे खोया जा सकता है, उस सबको खोकर ही वह जान लिया जाता है, जो सत्य है।विस्मरण हमारी आदत नहीं है और सब कुछ हमें स्मरण है।सिर्फ एक बात स्मरण नहीं है। इसलिए हम कपड़े भी ठीक से पहन लेते हैं और जूते भी, और घर भी ठीक से बसा लेते हैं, लेकिन जीवन हमारा ठीक नहीं हो पाता है। जो जीवन में केंद्रीय है उसकी हमें कोई स्मृति नहीं।हम सभी एक दूसरे को वस्त्रों से ही पहचानते हैं।लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि हम अपने को भी अपने वस्त्रों से पहचानते हैं।

7-अपनी आत्मा का ,अपने स्वरूप का तो हमें तो कोई बोध नहीं। हम जो वस्त्र पहने हुए हैं वे सारे धन के, पदवियों के, पदों के, सामाजिक प्रतिष्ठा के, अहंकार के, उपाधियों के, वस्त्र हैं और उनसे ही हम अपने को भी पहचानते हैं।वस्त्रों से जो अपने को पहचानता है उसका जीवन यदि अंधकारपूर्ण हो जाए, दुख से , पीड़ा और विपन्नता से भर जाए, तो आश्चर्य नही है क्योंकि वस्त्र हमारे प्राण नहीं हैं, और वस्त्र हमारी आत्मा नहीं हैं। लेकिन हम अपने को अपने वस्त्रों से ही जानते हैं। उससे गहरी हमारी कोई पहुंच नहीं है।

जीवन में सारा दुख और सारा अंधकार इस आत्म-अज्ञान से पैदा होता है। अपने स्वयं के केंद्र पर अंधकार होता है और हम सारे रास्तों पर दीये जलाने की कोशिश करते हैं। वे सब दीये काम नहीं पड़ते क्योंकि हमारे भीतर अंधकार होता है । तो हम जहां भी जाते हैं अपने साथ अंधकार ले जाते हैं।जब तक हम स्वयं को नही जानते तब तक अंधकार ही हैं। जीवन में एक-एक व्यक्ति उतने अंधकार में है और सारे लोग अपने-अपने अंधकार को लिए फिरते हैं। हम सब जहां इकट्ठे हो जाते हैं वहाँ अंधकार बहुत घना हो जाता है।

8-अपने भीतर सुगंध को जीवन की, जीवन की धन्यता को, कृतार्थता को कोई अनुभव नही करता है। एक अर्थहीनता, एक मीनिंगलेसनेस हमें पकड़े है। लेकिन किसी भांति हम कल की आशा में जीए जाते हैं । शायद कल सब ठीक हो जाएगा। लेकिन जिसका आज गलत है उसका कल कैसे ठीक होगा? क्योंकि कल तो आज से ही निकलेगा, आज से ही पैदा होगा।तो यदि आज दुखी हैं तो जान लें कि कल भी दुखी रहेंगे। कल की आशा में, कल की सुख की आशा में आज के दुख को झेला तो जा सकता है। लेकिन कल के सुख को निर्मित नहीं किया जा सकता है।इसलिए आनंद है केवल आशा और जीवन है दुख ऐसा हमारे सबके अनुभव में है। यह कोई सिद्धांत की बात नहीं है। जो भी अपने जीवन को थोड़ा सा खोल कर देखेगा उसे यह दिखाई पड़ेगा। जीवन के संबंध में पहला तथ्य यही है कि जिस भांति हम उसे जी रहे हैं उस भांति कहीं कोई, कहीं आनंद का फूल उसमें नहीं लगता है और ना लग सकता है। इसीलिए कल ठीक हो जाएगा, कल आने वाले वर्ष या आने वाली जिंदगी में, परलोक में, पुर्नजन्म में सब ठीक हो जाएगा ये सब कल की आशा का विस्तार है।

