श्रीहित हरिवंश महाप्रभु जी महाराज भाग – 2

गतांक से आगे-

हित हरिवंश महाप्रभु जी के बचपन के पल
प्रसंग 1:
हितहरिवंश महाप्रभु जी 4-5 साल के थे तब का एक प्रसंग बताते है , एक दिन वो जल्दी उठ गये और उस समय उनकी मैया ने ठाकुर सेवा भी नहीं की थी और मंदिर के पट भी बंद थे वो उठे और बोलते है मुझे चरणामृत दो तो वो रोने लग गये माने ही नहीं तो उनकी माँ ने उनको पानी में ही चन्दन डाल कर दे दिया बोली रो मत ये लो चरणामृत है वो बोले चरणामृत नहीं है, और दिन तो इनमे राधा माधव के चरणों की सुघंद आती थी पर इसमें नहीं आ रही है !
तब उनके माता पिता चकित रह जाते है हम पुरे जीवन में ये बात नहीं जान पाए और ये अभी इस उम्र में इस अवस्था में है इसे ही बोलते है अनन्य भक्त !

प्रसंग 2:
एक बार श्रीहित उन्होंने दो बालकों का राधा और मोहन के रूप में श्रृंगार किया फिर कुछ देर बाद श्रृंगार बदल कर राधा को मोहन और मोहन को राधा का श्रृंगार धारण करा दिया । अंदर घर में इनके पिता व्यासजी अपने आराध्य श्रीराधाकान्त का श्रृंगार कर उनकी छवि निहार रहे थे। तभी अचानक वे चौंक पड़े। उन्होंने श्रीराधा को श्रीकृष्ण वृद्धावस्था के कारण उन्हें भ्रम हुआ होगा परन्तु तुरन्त ही वह श्रृंगार अपने-आप बदलने लगा।
वह घबराकर बाहर आए तो देखते है कि बगीचे में श्री हित हरिवंश अपने सखाओं के साथ राधा और कृष्ण का श्रृंगार बदलने का खेल खेल रहा है उनको आभास हो गया कि निश्चय ही कोई असाधारण महापुरुष उनके घर प्रकट हुआ है।

प्रसंग 3:
एक दिन इनके पिता व्यासजी ने ठाकुरजी के सामने लड्डुओं का भोग रखा और आँखें बंद कर भोग मन्त्र बोलने लगे। जब उन्होंने आंखे खोली तो देखते हैं कि भोग के थाल में फलों के दोने रखे हैं। उन्हें पुरानी घटना याद आ गयी । उन्होंने बाहर आकर देखा कि बालक श्रीहित हरिवंश ने बगीचे में दो वृक्षों को नीली-पीली पुष्पमाला पहनाकर राधा कृष्ण का स्वरूप बनाया है ओर उनके सामने फलों का भाग रखा है

प्रसंग 4:
एक बार उनके मन मे विचार आता है कि ये ठाकुर जी तो मेरे माता पिता के है वो अपनी मर्जी से सृंगार भोग सेवा करते है हमारे भी अपने ठाकुर होने चाहिए तो एक दिन पांच वर्ष की आयु में श्रीहित हित हरिवंश जी को ठाकुर जी ने सूचना दी कि हमारे विग्रह बगीचे के सूखे कुएं में है इतना जाना और वो तो कुँए में कूद गए ।
यह देखकर माता-पिता और कुटुम्बीजन अत्यन्त व्याकुल हो उठे। तभी लोगों ने देखा कि कुएं में एक दिव्य प्रकाश फेल गया है और बालक श्री हित हरिवंश श्याम सुंदर की एक सुन्दर मूर्ति को अपने कर कमलों में सम्हाले हुए अपने-आप कुएं से ऊपर उठते चले आ रहा है। उनके ऊपर पहुंचते ही कुंआ मीठे जल से भर गया ।
ठाकुर जी को लाकर राजमहल में पधराया गया और श्रीहित हरिवंशजी के पिता जी ने उनका नाम रखा- श्रीनवरंगीलाल ( क्योकि वो रोज नई नई लीला करते है ) और उनकी पूजा सेवा बड़े प्रेम से करने लगे। आज भी देववन्द में श्रीराधनावरंगी लाल जी के दर्शन कर सकते है बिल्कुल राधावल्लभजी जैसे है बस उनसे थोड़े छोटे है पर बहुत ही अधबुद्ध है ।
आठ वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का उपनयन संस्कार हुआ। इस उम्र में उनकी बुद्धि सामान्य बालकों से कहीं अधिक तीव्र और धारणा-शक्ति चमत्कारी थी। वे अपने स्नेह और सौस से शैशव में ही अपने चारो ओर अच्छा-खासा सखा-मंडल स्थापित कर लिया था। इन बाल-सखाओं लीकी क्रीड़ाएँ भयानक थीं। सैट भगवद्भक्ति के संबंध में कोई न कोई खेल यह प्ले थे। ठाकुर जी की सेवा-पूजा करने की ओर भी उनकी नैसर्गिक रुचि थी और इन महाप्रसाद का माहात्म्य शैशव में ही उनके बाल सखाओं का वर्णन किया गया था। एकादशी व्रत के प्रति ये शानदार भाव इसी उम्र में व्यक्त हुए थे। शनै शनै अपनी अनन्य भावना और सेवा-पूजा के कारण उनकी ख्याति समीपवर्ती प्रदेश में हुई और उनके पास रसपिपासों का आगमन हुआ। इस युग में जो चमत्कार किए गए उनका वर्णन साम्प्रदायिक वाणी-ग्रंथों में पड़ा है।

राधावल्लभ जी शिव शंकर जी द्वारा दिये गये जो कि आत्मदेव द्वारा भक्ति से एवं श्री जी की आज्ञा से राधावल्लभजी आत्म देव जी को दिए । आत्मदेव जी के सामने जब शिव जी प्रकट हुए तब उन्होंने कुछ मांगने को बोला तो आत्मदेव जी ने बस इतना ही बोला की जो आपको सबसे प्रिय है वो ही देदो तो उन्होंने स्मरण किया की सबसे ज्यादा तो हम राधावल्लभ जी को ही प्रेम करते है तो ठाकुर जी की आज्ञा से वो रस मूर्ति आत्मदेव जी को दे दी एवम् काफी साल आत्मदेव जी ने उनकी पूजा की प्रेम किया और निश्चय किया की हम इनको उसी को देगे जो हमारी पुत्रियों से विवाह करेगे ! वही राधावल्लभ जी हरिवंश को मिले और जिस गांव से वो गुजरते थे उसी गांव में उत्सव होता है । 2 महीने में जाकर वो वृंदावन पहुचते है और सबसे पहले यमुना जी का दर्शन करते है ।
मदनटेर नाम की जगह पर वो रुके और विराजमान हुये वहाँ व्रजवासी आये और पहले तीर छोड़ा जाता था जहाँ तीर गिरता था वही तक उनको जमीन दे दी गयी थी जहां तीर गिरता है पहले इस जगह का नाम तीर घाट था फिर बाद में चीर घाट हुआ वो सारी जमीन हरिवंशजी को दे दी गयी थी । फिर सेवा कुँज में ठाकुर जी विराजमान हुये । श्री हरिवंश जी पहले आचार्य थे जो परिवार के साथ आये और रहे ।

