बँधा हुआ ज्ञान

dew dandelion flower

. एक राजा थे। उसके पास एक बड़े विद्वान् पण्डित आया करते थे। वे प्रतिदिन राजा को कथा सुनाते थे। उनको कथा सुनाते बरसों-के-बरस बीत गये। राजा साहब ने पण्डितजी को एक दिन कहा कि महाराजजी आपको रोज कथा सुनाते हुए कई वर्ष हो गये। जैसी कथा आज सुनायी वैसे ही प्रतिदिन सुनाते हैं। सुनाते-सुनाते आप बूढ़े हो गये और मैं भी बूढा हो गया, किन्तु मैं कई वर्ष पहले जैसा था वैसा ही आज भी हूँ। आपकी कथा के निमित साल भर में ३-४ हजार रूपये लग जाते हैं। वह सरकार में घाटा ही पड़ता है। चार हजार रूपये प्रति साल खर्चा व्यर्थ करूँ ? उसका कुछ तो लाभ होना चाहिये। आपका और मेरा दोनों का समय नष्ट होता है और रुपया भी खर्च होता है। इसका उपाय बतलाइये कि सुधार क्यों नहीं होता ? जबकि आपकी बातें मैं सुनता हूँ। आप वैराग्य, भक्ति ज्ञान की बातें कहते हैं, किन्तु आपकी बातों को सुनकर न तो मैं भक्त बना, न ज्ञानी, न सदाचारी और न योगी आप इसका उत्तर एक महीने के अन्दर दें। यदि एक महीने के अन्दर इसका उत्तर नहीं मिलेगा तो यह कथा बन्द कर दी जायगी और आपका वेतन बन्द हो जायगा। आपको अपनी जीविका का दूसरा रास्ता देखना पड़ेगा। यह सुनकर पण्डितजी के होश गुम हो गये। पण्डितजी विचार करने लगे कि मैं इसका क्या जवाब दूँ। पण्डितजी इस चिन्ता में मग्न हुए जा रहे थे कि रास्ते में उन्हें एक सच्चे महात्मा मिले। वे बड़े विरक्त और त्यागी थे, उनके चित में बड़ा वैराग्य था। वे वास्तव में बड़े उच्च कोटि के महापुरुष थे। पण्डितजी का चेहरा उदास देखकर उन्होंने पण्डितजी से पूछा कि क्या बात है ? पण्डितजी बोले–बात यह है कि एक महीने बाद हमारी रोजी यानी जीविका बन्द होने जा रही है। महात्मा ने पूछा–क्यों ? उन्होंने बताया कि राजा ने मुझसे एक प्रश्न पूछा है और उसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं। प्रश्न यह है कि आप ज्ञान, वैराग्य, भक्ति की बातें कहते हैं और आपकी बातों को मैं सुनता हूँ, किन्तु मुझ में न तो रत्ती भर वैराग्य हुआ, न ज्ञान और न भक्ति हुई, इसका उत्तर दीजिये नहीं तो यह खर्चा मैं बन्द करूँगा। महात्मा बोले–इसके लिये आप क्यों चिन्ता करते हैं। इसका उत्तर तो मैं दे दूँगा। पण्डितजी बोले–आपके उत्तर देने से तो हमारी हानि होगी यानी एक हीनता आयेगी कि इसका उत्तर पण्डितजी नहीं दे सके, इस साधु ने दिया है। महात्मा ने कहा–नहीं, आपकी हीनता नहीं होगी। आप राजा साहब से कह देना कि यह तो मामूली बात है, इसका उत्तर तो हमारे शिष्य भी दे सकते हैं। और मैं आपका शिष्य बन जाऊँगा। जब मैं आपका शिष्य बनकर उत्तर दूँगा, तब तो आपकी कोई हानि नहीं होगी। पण्डितजी बोले तब तो नहीं होगी। पण्डितजी महाराज दूसरे दिन गये। राजा ने फिर पूछा कि महाराज ! आपने उस विषय का उत्तर तैयार किया। पण्डितजी बोले–‘महाराज इसका उत्तर तो मामूली बात है, वह तो हमारे शिष्य भी दे सकते हैं, हमारे ऐसे बहुत-से शिष्य हैं। राजा बोले–मुझे क्या, आप दें या आपका शिष्य, मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिये। कल आप अपने शिष्य को ले आईयेगा। दूसरे दिन पण्डितजी उस महात्मा को ले गये। वे उनके शिष्य बनकर चले गये। राजा ने पूछा–आप इनके शिष्य हैं ? बोले- हाँ महाराज ! राजा ने कहा कि हमारा प्रश्न आपको मालूम है ? महात्मा बोले–हाँ, मालूम है। आपका प्रश्न यह है कि आपको ज्ञान, वैराग्य, भक्ति की बातें सुनते हुए करीब तीस वर्ष बीत गये किन्तु उसका असर आप पर क्यों नहीं हुआ। राजा ने कहा–ठीक यही बात है। उस शिष्य ने कहा–इसका उत्तर मैं तब दे सकता हूँ ‘जब आप अपनी राज्य की सारी शक्ति तथा अधिकार दो घड़ी भर के लिये मुझे दे दें।’ राजा ने कहा–‘ठीक है और सब कर्मचारियों को बुलाकर कह दिया की मैं अपने राज्य का अधिकार दो घड़ी के लिये इन्हें देता हूँ, ये जैसे कहें वैसा ही तुम लोग करना। राजगद्दी पर बैठकर महात्मा ने हुकम दिया कि पण्डितजी को रस्सी से बाँध दो। उन्होंने उनको बाँध दिया। फिर आज्ञा दी कि दूसरी रस्सी लाकर इस राजा को भी बाँध दो। आज्ञा के अनुसार राजा भी बाँध दिया गया। दोनों सोचते हैं कि ये क्या कर रहे हैं ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। अब महात्मा पण्डितजी से कहते हैं कि पण्डितजी, आपने राजा साहब को इतने दिन तक कथा सुनायी, अब उनसे कहिये कि मैं तकलीफ पाता हूँ, मेरी रस्सी खुलवा दें। पण्डितजी ने राजा साहब से कहा–‘मेरी रस्सियाँ खुलवा दो। राजा ने कहा–‘मैं कैसे खुलवा दूँ।’ पण्डितजी बोले–तो आप खोल दें। राजा ने कहा–‘मैं कैसे खुलवा दूँ।’ पण्डितजी बोले–तो आप खोल दें। राजा ने कहा कि ‘मैं तो खुद बँधा हुआ हूँ, मैं कैसे खोल दूँ।’ फिर बोले–‘किसी प्रकार खुलवा दें।’ राजा ने कहा–‘मेरा हुक्म नहीं चलता, कैसे खुलवाऊँ।’ न तो मेरा हुकम चलता है और न मेरे हाथ खुले हुए हैं।’ महात्मा ने राजा साहब से कहा कि आपने इतने वर्षों तक पण्डितजी से कथा सुनी। पण्डितजी से कहें कि आप मुझे खोल दें। पण्डितजी ने कि मैं तो खुद बँधा हुआ हूँ, मैं कैसे खोल दूँ। अब राजा साहब से महात्मा जी पूछते हैं कि आपके प्रश्न का उत्तर मिला कि नहीं। राजा ने कहा–‘मैं समझा नहीं।’ पूछा -‘ अभी भी नहीं समझे। आप स्वयं बँधे हुए हैं तो दूसरे को खोल सकते हैं क्या ? अपने खुद को ही नहीं खोल सकते तो दूसरे को कैसे खोलेंगे।’ बोले–हाँ समझ गया। पण्डितजी से कहा–‘आप इसका मतलब समझे ? आप बँधे हुए दूसरे को खोल सकते हैं ?’ बोले–‘नहीं खोल सकते।’ तब बोले महाराज, बात यह है कि ये पण्डितजी कथा तो आपको प्रतिदिन सुनाते हैं किन्तु ये खुद बँधे हुए हैं। ये खुद संसार के बंधन से बँधे हुए हैं और आप इनसे मुक्ति चाहते हैं। यदि पण्डितजी खुद मुक्त हों तो आपको मुक्त करें। खाली कथा सुनाने से थोड़े ही मुक्ति होती है। तोता और मैना ‘राधेकृष्ण–राधेकृष्ण’ रटते रहते हैं । इनको ज्ञान नहीं है कि हम राधेकृष्ण-राधेकृष्ण क्यों करते हैं। जब बिल्ली आती है और उनको पकडती है तो तो वे ‘राधेकृष्ण’ को भूलकर ‘टाय–टाय’ करने लग जाते हैं। यही दशा पण्डितजी की है। ऐसी परिस्थिति पण्डितजी आपको कैसे छुडा सकते हैं। जो संसार से छूटा हुआ है, खुला हुआ है, ऐसे मुक्त पुरुष का असर पड सकता है और जो संसार में खुद बँधे हुए हैं ऐश, आराम, भोगों में बँधे हुए हैं वे दूसरों को क्या छुडायेंगे। ऐसा पुरुष होना चाहिये जिसका संसार से तीव्र वैराग्य हो। संसार से केवल तीव्र वैराग्य ही नहीं, उपरति भी हो उसे परमात्मा के तत्व का ज्ञान भी हो। ऐसा उच्च कोटि का महापुरुष हो। जय जय श्री राध




