धनका सदुपयोग

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भगवान् बुद्धके पहले जन्मकी बात है। उस समय वे बोधिसत्त्व अवस्थामें थे। उन्होंने एक समृद्ध घरमें जन्म लिया था। अपनी दानशीलता, उदारता और दरिद्रों भिखारियोंकी अहेतुकी सेवा के लिये ये बहुत प्रसिद्ध थे। वे किसीको दुखी और दरिद्र नहीं देख सकते थे; अपने पास जो कुछ भी था, उसीसे कंगालोंकी सेवा करते थे। उनके लिये यह बात असा थी कि कोई दरवाजेपर आकर लौट जाय; इसलिये लोगों में बोधिसत्त्व अविषा नामसे प्रसिद्ध थे।

एक दिन प्रातः काल शय्यासे उठनेपर उन्होंने देखा कि घरकी समस्त वस्तुएँ चोरी चली गयी हैं; नाममात्रको श्री चोरने कुछ नहीं छोड़ा है। धनमें उनकी आसक्ति ममता तो थी नहीं, इसलिये चोरीसे वे संतप्त नहीं हो सके; पर बार-बार यह सोचकर दुखी होने लगे कि जिस घरसे आजतक कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं गया, उसीसे भिक्षु और कंगाल लोग भूखे-प्यासे और अतृप्त चले जायेंगे। अविषह्य इस प्रकार सोच ही रहे थे कि उनके नेत्रोंमें नया प्रकाश आ गया, वे हर्षसे नाच उठे। चोरोंने शेष सामानमें एक हँसुआ और रस्सीकी गेंडुल छोड़ी थी। अविषाने तत्काल कहा कि सेवाका साधन मिल गया। अब मेरे दरवाजेसे कोई नहीं लौटने पायेगा। निर्धनतामें भी अविषाने पवित्र कार्य सम्पादनका उपाय सोच लिया।

वे दिनभर उसी हँसियेसे घास काटते थे और शाम होनेपर सिरपर गेंडुल रखकर घासका बोझा लादकर बाजारमें बेचा करते थे। परिश्रमसे जो कुछ भी पाते थे उसका भिखमंगों और असहायोंको सेवामें सदुपयोग करते थे। कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि स्वयं भूखे रहकर दूसरोंकी आवश्यकता पूरी कर देते थे।

‘तुम्हारा धन चोरीमें नहीं गया। तुम्हारी उदारता, दानशीलता और सेवावृत्तिसे उसका अभाव हो चला है। मैं तुम्हें सावधान करता हूँ कि इस गरीबीमें भी जो कुछ | भी पैदा कर लेते हो, उसे आगेके लिये बचाकर रख | दो। सब दिन समान नहीं जाते। कण-कण जोड़नेसे |पहाड़ खड़ा हो जाता है।’ एक दिव्य पुरुषने अविषाको
चेतावनी दी।

‘आर्य अनार्य पथपर कभी पैर नहीं रखते। जिस धनको बटोरने में मुझे कंजूसकी तरह रहना पड़े, वह मुझे नहीं चाहिये। चाहे मुझे स्वर्गक ही ऐश्वर्य क्यों न मिलें में दान-व्रतका त्याग नहीं कर सकता। धन आता है, चला जाता है, वह अनित्य है; पर दान आदि सेवोपयोगी सद्गुण बार-बार नहीं मिला करते उनके सहारे अपने जीवनको समृद्ध करना ही आर्यपुरुषका श्रेष्ठ आचरण है; वे नित्य दिव्य सम्पत्ति हैं; मैं उनका परित्याग किसी भी मूल्यपर नहीं कर सकता।’ अधिषाने दिव्यपुरुषसे निवेदन किया।

