मैं दलदलमें नहीं गिरूँगा

japan statue kyoto

अभिरूप कपिल कौशाम्बीके राजपुरोहितका पुत्र था और आचार्य इन्द्रदत्तके पास अध्ययन करने श्रावस्ती आया था। आचार्यने उसके भोजनकी व्यवस्था नगरसेठके यहाँ कर दी। किंतु यहाँ अभिरूप कपिल भोजन परोसनेवाली सेविकाके रूपपर मुग्ध हो गया। उस सेविकाने वसन्तोत्सव पास आनेपर अभिरूप कपिलसे उत्तम वस्त्र तथा आभूषण माँगे

अभिरूप कपिलके पास क्या धरा था; किंतु सेविकाने ही उसे मार्ग दिखलाया- ‘श्रावस्तीनरेशकानियम है कि प्रात:काल सर्वप्रथम उन्हें जो अभिवादन करता है, उसे वे दो माशे स्वर्ण प्रदान करते हैं। तुम प्रयत्न करो।’

अभिरूप कपिलने दूसरे दिन कुछ रात्रि रहते ही महाराजके शयनकक्षमें प्रवेश करनेकी चेष्टा की। परिणाम यह हुआ कि द्वारपालोंने उसे चोर समझकर पकड़ लिया। महाराजके सामने वह उपस्थित किया गया और पूछे जानेपर उसने सब बातें सच-सच कह दीं। महाराजने उसके भोलेपनपर प्रसन्न होकर कहा-

जो चाहो, माँग लो। जो माँगोगे, दिया जायगा।’

”तब तो मैं सोचकर माँगूँगा।’ अभिरूप कपिलने कहा। और उसे एक दिनका समय मिल गया। वह सोचने लगा-‘दो माशा स्वर्ण तो बहुत कम है— क्यों सौ स्वर्णमुद्राएँ न माँगी जायँ ? किंतु सौ स्वर्णमुद्राएँ कितने दिन चलेंगी। यदि सहस्र मुद्राएँ माँगूँ तो ? उहुँ, ऐसा अवसर जीवनमें क्या फिर आयेगा? इतना माँगना चाहिये कि जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो तब लक्ष मुद्रा ? यह भी अल्प ही है। एक कोटि स्वर्ण ठीक होगी।’ -मुद्रा

अभिरूप कपिल सोचता रहा, सोचता रहा और उसके मनमें नये-नये अभाव होते गये, उसकी कामनाएँ बढ़ती गयीं। दूसरे दिन जब वह महाराजके सम्मुख उपस्थित हुआ, तब उसने माँग की – ‘आप अपना पूरा राज्य मुझे दे दें।’

श्रावस्तीनरेशके कोई संतान नहीं थी। वे धर्मात्मा नरेश किसी योग्य व्यक्तिको राज्य देकर वनमें तपस्या ।करने जानेका निश्चय कर चुके थे। अभिरूप कपिलकी माँगसे वे प्रसन्न हुए। यह ब्राह्मणकुमार उन्हें योग्य पात्र प्रतीत हुआ। महाराजने उसको सिंहासनपर बैठानेका आदेश दिया और स्वयं वन जानेको उद्यत हो गये।

महाराजने कहा- ‘द्विजकुमार ! तुमने मेरा उद्धार कर दिया। तृष्णारूपी सर्पिणीके पाशसे मैं सहज ही छूट गया। कामनाओंका अथाह कूप भरते- भरते मेरा जीवन समाप्त ही हो चला था। विषयोंकी तृष्णारूपी दलदलमें पड़ा प्राणी उससे पृथक् हो जाय, यह उसका महान् सौभाग्य है।’

अभिरूप कपिलको जैसे झटका लगा। उसका विवेक जाग्रत् हो गया। वह बोला- ‘महाराज ! आप अपना राज्य अपने पास रखें। मुझे आपका दो माशा स्वर्ण भी नहीं चाहिये। जिस दलदलसे आप निकल जाना चाहते हैं, उसीमें गिरनेको मैं प्रस्तुत नहीं हूँ ।’

अभिरूप कपिल वहाँसे चल पड़ा; किंतु अब वह निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त और प्रसन्न था। – सु0 सिं0

