प्रभु संकीर्तन 62

वृन्दावन के स्टेशन पर उतरते ही एक आंनद की सांस ली।
चलो आखिर पहूंच ही गए।

मैंने ट्रेन का धन्यवाद किया तो आगे बढने ही लगा था कि देखा ट्रेन कुछ उदास सी हैं।
मैंने पूछा :- क्या बात यहाँ आते ही सब का मन आंनद से भर उठता है और तुम ऐसे मूहँ क्यों लटकाए खडी हो ?

ट्रेन कहने लगी :-बाबा तुम बहुत भाग्यशाली हो जो हर महीने ठाकुर जी के दर्शनों का आंनद ले लेते हो।मैं निरभागी चाह कर भी वंचित हूँ।कई बार तो मेरा भी मन करता हैं कि यही उतर जाऊं परन्तु फिर सोचती हूँ यदि मैं ही यहां उतर गई तो आप जैसों को कौन उतारेगा।

उसकी बात सुन मुझे हंसी आ रही थी।

ट्रेन बोले :- तुम मेरे दर्द पर हंस रहे हो।

मैंने कहा :- तुम्हारे दर्द पर नहीं।मैं तो अपने भाग्य पर हंस रहा हूँ।

ट्रेन को अब यह जानने की जिज्ञासा थी कि बाबा के मन में क्या चल रहा है ?

मैंने कहा :- तुम हमें भागयशाली समझ रही हो।और मैं तुम्हें बढभागी।

ट्रेन की जिज्ञासा अब और बढने लगी थी।

मैं बोला :- उन श्रद्धालुओं की ओर देखो जो यहां उतरते ही सबसे पहले यहाँ की माटी को प्रणाम करते हैं।क्योंकि वो जानते है कि बृज के कण-कण मे ठाकुर जी का वास है।

अब तुम्हारी बात करते हैं।मैं तो महीने में एक आधी बार आता हूँ परन्तु तुम्हें तो प्रायः यह सोभाग्य प्राप्त होता हैं।ना जाने कितने संतों के चरणों की रज बनकर ठाकुर जी तुम मे वास करते होंगे।

तुम्हें तो अपने उपर गर्व होना चाहिए।तुम एक संत का काम कर रही हो।

ट्रेन :- वो कैसे ?

मैं :- वो संत ही तो होते है जो भगत को भगवान से मिलाते हैं।तुम क्या सोचती हो।मैं जो तुम्हें धन्यवाद कर रहा था।वो कोई ओपचारिकता थी।नहीं वो एक संत के प्रति आभार था।जो सदैव बना रहेगा।

ट्रेन :- बाबा मुझे तो पता ही नहीं था कि मुझमें इतने गुण है।अब तो मैं जब भी आऊंगी।जोर-जोर से सीटी बजा कर ठाकुर जी का जयकारा लगाऊंगी।और यही कहूंगी कि अगले जन्म भी मुझे ट्रेन ही बनाईयो।

(जय जय श्री राधे)

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