धरती का रस

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एक राजा था। एक बार वह सैर करने के लिए अपने शहर से बाहर गया।लौटते समय देर हो गई तो वह किसान के खेत में विश्राम करने के लिए ठहर गया।
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किसान की बूढ़ी मां खेत में मौजूद थी।
राजा को प्यास लगी तो उसने बुढ़िया से कहा… बुढ़ियामाई, प्यास लगी है, थोड़ा सा पानी दे।
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बुढ़िया ने सोचा, एक पथिक अपने घर आया है, चिलचिलाती धूप का समय है, इसे सादा पानी क्या पिलाऊंगी !
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यह सोचकर उसने अपने खेत में से एक गन्ना तोड़ लिया और उसे निचोड़ कर एक गिलास रस निकाल कर राजा के हाथ में दे दिया।
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राजा गन्ने का वह मीठा और शीतल रस पीकर तृप्त हो गया।उसने बुढ़िया से पूछा, माई ! राजा तुमसे इस खेत का लगान क्या लेता है ?
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बुढ़िया बोली…. इस देश का राजा बड़ा दयालु है। बहुत थोड़ा लगान लेता है।मेरे पास बीस बीघा खेत है। उसका साल में एक रुपया लेता है।

राजा के मन में लोभ आया। उसने सोचा बीघा के खेत का लगान एक रुपया ही क्यों हो !
उसने मन में तय किया कि शहर पहुंच कर इस बारे में मंत्री से सलाह करके गन्ने के खेतों का लगान बढ़ाना चाहिए।

यह विचार करते-करते उसकी आंख लग गई।
कुछ देर बाद वह उठा तो उसने बुढ़िया माई से फिर गन्ने का रस मांगा।
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बुढ़िया ने फिर गन्ना तोड़ा और उसे निचोड़ा लेकिन इस बार बहुम कम रस निकला।
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मुश्किल से चौथाई गिलास भरा होगा। बुढ़िया ने दूसरा गन्ना तोड़ा। इस तरह चार-पांच गन्नों को निचोड़ा, तब जाकर गिलास भरा।
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राजा यह दृश्य देख रहा था। उसने बूढ़ी मां से कहा…बुढ़िया माई, पहली बार तो एक गन्ने से ही पूरा गिलास भर गया था,
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इस बार वही गिलास भरने के लिए चार- पांच गन्ने तोड़ने पड़े, इसका क्या कारण है ?किसान की मां बोली…. यह बात तो मेरी समझ में भी नहीं आई।
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धरती का रस तो तब सूखा करता है जब राजा की नीयत में फर्क तथा उसके मन में लोभ आ जाता है।बैठे-बैठे इतनी ही देर में ऐसा कैसे हो गया !
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फिर हमारे राजा तो प्रजा की भलाई करने वाले, न्यायी और धरम बुद्धि वाले हैं।उनके राज्य में धरती का रस कैसे सूख सकता है !
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बुढ़िया का इतना कहना था कि राजा को चेत हो गया कि …..राजा का धर्म प्रजा का पोषण करना है, शोषण करना नहीं और उसने तत्काल लगान न बढ़ाने का निर्णय कर लिया।

हमारा जीवन भी इसी तरह है जब तक हममे दया भाव दिल की स्वच्छता रहती है हम ऊंचाईयों को छुते है। हमारे अन्दर जैसे ही लोभ आ जाता है हम नीचे गिरते जाते हैं। जीवन की सफलता हमारे सोच पर निर्भर है जय श्री राम

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