9-कोई सोचता हो कि इस जन्म के बाद अगले जन्म में सब ठीक हो जाएगा। वह उसी तरह की भ्रांति में है जिस तरह की भ्रांति में जो सोचता है आज दुख है कल शांति, कल सुख हो जाएगा। कोई सोचता हो मोक्ष में सब ठीक हो जाएगा तो भ्रांति में है। क्योंकि कल मुझसे पैदा होगा। आने वाला जन्म भी, मोक्ष भी, जो भी होने वाला है वह मुझ से पैदा होगा। और अगर मेरा आज अंधकारपूर्ण है तो कल मेरा प्रकाशित नहीं हो सकता।तो फिर क्या हम निराश हो जाएं और कल की सारी आशा छोड़ दें ?लेकिन इससे निराश होने का भी कोई कारण नहीं है। आज के प्रति आशा से भरा जा सकता है। आज को परिवर्तित किया जा सकता है। मैं जो हूँ उस होने में क्रांति लाई जा सकती है। मैं कल क्या होऊंगा इसके द्वारा नहीं बल्कि जो मैं अभी हूँ उसके ज्ञान, उसके बोध उसके प्रति जागरण से, उसे जान लेने से …आत्म स्मृति से क्रांति उत्पन्न हो सकती है। यदि हम स्वयं को जान सके तो वह दीया उपलब्ध हो जाएगा जो जीवन से अंधकार को नष्ट कर देगा और स्वयं को जाने बिना न कोई दीया है और न कोई प्रकाश है, न कोई आशा है।

10-ये जान लेना स्वयं को जानने के प्रति पहला चरण है कि हम स्वयं को नहीं जानते हैं। । कोई सोचता हो कि मैं स्वयं को जानता हूँ तो स्वयं को जानने के प्रति द्वार बंद हो जायेंगे और धर्म की बहुत सी शिक्षाओं ने, संस्कृति ने इधर हजारों वर्ष से दोहराए गए सिद्धांतों ने, आत्मा और परमात्मा की बातों ने हम में से बहुतों को यह भ्रम पैदा कर दिया है कि हम अपने को जानते हैं। इस भ्रम ने हमारे आत्म-अज्ञान को गहरा किया है। स्वयं को जानने के भ्रम से बड़ा, आत्म-ज्ञान में और कोई दूसरा अटकाव कोई दूसरी दीवाल, कोई दूसरा अवरोध नहीं है। छोटे से बच्चे भी जानते हैं कि हम आत्मा हैं और बूढ़े भी दोहराते हैं कि हम आत्मा हैं। यह सत्य है, यह सत्ता का अनुभव हो तो जीवन बिलकुल दूसरा हो जाएगा। ये सिद्धान्त हैं, ये स्वयं की प्रतीति और साक्षात हो तो जीवन नया हो जाए और जीवन आनंद से भर जाए।लेकिन अज्ञान में इन शब्दों से पैदा हुए झूठे ज्ञान को हमने बहुत तीव्रता से पकड़ा है उसे छोड़ने में भी भय मालूम होता है। इसलिए जैसे-जैसे व्यक्ति मृत्यु के करीब पहुंचता है वैसे-वैसे इन शब्दों को और जोर से पकड़ लेता है। वैसे-वैसे गीता, कुरान और बाइबिल उसके मस्तिष्क पर और जोर से बैठते जाते हैं।

11-वैसे-वैसे वह मंदिरों के द्वार खटखटाने लगता है। और साधु-संन्यासियों के सत्संग में बैठने लगता है ताकि इन शब्दों को जोर से पकड़ ले, ताकि आती हुई मौत के विरोध में कोई सुरक्षा का उपाय बना ले। इसलिए जितने लोग मृत्यु से भयभीत होते हैं वे सभी आत्मा की अमरता में विश्वास कर लेते हैं। उनका यह विश्वास उनका ज्ञान नहीं है। कोई विश्वास कभी ज्ञान नहीं होता। सब विश्वास अज्ञान होते हैं। जीवन के प्रति जो भी हम माने हुए बैठे हैं वह सब हमारा अज्ञान है और उस मानने के कारण ज्ञान तक जाने का सारा द्वार बंद है।हमारे विश्वास बाधा हैं। और जो व्यक्ति जितने ज्यादा विश्वासों से ग्रसित हो जाता है उसके जीवन में विवेक के अवतरण का और जगने की संभावना का, उतना ही उसी मात्रा में ह्रास हो जाता है।यह बात असंभव हो जाती है कि हम स्वयं को जान सकें। क्योंकि स्वयं को जानने के सिद्धांत हमें यह भ्रम पैदा कर देते हैं कि हम जानते हैं और ये भ्रम बहुत तलों पर हैं।इस ‘मैं’ का तो हमें कोई भी पता नही है। तो या तो हम अपने नाम को, अपने घर को, अपने परिवार को समझते हैं कि यह मेरा होना है, अगर किसी भांति इससे हमारा छुटकारा हो जाए और ये हम जान सकें कि मेरा नाम, मेरा घर, मेरा वंश, मेरा राष्ट्र, मेरी जाति, मेरा धर्म यह मेरा होना नहीं है अगर किसी भांति यह बोध भी आ जाए तो फिर हम तोतों कि भांति उन शब्दों को दोहराने लगते हैं जो ग्रंथों में लिखे हैं और शास्त्रों में कहे हैं।