. एक राजा थे। उसके पास एक बड़े विद्वान् पण्डित आया करते थे। वे प्रतिदिन राजा को कथा सुनाते थे। उनको कथा सुनाते बरसों-के-बरस बीत गये। राजा साहब ने पण्डितजी को एक दिन कहा कि महाराजजी आपको रोज कथा सुनाते हुए कई वर्ष हो गये। जैसी कथा आज सुनायी वैसे ही प्रतिदिन सुनाते हैं। सुनाते-सुनाते आप बूढ़े हो गये और मैं भी बूढा हो गया, किन्तु मैं कई वर्ष पहले जैसा था वैसा ही आज भी हूँ। आपकी कथा के निमित साल भर में ३-४ हजार रूपये लग जाते हैं। वह सरकार में घाटा ही पड़ता है। चार हजार रूपये प्रति साल खर्चा व्यर्थ करूँ ? उसका कुछ तो लाभ होना चाहिये। आपका और मेरा दोनों का समय नष्ट होता है और रुपया भी खर्च होता है। इसका उपाय बतलाइये कि सुधार क्यों नहीं होता ? जबकि आपकी बातें मैं सुनता हूँ। आप वैराग्य, भक्ति ज्ञान की बातें कहते हैं, किन्तु आपकी बातों को सुनकर न तो मैं भक्त बना, न ज्ञानी, न सदाचारी और न योगी आप इसका उत्तर एक महीने के अन्दर दें। यदि एक महीने के अन्दर इसका उत्तर नहीं मिलेगा तो यह कथा बन्द कर दी जायगी और आपका वेतन बन्द हो जायगा। आपको अपनी जीविका का दूसरा रास्ता देखना पड़ेगा। यह सुनकर पण्डितजी के होश गुम हो गये। पण्डितजी विचार करने लगे कि मैं इसका क्या जवाब दूँ। पण्डितजी इस चिन्ता में मग्न हुए जा रहे थे कि रास्ते में उन्हें एक सच्चे महात्मा मिले। वे बड़े विरक्त और त्यागी थे, उनके चित में बड़ा वैराग्य था। वे वास्तव में बड़े उच्च कोटि के महापुरुष थे। पण्डितजी का चेहरा उदास देखकर उन्होंने पण्डितजी से पूछा कि क्या बात है ? पण्डितजी बोले-बात यह है कि एक महीने बाद हमारी रोजी यानी जीविका बन्द होने जा रही है। महात्मा ने पूछा-क्यों ? उन्होंने बताया कि राजा ने मुझसे एक प्रश्न पूछा है और उसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं। प्रश्न यह है कि आप ज्ञान, वैराग्य, भक्ति की बातें कहते हैं और आपकी बातों को मैं सुनता हूँ, किन्तु मुझ में न तो रत्ती भर वैराग्य हुआ, न ज्ञान और न भक्ति हुई, इसका उत्तर दीजिये नहीं तो यह खर्चा मैं बन्द करूँगा। महात्मा बोले-इसके लिये आप क्यों चिन्ता करते हैं। इसका उत्तर तो मैं दे दूँगा। पण्डितजी बोले-आपके उत्तर देने से तो हमारी हानि होगी यानी एक हीनता आयेगी कि इसका उत्तर पण्डितजी नहीं दे सके, इस साधु ने दिया है। महात्मा ने कहा-नहीं, आपकी हीनता नहीं होगी। आप राजा साहब से कह देना कि यह तो मामूली बात है, इसका उत्तर तो हमारे शिष्य भी दे सकते हैं। और मैं आपका शिष्य बन जाऊँगा। जब मैं आपका शिष्य बनकर उत्तर दूँगा, तब तो आपकी कोई हानि नहीं होगी। पण्डितजी बोले तब तो नहीं होगी। पण्डितजी महाराज दूसरे दिन गये। राजा ने फिर पूछा कि महाराज ! आपने उस विषय का उत्तर तैयार किया। पण्डितजी बोले-‘महाराज इसका उत्तर तो मामूली बात है, वह तो हमारे शिष्य भी दे सकते हैं, हमारे ऐसे बहुत-से शिष्य हैं। राजा बोले-मुझे क्या, आप दें या आपका शिष्य, मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिये। कल आप अपने शिष्य को ले आईयेगा। दूसरे दिन पण्डितजी उस महात्मा को ले गये। वे उनके शिष्य बनकर चले गये। राजा ने पूछा-आप इनके शिष्य हैं ? बोले- हाँ महाराज ! राजा ने कहा कि हमारा प्रश्न आपको मालूम है ? महात्मा बोले-हाँ, मालूम है। आपका प्रश्न यह है कि आपको ज्ञान, वैराग्य, भक्ति की बातें सुनते हुए करीब तीस वर्ष बीत गये किन्तु उसका असर आप पर क्यों नहीं हुआ। राजा ने कहा-ठीक यही बात है। उस शिष्य ने कहा-इसका उत्तर मैं तब दे सकता हूँ ‘जब आप अपनी राज्य की सारी शक्ति तथा अधिकार दो घड़ी भर के लिये मुझे दे दें।’ राजा ने कहा-‘ठीक है और सब कर्मचारियों को बुलाकर कह दिया की मैं अपने राज्य का अधिकार दो घड़ी के लिये इन्हें देता हूँ, ये जैसे कहें वैसा ही तुम लोग करना। राजगद्दी पर बैठकर महात्मा ने हुकम दिया कि पण्डितजी को रस्सी से बाँध दो। उन्होंने उनको बाँध दिया। फिर आज्ञा दी कि दूसरी रस्सी लाकर इस राजा को भी बाँध दो। आज्ञा के अनुसार राजा भी बाँध दिया गया। दोनों सोचते हैं कि ये क्या कर रहे हैं ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। अब महात्मा पण्डितजी से कहते हैं कि पण्डितजी, आपने राजा साहब को इतने दिन तक कथा सुनायी, अब उनसे कहिये कि मैं तकलीफ पाता हूँ, मेरी रस्सी खुलवा दें। पण्डितजी ने राजा साहब से कहा-‘मेरी रस्सियाँ खुलवा दो। राजा ने कहा-‘मैं कैसे खुलवा दूँ।’ पण्डितजी बोले-तो आप खोल दें। राजा ने कहा-‘मैं कैसे खुलवा दूँ।’ पण्डितजी बोले-तो आप खोल दें। राजा ने कहा कि ‘मैं तो खुद बँधा हुआ हूँ, मैं कैसे खोल दूँ।’ फिर बोले-‘किसी प्रकार खुलवा दें।’ राजा ने कहा-‘मेरा हुक्म नहीं चलता, कैसे खुलवाऊँ।’ न तो मेरा हुकम चलता है और न मेरे हाथ खुले हुए हैं।’ महात्मा ने राजा साहब से कहा कि आपने इतने वर्षों तक पण्डितजी से कथा सुनी। पण्डितजी से कहें कि आप मुझे खोल दें। पण्डितजी ने कि मैं तो खुद बँधा हुआ हूँ, मैं कैसे खोल दूँ। अब राजा साहब से महात्मा जी पूछते हैं कि आपके प्रश्न का उत्तर मिला कि नहीं। राजा ने कहा-‘मैं समझा नहीं।’ पूछा -‘ अभी भी नहीं समझे। आप स्वयं बँधे हुए हैं तो दूसरे को खोल सकते हैं क्या ? अपने खुद को ही नहीं खोल सकते तो दूसरे को कैसे खोलेंगे।’ बोले-हाँ समझ गया। पण्डितजी से कहा-‘आप इसका मतलब समझे ? आप बँधे हुए दूसरे को खोल सकते हैं ?’ बोले-‘नहीं खोल सकते।’ तब बोले महाराज, बात यह है कि ये पण्डितजी कथा तो आपको प्रतिदिन सुनाते हैं किन्तु ये खुद बँधे हुए हैं। ये खुद संसार के बंधन से बँधे हुए हैं और आप इनसे मुक्ति चाहते हैं। यदि पण्डितजी खुद मुक्त हों तो आपको मुक्त करें। खाली कथा सुनाने से थोड़े ही मुक्ति होती है। तोता और मैना ‘राधेकृष्ण-राधेकृष्ण’ रटते रहते हैं । इनको ज्ञान नहीं है कि हम राधेकृष्ण-राधेकृष्ण क्यों करते हैं। जब बिल्ली आती है और उनको पकडती है तो तो वे ‘राधेकृष्ण’ को भूलकर ‘टाय-टाय’ करने लग जाते हैं। यही दशा पण्डितजी की है। ऐसी परिस्थिति पण्डितजी आपको कैसे छुडा सकते हैं। जो संसार से छूटा हुआ है, खुला हुआ है, ऐसे मुक्त पुरुष का असर पड सकता है और जो संसार में खुद बँधे हुए हैं ऐश, आराम, भोगों में बँधे हुए हैं वे दूसरों को क्या छुडायेंगे। ऐसा पुरुष होना चाहिये जिसका संसार से तीव्र वैराग्य हो। संसार से केवल तीव्र वैराग्य ही नहीं, उपरति भी हो उसे परमात्मा के तत्व का ज्ञान भी हो। ऐसा उच्च कोटि का महापुरुष हो। जय जय श्री राध

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