रमा एकादशी की व्रत कथा—

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कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी को रमा एकादशी के नाम से जाना जाता है। यह अत्यंत शुभ है, क्योंकि यह मोक्ष एवं शुभ फल प्रदान करने वाली है। श्रीकृष्ण जी ने इस कथा का वर्णन युधिष्ठिर जी के समक्ष किया था, आज हम वही कथा आप लोगों के लिए लेकर आए हैं-

पौराणिक समय में मुचुकुंद नामक एक महान राजा राज किया करते थे। बड़े-बड़े देवता जैसे इंद्र, वरुण, चंद्रदेव, यमराज, इत्यादि उनके मित्र थे।

राजा मुचुकुंद अत्यंत धर्म परायण, सत्यनिष्ठ, और भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। धर्म का पालन करने वाले इस राजा के राज्य में चारों ओर सुख और समृद्धि का वास था। उनकी एक चंद्रभागा नामक पुत्री थी, जो कि एक पवित्र नदी थी, राजा मुचुकुंद ने उसका विवाह राजा चंद्रसेन के पुत्र शोभना के साथ कर दिया।

कुछ समय बाद शोभना अपने ससुराल आया, उस समय चंद्रभागा भी अपने मायके में ही थी। शोभना को लगा था कि उसके इस प्रकार आने से उसकी पत्नी चंद्रभागा प्रसन्न हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरीत वह अपने पति को देखकर अत्यंत चिंतित हो गई।

अब शोभना को भी आश्चर्य हुआ कि चंद्रभागा उसे देखकर इस प्रकार चिंतित क्यों हो गई। चंद्रभागा की चिंता का कराण यह था कि अगले दिन ही एकादशी थी और नियम के अनुसार, राजा मुचुकुंद के राज्य में सभी प्रजागणों के लिए इस व्रत का पालन करना अनिवार्य था। यहां तक कि उनके राज्य में हाथी, घोड़े समेत सभी पशुओं को भी भोजन नहीं दिया जाता था।
चंद्रभागा जानती थी कि उसके पिताजी इस नियम के प्रति अत्यंत कठोर हैं, और साथ ही उसकी विडंबना यह भी थी कि उसका पति शोभना शारीरिक रूप से काफी कमज़ोर था, और भोजन के बिना नहीं रह सकता था। शोभना के लिए एकादशी व्रत का पालन करना असंभव था। चंद्रभागा ने अपने पति को अपनी व्यथा का कारण बताते हुए कहा कि, “हे स्वामी मेरे पिता एकादशी व्रत के पालन को लेकर बहुत कठोर हैं, दशमी के दिन ही पूरे राज्य में ढोल-नगाड़े बजाकर इस बात की घोषणा कर दी जाएगी कि सभी के लिए इस व्रत को करना अनिवार्य है। मुझे पता है कि आप भोजन के बिना नहीं रह सकते, इसलिए आप किसी और जगह चले जाएं।”

अपनी पत्नी की बात सुनकर शोभना ने बोला कि, “अब मैं भी इस व्रत का पालन ज़रूर करूंगा, चाहे इसका परिणाम कुछ भी हो, ईश्वर की इच्छा से जो कुछ भी होगा, अच्छा होगा।” और इस प्रकार शोभना ने अपने मन में एकादशी व्रत को करने का प्रण ले लिया और एकादशी के दिन व्रत का विधिपूर्वक पालन किया। दिन ढलने तक अत्यंत दुर्बल होने के कारण शोभना का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और रात्रि समाप्त होने तक शोभना ने अपने प्राण त्याग दिए।

जब राजा मुचुकुंद को इस बात का पता चला तो उन्होंने शोभना का अंतिम संस्कार कर दिया, इस प्रकार अपने पति के देहांत के पश्चात् चंद्रभागा अपने पिता के महल में ही रहने लगी।
चूंकि शोभना की मृत्यु एकादशी व्रत का पालन करते हुए हुई थी, इसलिए उससे प्राप्त पुण्यफल स्वरूप वह अगले जन्म में मंदराचल पर्वत की चोटी के राज्य का शासक बना। यह कोई सामान्य नगर नहीं था, वह देवनगरी के समान था। उसकी दीवारों पर रत्न जड़े हुए थे, राजा शोभना रत्न जड़ित सिंहासन पर विराजमान होकर इंद्रदेव के ही समान प्रतीत होते थे।