12-तब हम दोहराने लगते हैं कि मैं आत्मा हूँ ,मैं परमात्मा हूँ । अहं-ब्रह्मास्मि और-और न मालूम क्या-क्या हम दोहराने लगते हैं। जिस भांति यह कहा गया है कि आप का यह नाम है और आपने पकड़ लिया है, उसी भांति यह भी कहा गया है कि आपके भीतर परमात्मा है और आपने यह भी पकड़ लिया है। इन दोनों बातों में कोई फर्क नहीं है। जब तक हम बाहर से आए हुए शब्दों को पकड़ते हैं तब तक हम स्वयं से परिचित नहीं हो सकेंगे वे शब्द चाहे पिता ने दिए हो, चाहे समाज ने, चाहे ऋषियों ने, मुनियों ने, साधु ने, संतों ने किन्हीं ने भी वे शब्द दिए हों, जब तक बाहर से आए हुए परिचय को हम पकड़ेंगे तब तक उस परिचय का जन्म नहीं हो सकेगा जो हमारा परिचय है। तब तक हम उसे नहीं जान सकेंगे। तब तक उसे जानने का कोई मार्ग नहीं है।तुम्हारा नाम, धन, तुम्हारा पद और प्रतिष्ठा तुम्हारा परिचय नहीं है। तुम जिस दिन स्वयं को पा लोगे उस दिन उसे भी पा लोगे जो सबके भीतर है। क्योंकि जो मेरे भीतर है और जो किसी और के भीतर है और जो सबके भीतर है, वह बहुत गहरे में संयुक्त है, और एक है और समग्र है।

13-ज्ञानी होने में अहंकार की खूब तृप्ति है। जितना ये ज्ञान की बातें करने वाले लोग अहंकार से पीड़ित हो जाते हैं उतना तो कोई और अहंकारी नहीं होता। कुछ शब्दों ,कुछ विचारों को इकट्ठा करके हमें यह खयाल पैदा होता है कि हमने जान लिया है।वास्तव में, जानते तो हम कुछ भी नहीं, हमारा ‘मैं’ जरूर मजबूत होता है और भर जाता है। और फिर जिस चीज से भरने लगता है उसको हम इकट्ठा करने लगते हैं। कोई धन इकट्ठा करने लगता है क्योंकि धन के इकट्ठे करने से अहंकार भरता हुआ मालूम पड़ता है। कोई बड़े महल बनाने लगता है, ताजमहल बनाने लगता है, कोई कुछ और करने लगता है क्योंकि उससे अहंकार भरता है। कोई त्याग करने लगता है क्योंकि उससे अहंकार भरता है और हमारा अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। वह निरंतर अपने को भरने की कोशिश करता है। अगर त्याग को प्रशंसा मिलती हो आदर मिलता हो तो हम त्याग कर सकते हैं, उपवास कर सकते हैं, धूप में खड़े रह सकते हैं, सिर के बल खड़े रह सकते हैं, शरीर को सुखा सकते हैं। अगर चारों तरफ जय जयकार होता हो तो हम मरने को राजी हो सकते हैं, नहीं तो कोई शहीद मरने को राजी होता लेकिन अहंकार को अगर तृप्ति मिलती हो तो हम सूली पर भी लटकते वक्त मुस्कुरा सकते हैं और प्रसन्न हो सकते हैं।

