पंचाध्यायी–महारासलीला पोस्ट – 02

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. श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा भगवान् को न देखकर व्रज युवतियों की वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराज के बिना हथिनियों की होती है। उनका हृदय विरह की ज्वाला से जलने लगा। भगवान श्रीकृष्ण की मदोन्मत्त गजराज की-सी चाल, प्रेमभरी मुस्कान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओं तथा श्रृंगार-रस की भाव-भंगियों ने उनके चित्त को चुरा लिया था। वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं। अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीर में भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उतर आयी। वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण-स्वरूप हो गयीं और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’–इस प्रकार कहने लगीं। वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वर से उन्हीं के गुणों का गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे वहीं थे, उन्हीं में थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियों से, पेड़-पौधों से उनका पता पूछने लगीं। ‘हे पीपल, पाकर और बरगद! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेम भरी मुस्कान और चितवन से हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुम लोगों ने उन्हें देखा है ? अब उन्होंने स्त्रीजाति के पौधों से कहा–‘बहिन तुलसी! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगों का कल्याण चाहती हो। भगवान के चरणों में तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरों के मँडराते रहने पर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहले रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दर को देखा है ? प्याली मालती! मल्लिके! जाती और जूही! तुम लोगों ने कदाचित हमारे प्यारे माधव को देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधर से गये हैं ?’ श्रीकृष्ण के बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पाने का मार्ग बता दो।' ‘अरी सखी! हिरनियों! हमारे श्यामसुन्दर के अंग-संग से सुषमा-सौन्दर्य की धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी प्राणप्रिया के साथ तुम्हारे नयनों को परमानन्द का दान करते हुए इधर से ही तो नहीं गये हैं? देखो, देखो; यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की माला की मनोहर गन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के अंग-संग से लगे हुए कुच-कुंकुम से अनुरंजित रहती है।’ ‘तरुवरों! उनकी माला की तुलसी में ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्ध के लोभी मतवाले भौंरे प्रत्येक क्षण उस पर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथ में लीला कमल होगा और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसी के कंधे पर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधर से विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान पड़ता है, तुम लोग उन्हें प्रणाम करने के लिये ही झुके हो। परन्तु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन से भी तुम्हारी वन्दना का अभिनन्दन किया है या नहीं?’ ‘अरी सखी! इन लताओं से पूछो। ये अपने पति वृक्षों को भुजपाश में बाँधकर आलिंगन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ? इनके शरीर में जो पुलक है, रोमांच है, वह तो भगवान के नखों के स्पर्श से ही है। अहो! इनका कैसा सौभाग्य है?’ इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान श्रीकृष्ण को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं। एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयीं, तो किसी ने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैर की ठोकर मारकर उलट दिया। कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्य का रूप धारण कर उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगी। एक बनी कृष्ण, तो दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालों के रूप में हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब तो गोपियों ने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियों को मारने की लीला की। जैसे श्रीकृष्ण वन में करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओं को बुलाने का खेल-खेलने लगी। तब दूसरी गोपियाँ ‘वाह-वाह’ करके उसकी प्रशंसा करने लगीं। एक गोपी अपने को श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखी के गले में बाँह डालकर चलती और गोपियों से कहने लगती–‘मित्रों! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुम लोग मेरी यह मनोहर चाल देखो।' कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती–‘अरे व्रजवासियों! तुम आँधी-पानी से मत डरो। मैंने उससे बचने का उपाय निकाल लिया है।’ ऐसा कहकर गोवर्धन उठाकर ऊपर तान लेती। एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिर पर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने लगी–‘रे दुष्ट साँप! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों का दमन करने के लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ।' इतने में ही एक गोपी बोली–‘अरे ग्वालों! देखो, वन में बड़ी भयंकर आग लगी है। तुम लोग जल्दी-से-जल्दी अपनी आँखें मूँद लो, मैं अनायास ही तुम लोगों की रक्षा कर लूँगा।' एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथों से मुँह ढ़ककर भय की नक़ल करने लगी। इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से फिर भी श्रीकृष्ण का पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान के चरणचिह्न देखे। वे आपस में कहने लगीं–अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज, अंकुश और जौ आदि के चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं।' उन चरणचिह्नों के द्वारा व्रजवल्लभ भगवान को ढूँढती हुई गोपियाँ आगे बढ़ी, तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी व्रजयुवती के भी चरणचिह्न दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपस में कहने लगीं–‘जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराज के साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के साथ उनके कंधे पर हाथ रखकर चलने वाली किस बड़भागिनी के ये चरणचिह्न हैं? अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की ‘आराधिका’ होगी। इसीलिये इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्त में ले गये हैं। प्यारी सखियों! भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमल से जिस रज का स्पर्श कर देते हैं, व धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं! क्योंकि ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करने के लिये उस रज को अपने सिरपर धारण करते हैं।’ ‘अरी सखी! चाहे कुछ भी हो, यह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्ण को एकान्त में ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधा का रस पी रही है, इस गोपी के उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं।' यहाँ उस गोपी के पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दर ने देखा होगा कि मेरी प्रेयसी के सुकुमार चरणकमलों में घास की नोंक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधे पर चढ़ा लिया होगा। सखियों! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्ण के चरणचिह्न अधिक गहरे, बालू में धँसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तु को उठाकर हेल हैं, उसी के बोझ से उनके पैर जमीन में धँस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामी ने अपनी प्रियतमा को अवश्य कंधे पर चढ़ाया होगा। देखो-देखो, यहाँ परमप्रेमी वल्लभ ने फूल चुनने के लिये अपनी प्रेयसी को नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी के लिये फूल चुने हैं। उचक-उचक कर फूल तोड़ने के कारण यहाँ उनके पंजे तो धरती में गड़े हुए हैं और एड़ी का पता ही नहीं है। परम प्रेमी श्रीकृष्ण ने कामी पुरुष के समान यहाँ अपनी प्रेयसी के केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलों को प्रेयसी की चोटी में गूँथने के लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे। इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरों को भगवान श्रीकृष्ण के चरण चिह्न दिखलाती हुई वन-वन में भटक रही थीं। इधर भगवान श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी को एकान्त में ले गये थे, उसने समझा कि ‘मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को छोड़कर, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शंकर के भी शासक हैं। वह गोपी वन में जाकर अपने प्रेम और सौभाग्य के मद से मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्ण से कहने लगी, ‘प्यारे! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर ले चलो।' अपनी प्रियतमा की यह बात सुन्दर श्यामसुन्दर ने कहा–‘अच्छा प्यारी! तुम अब मेरे कंधे पर चढ़ लो।' यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने चली, त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्वती गोपी रोने-पछताने लगी। ‘हा नाथ! हा रमण! हा प्रेष्ठ! हा महाभुज! तुम कहाँ हो! कहाँ हो!! मेरे सखा! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्य का अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो।' गोपियाँ भगवान के चरणचिह्नों के सहारे उनके जाने का मार्ग ढूँढती-ढूँढती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूर से ही उन्होंने देखा कि उन्होंने देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुःखी होकर अचेत हो गयी है। जब उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान श्रीकृष्ण से उसे जो प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहा कि ‘मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसी से वे अन्तर्धान हो गये।’ उसकी बात सुनकर गोपियों के आश्चर्य की सीमा न रही। इसके बाद वन में जहाँ तक चंद्रदेव की चाँदनी छिटक रही थी, वहाँ तक वे उन्हें ढूँढती हुई गयीं। परन्तु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार है, घोर जंगल है, हम ढूँढती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी उसके अन्दर घुस जायँगे, तब वे उधर से लौट आयीं। गोपियों का मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणी से कृष्ण चर्चा के अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीर से केवल श्रीकृष्ण के लिये और केवल श्रीकृष्ण की चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँ तक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओं का ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीर की भी सुध नहीं थी। गोपियों का रोम-रोम इस बात की प्रतीक्षा और आकांक्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्ण की ही भावना में डूबी हुईं गोपियाँ यमुना जी के पावन पुलिन पर रमण रेती में लौट आयीं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं। "जय जय श्री राधे"



