“जो व्यवस्था प्रकृति के बनाये नियमों का पालन करे वह धर्म है, और जो किसी व्यक्ति के बनाये नियमों को माने वह धर्म कद्दापि नही! नई पद्धति के स्कूलों में पढ़ने से पूर्व भारत विशुद्ध प्रकृति प्रेमी था। हर बृक्ष हमारे लिए पितातुल्य था, हर पर्वत पर हमारे देवता निवास करते थे, हर नदी हमारी माता थी, हर जीव में हमने ईश्वर को निहारा था। हम खेतों में हल लगाने के पहले भूमि को प्रणाम कर उससे क्षमा मांगते थे, और एक छोटे से खेत में सैकड़ों बार हल जुते बैल घुमाने के बाद भी मजाल जो एक टिटिहरी का अंडा फूट जाय! हमारे बैलों को भी यह ज्ञान था कि खेत में भूमि पर बने किसी जीव के घर को नहीं तोड़ना है। खेती करते समय अनजाने में कुछ सूक्ष्मजीव हमसे पीड़ा पाते तो हमने प्रायश्चित का विधान बनाया और उपज का एक हिस्सा निर्धनों को दान देने की रीत गढ़ी। हमने जब अपने देवताओं का मानवीय रूप गढ़ा तो अपने परिवेश के हर जीव को प्रतिष्ठा दी। बैल महादेव के गण हुए, घोड़े सूर्यदेव के प्रिय हैं, गाय जगतमाता है, हाथी में भगवान गणेश को देखा हमने, बाघ शेर माता शक्ति के प्रिय हुए, मोर कार्तिकेय के तो मूषक भगवान गणेश की सवारी हुए। इन पशुओं को पीड़ा देने का अर्थ उन देवताओं को पीड़ा देने के समान था, सो हमने उन्हें भी पूजा, प्रतिष्ठा दी। हम सुबह उठते थे तो भूमि को प्रणाम करते, स्नान से पूर्व नदी को प्रणाम करते, सूर्योदय में सूर्य को अर्घ देते और संध्या में चन्द्र हमारे पूज्य मामा हो जाते। हमने पीपल में भगवान विष्णु को देखा, नीम में मातृशक्ति को, बरगद में ग्राम देवता को... इन बृक्षों को हानि पहुँचाने की तो हम सोच भी नहीं सकते थे। आप अपने प्राचीन प्रतीकों को देखिये! सूर्य प्रकाश के देवता हैं, चन्द्र शीतलता के, वरुण देव जल के देवता हैं, और पवन देव वायु के... और इंद्र इन समस्त शक्तियों के नियामक हैं। हमने इन देवताओं के नाम से प्रकृति का सम्मान किया है,प्रकृति को पूजा है। और अब? क्योंकि आप पढ़ने लगे हैं, आपने पिछले पचास वर्षों में देश की अधिकांश पर्वत श्रृंखलाएं समाप्त कर दीं।आपने अधिकांश नदियों को मार दिया। पशुओं को पूजने वाला देश पशु मांस का सबसे बड़ा निर्यातक देश हो गया! हम जाने जाने लगे बृक्षों की क्रूरतापूर्वक कटाई के लिए... नई परिभाषा के अनुसार यह विनास ही विकास मान लिया गया। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि आप धर्म को पढ़ना छोड़ दिया , बृक्षों की पूजा आपको बकवास लगने लगी, नदी का सम्मान आपको अंधविश्वास लगने लगा। आपके मूर्ख बच्चों को देवताओं के होने का लाइव प्रमाण चाहिये, आप ग्रन्थों के आधार पर यह मानने को तैयार नहीं कि गाय हमारी माता है। और ऊपर से रोना यह कि ओजोन मंडल में छेद बढ़ रहा है और हिमालय के ग्लेशियर समाप्त हो रहे हैं। मित्र! जबतक आप पुनः धर्म की शरण मे नहीं आते, कुछ ठीक नहीं होगा। "शरीर में 'मन' और 'आत्मा' नामक अंग नहीं होते" कहने वाला विज्ञान न आपको जीवों के प्रति करुणा दे सकता है, न प्रकृति के प्रति श्रद्धा! यह भाव केवल धर्म देता है। सो विज्ञान के साथ ही धर्म की उंगली थामिए, नहीं तो प्रकृति आपको कुछ थामने लायक नहीं छोड़ेगी। आम का सीजन चल रहा है। आप रोज खा ही रहे होंगे। अब तनिक याद कीजिये, आपने आम के कितने पेंड़ लगाए हैं। पर्यावरण दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं। सब मनुष्य बनें, मनुष्यता हीं पर्मोधर्म ।।
भारत-माता-की-जय