14-जो परिचय बाहर से मिलता है वह आत्म-परिचय नहीं है। इसलिए यह बात जितनी झूठी है कि मेरा नाम मैं हूँ उतनी ही यह बात भी झूठी होगी अगर मैं बाहर से सीखू कि मैं आत्मा हूँ , परमात्मा हूँ , मैं अविनाशी हूँ , मैं कुछ हूँ । पहली बात झूठी है यह तो हमें समझ में आ जाती है क्योंकि ये बात हजारों वर्ष से दोहराई गई है, लेकिन दूसरी बात भी झूठी है इसे समझने में थोड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि तब हम एक अटल अंधकार में छूट जाते हैं और अज्ञान में छूट जाते हैं।क्योंकि अगर सांसारिक परिचय भी हमारा परिचय नहीं है और तथाकथित आध्यात्मिक परिचय भी हमारा परिचय नहीं है तो फिर हमारा परिचय क्या है? तब हम एक अज्ञान में और अंधकार में छूट जाते हैं और अज्ञान से भय मालूम होता है। इसलिए हम कोई न कोई परिचय तो मान लेना चाहते हैं। गृहस्थ का एक परिचय है और संन्यासी का एक परिचय है ये दोनों परिचय झूठे हैं। इनमें से किसी एक को हम पकड़ कर तृप्ति कर लेना चाहते हैं तो गृहस्थी से कोई छूटता है तो संन्यासी हो जाता है और संन्यास में पकड़ जाता है। और एक तरह के वस्त्रों से छूटता है तो दूसरे तरह के वस्त्रों को स्वीकार कर लेता है और एक तरह के नाम से छूटता है तो दूसरा नाम ग्रहण कर लेता है।

15-हम संन्यासी का नाम बदल देते हैं .. उसे दूसरा नाम दे देते हैं । कपड़े बदल देते हैं, उसे दूसरे वस्त्र दे देते हैं। उसका ढंग बदल देते हैं… उसे दूसरा ढंग दे देते हैं। लेकिन उस रिक्त स्थान में छूटने को कोई राजी नहीं है जहां हमारा कोई परिचय नहीं है… न सांसारिक और न आध्यात्मिक। उस खाली जगह में खड़े होने को कोई राजी नहीं है। जो उस खाली जगह में खड़े होने को राजी हो जाता है वही केवल स्वयं को जान पाता है। जो अपने सब परिचय छोड़ देता है और अपरिचय में खड़ा हो जाता है। जो अपने संबंध में सारे ज्ञान छोड़ देता है और अज्ञान में खड़ा हो जाता है उसी अज्ञान में, उसी नॉट नोइंग में, उसी क्रांति के क्षण में, वह परिवर्तन घटित होता है जहां स्वयं के बोध का जन्म होता है। जब तक हम किसी भी परिचय को पकड़ते हैं; तब तक उस बोध के पैदा होने की भूमिका खड़ी नहीं होती। जब तक कोई भी सहारा है ; तब तक उसके गिरने का कोई कारण पैदा नहीं होता जो हमारे भीतर सोया है।

16-जब आपकी कोई सुरक्षा नहीं रह जाएगी, कोई सहारा नहीं रह जाएगा, कोई परिचय, कोई ज्ञान और आप निपट अज्ञान में और बेसहारा खड़े होने का साहस करेंगे, उसी क्षण, उसी क्षण केवल वह जागता है जो हमारे भीतर सोया है।उसी क्षण वहां कोई बीज टूटता है और अंकुरित होता है। उसी क्षण वहां कोई अंधकार टूटता है कोई ज्योति जागती है ..उसके पहले नहीं। उसके पहले बिलकुल असंभव है क्योंकि उसके पहले हम कोई न कोई पूरक ,कोई न कोई सब्स्टीट्यूट खोज लेते हैं। हम खोज लेते हैं उसे जो सोया है उसे जागने का कोई कारण नहीं रह जाता।हम कोई न कोई परिचय पकड़ लेते हैं, कोई न कोई वस्त्र पकड़ लेते हैं, कोई न कोई रूप, कोई न कोई नाम, कोई न कोई शब्द, कोई न कोई सिद्धांत, पकड़ लेते हैं.. अज्ञान ढक जाता है और ज्ञान के जन्म का कोई कारण नहीं रह जाता। ज्ञान के आगमन के लिए पहला द्वार स्वयं के भीतर अपने समग्र अज्ञान की स्वीकृति है।ज्ञानी बनना बहुत आसान है। अपने अज्ञान को जानना और स्वीकार कर लेना बहुत दुःसाहस की बात है।क्योंकि ज्ञानी बनने में अहंकार की सहज तृप्ति होती है अज्ञान को स्वीकार करने में अहंकार के खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती।

