कार्तिक माह माहात्म्य अध्याय – 26

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सुख भोगे जो कथा सुने विश्वास

छबीसवां अध्याय लिखे यह दास

*नारद जी बोले :–*

इस प्रकार विष्णु पार्षदों के वचन सुनकर धर्मदत्त ने कहा – प्राय: सभी मनुष्य भक्तों का कष्ट दूर करने वाले श्रीविष्णु की यज्ञ, दान, व्रत, तीर्थसेवन तथा तपस्याओं के द्वारा विधिपूर्वक आराधना करते हैं। उन समस्त साधनों में कौन-सा ऎसा साधन है जो भगवान विष्णु की प्रसन्नता को बढ़ाने वाला तथा उनके सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।
दोनों पार्षद अपने पूर्वजन्म की कथा कहने लगे – हे द्विजश्रेष्ठ आपका प्रश्न बड़ा श्रेष्ठ है। आज हम आपको भगवान विष्णु को शीघ्र प्रसन्न करने का उपाय बताते हैं। हम इतिहास सहित प्राचीन वृत्तान्त सुनाते हैं, सावधानीपूर्वक सुनो। (श्रीजी की चरण सेवा” की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें) ब्रह्मन! पहले कांचीपुरी में चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं। उन्हीं के नाम पर उनके अधीन रहने वाले सभी देश चोल नाम से विख्यात हुए। राजा चोल जब इस भूमण्डल का शासन करते थे, उस समय उनके राज्य में कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुखी, पाप में मन लगाने वाला अथवा रोगी नहीं था।
एक समय की बात है, राजा चोल अनन्तशयन नामक तीर्थ में गये जहाँ जगदीश्वर भगवान विष्णु ने योगनिद्रा का आश्रय लेकर शयन किया था। वहाँ भगवान विष्णु के दिव्य विग्रह की राजा ने विधिपूर्वक पूजा की। दिव्य मणि, मुक्ताफल तथा सुवर्ण के बने हुए सुन्दर पुष्पों से पूजन कर के साष्टांग प्रणाम किया। प्रणाम कर के ज्यों ही बैठे उसी समय उनकी दृष्टि भगवान के पास आते हुए एक ब्राह्मण पर पड़ी जो उन्हीं की कांची नगरी के निवासी थे। उनका नाम विष्णुदास था। उन्होंने भगवान की पूजा के लिए अपने हाथ में तुलसीदल और जल ले रखा था। निकट आने पर उन ब्राह्मण ने विष्णुसूक्त का पाठ करते हुए देवाधिदेव भगवान को स्नान कराया और तुलसी की मंजरी तथा पत्तों से उनकी विधिवत पूजा की। राजा चोल ने जो पहले रत्नों से भगवान की पूजा की थी, वह सब तुलसी पूजा से ढक गई।