“जो व्यवस्था प्रकृति के बनाये नियमों का पालन करे वह धर्म है, और जो किसी व्यक्ति के बनाये नियमों को माने वह धर्म कद्दापि नही! नई पद्धति के स्कूलों में पढ़ने से पूर्व भारत विशुद्ध प्रकृति प्रेमी था। हर बृक्ष हमारे लिए पितातुल्य था, हर पर्वत पर हमारे देवता निवास करते थे, हर नदी हमारी माता थी, हर जीव में हमने ईश्वर को निहारा था। हम खेतों में हल लगाने के पहले भूमि को प्रणाम कर उससे क्षमा मांगते थे, और एक छोटे से खेत में सैकड़ों बार हल जुते बैल घुमाने के बाद भी मजाल जो एक टिटिहरी का अंडा फूट जाय! हमारे बैलों को भी यह ज्ञान था कि खेत में भूमि पर बने किसी जीव के घर को नहीं तोड़ना है। खेती करते समय अनजाने में कुछ सूक्ष्मजीव हमसे पीड़ा पाते तो हमने प्रायश्चित का विधान बनाया और उपज का एक हिस्सा निर्धनों को दान देने की रीत गढ़ी। हमने जब अपने देवताओं का मानवीय रूप गढ़ा तो अपने परिवेश के हर जीव को प्रतिष्ठा दी। बैल महादेव के गण हुए, घोड़े सूर्यदेव के प्रिय हैं, गाय जगतमाता है, हाथी में भगवान गणेश को देखा हमने, बाघ शेर माता शक्ति के प्रिय हुए, मोर कार्तिकेय के तो मूषक भगवान गणेश की सवारी हुए। इन पशुओं को पीड़ा देने का अर्थ उन देवताओं को पीड़ा देने के समान था, सो हमने उन्हें भी पूजा, प्रतिष्ठा दी। हम सुबह उठते थे तो भूमि को प्रणाम करते, स्नान से पूर्व नदी को प्रणाम करते, सूर्योदय में सूर्य को अर्घ देते और संध्या में चन्द्र हमारे पूज्य मामा हो जाते। हमने पीपल में भगवान विष्णु को देखा, नीम में मातृशक्ति को, बरगद में ग्राम देवता को… इन बृक्षों को हानि पहुँचाने की तो हम सोच भी नहीं सकते थे। आप अपने प्राचीन प्रतीकों को देखिये! सूर्य प्रकाश के देवता हैं, चन्द्र शीतलता के, वरुण देव जल के देवता हैं, और पवन देव वायु के… और इंद्र इन समस्त शक्तियों के नियामक हैं। हमने इन देवताओं के नाम से प्रकृति का सम्मान किया है,प्रकृति को पूजा है। और अब? क्योंकि आप पढ़ने लगे हैं, आपने पिछले पचास वर्षों में देश की अधिकांश पर्वत श्रृंखलाएं समाप्त कर दीं।आपने अधिकांश नदियों को मार दिया। पशुओं को पूजने वाला देश पशु मांस का सबसे बड़ा निर्यातक देश हो गया! हम जाने जाने लगे बृक्षों की क्रूरतापूर्वक कटाई के लिए… नई परिभाषा के अनुसार यह विनास ही विकास मान लिया गया। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि आप धर्म को पढ़ना छोड़ दिया , बृक्षों की पूजा आपको बकवास लगने लगी, नदी का सम्मान आपको अंधविश्वास लगने लगा। आपके मूर्ख बच्चों को देवताओं के होने का लाइव प्रमाण चाहिये, आप ग्रन्थों के आधार पर यह मानने को तैयार नहीं कि गाय हमारी माता है। और ऊपर से रोना यह कि ओजोन मंडल में छेद बढ़ रहा है और हिमालय के ग्लेशियर समाप्त हो रहे हैं। मित्र! जबतक आप पुनः धर्म की शरण मे नहीं आते, कुछ ठीक नहीं होगा। “शरीर में ‘मन’ और ‘आत्मा’ नामक अंग नहीं होते” कहने वाला विज्ञान न आपको जीवों के प्रति करुणा दे सकता है, न प्रकृति के प्रति श्रद्धा! यह भाव केवल धर्म देता है। सो विज्ञान के साथ ही धर्म की उंगली थामिए, नहीं तो प्रकृति आपको कुछ थामने लायक नहीं छोड़ेगी। आम का सीजन चल रहा है। आप रोज खा ही रहे होंगे। अब तनिक याद कीजिये, आपने आम के कितने पेंड़ लगाए हैं। पर्यावरण दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं। सब मनुष्य बनें, मनुष्यता हीं पर्मोधर्म ।।
Long live Mother India