ध्यान में कैसे जाने कि मैं कौन हूँ?-

03 FACTS;-

1-जिन प्रश्नों के उत्तर नहीं मालूम हैं अगर वे खड़े हो जाएं तो जीवन में एक नये प्रभात की शुरुआत होती है, एक नया मंगल प्रारंभ होता है। उसकी तरफ आंखें उठनी शुरू होती हैं जो सत्य है,सुंदर है, शिव है, उसकी तरफ, जो परमात्मा है। उसकी तरफ जो हमारा वास्तविक होना है। और उसे जान कर जीवन का सारा दुख वैसे ही विर्सजित हो जाता है जैसे किसी अंधकारपूर्ण गृह में कोई दीया जला दे। और सारा अंधकार विलीन हो जाए। कैसे यह दीया जल सकता है …प्रश्न में ही उत्तर छिपा है। बाहर मत खोजें। और बाहर के किसी उत्तर को स्वीकार न करें। और पूरे-पूरे वेग से प्रश्न को आने दें कि वह सारे प्राणों के रंध्र-रंध्र को भर दे, श्वास-श्वास भर दे। हृदय की धड़कन-धड़कन उससे भर जाए। प्रश्न ही रह जाए और कुछ न हो। तब वहीं, बिलकुल वहीं प्रश्न के साथ ही उत्तर है। वह उत्तर बाहर से नहीं आता, वह उत्तर भीतर से उपलब्ध होता है।परमात्मा करे कि वह उत्तर उपलब्ध हो लेकिन प्रश्न आपको पूछना पड़ेगा।

2-ध्यान अस्तित्व के साथ एक हो जाने का नाम है। हमारी सीमाएं हैं–उन्हें तोड़ कर असीम के साथ एक हो जाने का नाम। हम जैसे एक छोटी सी बूंद हैं और बूंद जैसे सागर में गिर जाए और एक हो जाए। ध्यान कोई क्रिया नहीं है बल्कि कहें अक्रिया है, क्योंकि क्रिया कोई भी हो उससे हम बच जाएंगे पर अक्रिया में ही मिट सकते हैं। ध्यान एक अर्थ में अपने ही हाथ से मर जाने की कला है। और आश्चर्य यही है कि जो मर जाने की कला सीख जाते हैं वही केवल जीवन के परम अर्थ को उपलब्ध हो पाते हैं।

ध्यान में श्वास का सर्वाधिक महत्व है। जीवन में भी है। श्वास चल रही है तो आदमी जीवित है और श्वास खो गई तो आदमी खो गया।जीवन में श्वास हमारा संबंध है। और शायद इस बात पर कभी खयाल न किया होगा कि मन का जरा सा परिवर्तन भी श्वास पर शीघ्रता से प्रतिफलित होता है। आप क्रोध में हों तो श्वास और तरह से चलती है, आप शांत हैं तो और तरह से चलती है, आप बेचैन हैं तो और तरह से चलती है। श्वास पूरे समय मन की खबरें देती रहती है।अगर आदमी की श्वास समझी जा सके तो आदमी के भीतर का सब कुछ समझा जा सकता है।

3-ध्यान में तो श्वास बहुत कीमती है, सर्वाधिक कीमती। क्योंकि ज्यों-ज्यों आप लीन होंगे विराट में वैसे-वैसे श्वास रूपांतरित होगी। इससे उलटा भी होगा, अगर श्वास रूपांतरित हो तो आप विराट में लीन होना शुरू हो जाएंगे। जैसे अगर कोई आप से कहे कि श्वास शांत रखो और क्रोध करो, तो आप बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। श्वास शांत रख कर क्रोध करना असंभव है। एकदम असंभव है। श्वास में रूपांतरण अनिवार्य है।इसलिए आप छोटे सा प्रयोग करके कभी देख लें। जब भी क्रोध आए तो क्रोध की फिकर मत करना और श्वास को धीमा करना और तब आप अचानक पाएंगे कि क्रोध असंभव हो गया। श्वास धीमी हो तो क्रोध असंभव हो जाएगा। क्रोध असंभव हो रहा हो तो श्वास धीमी होती चली जाएगी।अगर बुद्ध और महावीर की मूर्तियां देखें, तो क्या ऐसा नहीं लगता कि ये लोग श्वास ले रहे हों। श्वास ठहरी हुई मालूम पड़ती है। वह रुक गई। मूर्तियों की वजह से ऐसा नहीं है। मन पूरी तरह शांत होगा भीतर सारे उपद्रव मन के लीन हो जाएंगे और व्यक्ति विराट के साथ एक होगा। तो श्वास आमूल रूपांतरित होती है।