यह देखकर राजा कुपित होकर बोले – विष्णुदास! मैंने मणियों तथा सुवर्ण से भगवान की जो पूजा की थी वह कितनी शोभा पा रही थी, तुमने तुलसीदल चढ़ाकर उसे ढक दिया। बताओ, ऎसा क्यों किया? मुझे तो ऎसा जान पड़ता है कि तुम दरिद्र और गंवार हो। भगवान विष्णु की भक्ति को बिलकुल नहीं जानते।
राजा की यह बात सुनकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास ने कहा – राजन! आपको भक्ति का कुछ भी पता नहीं है, केवल राजलक्ष्मी के कारण आप घमण्ड कर रहे हैं। बतलाइए तो आज से पहले आपने कितने वैष्णव व्रतों का पालन किया है?
तब नृपश्रेष्ठ चोल ने हंसते हुए कहा – तुम तो दरिद्र और निर्धन हो तुम्हारी भगवान विष्णु में भक्ति ही कितनी है? तुमने भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाला कोई भी यज्ञ और दान आदि नहीं किया और न पहले कभी कोई देवमन्दिर ही बनवाया है। इतने पर भी तुम्हें अपनी भक्ति का इतना गर्व है। अच्छा तो ये सभी ब्राह्मण मेरी बात सुन लें। भगवान विष्णु के दर्शन पहले मैं करता हूँ या यह ब्राह्मण? इस बात को आप सब लोग देखें फिर हम दोनों में से किसकी भक्ति कैसी है, यह सब लोग स्वत: ही जान लेगें। ऎसा कहकर राजा अपने राजभवन को चले गये।
वहाँ उन्होंने महर्षि मुद्गल को आचार्य बनाकर वैष्णव यज्ञ प्रारम्भ किया। उधर सदैव भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाले शास्त्रोक्त नियमों में तत्पर विष्णुदास भी व्रत का पालन करते हुए वहीं भगवान विष्णु के मन्दिर में टिक गये। उन्होंने माघ और कार्तिक के उत्तम व्रत का अनुष्ठान, तुलसीवन की रक्षा, एकादशी को द्वादशाक्षर मन्त्र का जाप, नृत्य, गीत आदि मंगलमय आयोजनों के साथ प्रतिदिन षोडशोपचार से भगवान विष्णु की पूजा आदि नियमों का आचरण किया। वे प्रतिदिन चलते, फिरते और सोते – हर समय भगवान विष्णु का स्मरण किया करते थे। उनकी दृष्टि सर्वत्र सम हो गई थी। वे सब प्राणियों के भीतर एकमात्र भगवान विष्णु को ही स्थित देखते थे। इस प्रकार राजा चोल और विष्णुदास दोनों ही भगवान लक्ष्मीपति की आराधना में संलग्न थे। दोनों ही अपने-अपने व्रत में स्थित रहते थे और दोनों की ही सम्पूर्ण इन्द्रियाँ तथा समस्त कर्म भगवान विष्णु को समर्पित हो चुके थे। इस अवस्था में उन दोनों ने दीर्घकाल व्यतीत किया।