सोलह वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का विवाह रुकमिनी देवी के साथ संपन्न हुआ। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर भी किसी ने अपनी धार्मिक निष्ठा में परिवर्तन नहीं किया। गृहस्थाश्रम के सभी कर्त्तव्यों का पालन करते हुए ये पूर्वाग्रह रूप में भक्त और सन्त बने रहे । इस जीवन के प्रति उनके मन में न तो वैराग्य भावना थी और न इसके प्रति किसी प्रकार का हीन भाव ही ये रखते थे। उनका दाम्पत्य-जीवन सुखी-सम्पन्न और आदर्श था। सर्व प्रकार के ऐश्वर्य एवं भोगविलास की सामग्री के पास उनकी भावना में उनके लिए किसी प्रकार की आसक्ति न होने से लेकर ये कभी व्यग्र, सतर्कता या निर्देश न होते थे।
श्रीमती रुकमिनी देवी से श्री हितकारी के एक पुत्र और तीन पुत्र आय। ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचंद्रजी स0 1585, द्वितीय पुत्र श्री कृष्णचंद्रजी संवत् 1587, तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथजी सवत् 1588 तथा पुत्र साहिब दे सम्वत् 1589 मे आयते हैं। श्री हरिवंशजी की माता तारारानी की माता 1589 में और श्री व्यास मिश्र के निकुंजगमन 1590 सम्वत में हुई। माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त श्री हरिवंशजी के मन में यह भाव आया कि किसी प्रकार भगवान की लीलास्थली में जाकर वहां की रसमयी भक्ति-पद्धति में लीन जीवन सफल होगा। उसी समय उनकी ख्याति से प्रभावित लिबास राजा ने उन्हें अपने दरबार में बुलाने के लिए सदर निमंत्रण भेजा, वे अपने अंतर्मन में भगवान् की लीलाभूमि का स्वीकार किया, क्योंकि राजा के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। और एक श्लोक में यह उत्तर भिजवा दिया कि सृष्टि के आदि से नरेन्द्र-सुरेन्द्र,
बत्तीस वर्ष की आयु में श्रीराधा ने श्री हित हरिवंश को श्री वृन्दावन-वास एवं धर्म-प्रचार की आज्ञा दी। इस आज्ञा के प्राप्त होते ही श्री हित जी वृन्दावन चल रहे हैं। वे चलते समय रुकमिनी जी से चलने को कहा वे साथ न आसक ।
देववन से प्रस्थान के बाद मार्ग में उन राधा के सपने में दर्शन दें और उन लोगों ने कहा कि “आगे एक चिरथावल नाम का गांव तुम्हारे मार्ग में आएंगे, उस गांव में यदि कोई ब्राह्मण अपनी दो कन्याओं का तुम से विवाह करना चाहे तो तुम उसे स्वीकार कर लेना। यह विवाह तुम्हारा भक्ति-पथ मे किसी प्रकार का अंतराय आयेगा न होगा। इस विवाह के द्वारा तुम अधिकार जीवन का आदर्श प्रतिष्ठित करोगे। ” उसी के साथ यह भी उस स्वप्न में उन्हें राधाजी ने कहा कि “मेरा एक विग्रह (राधावल्लभजी के रूप मे) मिलेगा जिसे तुम वृन्दावन मे ले जाकर मंदिर में ववत् विधि स्थापित करना।” ऐसा ही आत्मदेव नामक ब्राह्मण को भी हुआ जो उसी चिरथावल गांव का रहने वाला था। इस स्वप्न के बाद श्री हरिवंश जी अपने यात्रा पथ में चिन्हित करते हैं और उस गांव मे (चिरथावल) पहुंचते हैं जिसमें आत्मदेव नाम का ब्राह्मण रहता था। उनकी दो नवयुवती कन्याएँ थीं और पूर्व दृष्ट दृष्टि के आधार पर श्री वह हरिवंशजी के आगमन की सतत प्रतीक्षा कर रहे थे। वे आते ही उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण करने के लिए हरिवंशजी से प्रार्थना की जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इन कन्याओं के नाम कृष्णदासी और मनोहरदासी थे। चिरथावल गांव में कुछ समय तक लोड कर फिर श्री हरिवंश जी ने अपनी यांत्रा की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। पर वह श्री हरिवंशजी के आगमन की सतत प्रतीक्षा कर रहा था। वे आते ही उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण करने के लिए हरिवंशजी से प्रार्थना की जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इन कन्याओं के नाम कृष्णदासी और मनोहरदासी थे। चिरथावल गांव में कुछ समय तक लोड कर फिर श्री हरिवंश जी ने अपनी यांत्रा की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। पर वह श्री हरिवंशजी के आगमन की सतत प्रतीक्षा कर रहा था। वे आते ही उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण करने के लिए हरिवंशजी से प्रार्थना की जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इन कन्याओं के नाम कृष्णदासी और मनोहरदासी थे। चिरथावल गांव में कुछ समय तक लोड कर फिर श्री हरिवंश जी ने अपनी यांत्रा की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। ने अपने यंत्र की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। ने अपने यंत्र की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की।
श्री हिताचार्य जिस समय वृन्दावन में आते हैं उस समय वह लता पुंजकार दल-फल और फूलों से परिपूर्ण एक सघन कुंज के रूप में था। यह लता पुंजाकार वृन्दावन शुक पिक-सारस हंस आदि पक्षियों के रंगव से मुखरित और चारों ओर यामा से समावृत्त था। कहीं-कहीं तटस्थ ऊँचे टीले पर यामा स्नान के लिए आए हुए ब्रजवासीगण से अवश्य दिखाई देते थे। गत श्री हिताचार्य के द्वारा ज्ञात समा होने पर कि- इस सघन निर्जन वन में हम निवास करेंगे उन सभी ब्रजवासियों को अत्यधिक विस्मय और हार्दिक बधाई हुई। उन्होंने श्री हित के हाथ में तीर कमान देते हुए कहा
के गुसाईं जी आप तीर चलाइए, आपका तीर वहां तक ​​पहुंचेगा जहां तक ​​की भूमि आपकी होगी। यह श्रीाचार्य हित का मधुर प्रभाव ही था कि बटमार वृत्ति वाले ब्रजवासियों के चित्त का पूर्ण परिवर्तन हो गया और वे पंचकोसी वृंदावन में श्री हिताचार्य को भूमि प्रदान करने के लिए तैयार हो गए। ब्रजवासियों के कहने पर श्री हिताचार्य ने एक तीर छोड़ दिया और वह काफी दूरी पर गिर गए। श्रीाचार्य हित ने जहाँ तीर फेंका, अपना निवास उसी स्थान को बनाया और जहाँ पर वह तीर गिरा, कालान्तर में वह स्थान ‘तीर घाट’ और बाद में ‘चीर घाट’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
श्रीाचार्य हित के दिव्य स्वरूप पर मुग्धने ब्रजवासी दर्शनार्थ आने और शीघ्र निकटवर्ती गाँवों में इनके आगमन की खबर फैली।
जब श्री हिताचार्य वृन्दावन आयें तब उस समय वृन्दावन घनघोर जंगल था। वहां एक नरवाहन नाम का डाकू रहता था जिसके डर से वहां दिन में भी कोई नहीं आता। उसने अपनी शक्ति के द्वारा संपूर्ण ब्रज प्रदेश पर अपना अधिकार ही बना लिया था। उनकी इस शक्ति से बड़े-बड़े राजे महाराजे भी चौकस थे। यहां तक ​​कि दिल्लीश्वर का भी इस नरवाहन पर कोई नियन्त्रण नहीं था। जब नरवाहन को उनके गुप्तचरों द्वारा यह ज्ञात हुआ कि कोई ऐसा चमत्कारी महापुरुष हिंसक जन्तुओं से संसेवित निर्जन वन में आया है; जिसके मधुर प्रभाव से हिंसक जन्तु और निर्जन वन के परिसर में बसे बटमारों के मन-बुद्धि और चित्त बदल गए हैं और वे सब उस महापुरुष की सेवा सुश्रुषा में निरत हो गए हैं; तो कुतूहल देखने की दृष्टि से एक दिन नरवाहन भी श्री हित के निवास स्थान पर आए। उस समय श्री हिताचार्य अपने शिष्यों और ब्रजवासियों से समावृत्त थे और ‘नवल’ नामांकित शिष्य के साथ कुछ आलाप-संलाप कर रहे थे। राजा नरवाहन भी श्री हिताचार्य के मधुर प्रभाव से जीते न बने रहें। उसे सुनकर अपनी वृत्ति पर बहुत खेद हुआ। उन्होंने अपना हार्दिक दुख प्रकट करते हुए श्री हिताचार्य से स्वयं को शरण में लेने की प्रार्थना की।
श्रीाचार्य हित ने उनकी निष्कपट वाणी सुनकर मन्त्रदान के साथ-साथ उपदेश भी दिया जिससे उनके जीवन का मूलचूल परिवर्तन हो गया। नरवाहन जैसे खूंखार डाकुओं के जीवन के इस परिवर्तन से पंचकोसी वृन्दावन में निवास करना हर किसी के लिए चुना जा सकता है। फलतः बृहद वृन्दावनस्थ ब्रज के नन्दग्राम, बजना, राधाकुंड और संकेत आदि ग्रामों में बसे हुए सन्तजन भी श्री हिताचार्य द्वारा प्रकट इस पंचकोसी रास्थल वृन्दावन में निवास करने । इससे पूर्व के सभी भक्तगण इस पंचकोसी वृन्दावन से जुड़े हुए थे।
श्रीाचार्य हित ने जिस स्थान से तीर फेंका था उसी स्थान पर लता विनिर्मित मंदिर या परणा कुटी में श्री राधाबल्लभलाल जी को विराजमान कर दिया और अपने निवास के लिए किसी प्रकार का निवास स्थान श्री राधाबल्लभलाल जी की अष्टयामी सेवा करने लगे। जब तक राजा नरवाहन द्वारा नए मंदिर का निर्माण नहीं हुआ था, तब तक वे इस मंदिर में विनिर्मित थे। राजा नरवाहन ने श्री राधाबल्लभलाल जी का नया मंदिर उसी स्थान पर बनवाया था, जहां पर श्री हिताचार्य स्वेटर निवास करते थे। नव मंदिर का निर्माण हो जाने पर vi. सं. 1591 की कार्तिक शु तेरस को श्री हिताचार्य ने श्री राधाबल्लभलाल जी को विराजमान किया और विशेष उत्सव के साथ पाटोत्सव मनाया।
अनेक संतगण गोकुल, गोवर्धन, नंदगाव और शनिवार में निवास करते थे। उस समय गोवर्धन, नंदगाव और बजना भी वृहद् वृन्दावन था। श्री हरिवंश जी ने यहां कई लीला स्थलों को प्रकट किया और वृंदावन की सीमा पंचकोसी निर्धारित की। उसी दिन आज भी वृन्दावन प्राकट्य उत्सव मनाया जाता है।