1st STEP;-

03 POINTS;-

1-हम अपने को खोकर वह जो हमारे चारों ओर विस्तार है उसके साथ एक होने का प्रयास करें।ध्यान की प्रक्रिया के पहले केवल दो छोटी सी बातें खयाल कर लें।एक तो space हो क्योंकि इस प्रयोग में बहुतों को बीच में लगेगा कि लेट जाएं, तो उन्हें लेट जाना है । जैसा लगे वैसा हो जाने देना है। कोई चिंता नहीं करनी है कि कोई दूसरा मौजूद है। और कोई भी मौजूद हो तो भी आप अकेले ही हैं, वह दूसरा भी अकेला है।हम श्वास से ही शुरू करेंगे। पहली बात यह कि ध्यान में आंख बंद करके बैठेेंगे लेकिन आंख ऐसे बंद नहीं करनी है कि आंख पर दबाव पड़े। आंख को ढीला छोड़ देना है और आंख अपने से बंद हो जाए। इसलिए आंख पर दबाव जरा भी न हो क्योंकि आंख हमारे मस्तिष्क का सर्वाधिक संवेदनशील हिस्सा है। अगर आंख पर जरा भी दबाव है तो भीतर के मस्तिष्क के शांत होने में बड़ी कठिनाई होगी। तो सबसे पहले तो आंख की पलकों को धीरे से छोड़ दें और ऐसा खयाल करें कि आंख बंद हो रही है, आप कर नहीं रहे हैं और आंख की पलक को छोड़ें। पलक को धीरे से छोड़ दें और आंख को बंद हो जाने दें, बंद न करें। बस आंख की पलक को ढीला छोड़ दें और आंख को बंद हो जाने दें।

2-फिर बीच-बीच में भी आपको आंख खोल कर देखने की जरूरत नहीं है क्योंकि देखने हम भीतर जा रहे हैं और भीतर आंख के खुले होने की कोई जरूरत नहीं। आंख को बंद कर लें ढीला छोड़ दे और शरीर को भी शिथिल कर लें ताकि शरीर से आपको कोई बाधा न रहे, कोई स्ट्रेन न रहे। किसी को लेटना हो तो पहले ही लेट सकता है। शरीर को भी ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर ली है, शरीर ढीला छोड़ दिया है। जिसने लेटना हो वह चुपचाप लेट जाएं। अब ध्यान श्वास पर ले जाए। भीतर देखें श्वास जा रही है.. आ रही है। श्वास को देखें। जैसे ही श्वास को देखना शुरू करेंगे वैसे ही उस जगह खड़े हो जाएंगे जहां से घर खुलता है।श्वास को देखना शुरू करें। यह श्वास भीतर गई। बहुत बारीक सी है, गौर से देखेंगे भीतर तो दिखाई पड़ने लगेगी। दिखाई पड़ने लगेगी मतलब अनुभव होने लगेगा कि श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है। अगर किसी को अनुभव न हो रहा हो, फीलिंग न हो रही हो तो थोड़ी सी गहरी श्वास लें ताकि उन्हें फीलिंग साफ मालूम पड़ने लगे। थोड़ी सी धीमी व गहरी श्वास लेकर देख लें ताकि पता चल जाए यह रही श्वास। यह श्वास भीतर आ रही है, श्वास बाहर जा रही है, श्वास भीतर आ रही है, श्वास बाहर जा रही है। देखें भीतर अनुभव करें श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है। थोड़ा सा श्वास गहरा लें ताकि साफ-साफ खयाल में आ जाए। थोड़ी गहरी श्वास लें।