अभिरूप कपिल कौशाम्बीके राजपुरोहितका पुत्र था और आचार्य इन्द्रदत्तके पास अध्ययन करने श्रावस्ती आया था। आचार्यने उसके भोजनकी व्यवस्था नगरसेठके यहाँ कर दी। किंतु यहाँ अभिरूप कपिल भोजन परोसनेवाली सेविकाके रूपपर मुग्ध हो गया। उस सेविकाने वसन्तोत्सव पास आनेपर अभिरूप कपिलसे उत्तम वस्त्र तथा आभूषण माँगे
अभिरूप कपिलके पास क्या धरा था; किंतु सेविकाने ही उसे मार्ग दिखलाया- ‘श्रावस्तीनरेशकानियम है कि प्रात:काल सर्वप्रथम उन्हें जो अभिवादन करता है, उसे वे दो माशे स्वर्ण प्रदान करते हैं। तुम प्रयत्न करो।’
अभिरूप कपिलने दूसरे दिन कुछ रात्रि रहते ही महाराजके शयनकक्षमें प्रवेश करनेकी चेष्टा की। परिणाम यह हुआ कि द्वारपालोंने उसे चोर समझकर पकड़ लिया। महाराजके सामने वह उपस्थित किया गया और पूछे जानेपर उसने सब बातें सच-सच कह दीं। महाराजने उसके भोलेपनपर प्रसन्न होकर कहा-
जो चाहो, माँग लो। जो माँगोगे, दिया जायगा।’
”तब तो मैं सोचकर माँगूँगा।’ अभिरूप कपिलने कहा। और उसे एक दिनका समय मिल गया। वह सोचने लगा-‘दो माशा स्वर्ण तो बहुत कम है— क्यों सौ स्वर्णमुद्राएँ न माँगी जायँ ? किंतु सौ स्वर्णमुद्राएँ कितने दिन चलेंगी। यदि सहस्र मुद्राएँ माँगूँ तो ? उहुँ, ऐसा अवसर जीवनमें क्या फिर आयेगा? इतना माँगना चाहिये कि जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो तब लक्ष मुद्रा ? यह भी अल्प ही है। एक कोटि स्वर्ण ठीक होगी।’ -मुद्रा
अभिरूप कपिल सोचता रहा, सोचता रहा और उसके मनमें नये-नये अभाव होते गये, उसकी कामनाएँ बढ़ती गयीं। दूसरे दिन जब वह महाराजके सम्मुख उपस्थित हुआ, तब उसने माँग की – ‘आप अपना पूरा राज्य मुझे दे दें।’
श्रावस्तीनरेशके कोई संतान नहीं थी। वे धर्मात्मा नरेश किसी योग्य व्यक्तिको राज्य देकर वनमें तपस्या ।करने जानेका निश्चय कर चुके थे। अभिरूप कपिलकी माँगसे वे प्रसन्न हुए। यह ब्राह्मणकुमार उन्हें योग्य पात्र प्रतीत हुआ। महाराजने उसको सिंहासनपर बैठानेका आदेश दिया और स्वयं वन जानेको उद्यत हो गये।
महाराजने कहा- ‘द्विजकुमार ! तुमने मेरा उद्धार कर दिया। तृष्णारूपी सर्पिणीके पाशसे मैं सहज ही छूट गया। कामनाओंका अथाह कूप भरते- भरते मेरा जीवन समाप्त ही हो चला था। विषयोंकी तृष्णारूपी दलदलमें पड़ा प्राणी उससे पृथक् हो जाय, यह उसका महान् सौभाग्य है।’
अभिरूप कपिलको जैसे झटका लगा। उसका विवेक जाग्रत् हो गया। वह बोला- ‘महाराज ! आप अपना राज्य अपने पास रखें। मुझे आपका दो माशा स्वर्ण भी नहीं चाहिये। जिस दलदलसे आप निकल जाना चाहते हैं, उसीमें गिरनेको मैं प्रस्तुत नहीं हूँ ।’
अभिरूप कपिल वहाँसे चल पड़ा; किंतु अब वह निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त और प्रसन्न था। – सु0 सिं0

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