बने रहें भौगाँव नानव नरबाहन साधुसेवी, लूटी लई नाव, जाकी बन्दीखानै दियौ है।
लौंड़ी आवै दान कछू, खायवे को, आई मर्सी, अति अकुलाई लै, उपाय यह कियौ है ॥
बोलौ राधवल्लभ औ, लेवौ हरिवंश नाम, ग्रहणै शिष्य नाम कहौ, लोकली नाम लियौ है ।
दई मंगवाय वस्तु, राखियो दुराय बात, आय दास भयौ, कही रीझी पद दियौ है ॥

  • श्री भक्तमाल (419)

श्री “नरवाहन” जी श्रीहरिवंशजी के शिष्य, परम संतसेवी, “भगाँव” में रहते थे। ब्रज के एक जमींदार थे और लुटेरे भी। कोई सेठ की संपत्ति नाव में लाखों लाख यया जी के मार्ग से जा रहा था, नरवाहन ने संत सेवा के लिए सब लूटलिया, और उस सेठ को करागार (बंडीघर) में डाल दिया। उस वणिक (सेठ) को भोजन देने वाली एक लौंडी (ठहलनी) कारागार में डाली गई थी, सेठ की दुर्दशा देखकर उस टहलनी के दिल में बड़ी दया आई, तब बहुत अकुलाके उसे एक उपाय बताया गया है कि “तुम बड़े ऊँचे स्वर से” राधावल्लभ श्रीहरिवंश ! यह नाम जपो, जब पूछा गया जाय, तब कहता है कि मैं श्रीहरिवंश जी का शिष्य हूँ।” उस सेठ ने ऐसा ही किया और उच्च स्वर से ” राधावल्लभ श्रीहरिवंश” नाम रटने लगा। जब श्रीनरवाहनजी ने यह सुना तो उस सेठ के पास गए और पूछा कि “तुम यह नाम क्यों जपते हो?” उस सेठ ने कहा “मैं श्रीहरिवंशजी का शिष्य हूँ।” राजा नरवाहन बड़े ही गुरु निष्ठावान थे। नंबर ही उस सेठ को मुक्त कर दिया और धन देकर कहा कि “श्रीगुसाईंजी से यह बात नहीं कहती।” वह सेठ आरंभ ही श्रीवृन्दावन गया श्रीहित हरिवंशजी का शिष्य हो गया, और अपना वृत्तान्त भी सुनाया “नरवाहन जी ने लाखों का धन लेकर मुझे करगार में डाल दिया सो मैंने आपका नाम लिया और झूठ ही कहा कि” आपका शिष् हूँ । यह नंबर मुझे ही नरवाहन जी ने मुक्त कर दिया और मेरा पूरा धन देकर मुझे घर भेज दिया। रहने का अपना “चौरासी”
श्री हिताचार्य के परमोपास्य शतेश्वर्य संपन्न भगवान नहीं थे; प्रत्युत कोटि ब्रह्म ऐश्वर्य के परकोटे के प्रस्ताव उसे दूर माधुर्य मूर्ति, रस-रसिक, अद्वय अपर किशोर थे । भगवान की सेवा पूजा वैदिक विधान द्वारा संविधेय होती है माधुर्य प्रतिमा, ‘प्रेम’ किंवा ‘रस’ विग्रह श्री राधावल्लभलाल जी की सेवा प्रीति-विधान से ही सम्भव थी। अतः श्री हिताचार्य ने अपने स्नेह भाजन श्रीराधाबल्लभलाल जी का अहर्निशितमानानुरूप अनेक प्रकार से लाड़-दुलार से प्रेम किया। इस लाड़-प्यार को ही उन्होंने सात भोग और पांच आरती विधि निषेध शून्य ‘अष्टयामी सेवा’ तथा वर्ष में आने वाले मौसम उत्सव [वसन्त, होली, होरीडोल, जलबिहार, पावस, झू और आदि) की ‘उत्सविक सेवा’ का संवाद रूप प्रदान किया गया। साथ ही अपने आचरण एवं वाणी द्वारा दैनिक स्वेष्ट की मानसी सेवा करने का भी निष्कर्ष दिया।
श्रीाचार्य हित ने ऐसे वृन्दावन का प्रागत्य किया था जो कि भूतलस्थ होते हुए भी ‘देवानामथ भक्त-मुक्त’ और श्री कृष्ण के लीला परिकर के लिए भी दुर्बल लक्ष्य था। इसीलिए यह वृन्दावन परम रहस्य संज्ञक बना और बना रहेगा। ऐसे वृन्दावन में होने वाली लीलायें और लीला स्थानों का प्रागट्य भी कई दृष्टियों से अनिवार्य था। इसलिए श्रीाचार्य हित ने उन लीला स्थलों का भी यथार्थ रूप से उल्लेख किया है श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में नहीं है। इन लीला स्थानों का प्रागत्य ही पंचकोसी वृन्दावन का प्रागत्य है और जो रहस्य रूप वृन्दावन के परिचय प्रदाता तथा प्रत्यक्ष प्रतीक हैं। पंचकोसी वृन्दावन में उनके प्रकट हुए लीला स्थल हैं- रासमंडल, सेवाकुंज, वंशीवट, धीरसमीर, मानसरोवर, हिंडोल स्थल, शृंगारवट और वन विहार।