3-दस मिनट तक गहरी श्वास लेते रहें और देखते रहें, श्वास भीतर आ रही है, श्वास बाहर जा रही है। बस एक ही काम खयाल में रह जाए कि मैं श्वास को देख रहा हूं। श्वास को बिना देखे भीतर न जाने दूंगा, बिना देखे बाहर न जाने दूंगा। श्वास को देखते-देखते ही मन शांत होना शुरू हो जाएगा। एक दस मिनट श्वास को देखते रहें।गहरी श्वास लें। श्वास भीतर जाएगी तो अनुभव करें कि भीतर जा रही है व श्वास बाहर जाएगी तो अनुभव करें बाहर जा रही है। बस श्वास रह जाए–आप रह जाएं एक दृष्टा की भांति जो देख रहा है श्वास के आने को व जाने को। देख रहा है। श्वास भीतर आ रही है, श्वास बाहर जा रही है; श्वास भीतर आ रही है, श्वास बाहर जा रही है–सिर्फ देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें और मन शांत होता जाएगा, शांत होता जाएगा, शांत होता जाएगा…दस मिनट श्वास को देखते रहें। किसी को भी इस बीच लगे कि लेट जाना है तो चुपचाप लेट जाए। शरीर कंपने लगे तो रोकें नहीं कंपने दें। आंख से आंसू बहने लगें तो रोकें नहीं बहने दें। जो भी हो रहा हो उसे होने दें और आप एक ही काम करें कि श्वास को देखते रहें।दस मिनट तक आप श्वास को देखने में लीन हो जाएं। यह श्वास आ रही है, यह श्वास जा रही है और मैं सिर्फ दृष्टा की भांति श्वास को देख रहा हूं।

2nd STEP;-

अब अनुभव करें कि बहुत शीघ्र वह जो विराट हमारे चारों ओर उपस्थित है उसमें हम लीन हो जाएंगे। सबसे पहले श्वास को देखते रहें साथ में शरीर को ढीला छोड़ें।अनुभव करें कि शरीर शिथिल हो रहा है, बिलकुल ढीला छोड़ दें जैसे मिट्टी हो। अपने आप शरीर गिर जाए तो रोकें नहीं, गिर जाने दें। शरीर शिथिल हो रहा है ;भीतर श्वास को गहरा लेते रहें और देखते रहें श्वास आ रही है, श्वास जा रही है और साथ ही अनुभव करे कि शरीर शिथिल हो रहा है। बिलकुल छोड़ दें, गिरे तो गिर जाए, आगे झुके तो झुक जाए, जो होना है वह हो जाए पर शरीर को ढीला छोड़ दें। श्वास पर ध्यान रहे और जो मन में हो रहा है उसकी चिंता न लें। शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है जैसे कोई प्राण ही न हो।जिसका भी लेटने को मन हो चुपचाप लेट जाए, बैठे न रहे लेट जाए। शरीर को बिलकुल ढीला छोड दे कोई बाधा न डाले। हमें अपने को खो देना है तो शरीर को रोकना नही। श्वास को देखते रहें और शरीर को ढीला छोड़ दे। शरीर बिलकुल निष्प्राण हो गया जैसे है ही नहीं और शरीर की तरफ से पकड़ छोड़ते ही मन बहुत गहराई मे चला जाएगा। शरीर की पकड़ छूटी कि मन से गहराई आई।श्वास पर ध्यान रखे और शरीर को निष्प्राण छोड़ दें।