“तुम धनियोंके योग्य बातें करते हो। तुम तो बड़े गरीब हो; दान देते-देते सब कुछ खो बैठे। जिनके पास खजाने है, असंख्य दास-दासियाँ हैं उनके लिये दानशीलता अलंकार है। तुम्हें तो चाहिये कि परिश्रमसे अर्जित धनका थोड़ा-सा अंश कभी-कभी उत्सव आदिमें मित्रोंको बुलाकर व्यय कर दो इससे नाम बढ़ेगा, कोर्ति अमर होगी। दानवृत्तिका परित्याग ही तुम्हारे लिये श्रेयस्कर है। जब तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है उस समय यदि दान नहीं दोगे तो क्या बिगड़ जायगा।’ दिव्य पुरुषने अविषाको परीक्षा ली।

‘आपका ऐसा आग्रह अनुचित है। दूसरोंके हितकी अपेक्षा अपने स्वार्थकी ओर ध्यान देनेवालोंको भी दान और असहायोंकी सेवायें लगे रहना चाहिये जो दूसरे के दुःखमें अपने-आपतकका दान कर सकता है, उसके लिये स्वर्गका राज्य भी बेकार है। धनकी तरह यह जीवन भी क्षणभर है। मैं आर्यपथसे कभी विचलित नहीं हो सकूँगा। यदि मेरी पूर्वस्थिति लौट आयेगी तो दीन-दुखियोंकी प्रसन्नता सीमातीत हो उठेगी। इस असहाय अवस्थामें तो मेरा सर्वस्व उनके लिये है हो अविषाने दृढ़ता कहा।

‘तुम धन्य हो! धन्य हो।। समस्त संसार स्वार्थ और समतासे अंधा होकर धन बटोरता है, अपने सुखके लिये दूसरोंको दुःख देता है; पर तुम धनका परित्यागकरके भी सेवा और दीन-दुखियोंकी सहायतामें रत हो। मैं परीक्षा ले रहा था, मैंने ही तुम्हारा धन छिपा दिया है; वह तुम्हें फिर दे रहा हूँ, धनका सदुपयोग तुम करसकते हो।’ शक्र (इन्द्र) – ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया, फिर अदृश्य हो गये। – रा0 श्री0

(जातकमाला)