नमो जयति जमुना वृन्दावन।
नमो निकुंज कुंज सेवा, हित मंडल रास, डोल, आनंदघन ॥
नमो पुलिन वंशीवट, रसमय धीरसमीर, सुभग भुव खेलन ।
नमो-नमो जै मानसरोवर सुख ग्रहण जुड़वा के मन ॥
नमो-नमो दुम बेली खग-मृग जे-जे प्रगट गोप्य श्री कानन ।
नमो जयति हित स्वामिनी राधा अलबेली अलबेलौ मोहन ॥

  • श्री अलबेलीशरण जी

प्रेम या रस मूर्ति श्यामा-श्याम प्रकृतितः रास और विलास प्रिय हैं। रास और विलास प्रियता का स्वरुप प्रकट होता है। इसीलिए श्री हित उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि रास-विलास के साथ यह जोरी सदा विराजमान रहे –

नव निकुंज अभिराम श्याम संग नीको बन्यो है समाज।
जै श्री हित हरिवंश विलास रास जुत जोरी अविचल राजु ॥

राधाकिंकरीगण इस रास-रस का पान आंख-चक्षुओं द्वारा करती हैं। राधाकिंकरी भानुभावितहृदय रसिकों को भी प्रत्यक्ष दर्शन इस रास-विलास का रसवाद निरन्तर मिल द्वारा संभवतः इस उद्देश्य की निगरानी के लिए श्री हिताचार्य ने प्रेम मूर्ति श्यामाश्याम की इस नित्य रासलीला के अनुकृति का प्रागट्य किया। यह रासलीलानुकरण वृंदावन में होने वाले उस नाद्यन्त नित्यरस का अनुकृति जो मुक्तजनों, भक्तजनों और गोविन्द प्रिय परिकर से सर्वथा अलक्षित है। यह भागवत विवरण द्वापरान्त में होने वाले महारास से विशेषण उस नित्यरस का अनुकृति था जो केवल राधा-प्रिय किंकरीगण ही करती हैं । इस रासलीलाणूकरण श्री द्वारा शुरू किया गया हिताचार्य ने वि. से। 1592 के लगभग पंचकोसी वृन्दावनस्थ चैन घाट [वर्तमान नाम गोविन्द घाट) में विनिर्मित रास मंडल पर ब्रजवासी बालकों को श्यामा-श्याम व सहचरियों के वेष से खींचकर किया था।
इसी रासमण्डल में एक समय महारास के मध्य में श्री राधा के स्तम्भ की नूपुर टूट गई थी और वहाँ उपस्थित श्री हरिराम व्यास जी ने अपने यज्ञोपवीत से नूपुर गुँथ कर श्री प्रिया जी के स्टैटे में धारण दावों पर हस्ताक्षर किए।
‘प्रेम’ किंवा ‘रस’ जब होती उज्जृंभित होता है तब इसमें राग की ऊर्मियां प्रकृतितः उच्छलित हैं। श्यामा-श्याम-प्रेम किंवा रस की सघन प्रतिमा ही हैं । यही कारण है कि उन्हें रागलापन और वीणा-वंशी वादन अत्यधिक प्रिय है। कभी रसिकशेखर श्यामसुन्दर वंशी वादन के माध्यम से श्री प्रिया के साथ गायन करके उन्हें प्रसन्न करते हैं तो कभी केवल प्रिया जी अपना मधुर गायन और वीणा वादन-द्वारा अपने प्रियतम को आनंदित करती हैं। इसी प्रकार राग और अनुराग की राजीव प्रतिमाएँ सहचरीगण भी समय-समय पर ग्रहण के रागालाप का अनुगमन करके कभी प्रातः, कभी मध्यान्तर, उत्थापन काल में और कभी रात्रि रास में गायन-वादन करके अधिकार का मनोरंजन करती हैं।
राधाकिंकरी भानुभावित रसिक भी इसी प्रकार से रस लीलाओं के पद्यात्मक गायन द्वारा अपने प्रतिष्ठान को गौरवान्वित कर सके तथा स्वयं वृंदावनरसानन्द का अनुभव कर सके – इस उद्देश्य से श्री हिताचार्य ने ‘समाज गायन’ की अभिप्रेरणा और मौलिक गायन कार्यप्रणाली का भी समुद्भव किया। यहाँ पर यह निटान्त अपराध है कि उन्होंने सामवेद के स्वर प्रधान संगीत को अक्षर प्रधान स्वरूप इस मूल गान पद्धति को जन्म दिया और रस लीला संबंधित गेय पदों को एक धुन विशेष में आबद्ध करके उन विशिष्ट ‘धुनों’ का भी आविष्कार किया; जो आज भी राधावल्लभीय समाजगान गायकों के कैंठ में बैंकर से सुरक्षित हैं।
रसिकाचार्य गो. हित हरिवंश जी के कई शिष्य हुए, उनमें से भगवत मुदित जी द्वारा रचित ‘रसिकअनन्यमाल’ में वर्णित शिष्यों का नामोल्लेख किया जाता है
इन असंबद्ध रसिकों से श्री नरवाहन, हरिरामव्यास, छबीलेदास, नाहरमल, बीठलदास, मोहनदास, नवलदास, हरीदास तुलाधार, हरीदास जी [कर्मठी बाई के ताऊ], परमानन्ददास, प्रबोधानंद सरस्वती, कर्मठी बाई, सेवक जी, खरगसेन, गंगा, जमुना, पूरनदास , किशोर, सन्तदास, मनोहर, खेम, बालकृष्ण, ज्ञानू, गोपालदास नागर, आदि।

रचनायें :
श्रीाचार्य हित द्वारा विरचित रचनाएँ बताई गई हैं –

1: श्रीराधासुधानिधि
यह एक संस्कृत काव्य है जिसकी श्लोक संख्या 270 है। इस ग्रंथ में श्री राधाकृष्ण के विभिन्न निकुञ्ज लीलाओं का वर्णन है, संग में अभिलाषा एवं वंदना के श्लोक भी संगृहीत हैं।

2: श्री यामाष्टक
श्री यामाष्टक संस्कृत में रचित एक अष्टक है जिसका श्लोक संख्या 9 है। इसमें श्री यमुना जी का यश एवं उनकी वंदना का वर्णन है।