कथा यहीं समाप्त नहीं हुई, राजा शोभना को राजपाट तो मिला, लेकिन वह स्थाई नहीं था, चलिए जानते हैं कि किस प्रकार राजा का राजपाट स्थाई हुआ-

एक बार राजा शोभना के राज्य में एक बार सोमशर्मा नामक ब्राह्मण आया और राजा को देखकर वह अत्यंत चकित हो गया। उसके चकित होने का कारण यह था कि वह राजा मुचुकुंद के राज्य से आ रहा था और वह शोभना को पहचान गया था। राजा शोभना ने भी उसका आदर-सत्कार किया, इसके पश्चात् ब्राह्मण ने जब शोभना को उसके पूर्व जन्म के बारे में बताया तो उन्होंने अपनी पत्नी चंद्रभागा के बारे में पूछा।

सोमशर्मा ने उत्तर देते हुए कहा, हे राजन, वहां सब कुशल मंगल है। लेकिन आपको इस राज्य की प्राप्ति किस प्रकार हुई। इसके बाद राजा शोभना ने बताया कि, मुझे इसकी प्राप्ति एकादशी व्रत के फलस्वरूप हुई है। लेकिन मैंने यह व्रत बिना किसी श्रद्धा के किया था, इसलिए मेरा यह राज्य अस्थायी है। यदि आप मुचुकुंद और चंद्रभागा से सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है। ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा और राजा मुचुकुंद को सारा वृतांत बताया।
ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्न हुई और बोली, कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं।

ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री ! मैं स्वयं तुम्हारे पति से मिलकर आ रहा हूँ। उनका नगर देवताओं के नगर से भी अधिक सुंदर है।

चंद्रभागा ने अपने पिता से आशीर्वाद लिया और ब्राह्मण से साथ अपने पति के नगर को स्थाई करने का उपाय खोजने उस सुंदर नगर की ओर निकल पड़ी। पर्वत की तलहटी में वामदेव ऋषि का आश्रम था। उन्होंने ऋषि को प्रणाम किया और अपनी व्यथा कह सुनाई। उसकी व्यथा सुनकर ऋषि वामदेव ने वेदों से कुछ मंत्रों का उच्चारण किया और उसका अर्घ्यजल चंद्रभागा पर छिड़क दिया।

उस महान ऋषि के अनुष्ठानों के प्रभाव से चंद्रभागा को अनेक एकादशियों का पुण्यफल प्राप्त हुआ और उसका शरीर दिव्य बन गया। चंद्रभागा अपने पति के नगर में पहुंची और राजा शोभना उसे देखकर हर्षित हो गए। अपने पति से मिलकर चंद्रभागा ने अपने एकादशी का अर्जित किया हुआ पुण्यफल अपने पति को दे दिया। साथ ही उसने कहा कि हे स्वामी मैं 8 वर्ष की आयु से इस व्रत का श्रद्धापूर्वक पालन कर रही हूं, और इसका पुण्यफल मैं आपको प्रदान करती हूं, जिससे आपका यह राजपाट स्थाई हो जाए। इससे राजा शोभना अत्यंत प्रसन्न हुए और दीर्घकाल तक उन्होंने सुखपूर्वक शासन किया।

जो व्यक्ति इस कथा का श्रवण करता है वह पापों से मुक्त हो जाता है और पुण्य का भागी बनता है।



Ekadashi falling in the Krishna Paksha of Kartik month is known as Rama Ekadashi. It is very auspicious, because it gives salvation and auspicious results. Shri Krishna ji had narrated this story in front of Yudhishthira ji, today we have brought the same story for you guys-

In mythological times, a great king named Muchukunda used to rule. Big gods like Indra, Varuna, Chandradev, Yamraj, etc. were his friends.