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

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Those who listen to the story believe in happiness

This slave wrote the twenty-sixth chapter

* Narad ji said :-*

इस प्रकार विष्णु पार्षदों के वचन सुनकर धर्मदत्त ने कहा – प्राय: सभी मनुष्य भक्तों का कष्ट दूर करने वाले श्रीविष्णु की यज्ञ, दान, व्रत, तीर्थसेवन तथा तपस्याओं के द्वारा विधिपूर्वक आराधना करते हैं। उन समस्त साधनों में कौन-सा ऎसा साधन है जो भगवान विष्णु की प्रसन्नता को बढ़ाने वाला तथा उनके सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है। दोनों पार्षद अपने पूर्वजन्म की कथा कहने लगे – हे द्विजश्रेष्ठ आपका प्रश्न बड़ा श्रेष्ठ है। आज हम आपको भगवान विष्णु को शीघ्र प्रसन्न करने का उपाय बताते हैं। हम इतिहास सहित प्राचीन वृत्तान्त सुनाते हैं, सावधानीपूर्वक सुनो। (श्रीजी की चरण सेवा” की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें) ब्रह्मन! पहले कांचीपुरी में चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं। उन्हीं के नाम पर उनके अधीन रहने वाले सभी देश चोल नाम से विख्यात हुए। राजा चोल जब इस भूमण्डल का शासन करते थे, उस समय उनके राज्य में कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुखी, पाप में मन लगाने वाला अथवा रोगी नहीं था। एक समय की बात है, राजा चोल अनन्तशयन नामक तीर्थ में गये जहाँ जगदीश्वर भगवान विष्णु ने योगनिद्रा का आश्रय लेकर शयन किया था। वहाँ भगवान विष्णु के दिव्य विग्रह की राजा ने विधिपूर्वक पूजा की। दिव्य मणि, मुक्ताफल तथा सुवर्ण के बने हुए सुन्दर पुष्पों से पूजन कर के साष्टांग प्रणाम किया। प्रणाम कर के ज्यों ही बैठे उसी समय उनकी दृष्टि भगवान के पास आते हुए एक ब्राह्मण पर पड़ी जो उन्हीं की कांची नगरी के निवासी थे। उनका नाम विष्णुदास था। उन्होंने भगवान की पूजा के लिए अपने हाथ में तुलसीदल और जल ले रखा था। निकट आने पर उन ब्राह्मण ने विष्णुसूक्त का पाठ करते हुए देवाधिदेव भगवान को स्नान कराया और तुलसी की मंजरी तथा पत्तों से उनकी विधिवत पूजा की। राजा चोल ने जो पहले रत्नों से भगवान की पूजा की थी, वह सब तुलसी पूजा से ढक गई। यह देखकर राजा कुपित होकर बोले – विष्णुदास! मैंने मणियों तथा सुवर्ण से भगवान की जो पूजा की थी वह कितनी शोभा पा रही थी, तुमने तुलसीदल चढ़ाकर उसे ढक दिया। बताओ, ऎसा क्यों किया? मुझे तो ऎसा जान पड़ता है कि तुम दरिद्र और गंवार हो। भगवान विष्णु की भक्ति को बिलकुल नहीं जानते। राजा की यह बात सुनकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास ने कहा – राजन! आपको भक्ति का कुछ भी पता नहीं है, केवल राजलक्ष्मी के कारण आप घमण्ड कर रहे हैं। बतलाइए तो आज से पहले आपने कितने वैष्णव व्रतों का पालन किया है? तब नृपश्रेष्ठ चोल ने हंसते हुए कहा – तुम तो दरिद्र और निर्धन हो तुम्हारी भगवान विष्णु में भक्ति ही कितनी है? तुमने भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाला कोई भी यज्ञ और दान आदि नहीं किया और न पहले कभी कोई देवमन्दिर ही बनवाया है। इतने पर भी तुम्हें अपनी भक्ति का इतना गर्व है। अच्छा तो ये सभी ब्राह्मण मेरी बात सुन लें। भगवान विष्णु के दर्शन पहले मैं करता हूँ या यह ब्राह्मण? इस बात को आप सब लोग देखें फिर हम दोनों में से किसकी भक्ति कैसी है, यह सब लोग स्वत: ही जान लेगें। ऎसा कहकर राजा अपने राजभवन को चले गये। वहाँ उन्होंने महर्षि मुद्गल को आचार्य बनाकर वैष्णव यज्ञ प्रारम्भ किया। उधर सदैव भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाले शास्त्रोक्त नियमों में तत्पर विष्णुदास भी व्रत का पालन करते हुए वहीं भगवान विष्णु के मन्दिर में टिक गये। उन्होंने माघ और कार्तिक के उत्तम व्रत का अनुष्ठान, तुलसीवन की रक्षा, एकादशी को द्वादशाक्षर मन्त्र का जाप, नृत्य, गीत आदि मंगलमय आयोजनों के साथ प्रतिदिन षोडशोपचार से भगवान विष्णु की पूजा आदि नियमों का आचरण किया। वे प्रतिदिन चलते, फिरते और सोते – हर समय भगवान विष्णु का स्मरण किया करते थे। उनकी दृष्टि सर्वत्र सम हो गई थी। वे सब प्राणियों के भीतर एकमात्र भगवान विष्णु को ही स्थित देखते थे। इस प्रकार राजा चोल और विष्णुदास दोनों ही भगवान लक्ष्मीपति की आराधना में संलग्न थे। दोनों ही अपने-अपने व्रत में स्थित रहते थे और दोनों की ही सम्पूर्ण इन्द्रियाँ तथा समस्त कर्म भगवान विष्णु को समर्पित हो चुके थे। इस अवस्था में उन दोनों ने दीर्घकाल व्यतीत किया।

🚩Jai Shri Radhe Krishna🚩

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