3: श्री हित चौरासी
श्री हित चौरासी ब्रजभाषा में एक पद्य रचना है जिसमें 84 पद सक्रिय हैं। इस ग्रन्थ में श्री श्यामाश्याम की निकुंज लीला का वर्णन है।

4: स्फुट वाणी
इस ग्रन्थ में ब्रजभाषा में 24 पद डायरेक्ट हैं, जिसमें सिद्धांत, आरती, श्री श्यामाश्याम की निकुंज लीला, आदि के पद हैं।

ये 4 स्थायी के अतिरिक्त श्री हिताचार्य जी के 2 पत्र ब्रजभाषा गद्य में रचित हैं।

जयकृष्ण जी ने श्री हिताचार्य का निकुंज गामन वर्णन करते हुए लिखा है कि –
श्री यमुना जी के तट पर मानसरोवर के निकट भांडीरवत है। कुसुमित ललित लिपियों से रमणीय इस वन स्थली में ‘भँवरनी भवन’ नामक एक निभृत निकुंज है। इस निकुंज में श्यामा-श्याम रति बिहार करते हैं। शारदीय पूर्णिमा [आश्विन की पूर्णिमा] की चन्द्र-चन्द्रिका में रति रस बिहार के रसासव से आघूर्णित नयन रहे श्री रसिक संलग्न झूम थे, घूम रहे थे, उनके श्री अंग की कान्ति चन्द्र-कान्ति को अत्यधिक कान्त बना रही थी। श्रीाचार्य हित को प्रिया जी के अंग की सुगंध ने अपनी ओर बलात् खींचा। परिणामतः वे उस सुगन्ध के आधार से “प्रिया जी ! यह कहते हुए कि वन में घुसते ही चले गए और थोड़े देर में प्रिया जी के अंग-चन्द्रिका में घुल गए। इस प्रकार से वि. सं. 1609 की आश्विन पूर्णिमा की रात्रि में श्री हित जी लोक-दृष्टि से ओझल हो गया।
🙌 वंशी अवतार श्रीहित हरिवंश जी महाराज जी की जय हो 🙌
🙌 श्रीहित सजनी सखि की जय हो 🙌
🙏 श्री हरिवंश 🙏
📖✨ चरित्र विश्राम✨📖



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Childhood moments of Hit Harivansh Mahaprabhu Context 1: Hitharivansh Mahaprabhu ji tells an incident when he was 4-5 years old, one day he got up early and at that time his mother had not even served Thakur and the doors of the temple were also closed. He started crying, he did not agree, so his mother put sandalwood in water and gave it to him, she said, don’t cry, take this, it is Charanamrit, he said, it is not Charanamrit, and during the day, the fragrance of Radha Madhav’s feet used to smell, but it is not coming. Is ! Then his parents are surprised, we could not know this thing in our whole life and now he is in this condition at this age, this is called exclusive devotee!

Episode 2: Once Shrihit, he decorated two children as Radha and Mohan, then after some time changed the makeup and made Radha wear Mohan and Mohan as Radha. Inside the house, his father Vyasji was looking at the image of his adorable Shriradhakant by adorning him. Then suddenly they were shocked. He must have confused Sri Radha with Shri Krishna due to his old age, but immediately that makeup started changing on its own. When he came out in panic, he saw that Mr. Hit Harivansh was playing the game of changing the makeup of Radha and Krishna with his friends in the garden.

Episode 3: One day his father Vyasji kept laddoos as bhog in front of Thakurji and started reciting bhog mantras with his eyes closed. When he opened his eyes, he saw that two fruits were placed in the plate of enjoyment. He remembered the old incident. He came out and saw that the child Shrihit Harivansh had made two trees in the garden into the form of Radha Krishna by wearing blue-yellow flower garlands and placed fruits in front of them.

Episode 4: Once a thought comes in his mind that this Thakur ji belongs to my parents, he serves as per his wish, we should also have our own Thakur, so one day at the age of five, Thakur ji informed Mr. Hit Harivansh ji. Given that our deity is in the dry well of the garden, knowing this much, he jumped into the well. Seeing this, the parents and family members were very upset. Only then people saw that a divine light had emanated in the well and a beautiful idol of the child Shri Hit Harivansh Shyam Sundar was rising up from the well on its own, holding it in lotuses. As soon as they reached their top, the well was filled with sweet water. Thakur ji was brought to the Rajmahal and Shrihit Harivanshji’s father named him – Shrinavarangilal (because he does new leela everyday) and started worshiping him with great love. Even today one can have darshan of Shriradhanavarangi Lal ji in Devvand. At the age of eight, Shri Hitacharya’s Upanayana Sanskar took place. At this age, his intelligence was more intense than normal children and his power of perception was miraculous. With his affection and mother-in-law, he had established a good circle of friends around him in childhood itself. The games of these child-friends were dreadful. Some game or the other was played in relation to devotion to the Lord. He had a natural interest in serving and worshiping Thakur ji and the greatness of this Mahaprasad was described to his childhood friends. These wonderful feelings towards Ekadashi fast were expressed at this age. Gradually, due to his unique spirit and service-worship, he became famous in the nearby region and Raspipas came to him. The miracles that were performed in this era are described in the communal texts.

Radhavallabh ji was given by Shiv Shankar ji, which was given to Atma Dev ji by Atmadev with devotion and by the order of Shri ji. When Shiv ji appeared in front of Atmadev ji, he asked to ask for something, then Atmadev ji just said that give only what is most dear to you, then he remembered that we love Radhavallabh ji the most, so Thakur By the order of ji, she gave that juice idol to Atmadev ji and for many years Atmadev ji loved worshiping it and decided that we will give it to the one who will marry our daughters! The same Radhavallabh ji met Harivansh and the village through which he used to pass is celebrated in the same village. He reaches Vrindavan in 2 months and first of all he visits Yamuna ji. He stopped and sat down at a place called Madanter, Vraj residents came there and earlier arrows were released where the arrow used to fall, they were given land till where the arrow falls. All the land was given to Harivanshji. Then Thakur ji sat in Seva Kunj. Shri Harivansh ji was the first Acharya who came and stayed with the family.

