क्या है आनन्दमय कोश/BLISS BODY की नाद साधना और बिन्दु साधना?

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आनन्दमय कोश के चार अंग प्रधान हैं।इन साधनों द्वारा साधक अपनी पंचम भूमिका को उत्तीर्ण कर लेता है , तो उसे और प्राप्त करना कुछ शेष नहीं रह जाता।आनन्दमय कोश के चार प्रधान अंग …

1- नाद, 2- बिन्द 3- कला और 4-तुरीया

क्या है नाद साधना?-

06 FACTS;-

1-शब्द-ब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार सन्देश की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म है, वह नाद है। प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न हुई है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप चलता है। यह प्रारम्भिक शब्द ‘ॐ’ है, यह ‘ॐ’ ध्वनि जैसे-जैसे अन्य तत्वों के क्षेत्र में होकर गुजरती है, वैसे ही वैसे उसकी ध्वनि में अन्तर आता है। बंशी के छिद्रों में हवा फेंकते हैं, तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है। पर आगे के छिद्रों में से जिस छिद्र से जितनी हवा निकाली जाती है, उसी के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरों की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार ॐ ध्वनि भी विभिन्न तत्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर लहरियों में परिणत हो जाती हैं। इन स्वर लहरियों का सुनना ही नाद योग है।पञ्च- तत्वों की प्रतिध्वनित हुई ॐकार की स्वर लहरियों को सुनने की, नाद-योग साधना कई दृष्टियों से बड़ी महत्त्वपूर्ण है। प्रथम तो इस दिव्य संगीत के सुनने में इतना आनन्द आता है, जितना किसी मधुर से मधुर वाद्य या गायन सुनने में नहीं आता। दूसरे इस नाद श्रवण से मानसिक तन्तुओं का Bloom/प्रस्फुटन होता है।

2-सर्प जब संगीत सुनता है, तो उसकी नाड़ी में एक विद्युत लहर प्रवाहित हो उठती है, मृग का मस्तिष्क मधुर संगीत सुनकर इतना उत्साहित हो जाता है कि उसे तन बदन का होश नहीं रहता। गायें दुहते समय मधुर बाजे बजाये जाते हैं, जिससे उनका स्नायु समूह उत्तेजित होकर अधिक मात्रा में दूध उत्पन्न करता है। नाम का दिव्य संगीत सुनकर मानव-मस्तिष्क में भी ऐसी Viberation होती है, जिसके कारण अनेक गुप्त मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं, इस प्रकार भौतिक और आत्मिक दोनों ही दिशाओं में गति होती है।तीसरा लाभ एकाग्रता है। एक वस्तु पर, नाद पर ध्यान एकाग्र होने से मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एकत्रित होती हैं और इस प्रकार मन को वश में करने तथा निश्चित कार्य पर उसे पूरी तरह लगा देने की साधना सफल हो जाती है।

3-मानव- प्राणी अपने सुविस्तृत शरीर में बिखरी हुई अनन्त दिव्य शक्तियों का एकीकरण कर ऐसी महान् शक्ति उत्पन्न कर सकता है, जिसके द्वारा इस संसार को हिलाया जा सकता है और अपने लिए आकाश में मार्ग बनाया जा सकता है।

नाद की स्वर लहरियों को पकड़ते-पकड़ते साधक ऊँची रस्सी को पकड़ता हुआ उस उद्गम ब्रह्म तक पहुँच जाता है, जो आत्मा का अभीष्ट स्थान है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति, दूसरे शब्दों में मुक्ति, निर्वाण परमपद आदि नामों से पुकारी जाती है। नाद के आधार पर मनोलय करता हुआ साधक योग की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचता है,और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।आनन्दमय कोश की साधना में आनन्द का रसास्वादन होता है। इस प्रकार की आनन्दमयी साधनाओं में से कुछ महासाधनाऐं बड़ी महत्वपूर्ण हैं।‘शब्द’ को ब्रह्मा कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव को एक श्रृंखला में बाँधने का काम शब्द के द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्वों में सबसे पहले आकाश बना, आकाश की तन्मात्रा शब्द है। अन्य समस्त पदार्थों की भाँति शब्द भी दो प्रकार का है, सूक्ष्म और स्थूल।

4-सूक्ष्म शब्द को विचार कहते हैं और स्थूल शब्द को ”नाद”।ब्रह्म लोक से हमारे लिए ईश्वरीय शब्द प्रवाह सदैव प्रवाहित होता है। ईश्वर हमारे साथ वार्तालाप करना चाहता है, पर हममें से बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो उसे सुनना चाहते हैं या सुनने की इच्छा करते हैं, ईश्वरीय शब्द निरन्तर एक ऐसी विचारधारा प्रेरित करते हैं जो हमारे लिए अतीव कल्याणकारी होती हैं, उसको यदि सुना और समझा जा सके तथा उसके अनुसार मार्ग निर्धारित किया जा सके तो निस्सन्देह जीवनोद्देश्य की ओर तीव्र गति से अग्रसर हुआ जा सकता है। यह विचारधारा हमारी आत्मा से टकराती है।हमारा अन्तःकरण एक रेडियो है, जिसकी ओर यदि अभिमुख हुआ जाय, अपनी-वृत्तियों को अन्तर्मुख बनाकर आत्मा में प्रस्फुटित होने वाली दिव्य विचार-लहरियों को सुना जाय, तो ईश्वरीय वाणी हमें प्रत्यक्ष में सुनाई पड़ सकती हैं, इसी को आकाशवाणी कहते हैं।