भगवान् बुद्धके पहले जन्मकी बात है। उस समय वे बोधिसत्त्व अवस्थामें थे। उन्होंने एक समृद्ध घरमें जन्म लिया था। अपनी दानशीलता, उदारता और दरिद्रों भिखारियोंकी अहेतुकी सेवा के लिये ये बहुत प्रसिद्ध थे। वे किसीको दुखी और दरिद्र नहीं देख सकते थे; अपने पास जो कुछ भी था, उसीसे कंगालोंकी सेवा करते थे। उनके लिये यह बात असा थी कि कोई दरवाजेपर आकर लौट जाय; इसलिये लोगों में बोधिसत्त्व अविषा नामसे प्रसिद्ध थे।
एक दिन प्रातः काल शय्यासे उठनेपर उन्होंने देखा कि घरकी समस्त वस्तुएँ चोरी चली गयी हैं; नाममात्रको श्री चोरने कुछ नहीं छोड़ा है। धनमें उनकी आसक्ति ममता तो थी नहीं, इसलिये चोरीसे वे संतप्त नहीं हो सके; पर बार-बार यह सोचकर दुखी होने लगे कि जिस घरसे आजतक कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं गया, उसीसे भिक्षु और कंगाल लोग भूखे-प्यासे और अतृप्त चले जायेंगे। अविषह्य इस प्रकार सोच ही रहे थे कि उनके नेत्रोंमें नया प्रकाश आ गया, वे हर्षसे नाच उठे। चोरोंने शेष सामानमें एक हँसुआ और रस्सीकी गेंडुल छोड़ी थी। अविषाने तत्काल कहा कि सेवाका साधन मिल गया। अब मेरे दरवाजेसे कोई नहीं लौटने पायेगा। निर्धनतामें भी अविषाने पवित्र कार्य सम्पादनका उपाय सोच लिया।
वे दिनभर उसी हँसियेसे घास काटते थे और शाम होनेपर सिरपर गेंडुल रखकर घासका बोझा लादकर बाजारमें बेचा करते थे। परिश्रमसे जो कुछ भी पाते थे उसका भिखमंगों और असहायोंको सेवामें सदुपयोग करते थे। कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि स्वयं भूखे रहकर दूसरोंकी आवश्यकता पूरी कर देते थे।
‘तुम्हारा धन चोरीमें नहीं गया। तुम्हारी उदारता, दानशीलता और सेवावृत्तिसे उसका अभाव हो चला है। मैं तुम्हें सावधान करता हूँ कि इस गरीबीमें भी जो कुछ | भी पैदा कर लेते हो, उसे आगेके लिये बचाकर रख | दो। सब दिन समान नहीं जाते। कण-कण जोड़नेसे |पहाड़ खड़ा हो जाता है।’ एक दिव्य पुरुषने अविषाको
चेतावनी दी।
‘आर्य अनार्य पथपर कभी पैर नहीं रखते। जिस धनको बटोरने में मुझे कंजूसकी तरह रहना पड़े, वह मुझे नहीं चाहिये। चाहे मुझे स्वर्गक ही ऐश्वर्य क्यों न मिलें में दान-व्रतका त्याग नहीं कर सकता। धन आता है, चला जाता है, वह अनित्य है; पर दान आदि सेवोपयोगी सद्गुण बार-बार नहीं मिला करते उनके सहारे अपने जीवनको समृद्ध करना ही आर्यपुरुषका श्रेष्ठ आचरण है; वे नित्य दिव्य सम्पत्ति हैं; मैं उनका परित्याग किसी भी मूल्यपर नहीं कर सकता।’ अधिषाने दिव्यपुरुषसे निवेदन किया।
“तुम धनियोंके योग्य बातें करते हो। तुम तो बड़े गरीब हो; दान देते-देते सब कुछ खो बैठे। जिनके पास खजाने है, असंख्य दास-दासियाँ हैं उनके लिये दानशीलता अलंकार है। तुम्हें तो चाहिये कि परिश्रमसे अर्जित धनका थोड़ा-सा अंश कभी-कभी उत्सव आदिमें मित्रोंको बुलाकर व्यय कर दो इससे नाम बढ़ेगा, कोर्ति अमर होगी। दानवृत्तिका परित्याग ही तुम्हारे लिये श्रेयस्कर है। जब तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है उस समय यदि दान नहीं दोगे तो क्या बिगड़ जायगा।’ दिव्य पुरुषने अविषाको परीक्षा ली।
‘आपका ऐसा आग्रह अनुचित है। दूसरोंके हितकी अपेक्षा अपने स्वार्थकी ओर ध्यान देनेवालोंको भी दान और असहायोंकी सेवायें लगे रहना चाहिये जो दूसरे के दुःखमें अपने-आपतकका दान कर सकता है, उसके लिये स्वर्गका राज्य भी बेकार है। धनकी तरह यह जीवन भी क्षणभर है। मैं आर्यपथसे कभी विचलित नहीं हो सकूँगा। यदि मेरी पूर्वस्थिति लौट आयेगी तो दीन-दुखियोंकी प्रसन्नता सीमातीत हो उठेगी। इस असहाय अवस्थामें तो मेरा सर्वस्व उनके लिये है हो अविषाने दृढ़ता कहा।
‘तुम धन्य हो! धन्य हो।। समस्त संसार स्वार्थ और समतासे अंधा होकर धन बटोरता है, अपने सुखके लिये दूसरोंको दुःख देता है; पर तुम धनका परित्यागकरके भी सेवा और दीन-दुखियोंकी सहायतामें रत हो। मैं परीक्षा ले रहा था, मैंने ही तुम्हारा धन छिपा दिया है; वह तुम्हें फिर दे रहा हूँ, धनका सदुपयोग तुम करसकते हो।’ शक्र (इन्द्र) – ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया, फिर अदृश्य हो गये। – रा0 श्री0
(जातकमाला)

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