सोलह वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का विवाह रुकमिनी देवी के साथ संपन्न हुआ। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर भी किसी ने अपनी धार्मिक निष्ठा में परिवर्तन नहीं किया। गृहस्थाश्रम के सभी कर्त्तव्यों का पालन करते हुए ये पूर्वाग्रह रूप में भक्त और सन्त बने रहे । इस जीवन के प्रति उनके मन में न तो वैराग्य भावना थी और न इसके प्रति किसी प्रकार का हीन भाव ही ये रखते थे। उनका दाम्पत्य-जीवन सुखी-सम्पन्न और आदर्श था। सर्व प्रकार के ऐश्वर्य एवं भोगविलास की सामग्री के पास उनकी भावना में उनके लिए किसी प्रकार की आसक्ति न होने से लेकर ये कभी व्यग्र, सतर्कता या निर्देश न होते थे। श्रीमती रुकमिनी देवी से श्री हितकारी के एक पुत्र और तीन पुत्र आय। ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचंद्रजी स0 1585, द्वितीय पुत्र श्री कृष्णचंद्रजी संवत् 1587, तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथजी सवत् 1588 तथा पुत्र साहिब दे सम्वत् 1589 मे आयते हैं। श्री हरिवंशजी की माता तारारानी की माता 1589 में और श्री व्यास मिश्र के निकुंजगमन 1590 सम्वत में हुई। माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त श्री हरिवंशजी के मन में यह भाव आया कि किसी प्रकार भगवान की लीलास्थली में जाकर वहां की रसमयी भक्ति-पद्धति में लीन जीवन सफल होगा। उसी समय उनकी ख्याति से प्रभावित लिबास राजा ने उन्हें अपने दरबार में बुलाने के लिए सदर निमंत्रण भेजा, वे अपने अंतर्मन में भगवान् की लीलाभूमि का स्वीकार किया, क्योंकि राजा के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। और एक श्लोक में यह उत्तर भिजवा दिया कि सृष्टि के आदि से नरेन्द्र-सुरेन्द्र, बत्तीस वर्ष की आयु में श्रीराधा ने श्री हित हरिवंश को श्री वृन्दावन-वास एवं धर्म-प्रचार की आज्ञा दी। इस आज्ञा के प्राप्त होते ही श्री हित जी वृन्दावन चल रहे हैं। वे चलते समय रुकमिनी जी से चलने को कहा वे साथ न आसक । देववन से प्रस्थान के बाद मार्ग में उन राधा के सपने में दर्शन दें और उन लोगों ने कहा कि “आगे एक चिरथावल नाम का गांव तुम्हारे मार्ग में आएंगे, उस गांव में यदि कोई ब्राह्मण अपनी दो कन्याओं का तुम से विवाह करना चाहे तो तुम उसे स्वीकार कर लेना। यह विवाह तुम्हारा भक्ति-पथ मे किसी प्रकार का अंतराय आयेगा न होगा। इस विवाह के द्वारा तुम अधिकार जीवन का आदर्श प्रतिष्ठित करोगे। ” उसी के साथ यह भी उस स्वप्न में उन्हें राधाजी ने कहा कि “मेरा एक विग्रह (राधावल्लभजी के रूप मे) मिलेगा जिसे तुम वृन्दावन मे ले जाकर मंदिर में ववत् विधि स्थापित करना।” ऐसा ही आत्मदेव नामक ब्राह्मण को भी हुआ जो उसी चिरथावल गांव का रहने वाला था। इस स्वप्न के बाद श्री हरिवंश जी अपने यात्रा पथ में चिन्हित करते हैं और उस गांव मे (चिरथावल) पहुंचते हैं जिसमें आत्मदेव नाम का ब्राह्मण रहता था। उनकी दो नवयुवती कन्याएँ थीं और पूर्व दृष्ट दृष्टि के आधार पर श्री वह हरिवंशजी के आगमन की सतत प्रतीक्षा कर रहे थे। वे आते ही उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण करने के लिए हरिवंशजी से प्रार्थना की जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इन कन्याओं के नाम कृष्णदासी और मनोहरदासी थे। चिरथावल गांव में कुछ समय तक लोड कर फिर श्री हरिवंश जी ने अपनी यांत्रा की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। पर वह श्री हरिवंशजी के आगमन की सतत प्रतीक्षा कर रहा था। वे आते ही उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण करने के लिए हरिवंशजी से प्रार्थना की जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इन कन्याओं के नाम कृष्णदासी और मनोहरदासी थे। चिरथावल गांव में कुछ समय तक लोड कर फिर श्री हरिवंश जी ने अपनी यांत्रा की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। पर वह श्री हरिवंशजी के आगमन की सतत प्रतीक्षा कर रहा था। वे आते ही उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण करने के लिए हरिवंशजी से प्रार्थना की जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इन कन्याओं के नाम कृष्णदासी और मनोहरदासी थे। चिरथावल गांव में कुछ समय तक लोड कर फिर श्री हरिवंश जी ने अपनी यांत्रा की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। ने अपने यंत्र की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। ने अपने यंत्र की और सम्वत 1590 को फाल्गुन की एकादशी को वृन्दावन पहुंचे। यहाँ पर मिलने पर मदनटर नामक स्थान पर विश्राम के लिए डेरा डाला। यह स्थान आज भी वृन्दावन में प्रसिद्ध है। वहीँ श्री हिताचार्य ने श्री राधावल्लभ के लिए लता-कुञ्ज निर्मित कर उन्हें स्थापित किया और गाड़ी की। श्री हिताचार्य जिस समय वृन्दावन में आते हैं उस समय वह लता पुंजकार दल-फल और फूलों से परिपूर्ण एक सघन कुंज के रूप में था। यह लता पुंजाकार वृन्दावन शुक पिक-सारस हंस आदि पक्षियों के रंगव से मुखरित और चारों ओर यामा से समावृत्त था। कहीं-कहीं तटस्थ ऊँचे टीले पर यामा स्नान के लिए आए हुए ब्रजवासीगण से अवश्य दिखाई देते थे। गत श्री हिताचार्य के द्वारा ज्ञात समा होने पर कि- इस सघन निर्जन वन में हम निवास करेंगे उन सभी ब्रजवासियों को अत्यधिक विस्मय और हार्दिक बधाई हुई। उन्होंने श्री हित के हाथ में तीर कमान देते हुए कहा के गुसाईं जी आप तीर चलाइए, आपका तीर वहां तक ​​पहुंचेगा जहां तक ​​की भूमि आपकी होगी। यह श्रीाचार्य हित का मधुर प्रभाव ही था कि बटमार वृत्ति वाले ब्रजवासियों के चित्त का पूर्ण परिवर्तन हो गया और वे पंचकोसी वृंदावन में श्री हिताचार्य को भूमि प्रदान करने के लिए तैयार हो गए। ब्रजवासियों के कहने पर श्री हिताचार्य ने एक तीर छोड़ दिया और वह काफी दूरी पर गिर गए। श्रीाचार्य हित ने जहाँ तीर फेंका, अपना निवास उसी स्थान को बनाया और जहाँ पर वह तीर गिरा, कालान्तर में वह स्थान ‘तीर घाट’ और बाद में ‘चीर घाट’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। श्रीाचार्य हित के दिव्य स्वरूप पर मुग्धने ब्रजवासी दर्शनार्थ आने और शीघ्र निकटवर्ती गाँवों में इनके आगमन की खबर फैली। जब श्री हिताचार्य वृन्दावन आयें तब उस समय वृन्दावन घनघोर जंगल था। वहां एक नरवाहन नाम का डाकू रहता था जिसके डर से वहां दिन में भी कोई नहीं आता। उसने अपनी शक्ति के द्वारा संपूर्ण ब्रज प्रदेश पर अपना अधिकार ही बना लिया था। उनकी इस शक्ति से बड़े-बड़े राजे महाराजे भी चौकस थे। यहां तक ​​कि दिल्लीश्वर का भी इस नरवाहन पर कोई नियन्त्रण नहीं था। जब नरवाहन को उनके गुप्तचरों द्वारा यह ज्ञात हुआ कि कोई ऐसा चमत्कारी महापुरुष हिंसक जन्तुओं से संसेवित निर्जन वन में आया है; जिसके मधुर प्रभाव से हिंसक जन्तु और निर्जन वन के परिसर में बसे बटमारों के मन-बुद्धि और चित्त बदल गए हैं और वे सब उस महापुरुष की सेवा सुश्रुषा में निरत हो गए हैं; तो कुतूहल देखने की दृष्टि से एक दिन नरवाहन भी श्री हित के निवास स्थान पर आए। उस समय श्री हिताचार्य अपने शिष्यों और ब्रजवासियों से समावृत्त थे और ‘नवल’ नामांकित शिष्य के साथ कुछ आलाप-संलाप कर रहे थे। राजा नरवाहन भी श्री हिताचार्य के मधुर प्रभाव से जीते न बने रहें। उसे सुनकर अपनी वृत्ति पर बहुत खेद हुआ। उन्होंने अपना हार्दिक दुख प्रकट करते हुए श्री हिताचार्य से स्वयं को शरण में लेने की प्रार्थना की। श्रीाचार्य हित ने उनकी निष्कपट वाणी सुनकर मन्त्रदान के साथ-साथ उपदेश भी दिया जिससे उनके जीवन का मूलचूल परिवर्तन हो गया। नरवाहन जैसे खूंखार डाकुओं के जीवन के इस परिवर्तन से पंचकोसी वृन्दावन में निवास करना हर किसी के लिए चुना जा सकता है। फलतः बृहद वृन्दावनस्थ ब्रज के नन्दग्राम, बजना, राधाकुंड और संकेत आदि ग्रामों में बसे हुए सन्तजन भी श्री हिताचार्य द्वारा प्रकट इस पंचकोसी रास्थल वृन्दावन में निवास करने । इससे पूर्व के सभी भक्तगण इस पंचकोसी वृन्दावन से जुड़े हुए थे। श्रीाचार्य हित ने जिस स्थान से तीर फेंका था उसी स्थान पर लता विनिर्मित मंदिर या परणा कुटी में श्री राधाबल्लभलाल जी को विराजमान कर दिया और अपने निवास के लिए किसी प्रकार का निवास स्थान श्री राधाबल्लभलाल जी की अष्टयामी सेवा करने लगे। जब तक राजा नरवाहन द्वारा नए मंदिर का निर्माण नहीं हुआ था, तब तक वे इस मंदिर में विनिर्मित थे। राजा नरवाहन ने श्री राधाबल्लभलाल जी का नया मंदिर उसी स्थान पर बनवाया था, जहां पर श्री हिताचार्य स्वेटर निवास करते थे। नव मंदिर का निर्माण हो जाने पर vi. सं. 1591 की कार्तिक शु तेरस को श्री हिताचार्य ने श्री राधाबल्लभलाल जी को विराजमान किया और विशेष उत्सव के साथ पाटोत्सव मनाया। अनेक संतगण गोकुल, गोवर्धन, नंदगाव और शनिवार में निवास करते थे। उस समय गोवर्धन, नंदगाव और बजना भी वृहद् वृन्दावन था। श्री हरिवंश जी ने यहां कई लीला स्थलों को प्रकट किया और वृंदावन की सीमा पंचकोसी निर्धारित की। उसी दिन आज भी वृन्दावन प्राकट्य उत्सव मनाया जाता है।