5-हमें क्या करना चाहिए, क्या नहीं ? हमारे लिए क्या उचित है, क्या अनुचित ? इसका प्रत्यक्ष सन्देश ईश्वर की ओर से प्राप्त होता है। अन्तःकरण की पुकार, आत्मा का आदेश, ईश्वरीय सन्देश, आकाशवाणी विज्ञान आदि नामों से इसी विचारधारा को पुकारते हैं। अपनी आत्मा के यन्त्र को स्वच्छ करके जो इस दिव्य सन्देश को सुनने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, वे आत्मदर्शी एवं ईश्वर-परायण कहलाते हैं।ईश्वर उनके लिए बिलकुल समीप होता है, जो ईश्वर की बातें सुनते हैं और अपनी उससे कहते हैं।इस दिव्य मिलन के लिए हाड़-माँस के स्थूल नेत्र या कानों का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मा की समीपता में बैठा हुआ अन्तःकरण अपनी दिव्य इन्द्रियों की सहायता से इस कार्य को आसानी से पूरा कर लेता है।जितनी आन्तरिक पवित्रता बढ़ती जाती है, उतने ही दिव्य सन्देश बिलकुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं।

6-आरम्भ में अपने लिए कर्तव्य का बोध होता है, पाप- पुण्य का संकेत होता है, बुरा कर्म करते समय अन्तर में भय, घृणा, लज्जा, संकोच आदि का होना तथा उत्तम कार्य करते समय आत्मःसन्तोष, प्रसन्नता, उत्साह होना …इसी स्थिति का बोधक है।

यह दिव्य सन्देश आगे चलकर भूत, भविष्य, वर्तमान की सभी घटनाओं को प्रकट करता है। किसके लिए क्या मन्तव्य बन रहा है और भविष्य में किसके लिए क्या घटना घटित होने वाली है ? यह सब कुछ उससे प्रकट हो जाता है और ॐची स्थिति पर पहुँचने पर उसके लिए सृष्टि के सब रहस्य खुल जाते हैं, कोई ऐसी बात नहीं है, जो उससे छिपी हो, परन्तु जैसे ही इतना बड़ा ज्ञान उसे मिलता है, वैसे ही वह उसका उपयोग करने में अत्यन्त सावधान हो जाता है। बाल-बुद्धि के लोगों के हाथों में यह दिव्य ज्ञान पड़ जाय, तो वे उसे बाजीगरी के खिलवाड़ करने में ही नष्ट कर दें, पर अधिकारी पुरुष अपनी इस शक्ति का किसी को परिचय तक नहीं होने देते और उसे भौतिक बखेड़ों से पूर्णतया बचाकर अपनी तथा दूसरों की आत्मोन्नति में लगाते हैं।

अनहद नाद क्या है ;-

08 FACTS;-

1-अनहद नाद का शुरू रूप है अनाहत नाद। ‘आहत’ नाद वे होते हैं, जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होते हैं। वाणी के आकाश तत्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘आहत’ कहे जाते हैं, बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अन्तराल से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें “अनाहत या अनहद” कहते हैं। वे अनाहत या अनहद शब्द प्रमुखतः दस होते हैं, जिनके नाम हैं…1- संहारक2- पालक 3- सृजक 4-सहस्रदल 5-आनन्द मण्डल 6-चिदानन्द 7-सच्चिदानन्द 8-अखण्ड, 9-अगम 10-अलख हैं। इनकी ध्वनियाँ क्रमशः पायजेब की झंकार कीं-सी सागर की लहर की, बुलबुल की-सी होती हैं।

जैसे अनेक रेडियो स्टेशनों से एक ही समय में अनेक प्रोग्राम ब्राडकास्ट होते रहते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार के अनाहत शब्द भी प्रस्फुटित होते रहते हैं, उनके कारण, उपयोग और रहस्य उपरोक्त प्रकार के हैं।

2-मुसलमान फ़कीर इसे अनहद कहते है अर्थात एक कभी न खत्म होने वाला कलाम/ध्वनि जो नश्वर नहीं है।

सदगुरूओं ने कहा है कि अनहद शब्द के अन्दर प्रकाश है और उससे ध्वनि उत्पन्न होती है ।यह ध्वनि नित्य होती रहती है ।प्रत्येक के अन्दर यह ध्वनि निरन्तर हो रही है ।अपने चित्त को नौ द्वारो से हटाकर दसवे द्वार पर लगाया जाय तो यह नाद सुनायी दोता है।अनहद नाद ही परमात्मा के मिलाप का साधन है। इसके प्रकट होने पर आत्मा परमात्मा का रस प्राप्त करती है।गुरू मुख होकर इस शब्द को सुना जा सकता है इसके अभ्यास द्वारा पाप, मैल व सब ताप दूर होते है तथा जन्म-जन्मांतरों के दुखों की निवृति होकर आनन्द और सुख की प्राप्ति होती है।यह अपूर्व आनन्द की स्थिति होती है तथा निज घर में वास मिलता है संतो की आत्मा पिण्ड़(शरीर) को छोड़कर शब्द में लीन हो जाती है।