3rd STEP;-

02 POINTS;-

1-शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें, क्योंकि तीसरे प्रयोग में वे ही जा सकेंगे जो शरीर से पकड़ छोड़ देंगे। शरीर बिलकुल ढीला छूट गया है। जो वह झुकता हो झुक जाए, गिरता हो गिर जाए, आप अपनी तरफ से शरीर को न सम्हाले। शरीर शिथिल हो गया है और श्वास भीतर व बाहर दिखाई पड़ रही है, अनुभव हो रही है। अब आंख बंद रखें, श्वास देखते रहें। यह ध्यान का गहरा प्रयोग है। तीसरे प्रयोग को भीतर में शुरू करें। श्वास दिखाई पड़ रही है कि भीतर आ रही है जा रही है, शरीर शिथिल छोड़ दिया है। ओंठ बिलकुल बंद रहे व जीभ तालु से लग जाए। भीतर वहन कर लें कि होठ बंद हो गए है व जीभ तालु से लग गई है, शरीर शिथिल है, श्वास देखी जा रही है। अब प्रयोग श्वास को देखते हुए ही साथ में मन में पूछने लगे कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? श्वास को देखते रहे, श्वास का देखना जारी रहे और भीतर तीव्रता से पूछे मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? भीतर मन में ही तीव्रता से पूछे मैं कौन हूं? इतनी तेजी से पूछे की दो पूछने के बीच जगह न रह जाए मैं कौन हूं? एक तूफान भीतर उठ जाए मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? इतने जोर से जैसे किसी बंद दरवाजे पर ठोकरें आई कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? इतने जोर से कि प्राण की पूरी शक्ति भीतर लग जाए पूछने में कि मैं कौन हूं?

2-एक दस मिनट के लिए तीव्रता से भीतर पूछे कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?जब भीतर पूछेगें मैं कौन हूं …सारा शरीर कंप जाएगा, प्राण कंप जाएगा, श्वास कंप जाएगी ।सारी शक्ति लगा दें और प्रत्येक श्वास के पूछते रहें–मैं कौन हूं? एक दस मिनट इतनी तेजी से पूछे कि पसीना-पसीना हो जाए। सारी ताकत लगा दें। पूरी तरह से अपने को थका डाले। जितना पूछ सकते है उतना पूछ लें ताकि पीछे सब शांत हो जाए। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक पांच मिनट पूरी शक्ति से भीतर पूछेें–मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? इतनी शक्ति से जिससे तूफान उठ जाए। फिर सब छोड़ देंगे और फिर शांत रह जाएंगे। जितने तूफान में जितनी आंधी में मन जाएगा उतनी ही गहरी शांति भी उपलब्ध होगी।मैं कौन हूं? यह प्राणी के पोर-पोर में गूंजने लगे।आखिरी ताकत लगा दें।इसके बाद अदभुत शांति में प्रवेश हो जाएगा।

4th STEP;-

फिर दस मिनट के लिए हम बिना कुछ किए,जो है उसके साथ पड़े रह जाएंगे। फिर सब छोड़ देंगे श्वास भी, पूछना भी, देखना भी, फिर सिर्फ रह जाएंगे, जस्ट ब्लेंक ..सब छोड़ दें…दस मिनट के लिए कुछ भी न करें, बस रह जाएं। पक्षियों की आवाज सुनाई पड़ेंगी, सागर की लहरों की आवाज सुनाई पड़ेेंगी, हवाएं पत्तों को हिलाएंगी। चारों तरफ जो हो रहा है उसमें डूब कर रह जाएं, उसके साथ एक हो जाए। यह पक्षियों की आवाज अलग न रहे, यह सागर की गर्जन अलग न रहे, सूरज की धूप अलग न रहे, अब दस मिनट के लिए कुछ भी न करें, बस इस विस्तार में डूब कर रह जाएं और मन परम गहराइयों को छुएगा, बहुत शांति में उतर जाएगा। अब दस मिनट बिलकुल डूब जाएं, कुछ न करें और जो है उसके साथ एक रह जाएं।अब धीरे-धीरे आंख खोल लें…आंख न खुले तो दोनों हाथ आंख पर रख लें और फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। जो लोग लेट गए हैं वे धीरे-धीरे उठें। अगर उठना न बने तो उठने से पहले दो-चार गहरी श्वास लें फिर आहिस्ता-आहिस्ता उठें।झटके से कोई भी न उठे। लेकिन अगर बिलकुल उठते न बनें तो पड़े रहें, गहरी श्वास लें और फिर धीरे-धीरे उठें।एक व्यक्ति रो ले, तो उसके भीतर के कितने भार कट सकते हैं, इसका आपको पता नहीं हैं।आप उसको देख कर कुछ भी नहीं जान सकते कि उसके भीतर क्या हो रहा है।और अगर उसको देख कर आप कुछ भी सोचें तो गलत होगा।इसलिए अच्छा है कि चार दिन यह प्रयोग कर लें।

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