May you stay in Bhaugaon Nanav Narabahan Sadhusevi, Looti Lai Naav, Jaki Bandikhanai Diyou Hai. Laundi Awai Dan Kachhu, Khayve Ko Khayve, I have mercy, you are very lonely, you have done this remedy ॥ Say Radhavallabh, take the name of Harivansh, say the name of the disciple, take the local name. I have ordered the item, keep the difficult thing, O servant, fear, you have given me a comfortable position. Shri Bhaktamal (419)

श्री “नरवाहन” जी श्रीहरिवंशजी के शिष्य, परम संतसेवी, “भगाँव” में रहते थे। ब्रज के एक जमींदार थे और लुटेरे भी। कोई सेठ की संपत्ति नाव में लाखों लाख यया जी के मार्ग से जा रहा था, नरवाहन ने संत सेवा के लिए सब लूटलिया, और उस सेठ को करागार (बंडीघर) में डाल दिया। उस वणिक (सेठ) को भोजन देने वाली एक लौंडी (ठहलनी) कारागार में डाली गई थी, सेठ की दुर्दशा देखकर उस टहलनी के दिल में बड़ी दया आई, तब बहुत अकुलाके उसे एक उपाय बताया गया है कि “तुम बड़े ऊँचे स्वर से” राधावल्लभ श्रीहरिवंश ! यह नाम जपो, जब पूछा गया जाय, तब कहता है कि मैं श्रीहरिवंश जी का शिष्य हूँ।” उस सेठ ने ऐसा ही किया और उच्च स्वर से ” राधावल्लभ श्रीहरिवंश” नाम रटने लगा। जब श्रीनरवाहनजी ने यह सुना तो उस सेठ के पास गए और पूछा कि “तुम यह नाम क्यों जपते हो?” उस सेठ ने कहा “मैं श्रीहरिवंशजी का शिष्य हूँ।” राजा नरवाहन बड़े ही गुरु निष्ठावान थे। नंबर ही उस सेठ को मुक्त कर दिया और धन देकर कहा कि “श्रीगुसाईंजी से यह बात नहीं कहती।” वह सेठ आरंभ ही श्रीवृन्दावन गया श्रीहित हरिवंशजी का शिष्य हो गया, और अपना वृत्तान्त भी सुनाया “नरवाहन जी ने लाखों का धन लेकर मुझे करगार में डाल दिया सो मैंने आपका नाम लिया और झूठ ही कहा कि” आपका शिष् हूँ । यह नंबर मुझे ही नरवाहन जी ने मुक्त कर दिया और मेरा पूरा धन देकर मुझे घर भेज दिया। रहने का अपना “चौरासी” श्री हिताचार्य के परमोपास्य शतेश्वर्य संपन्न भगवान नहीं थे; प्रत्युत कोटि ब्रह्म ऐश्वर्य के परकोटे के प्रस्ताव उसे दूर माधुर्य मूर्ति, रस-रसिक, अद्वय अपर किशोर थे । भगवान की सेवा पूजा वैदिक विधान द्वारा संविधेय होती है माधुर्य प्रतिमा, ‘प्रेम’ किंवा ‘रस’ विग्रह श्री राधावल्लभलाल जी की सेवा प्रीति-विधान से ही सम्भव थी। अतः श्री हिताचार्य ने अपने स्नेह भाजन श्रीराधाबल्लभलाल जी का अहर्निशितमानानुरूप अनेक प्रकार से लाड़-दुलार से प्रेम किया। इस लाड़-प्यार को ही उन्होंने सात भोग और पांच आरती विधि निषेध शून्य ‘अष्टयामी सेवा’ तथा वर्ष में आने वाले मौसम उत्सव [वसन्त, होली, होरीडोल, जलबिहार, पावस, झू और आदि) की ‘उत्सविक सेवा’ का संवाद रूप प्रदान किया गया। साथ ही अपने आचरण एवं वाणी द्वारा दैनिक स्वेष्ट की मानसी सेवा करने का भी निष्कर्ष दिया। श्रीाचार्य हित ने ऐसे वृन्दावन का प्रागत्य किया था जो कि भूतलस्थ होते हुए भी ‘देवानामथ भक्त-मुक्त’ और श्री कृष्ण के लीला परिकर के लिए भी दुर्बल लक्ष्य था। इसीलिए यह वृन्दावन परम रहस्य संज्ञक बना और बना रहेगा। ऐसे वृन्दावन में होने वाली लीलायें और लीला स्थानों का प्रागट्य भी कई दृष्टियों से अनिवार्य था। इसलिए श्रीाचार्य हित ने उन लीला स्थलों का भी यथार्थ रूप से उल्लेख किया है श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में नहीं है। इन लीला स्थानों का प्रागत्य ही पंचकोसी वृन्दावन का प्रागत्य है और जो रहस्य रूप वृन्दावन के परिचय प्रदाता तथा प्रत्यक्ष प्रतीक हैं। पंचकोसी वृन्दावन में उनके प्रकट हुए लीला स्थल हैं- रासमंडल, सेवाकुंज, वंशीवट, धीरसमीर, मानसरोवर, हिंडोल स्थल, शृंगारवट और वन विहार।