3-हम जब ध्यान करने बैठते है तो बाहर कोई भी आवाज़(ध्वनि) हो वह हमें आकर्षित करती है ।जिससे हमारा चित्त उस ध्वनि की ओर आकर्षित होता है तथा ध्यान उचट जाता है। यदि हम अंदर की ध्वनि को सुनने में चित्त को लगायेंगे तो हमारा ध्यान लगेगा क्योंकि चित्त ध्वनि की ओर आकर्षित होता है।अनहद नाद एक बिना तार की दैवी सन्देश प्रणाली है। साधक इसे जानकर सब कुछ जान सकता है।ध्वनि के केंद्र में स्नान करो, मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो। या कानों में अंगुली डाल कर नादों के नाद, अनाहत को सुनो।इसका प्रयोग कई ढंग से किया जा सकता है। एक ढंग यह है कि कहीं भी बैठ कर इसे शुरू कर दो। ध्वनियां तो सदा मौजूद हैं। चाहे बाजार हो या हिमालय की गुफा, ध्वनियां सब जगह हैं। चुप होकर बैठ जाओ।और ध्वनियों के साथ एक बड़ी विशेषता है कि जहां भी, जब भी कोई ध्वनि होगी, तुम उसके केंद्र होगे। सभी ध्वनियां तुम्हारे पास आती हैं, चाहे वे कहीं से आएं, किसी दिशा से आएं।

4-आंख के साथ, अथार्त देखने के साथ यह बात नहीं है। दृष्टि रेखाबद्ध /Linearहै, लेकिन ध्वनि वर्तुलाकार/Circular है; वह रेखाबद्ध नहीं है। सभी ध्वनियां वर्तुल में आती हैं और तुम जहां भी हो, तुम सदा ध्वनि के केंद्र हो। ध्वनियों के लिए तुम सदा परमात्मा हो–समूचे ब्रह्मांड का केंद्र। हरेक ध्वनि वर्तुल में तुम्हारी तरफ यात्रा कर रही है। ‘ध्वनि के केंद्र में स्नान ” करने के लिए तुम जहां भी हो वहीं आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सारा ब्रह्मांड ध्वनियों से भरा है , हरेक ध्वनि तुम्हारी ओर बही आ रही है और तुम उसके केंद्र हो। यह भाव भी कि मैं केंद्र हूं तुम्हें गहरी शांति से भर देगा। सारा ब्रह्मांड परिधि बन जाता है और तुम उसके केंद्र होते हो। और हर चीज, हर ध्वनि तुम्हारी तरफ बह रही है। ‘मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो।’अगर तुम किसी जलप्रपात के किनारे खड़े हो तो वहीं आंख बंद करो और अपने चारों ओर से ध्वनि को अपने ऊपर बरसते हुए अनुभव करो। और भाव करो कि तुम उसके केंद्र हो।

5-अपने को केंद्र समझने पर जोर है क्योंकि केंद्र में कोई ध्वनि नहीं है; केंद्र ध्वनि-शून्य है। यही कारण है कि तुम्हें ध्वनि सुनाई पड़ती है; अन्यथा नहीं सुनाई पड़ती। ध्वनि ही ध्वनि को नहीं सुन सकती। अपने केंद्र पर ध्वनि-शून्य होने के कारण तुम्हें ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। केंद्र तो बिलकुल ही मौन है, शांत है। इसीलिए तुम ध्वनि को अपनी ओर आते, अपने भीतर प्रवेश करते, अपने को घेरते हुए सुनते हो।अगर तुम खोज लो कि यह केंद्र कहां है, तुम्हारे भीतर वह जगह कहां है जहां सब ध्वनियां बह कर आ रही हैं तो अचानक सब ध्वनियां विलीन हो जाएंगी और तुम निर्ध्वनि में, ध्वनि-शून्यता में प्रवेश कर जाओगे। अगर तुम उस केंद्र को महसूस कर सको जहां सब ध्वनियां सुनी जाती हैं तो अचानक चेतना मुड़ जाती है। एक क्षण तुम निर्ध्वनि से भरे संसार को सुनोगे और दूसरे ही क्षण तुम्हारी चेतना भीतर की ओर मुड़ जाएगी और तुम बस ध्वनि को, मौन को सुनोगे जो जीवन का केंद्र है। और एक बार तुमने उस ध्वनि को सुन लिया तो कोई भी ध्वनि तुम्हें विचलित नहीं कर सकती।

6- ध्वनि तुम्हारी ओर आती है; लेकिन वह कभी तुम तक पहुंच नहीं पाती। एक बिंदु है जहां कोई ध्वनि नहीं प्रवेश करती है; वह बिंदु तुम हो।अचानक हमारे विचार रुक जाते हैं! और हम ‘अतीत’ और ‘भविष्य’ दोनों के विचारों से मुक्त हो ‘वर्तमान’ समय में में आ खड़े होते हैं, हमारे मन में कोई विचार नहीं होते हैं, सिर्फ एक सन्नाटा होता है जो कि विचारों की अनुपस्थिति में आ खड़ा होता है। श्वास गहरी हो कर नाभि को छूती है। सिर में सांय – सांय की आवाज सुनाई पड़ती है|यही सांय – सांय की आवाज या सन्नाटा ….चौथे अनाहत चक्र का सन्नाटा है जिसे अनहद नाद कहा गया है। यही है वर्तमान और ‘वर्तमान’ में जब हमारे मन में विचार नहीं होते हैं, तब दिल की धड़कनें सुनाई पड़ती है और हम प्रेम से भर जाते हैं।