. श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा भगवान् को न देखकर व्रज युवतियों की वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराज के बिना हथिनियों की होती है। उनका हृदय विरह की ज्वाला से जलने लगा। भगवान श्रीकृष्ण की मदोन्मत्त गजराज की-सी चाल, प्रेमभरी मुस्कान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओं तथा श्रृंगार-रस की भाव-भंगियों ने उनके चित्त को चुरा लिया था। वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं। अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीर में भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उतर आयी। वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण-स्वरूप हो गयीं और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’-इस प्रकार कहने लगीं। वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वर से उन्हीं के गुणों का गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे वहीं थे, उन्हीं में थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियों से, पेड़-पौधों से उनका पता पूछने लगीं। ‘हे पीपल, पाकर और बरगद! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेम भरी मुस्कान और चितवन से हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुम लोगों ने उन्हें देखा है ? अब उन्होंने स्त्रीजाति के पौधों से कहा-‘बहिन तुलसी! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगों का कल्याण चाहती हो। भगवान के चरणों में तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरों के मँडराते रहने पर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहले रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दर को देखा है ? प्याली मालती! मल्लिके! जाती और जूही! तुम लोगों ने कदाचित हमारे प्यारे माधव को देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधर से गये हैं ?’ श्रीकृष्ण के बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पाने का मार्ग बता दो।’ ‘अरी सखी! हिरनियों! हमारे श्यामसुन्दर के अंग-संग से सुषमा-सौन्दर्य की धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी प्राणप्रिया के साथ तुम्हारे नयनों को परमानन्द का दान करते हुए इधर से ही तो नहीं गये हैं? देखो, देखो; यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की माला की मनोहर गन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के अंग-संग से लगे हुए कुच-कुंकुम से अनुरंजित रहती है।’ ‘तरुवरों! उनकी माला की तुलसी में ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्ध के लोभी मतवाले भौंरे प्रत्येक क्षण उस पर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथ में लीला कमल होगा और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसी के कंधे पर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधर से विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान पड़ता है, तुम लोग उन्हें प्रणाम करने के लिये ही झुके हो। परन्तु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन से भी तुम्हारी वन्दना का अभिनन्दन किया है या नहीं?’ ‘अरी सखी! इन लताओं से पूछो। ये अपने पति वृक्षों को भुजपाश में बाँधकर आलिंगन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ? इनके शरीर में जो पुलक है, रोमांच है, वह तो भगवान के नखों के स्पर्श से ही है। अहो! इनका कैसा सौभाग्य है?’ इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान श्रीकृष्ण को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं। एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयीं, तो किसी ने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैर की ठोकर मारकर उलट दिया। कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्य का रूप धारण कर उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगी। एक बनी कृष्ण, तो दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालों के रूप में हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब तो गोपियों ने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियों को मारने की लीला की। जैसे श्रीकृष्ण वन में करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओं को बुलाने का खेल-खेलने लगी। तब दूसरी गोपियाँ ‘वाह-वाह’ करके उसकी प्रशंसा करने लगीं। एक गोपी अपने को श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखी के गले में बाँह डालकर चलती और गोपियों से कहने लगती-‘मित्रों! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुम लोग मेरी यह मनोहर चाल देखो।’ कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती-‘अरे व्रजवासियों! तुम आँधी-पानी से मत डरो। मैंने उससे बचने का उपाय निकाल लिया है।’ ऐसा कहकर गोवर्धन उठाकर ऊपर तान लेती। एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिर पर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने लगी-‘रे दुष्ट साँप! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों का दमन करने के लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ।’ इतने में ही एक गोपी बोली-‘अरे ग्वालों! देखो, वन में बड़ी भयंकर आग लगी है। तुम लोग जल्दी-से-जल्दी अपनी आँखें मूँद लो, मैं अनायास ही तुम लोगों की रक्षा कर लूँगा।’ एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथों से मुँह ढ़ककर भय की नक़ल करने लगी। इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से फिर भी श्रीकृष्ण का पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान के चरणचिह्न देखे। वे आपस में कहने लगीं-अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज, अंकुश और जौ आदि के चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं।’ उन चरणचिह्नों के द्वारा व्रजवल्लभ भगवान को ढूँढती हुई गोपियाँ आगे बढ़ी, तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी व्रजयुवती के भी चरणचिह्न दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपस में कहने लगीं-‘जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराज के साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के साथ उनके कंधे पर हाथ रखकर चलने वाली किस बड़भागिनी के ये चरणचिह्न हैं? अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की ‘आराधिका’ होगी। इसीलिये इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्त में ले गये हैं। प्यारी सखियों! भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमल से जिस रज का स्पर्श कर देते हैं, व धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं! क्योंकि ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करने के लिये उस रज को अपने सिरपर धारण करते हैं।’ ‘अरी सखी! चाहे कुछ भी हो, यह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्ण को एकान्त में ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधा का रस पी रही है, इस गोपी के उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं।’ यहाँ उस गोपी के पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दर ने देखा होगा कि मेरी प्रेयसी के सुकुमार चरणकमलों में घास की नोंक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधे पर चढ़ा लिया होगा। सखियों! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्ण के चरणचिह्न अधिक गहरे, बालू में धँसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तु को उठाकर हेल हैं, उसी के बोझ से उनके पैर जमीन में धँस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामी ने अपनी प्रियतमा को अवश्य कंधे पर चढ़ाया होगा। देखो-देखो, यहाँ परमप्रेमी वल्लभ ने फूल चुनने के लिये अपनी प्रेयसी को नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी के लिये फूल चुने हैं। उचक-उचक कर फूल तोड़ने के कारण यहाँ उनके पंजे तो धरती में गड़े हुए हैं और एड़ी का पता ही नहीं है। परम प्रेमी श्रीकृष्ण ने कामी पुरुष के समान यहाँ अपनी प्रेयसी के केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलों को प्रेयसी की चोटी में गूँथने के लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे। इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरों को भगवान श्रीकृष्ण के चरण चिह्न दिखलाती हुई वन-वन में भटक रही थीं। इधर भगवान श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी को एकान्त में ले गये थे, उसने समझा कि ‘मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को छोड़कर, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शंकर के भी शासक हैं। वह गोपी वन में जाकर अपने प्रेम और सौभाग्य के मद से मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्ण से कहने लगी, ‘प्यारे! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर ले चलो।’ अपनी प्रियतमा की यह बात सुन्दर श्यामसुन्दर ने कहा-‘अच्छा प्यारी! तुम अब मेरे कंधे पर चढ़ लो।’ यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने चली, त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्वती गोपी रोने-पछताने लगी। ‘हा नाथ! हा रमण! हा प्रेष्ठ! हा महाभुज! तुम कहाँ हो! कहाँ हो!! मेरे सखा! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्य का अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो।’ गोपियाँ भगवान के चरणचिह्नों के सहारे उनके जाने का मार्ग ढूँढती-ढूँढती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूर से ही उन्होंने देखा कि उन्होंने देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुःखी होकर अचेत हो गयी है। जब उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान श्रीकृष्ण से उसे जो प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहा कि ‘मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसी से वे अन्तर्धान हो गये।’ उसकी बात सुनकर गोपियों के आश्चर्य की सीमा न रही। इसके बाद वन में जहाँ तक चंद्रदेव की चाँदनी छिटक रही थी, वहाँ तक वे उन्हें ढूँढती हुई गयीं। परन्तु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार है, घोर जंगल है, हम ढूँढती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी उसके अन्दर घुस जायँगे, तब वे उधर से लौट आयीं। गोपियों का मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणी से कृष्ण चर्चा के अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीर से केवल श्रीकृष्ण के लिये और केवल श्रीकृष्ण की चेष्टाएँ हो रही थीं। कहाँ तक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओं का ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीर की भी सुध नहीं थी। गोपियों का रोम-रोम इस बात की प्रतीक्षा और आकांक्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्ण की ही भावना में डूबी हुईं गोपियाँ यमुना जी के पावन पुलिन पर रमण रेती में लौट आयीं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं। “जय जय श्री राधे”

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