Namo Jayati Jamuna Vrindavan. Namo Nikunj Kunj Seva, Hit Mandal Ras, Dol, Anandghan ॥ Namo Pulin Vanshivat, Rasamay Dhirsamir, Subhag Bhuv Khelan. Namo-namo jai Mansarovar happiness eclipse in the mind of twin ॥ Namo-namo dum belly khag-mrig je-je revealed secret Mr. Kanan. Namo Jayati Hit Swamini Radha Albeli Albelau Mohan ॥ Mr. Albelisharan

Prem or Rasa Murti Shyama-Shyam is nature’s favorite of Rasa and Vilas. Raas and Vilas are the forms of love. That’s why Mr. Hit blesses him and says that this Jori should always sit with Raas-Vilas –

The society has become better with the new park Abhiram Shyam. Jai Shri Hit Harivansh Vilas Ras Jut Jori Avichal Raju ॥

राधाकिंकरीगण इस रास-रस का पान आंख-चक्षुओं द्वारा करती हैं। राधाकिंकरी भानुभावितहृदय रसिकों को भी प्रत्यक्ष दर्शन इस रास-विलास का रसवाद निरन्तर मिल द्वारा संभवतः इस उद्देश्य की निगरानी के लिए श्री हिताचार्य ने प्रेम मूर्ति श्यामाश्याम की इस नित्य रासलीला के अनुकृति का प्रागट्य किया। यह रासलीलानुकरण वृंदावन में होने वाले उस नाद्यन्त नित्यरस का अनुकृति जो मुक्तजनों, भक्तजनों और गोविन्द प्रिय परिकर से सर्वथा अलक्षित है। यह भागवत विवरण द्वापरान्त में होने वाले महारास से विशेषण उस नित्यरस का अनुकृति था जो केवल राधा-प्रिय किंकरीगण ही करती हैं । इस रासलीलाणूकरण श्री द्वारा शुरू किया गया हिताचार्य ने वि. से। 1592 के लगभग पंचकोसी वृन्दावनस्थ चैन घाट [वर्तमान नाम गोविन्द घाट) में विनिर्मित रास मंडल पर ब्रजवासी बालकों को श्यामा-श्याम व सहचरियों के वेष से खींचकर किया था। इसी रासमण्डल में एक समय महारास के मध्य में श्री राधा के स्तम्भ की नूपुर टूट गई थी और वहाँ उपस्थित श्री हरिराम व्यास जी ने अपने यज्ञोपवीत से नूपुर गुँथ कर श्री प्रिया जी के स्टैटे में धारण दावों पर हस्ताक्षर किए। ‘प्रेम’ किंवा ‘रस’ जब होती उज्जृंभित होता है तब इसमें राग की ऊर्मियां प्रकृतितः उच्छलित हैं। श्यामा-श्याम-प्रेम किंवा रस की सघन प्रतिमा ही हैं । यही कारण है कि उन्हें रागलापन और वीणा-वंशी वादन अत्यधिक प्रिय है। कभी रसिकशेखर श्यामसुन्दर वंशी वादन के माध्यम से श्री प्रिया के साथ गायन करके उन्हें प्रसन्न करते हैं तो कभी केवल प्रिया जी अपना मधुर गायन और वीणा वादन-द्वारा अपने प्रियतम को आनंदित करती हैं। इसी प्रकार राग और अनुराग की राजीव प्रतिमाएँ सहचरीगण भी समय-समय पर ग्रहण के रागालाप का अनुगमन करके कभी प्रातः, कभी मध्यान्तर, उत्थापन काल में और कभी रात्रि रास में गायन-वादन करके अधिकार का मनोरंजन करती हैं। राधाकिंकरी भानुभावित रसिक भी इसी प्रकार से रस लीलाओं के पद्यात्मक गायन द्वारा अपने प्रतिष्ठान को गौरवान्वित कर सके तथा स्वयं वृंदावनरसानन्द का अनुभव कर सके – इस उद्देश्य से श्री हिताचार्य ने ‘समाज गायन’ की अभिप्रेरणा और मौलिक गायन कार्यप्रणाली का भी समुद्भव किया। यहाँ पर यह निटान्त अपराध है कि उन्होंने सामवेद के स्वर प्रधान संगीत को अक्षर प्रधान स्वरूप इस मूल गान पद्धति को जन्म दिया और रस लीला संबंधित गेय पदों को एक धुन विशेष में आबद्ध करके उन विशिष्ट ‘धुनों’ का भी आविष्कार किया; जो आज भी राधावल्लभीय समाजगान गायकों के कैंठ में बैंकर से सुरक्षित हैं। रसिकाचार्य गो. हित हरिवंश जी के कई शिष्य हुए, उनमें से भगवत मुदित जी द्वारा रचित ‘रसिकअनन्यमाल’ में वर्णित शिष्यों का नामोल्लेख किया जाता है इन असंबद्ध रसिकों से श्री नरवाहन, हरिरामव्यास, छबीलेदास, नाहरमल, बीठलदास, मोहनदास, नवलदास, हरीदास तुलाधार, हरीदास जी [कर्मठी बाई के ताऊ], परमानन्ददास, प्रबोधानंद सरस्वती, कर्मठी बाई, सेवक जी, खरगसेन, गंगा, जमुना, पूरनदास , किशोर, सन्तदास, मनोहर, खेम, बालकृष्ण, ज्ञानू, गोपालदास नागर, आदि।

Compositions: Compositions composed by Shricharya Hit have been told –

1: Shriradhasudhanidhi It is a Sanskrit poem having 270 verses. This book describes various Nikunj pastimes of Shri Radhakrishna, along with verses of desire and worship are also collected.

2: Mr. Yamashtak Shri Yamashtak is an Ashtak composed in Sanskrit, which has 9 verses. In this, there is a description of Shri Yamuna ji’s fame and his worship.

3: Mr. Hit Chaurasi Shri Hit Chaurasi is a verse composition in Braj Bhasha which has 84 active verses. Nikunj Leela of Shree Shyamashyam is described in this book.

4: Clear speech There are 24 direct verses in Braj Bhasha in this book, in which Siddhanta, Aarti, Shri Shyamashyam’s Nikunj Leela, etc.

Apart from these 4 permanent, 2 letters of Shri Hitacharya ji are composed in Braj Bhasha prose.

While describing the Nikunj Gaman of Shri Hitacharya, Jayakrishna has written that – Bhandirvat is near Mansarovar on the banks of Shri Yamuna ji. There is a Nibhrit Nikunj named ‘Bhanwarni Bhawan’ in this forest place, delightful with beautiful scripts. Shyama-Shyam Rati Bihar does in this Nikunj. In the moon and moon of Sharadiya Purnima [full moon of Ashwin], Sri Rasik, whose eyes were enthralled by the rasava of Rati Bihar, were swinging attached, roaming around, the radiance of their Sri Anga was making the moon-kanti extremely dazzling. The fragrance of Priya ji’s body forcibly pulled Shricharya Hit towards him. As a result, on the basis of that fragrance, saying “Priya ji! Hit ji disappeared from public sight. 🙌 Hail Vanshi Avatar Shrihit Harivansh Ji Maharaj 🙌 🙌 Hail Shrihit Sajni Sakhi 🙌 🙏 Shri Harivansh 🙏 📖✨ Character Relaxation✨📖

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