7-ध्यान में भी यही घटना घटती है। ध्यान में जब हम बैठते हैं तो हम अपनी श्वास को गहरी जाने देते हैं, श्वास नाभि को छूती है और श्वास के नाभि को छूते ही शरीर शिथिल होने लगता है और ज्यों ही शरीर शिथिल होता है विचार भी शिथिल होने लगते हैं और विचारों के शिथिल होते ही हम अतीत और भविष्य से मुक्त हो वर्तमान समय में आ जाते हैं और वर्तमान में आते ही सिर में विचारों की जगह एक सन्नाटा सुनाई पड़ता है, अनहद नाद सुनाई पड़ता है और यह सिर्फ और सिर्फ वर्तमान में ही सुनाई पड़ता है, इसे हम अतीत और भविष्य में कभी नहीं सुन सकते! सन्नाटा सुनाई पड़ने के साथ ही हमें अपनी श्वास की आवाज और दिल की धड़कनें साफ सुनाई पड़ने लगती है और हम आनंदित होने लगते हैं।यदि ध्यान में दिल की धड़कनें सुनाई नहीं पड़ती है तो समझो हमारा ध्यान में प्रवेश हुआ ही नहीं है। ध्यान में हम मष्तिष्क से ह्रदय पर आ जाते हैं और ह्रदय पर आते हैं तो हमें ह्रदय की धड़कने सुनाई पड़ेंगी ।

8-वास्तव में ,सब हदें मनुष्य की बनाई हैं। परमात्मा तो स्वयं अनहद है.. असीम है।उसके बोली को जो सुनने लगा, वह भी मानवीय हदों के पार निकल जाता है।संत कहते हैं-जात हमारी ब्रह्म है, माता-पिता है राम।गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम।।हमें एक ही बात याद रखना हैं कि परमात्मा के सिवा न हमारी कोई माता है, न हमारा कोई पिता है। और ब्रह्म के सिवाय हमारी कोई जात नहीं। ऐसा बोध अगर हो, तो जीवन में क्रांति हो जाती है।तब पहली बार तुम्हारे जीवन में धर्म के सूर्य का उदय होता है..गिरह हमारा सुन्न में।तब तुम्हें पता चलेगा कि शून्य में हमारा असली घर है, जिसको बुद्ध ने निर्वाण कहा है, संत उसी को दरिया शून्य कह रहे हैं। परम शून्य में, परम शांति में, जहां लहर भी नहीं उठती, ऐसे शांत सागर में या शांत झील में, जहां कोई विचार की तरंग नहीं, वासना की कोई उमंग नहीं, जहां शून्य संगीत बजता है, जहां अनाहत नाद गूंज रहा है वहीं हमारा घर है।अनहद में बिसराम..और जिसने उस शून्य को पा लिया, उसने ही विश्राम पाया। और उस विश्राम की कोई हद नहीं है.. कोई सीमा नहीं है।

अनहद नाद के प्रकार ;-

03 FACTS;-

1-परमात्मा के नाद रूप के साक्षात्कार के लिए किये गये ध्यान के सम्बन्ध में नाद बिंदूपनिषद् के 33 से 41 वें मन्त्रों में बड़ी सूक्ष्म अनुभूतियों का भी विवरण मिलता है। इन मन्त्रों में बताया गया है जब पहली बार अभ्यास किया जाता है तो ‘नाद’ कई तरह का और बड़े जोर जोर से सुनाई देता है।आरम्भ में इस नाद की ध्वनि नागरी, झरना, भेरी, मेघ और समुद्र की हरहराहट की तरह होती है, बाद में भ्रमर, वीणा, वंशी की तरह गुंजन पूर्ण और बड़ी मधुर होती है।चौंसठ अनाहत अब तक गिने गये हैं, पर उन्हें सुनना हर किसी के लिए सम्भव नहीं। जिसकी आत्मिक शक्ति जितनी ऊँची होगी, वे उतने ही सूक्ष्म शब्दों को सुनेंगे, पर उपरोक्त दस शब्द सामान्य आत्मबल वाले भी आसानी से सुन सकते हैं।

2- ध्यान को धीरे धीरे बढ़ाया जाता है और उससे मानसिक ताप का शमन होना भी बताया गया है।नादयोग के दस मंडल साधना ग्रन्थों में गिनाये गये है। कहीं-कहीं इन्हें लोक भी कहा गया है। एक ॐ कार ध्वनि और शेष नौ शब्द इन्हें मिलाकर दस शब्द बनते हैं। इन्हीं की श्रवण साधना शब्द ब्रह्म की नाद साधना कहलाती है।

3-नादयोग के ‘नौ’ मंडल ;-

1-घोष नाद :- यह आत्मशुद्धि करता है, शरीर भाव को धीरे धीरे नष्ट कर के व मन को वशीभूत करके अपनी और खींचता है।

2-कांस्य नाद :- यह नाद जड़ भाव नष्ट कर के चेतन भाव की तरफ साधक को लेजाता हैं।

3-श्रृंग नाद :- यह नाद जब सुनाई देता हैं तब साधक की वासनाएं और इच्छाए नष्ट होने लगती हैं।

4-घंट नाद :- इसका उच्चारण साक्षात शिव करते हैं, यह साधक को वैराग्य भाव की तरफ ले जाती हैं।

5- वीणा नाद :- यहाँ इस नाद को जब साधक सुनता हैं तब मन के पार की झलक का पता चलता हैं ।

6-वंशी नाद :- इसके ध्यान से सम्पूर्ण तत्व के ज्ञान का अनुभव होता हैं।

7-दुन्दुभी नाद :- इसके ध्यान से साधक जरा व मृत्यु के कष्ट से छूट जाता है।

8-शंख नाद :- इसके ध्यान व अभ्यास से स्वम् का निराकार भाव प्राप्त होता हैं।

9-मेघनाद :- जब ये सुनाई दे तब मन के पार की अवस्था का अनुभव होता हैं तथा शून्य भाव प्राप्त होता हैं।