King Muchukunda was extremely pious, truthful, and an ardent devotee of Lord Vishnu. There was happiness and prosperity all around in the kingdom of this king who followed Dharma. They had a daughter named Chandrabhaga, a holy river, King Muchukunda married her to Shobhana, the son of King Chandrasen.

After some time Shobhana came to her in-laws’ house, at that time Chandrabhaga was also in her maternal house. Shobhana thought that his wife Chandrabhaga would be pleased by his coming in this way, but it did not happen. On the contrary she became very worried seeing her husband.

Now Shobhana also wondered why Chandrabhaga got so worried seeing her. The reason for Chandrabhaga’s concern was that the next day was Ekadashi and according to the rules, it was mandatory for all the subjects in the kingdom of King Muchukunda to observe this fast. Even all the animals including elephants, horses were not given food in their kingdom. Chandrabhaga knew that her father was extremely strict to this rule, and ironically her husband Shobhana was too weak physically, and could not live without food. It was impossible for Shobhana to observe the Ekadashi fast. Chandrabhaga explains to her husband the reason for her agony and said, “O Swami, my father is very strict about observing the Ekadashi fast, on the day of Dashami, it will be announced by playing drums and drums in the whole state that everyone will be It is mandatory to observe this fast. I know you can’t live without food, so you go somewhere else.”

After listening to his wife, Shobhana said, “Now I will also observe this fast, no matter what may be the result, whatever happens by the will of God, will be good.” And thus Shobhana took a vow in her mind to observe the Ekadashi fast and strictly observe the fast on the day of Ekadashi. Being extremely weak by the end of the day, Shobhana’s health started deteriorating and by the end of the night, Shobhana gave up her life.

When King Muchukund came to know about this, he performed Shobhana’s last rites, thus after the death of her husband, Chandrabhaga started living in her father’s palace. Since Shobhana died while observing the Ekadashi fast, she became the ruler of the state on the top of Mandarachal mountain in her next birth as a result of her merit. It was not an ordinary city, it was like a Devanagari. Its walls were studded with gems, King Shobhana looked like Indradev sitting on a throne studded with gems.

The story did not end here, King Shobhana got the throne, but it was not permanent, let us know how the king’s palace became permanent-

Once a Brahmin named Somasharma came to the kingdom of King Shobhana and he was very surprised to see the king. The reason for his astonishment was that he was coming from the kingdom of King Muchukunda and he had recognized Shobhana. King Shobhana also respected her, after this, when the Brahmin told Shobhana about her previous birth, he asked about his wife Chandrabhaga.

Somashharma replied and said, O Rajan, all is well there. But how did you get this kingdom? After this, King Shobhana told that, I have got it as a result of Ekadashi fasting. But I did this fast without any faith, so this state of mine is temporary. If you tell all the accounts from Muchukunda and Chandrabhaga, it may be stable. Hearing this, the superior Brahmin returned to his city and told the whole story to Chandrabhaga and King Muchukunda. Chandrabhaga was very pleased to hear the words of the Brahmin and said, O Brahmin! You have seen all these things directly or are talking about dreams.

The brahmin started saying that O daughter! I myself am coming to meet your husband. His city is more beautiful than the city of the gods.

Chandrabhaga took blessings from her father and along with the Brahmin set out towards that beautiful city to find a way to make her husband’s city permanent. At the foot of the mountain was the hermitage of Sage Vamdev. He bowed to the sage and narrated his agony. Hearing his agony, sage Vamdev recited some mantras from the Vedas and sprinkled his Arghyajal on Chandrabhaga.

Under the influence of the rituals of that great sage, Chandrabhaga got the merit of many Ekadashis and her body became divine. Chandrabhaga reached her husband’s town and King Shobhana was delighted to see her. Chandrabhaga, meeting her husband, gave the merit earned by her Ekadashi to her husband. At the same time, she said that O lord, I have been following this fast since the age of 8 with devotion, and I bestow its merits on you, so that this royal palace of yours becomes permanent. King Shobhana was very pleased with this and he ruled happily for a long time.

The person who listens to this story becomes free from sins and becomes a partaker of virtue.

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