NOTE;-

इन सबको छोड़कर जो अन्य शब्द सुनाई देता है वह तुंकार कहलाता है, तुंकार का ध्यान करने से साक्षात् शिवत्व की प्राप्ति होती है।

अनहद नाद(अनहद धुनी) का प्रभाव;-

03 FACTS;-

1-हमें बिना बजाये अंदर घंटे, शंख, नगाड़े बजते सुनाई देते है जिसे कोई बहरा भी सुन सकता है। जब हम शून्य के पथ पर आगे बढ़ते है तो पहले झींगुर की ध्वनि की तरह की आवाज़ सुनाई पड़ती है तथा जब चिड़िया की ध्वनि की तरह की आवाज़ सुनाई देती है तब पूरा शरीर टूटने लगता है जैसे मलेरिया बुखार हुआ हो।

2-जब घंटे की आवाज़ सुनाई पड़ती है तो मन खिन्न हो जाता है ।जब शंख की आवाज़ सुनाई पड़ती है तब पूरा सिर भन्ना उठता है ।गहराई से जब वीणा की आवाज़ सुनाई देती है तब मन मस्त हो जाता है तथा अमृत प्राप्त होना प्रारम्भ हो जाता है ।जब बांसुरी की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती है तब गुप्त रहस्य का ज्ञान हो जाता है तथा मन प्रभु के प्रेम में रम जाता है।

3-जब तबले की ध्वनि अंदर सुनाई देती है तब परावाणी की प्राप्ति हो जाती है ।जब भेरी की आवाज़ सुनाई पड़ती है तब भय समाप्त हो जाता है तथा दिव्य दृष्टि साधक को प्राप्त हो जाती है तथा मेघनाद सुनाई देने पर परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।

यह अनहद सूक्ष्म लोगों की दिव्य भावना है। सूक्ष्म जगत में किसी स्थान पर क्या हो रहा है, किसी प्रायोजन के लिए कहाँ क्या आयोजन हो रहा है, इस प्रकार के गुप्त रहस्य इन शब्दों द्वारा जाने जा सकते हैं, कौन साधक किस ध्वनि को अधिक स्पष्ट और किस ध्वनि को मन्द सुनेगा यह उसकी अपनी मनोभूमि की विशेषता पर निर्भर है।

अनहद नाद कैसे सुना जाये ?

04 FACTS;-

1-108 प्रधान उपनिषदों में से नाद-बिंदु एक उपनिषद है, जिसमें बहुत से श्लोक इस नाद पर आधारित हैं।नाद को जब आप करते हो तो यह इसकी पहली अवस्था है ।दूसरी अवस्था है जहाँ नाद करोगे नहीं .. सिर्फ़ अपने कानों को बंद किया और भीतर सूक्ष्म ध्वनि को सुनने की चेष्टा करना। यह सूक्ष्म ध्वनि आपके भीतर हो रही है। इसे अनाहत शब्द कहते हैं पर तुम्हारा मन इतना बहिर्मुख है, बाहरी स्थूल शब्दों को सुनने में तुम इतने व्यस्त हो कि तुम्हारे भीतर जो दैवी शब्द हो रहे हैं, तुम उनको सुन भी नहीं पा रहे। कहाँ से ये शब्द उत्पन्न हो रहे हैं, ये शब्द सुनाई भी पड़ रहे हैं या नहीं, तुम्हे कुछ नहीं पता। यह ध्वनि बहुत ही सूक्ष्म है।

2-अनाहत शब्द योगाभ्यास द्वारा सुनने और जानने में आते हैं। श्वांस-प्रश्वांस के समय ”सो” एवं ”हम्” की ध्वनियाँ होती रहती हैं। यह स्पष्ट रूप से कानों के द्वारा तो नहीं सुनी जाती पर, ध्यान एकाग्र करने पर उस ध्वनि का आभास होता है। अभ्यास करने से वह कल्पना प्रत्यक्ष अनुभव के रूप में समझ पड़ती है। इसके बाद कानों के छेद बन्द करके ध्यान की एकाग्रता के रहते, घण्टा, घड़ियाल, शंख, वंशी, झींगुर, बादल गरजन जैसे कई प्रकार के शब्द सुनाई देने लगते हैं।आरम्भ में यह बहुत धीमे और कल्पना स्तर के ही होते हैं किन्तु पीछेअधिक एकाग्रता के होने से वे शब्द अधिक स्पष्ट सुनाई पड़ते हैं। इसे एकाग्रता की चरम परिणति भी कह सकते हैं और अंतरिक्ष में अनेकानेक घटनाओं की सूचना देने वाले सूक्ष्म संकेत भी।

3-आकाश में अदृश्य घटनाक्रमों के कम्पन चलते रहते हैं। जो हो चुका है या होने वाला है, उसका घटनाक्रम ध्वनि तरंगों के रूप में आकाश में गूँजता रहता है। नाद योग की एकाग्रता का सही अभ्यास होने पर आकाश में गूँजने वाली विभिन्न ध्वनियों के आधार पर भूतकाल में जो घटित हो चुका है या भविष्य में जो घटित होने वाला है उसका आभास भी प्राप्त किया जा सका है।यह एक असामान्य सिद्धि है।यदि हम अंदर की ध्वनि को सुनने में चित्त को लगायेंगे तो हमारा ध्यान लगेगा क्योंकि चित्त ध्वनि की ओर आकर्षित होता है।अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधी रखकर बैठ जाए।अंगुठे या तर्जनी अंगुली से कान बंद कर दे या कानों में रूई डाल दे तथा मन को बाहरी ध्वनि से हटाकर अन्दर की ध्वनि सुनने की कोशिश करे।

4-इसे दाहिने कान के अंदर सुनना है अर्थात चित्त को वहॉ लगाना है शुरू में आपको श्वास की आवाज़ सुनाई पड़ेगी आगे ओर गहराई में जाओंगे तो आपको अलग-अलग आवाज़े सुनाई पड़ेगी ।गहराई में जाते जाना है अन्त में मेघनाद सुनाई पड़ेगा तथा परमात्मा का दर्शन होगा।नाद सुनने की प्रेक्टिस करने पर मन थकता नहीं है तथा आनन्द आता है। पंच तत्वो का अभ्यास ही नाद से सिद्ध हो जाता है। जब नाद सुनाई देने लगता है तब बिना कानों में अंगुली ड़ाले सहज ही उसे सुन सकते है। मन को हमेशा नाद सुनने में लगाये रखना ही सच्ची भक्ति है तथा मुक्ति का साधन है।

अनाहत शब्द का अभ्यास (शिव पुराण);-

03 FACTS;-

1-भगवन शिव ने पार्वतीजी से कहा :- “एकांत स्थान पर सुखासन में बैठ जाएँ। मन में ईश्वर का स्मरण करते रहें। अब तेजी से तीन बार सांस अन्दर खींचकर फिर तेजी से पूरी सांस बाहर छोड़कर रोक लें। श्वास इतनी जोर से बाहर छोड़ें कि इसकी आवाज पास बैठे व्यक्ति को भी सुनाई दे। इस प्रकार सांस बाहर छोड़ने से वह बहुत देर तक बाहर रुकी रहती है। उस समय श्वास रुकने से मन भी रुक जाता है और आँखों की पुतलियाँ भी रुक जाती हैं। साथ ही आज्ञा चक्र पर दबाव पड़ता है और वह खुल जाता है। श्वास व मन के रुकने से अपने आप ही ध्यान होने लगता है और आत्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है। यह विधि शीघ्र ही आज्ञा चक्र को जाग्रत कर देती है।

2-शिवजी ने पार्वतीजी से कहा :-रात्रि में एकांत में बैठ जाएँ… आँख बंद करें। हाथों की अँगुलियों से आँखों की पुतलियों को दबाएँ।इस प्रकार दबाने से तारे-सितारे दिखाई देंगे।कुछ देर दबाये रखें फिर धीरे-धीरे अँगुलियों का दबाव कम करते हुए छोड़ दें तो आपको सूर्य के सामान तेजस्वी गोला दिखाई देगा… इसे तैजस ब्रह्म कहते हैं। इसे देखते रहने का अभ्यास करें। कुछ समय के अभ्यास के बाद आप इसे खुली आँखों से भी आकाश में देख सकते हैं। इसके अभ्यास से समस्त विकार नष्ट होते हैं, मन शांत होता है और परमात्मा का बोध होता है।

3- शिवजी ने पार्वतीजी से कहा :-रात्रि में ध्वनिरहित, अंधकारयुक्त, एकांत स्थान पर बैठें।तर्जनी अंगुली से दोनों कानों को बंद करें… आँखें बंद रखें।कुछ ही समय के अभ्यास से अग्नि प्रेरित शब्द सुनाई देगा. ..इसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं।यह शब्द या ध्वनि नौ प्रकार की होती है। इसको सुनने का अभ्यास करना शब्द-ब्रह्म का ध्यान करना है।इससे संध्या के बाद खाया हुआ अन्न क्षण भर में ही पच जाता है और संपूर्ण रोगों तथा ज्वर आदि बहुत से उपद्रवों का शीघ्र ही नाश करता है।यह शब्द ब्रह्म न ॐकार है, न मंत्र है, न बीज है, न अक्षर है… यह अनाहत नाद है (अनाहत अर्थात बिना आघात के या बिना बजाये उत्पन्न होने वाला शब्द). इसका उच्चारण किये बिना ही चिंतन होता है।

N0TE;-

नाद-योग गहरी साधना है। नाद-योग की साधना वही कर पाएँगे जो लोग पहले भ्रामरी, ऊँकार के गुंजन से भी पहले ऊँ के उच्चारण का अभ्यास करें। फिर ऊँ का गुंजन हो। इसके साथ ही साथ योगनिद्रा चल रही हो तो धीरे-धीरे तीन से चार महीने में अथवा छह महीने में अगर आप इसे ईमानदारी से करते रहेंगे, तो छह महीने में आप नाद-योग की साधना सिद्ध कर सकेंगे। इसकी सिद्ध होते ही ईश्वरीय सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त होने लगती हैं।

अनहद नाद शुरुवात में सुनने का उपाय ;-

05 FACTS;-

1-नाद क्रिया के दो भाग है-बाह्य और अन्तर। बाह्य नाद में बाहर की दिव्य आवाजें सुनी जाती हैं और बाह्य जगत की हलचलों की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं और ब्रह्माण्डीय शक्ति धाराओं को आकर्षित करके, अपने में धारण किया जाता है। अन्तः नाद में भीतर से शब्द उत्पन्न करके-भीतर ही भीतर परिपक्व करते और परिपुष्टि होने पर उसे किसी लक्ष्य विशेष पर किसी व्यक्ति के अथवा क्षेत्र के लिए फेंका जाता है और उससे अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति की जाती है। इसे धनुषबाण चलाने के समतुल्य समझा जा सकता है।अन्तःनाद के लिए भी बैठता तो ब्रह्मनाद की तरह ही होता है, पर अन्तर ग्रहण एवं प्रेषण का होता है। सुखासन में मेरुदंड को सीधा रखते हुए षडमुखी मुद्रा में बैठने का विधान है। षडमुखी मुद्रा का अर्थ है-दोनों अँगूठों से दोनों कान के छेद बन्द करना। दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा अंगुलियों से दोनों नथुनों पर दबाव डालना। नथुना पर इतना दबाव नहीं डाला जाता कि साँस का आवागमन ही रुक जाय।

2-”होठ बन्द, जीभ बन्द ..मात्र भीतर ही पराशन्ति वाणियों से ॐ कार का गुँजार प्रयास” यही है अन्तःनाद उत्थान। इसमें कंठ से मन्द ध्वनि होती रहती है। अपने आपको उसका अनुभव होता है और अन्तः चेतना उसे सुनती है। ध्यान रहे यह ॐ कार का जप या उच्चारण नहीं गुँजार है। गुँजार का तात्पर्य है शंख जैसी ध्वनि, धारा एवं घड़ियाल जैसी थरथराहट का सम्मिश्रण। इसका स्वरूप लिखकर ठीक तरह नहीं समझा समझाया जा सकता। इसे अनुभवी साधकों से सुना और अनुकरण करके सीखा जा सकता है।साधना आरम्भ करने के दिनों में, दस-दस सेकेण्ड के तीन गुँजार बीच-बीच में पाँच-पाँच सेकेण्ड रुकते हुए करने चाहिए। इस प्रकार 40 सेकेण्ड का एक शब्द उत्थान हो जाएगा ।इतना करके उच्चार बन्द और उसकी प्रतिध्वनि सुनने का प्रयत्न करना चाहिए।

3-जिस प्रकार गुम्बजों में, पक्के कुओं में, विशाल भवनों में, पहाड़ों की घाटियों में जोर से शब्द करने पर उसकी प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अपने अंतःक्षेत्र में ॐ कार गुँजार के छोड़े हुए शब्द प्रवाह की प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई अनुभव करनी चाहिए और पूरी ध्यान एकाग्र करके इस सूक्ष्म प्रतिध्वनि का आभास होता है।आरम्भ में बहुत प्रयत्न से, बहुत थोड़ी-सी ,अतीव मन्द,रुक- रुककर सुनाई पड़ती है, किन्तु धीरे धीरे उसका उभार बढ़ता चलता है और ॐ कार की प्रतिध्वनि अपने ही अन्तराल में अधिक स्पष्ट एवं अधिक समय तक सुनाई पड़ने लगती है। स्पष्टता एवं देरी को इस साधना की सफलता का चिह्न माना जा सकता है।

4-ओंकार की उठती हुई प्रतिध्वनि अंतःक्षेत्र के प्रत्येक विभाग को-क्षेत्र को – प्रखर बनाती है। उन संस्थानों की प्रसुप्त शक्ति जगाती है। उससे आत्मबल बढ़ता है। और छिपी हुई दिव्य शक्तियाँ प्रकट एवं परिपुष्ट होती है।समयानुसार इसका उपयोग शब्दबेधी बाण की तरह-प्रक्षेपास्त्र की तरह हो सकता है।भौतिक एवं आत्मिक हित-साधन के लिए इस शक्ति को समीपवर्ती अथवा दूरवर्ती व्यक्तियों तक भेजा जा सकता है और उनको कष्टों से उबारने तथा प्रगति पथ पर अग्रसर करने के लिए किया जा सकता है। वरदान देने की क्षमता-परिस्थितियों में परिवर्तन कर सकने जितनी समर्थता जिस शब्द ब्रह्म के माध्यम से सम्भव होती है उसे ॐ कार गुँजार के आधार पर भी उत्पन्न एवं परिपुष्ट किया जाता है।

5-पुरानी परिपाटी में षडमुखी मुद्रा का उल्लेख है। मध्यकाल में उसकी आवश्यकता नहीं समझी गई और कान को कपड़े में बँधे मोम की पोटली से कर्ण छिद्रों का बन्द कर लेना पर्याप्त समझा गया । इससे दोनों हाथों को गोदी में रखने और नेत्र अर्धोन्मीलित रखने की ध्यान मुद्रा ठीक तरह सधती और सुविधा रहती थी। अब अनेक आधुनिक अनुभवी शवासन शिथिलीकरण मुद्रा में अधिक अच्छी तरह ध्यान लगने का लाभ देखते हैं।आराम कुर्सी का सहारा लेकर शरीर को ढीला छोड़ते हुए नादानुसन्धान मेंअधिक सुविधा अनुभव करते हैं। कान बन्द करने के लिए ठीक नाप के शीशियों वाले कार्क या Ear plug का प्रयोग कर लिया जाता है। इनमें से जिसे जो प्रयोग अनुकूल पड़े वह उसे अपना सकता है।अनहद शब्द अथवा कलमा हमारे भीतर गूंज रहा है और उसे सुनने के लिए हमें कोई ऐसी विधि सीखनी होगी जिससे हम अपने मन को शांत कर सकें और फिर अपने भीतर विद्यमान दिव्य शक्ति से संपर्क कर सकें।

नाद साधना विधि :-

04 FACTS;- ;-

1-नाद का अभ्यास के लिए ऐसा स्थान प्राप्त कीजिए जो एकान्त हो और जहाँ बाहर की अधिक आवाज न आती हो। तीक्ष्ण प्रकाश इस अभ्यास में बाधक है। इसलिए कोई अँधेरी कोठरी ढूँढ़नी चाहिए। एक प्रहर रात हो जाने के बाद से लेकर सूर्योदय से पूर्व तक का समय इसके लिए बहुत ही अच्छा है। यदि इस समय की व्यवस्था न हो सके तो प्रातः 9 बजे से और शाम को दिन छिपे बाद का कोई समय नियत किया जा सकता है। नियमित समय पर अभ्यास करना चाहिए अपने नियत कमरे में एक आसन या आराम कुर्सी बिछाकर बैठो, आसन पर बैठो तो पीठ पीछे कोई मसनद या कपड़े की गठरी आदि रख लो, यह भी न हो तो अपना आसन एक कोने में लगाओ। जिस प्रकार शरीर को आराम मिले, उस तरह बैठ जाओ और अपने शरीर को ढीला छोड़ने का प्रयत्न करो।भावना करो कि मेरा शरीर रुई का ढेर मात्र है और मैं इस समय इसे पूरी तरह स्वतन्त्र छोड़ रहा हूँ। थोड़ी देर में शरीर बिलकुल ढीला हो जायेगा और अपना भार अपने आप न सहकर इधर-उधर को ढुलने लगेगा। आराम कुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा ले लेने से शरीर ठीक प्रकार अपने स्थान पर बना रहेगा।

2- साफ रुई की मुलायम सी दो डाटें बनाकर या Ear plug कानों में लगाओ कि बाहर की कोई आवाज भीतर प्रवेश न कर सके। उँगलियों से कान के छेद बन्द करके भी काम चल सकता है। अब बाहर की कोई आवाज तुम्हें सुनाई न पड़ेगी, यदि पड़े भी तो उस ओर से ध्यान हटाकर अपने मूर्धा-स्थान / तालू पर ले जाओ और वहाँ जो शब्द हो रहे हैं, उन्हें ध्यानपूर्वक सुनने का प्रयत्न करो।आरम्भ में शायद कुछ भी सुनाई न पड़े, पर दो-चार दिन प्रयत्न करने के बाद जैसे-जैसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय निर्मल होती जायेगी, वैसे ही वैसे शब्दों की स्पष्टता बढ़ती जायेगी। पहले कई शब्द सुनाई देते हैं शरीर में जो रक्त प्रवाह हो रहा है, उसकी आवाज रेल की तरह धक्-धक्, धक्-धक् सुनाई पड़ती है। वायु के आने जाने की आवाज बादल गरजने जैसी होती है, रसों के पकने और उनके आगे की ओर गति करने की आवाज चटकने की सी होती है।

3-यह तीन प्रकार के शब्द शरीर की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार दो प्रकार के शब्द मानसिक क्रियाओं के हैं। मन में चञ्चलता की लहरें उठती हैं वे मानस-तन्तुओं पर टकराकर ऐसे शब्द करती हैं, मानों टीन के ऊपर मेह बरस रहा हो और जब मस्तिष्क वाह्य ज्ञान को ग्रहण करके अपने में धारण करता है, तो ऐसा मालूम होता है मानो कोई प्राणी साँस ले रहा हो। यह पाँचों शब्द शरीर और मन के हैं। कुछ ही दिन के अभ्यास से साधारणतः दो तीन सप्ताह के प्रयत्न से यह शब्द स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ते हैं। इन शब्दों के सुनने से सूक्ष्म इन्द्रियाँ निर्मल होती जाती हैं और गुप्त शक्तियों को ग्रहण करने की उनकी योग्यता बढ़ती जाती है।जब नाद श्रवण करने की योग्यता बढ़ जाती है, तो बंशी या सीटी से मिलती-जुलती अनेक प्रकार की शब्दावलियाँ सुनाई पड़ती हैं यह सूक्ष्म लोक में होने वाली क्रियाओं का परिचायक है।

4-बहुत दिनों से बिछुड़े हुए बच्चे को यदि उसकी माता की गोद में पहुँचाया जाता है, तो वह आनन्द से विभोर हो जाता है ऐसा ही आनन्द सुनने वाले को आता है। जिन सूक्ष्म शब्द ध्वनियों को आज वह सुन रहा है, वास्तव में यह उसी तत्व के निकट से आ रही है, जहाँ से कि आत्मा और परमात्मा का विलगाव हुआ है और जहाँ पहुँच कर दोनों फिर एक हो सकते हैं । धीरे-धीरे यह शब्द स्पष्ट होने लगते हैं और अभ्यासी को उनके सुनने में अद्भुत आनन्द आने लगता है। कभी-कभी तो वह उन शब्दों में मस्त होकर आनन्द से विह्वल हो जाता है और अपने तन-मन की सुध भूल जाता है। अन्तिम शब्द ॐ है, यह बहुत ही सूक्ष्म है। इसकी ध्वनि घण्टा ध्वनि के समान रहती है। घड़ियाल में हथौड़ी मार देने पर जैसे वह कुछ देर तक झनझनाती रहती है, उसी प्रकार ॐ का घण्टा शब्द सुनाई पड़ता है।ॐ कार ध्वनि जब सुनाई पड़ने लगती है, तो निद्रा तन्द्रा या बेहोशी जैसी दशा उत्पन्न होने लगती है। साधक तन-मन की सुध भूल जाता है और समाधि सुख का, तृतीय अवस्था का आनन्द लेने लगता है। उसी स्थिति के ऊपर बढ़ने वाली आत्मा, परमात्मा में प्रवेश करती जाती है और अन्ततः पूर्णतया परमात्मा अवस्था प्राप्त कर लेती है।

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