कुछ माता-पिता बड़े समझदार होते हैं..? वे अपने बच्चों को किसी की भी सगाई,शादी, लगन, शवयात्रा, उठावना,तेरहवीं (पगड़ी) जैसे कामो में नहीं भेजते क्योंकि उनकी पढ़ाई में बाधा न हो..! उनके बच्चे किसी रिश्तेदार के यहाँ आते-जाते नहीं, न ही किसी का घर आना-जाना पसंद करते हैं. वे हर उस बात से बचते हैं जहां उनका समय बर्बाद होता हो. उनके माता-पिता उनके करियर और व्यक्तित्व निर्माण को लेकर बहुत सजग रहते हैं, वे बच्चे सख्त पाबंदी मे जीते हैं. दिन भर पढ़ाई करते हैं, महंगी कोचिंग जाते हैं,अनहेल्दी फूड नहीं खाते, नींद तोड़कर अलसुबह साइकिलिंग या स्विमिंग को जाते हैं. महंगी कारें, गैजेट्स और क्लोदिंग सीख जाते हैं क्योंकि देर सवेर उन्हें अमीरों की लाइफ स्टाइल जीना है. फिर वे बच्चे औसत प्रतिभा के हों कि होशियार, उनका अच्छा करियर बन ही जाता है क्योंकि स्कूल से निकलते ही उन्हें बड़े शहरों के महंगे कॉलेजों में भेज दिया जाता है जहां जैसे-तैसे उनकी पढ़ाई भी हो जाती है और प्लेसमेंट भी. अब वह बच्चे बड़े शहरों में रहते हैं और छोटे शहरों को हिकारत से देखते हैं. मजदूर, रिक्शा वालों, खोमचे वालों की गंध से बचते हैं. छोटे शहरों के गली-कूचे, धूल गंध देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं. रिश्तेदारों की आवाजाही उन्हें खामखा की दखल लगती है. फिर वे विदेश चले जाते हैं और अपने देश को भी हिकारत से देखते हैं. वे बहुत खुदगर्ज और संकीर्ण जीवन जीने लगते हैं. अब माता-पिता की तीमारदारी और खोज खबर लेना भी उन्हें बोझ लगने लगता है. पुराना मकान, पुराना सामान, पैतृक प्रॉपर्टी को बचाए रखना उन्हें मूर्खता लगने लगती है, वे जल्दी ही उसे बेचकर ‘राइट इन्वेस्टमेंट’ करना चाहते हैं. माता-पिता से वीडियो चैट में उनकी बातचीत का मसला अक्सर यहीं रहता है. इधर दूसरी तरफ कुछ ऐसे बच्चे होते हैं जो सबके सुख-दुख में जाते हैं जो किराने की दुकान पर भी जाते हैं. बुआ, चाचा, दादा-दादी को अस्पताल भी ले जाते हैं. तीज त्यौहार,श्राद्ध,बरसी के सब कार्यक्रमों में हाथ बँटाते हैं क्योंकि उनके माता-पिता ने उन्हें यह मैनर्स सिखाया है कि सब के सुख-दुख में शरीक होना चाहिए और किसी की तीमारदारी, सेवा और रोजमर्रा के कामों से जी नहीं चुराना चाहिए. इन बच्चों के माता-पिता, उन बच्चों के माता-पिता की तरह समझदार नहीं होते क्योंकि वे इन बच्चों का क़ीमती समय गैरजरूरी कामों में नष्ट करवा देते हैं. फिर ये बच्चे शहर में ही रहे आते हैं और जिंदगी भर निभाते हैं सब रिश्ते, कुटुम्ब के दायित्व, कर्तव्य. यह बच्चे, उन बच्चों की तरह बड़ा करियर नहीं बना पाते इसलिए उन्हें असफल और कम होशियार मान लिया जाता है. समय गुजरता जाता है, फिर कभी कभार, वे ‘सफल बच्चे’ अपनी बड़ी गाड़ियों या फ्लाइट से छोटे शहर आते हैं, दिन भर ए.सी. में रहते हैं, पुराने घर और गृहस्थी में सौ दोष देखते हैं. फिर रात को, इन बाइक, स्कूटर से शहर की धूल-धूप में घूमने वाले, ‘असफल बच्चों’ को ज्ञान देते हैं कि तुमने अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली है. असफल बच्चे लज्जित और हीन भाव से सब सुन लेते हैं. फिर वे ‘सफल बच्चे’ जाते वक्त इन असफल बच्चों को, पुराने मकान में रह रही उनकी मां-बाप, नानी, दादी का ख्याल रखने की हिदायतें देकर, वापस बड़े शहरों को लौट जाते हैं.
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फिर उन बड़े शहरों में रहने वाले बच्चों की, इन छोटे शहर में रह रही मां, पिता, नानी के घर कोई सीपेज या रिपेयरिंग का काम होता है तो यही ‘असफल बच्चे’ बुलाए जाते हैं. सफल बच्चों के उन वृद्ध मां-बाप के हर छोटे बड़े काम के लिए यह ‘असफल बच्चे’ दौड़े चले आते हैं. कभी पेंशन, कभी किराना, कभी मकान मरम्मत, कभी पूजा. जब वे ‘सफल बच्चे’ मेट्रोज़ के किसी एयर कंडीशंड जिम में ट्रेडमिल कर रहे होते हैं तब छोटे शहर के यह ‘असफल बच्चे’ उनके बूढ़े पिता का चश्मे का फ्रेम बनवाने, किसी दुकान के काउंटर पर खड़े होते हैं और मरने पर अग्नि देकर तेरहवीं तक सारे क्रियाकर्म भी करते हैं. सफल यह भी हो सकते थे, इनकी प्रतिभा और मेहनत में कोई कमी न थी, मगर इन बच्चों और उनके माता-पिता में शायद जीवन दृष्टि अधिक थी कि उन्होंने धन दौलत से ज़्यादा मानवीय संबंधों और सामाजिक मेल मिलाप को तरजीह दी. सफल बच्चों से कोई अड़चन नहीं है मगर, बड़े शहरों में रहने वाले, आपके वे ‘सफल बच्चे’ अगर ‘सोना’ हैं तो छोटे शहरों में रहने वाले यह बच्चे किसी ‘हीरे’ से कम नहीं. आपके हर छोटे बड़े काम के लिए दौड़े आने वाले यह
सोनू, छोटू,गोलू,बबलू’ राजू, जीतू
उन करियर सजग बच्चों से कहीं अधिक तवज्जो और सम्मान के हकदार हैं|
अपने बच्चों को संवेदनशील बनाईए
वो धन कमाने की मशीन नही है
कुछ माता-पिता बड़े समझदार होते हैं..? वे अपने बच्चों को किसी की भी सगाई,शादी, लगन, शवयात्रा, उठावना,तेरहवीं (पगड़ी) जैसे कामो में नहीं भेजते क्योंकि उनकी पढ़ाई में बाधा न हो..! उनके बच्चे किसी रिश्तेदार के यहाँ आते-जाते नहीं, न ही किसी का घर आना-जाना पसंद करते हैं. वे हर उस बात से बचते हैं जहां उनका समय बर्बाद होता हो. उनके माता-पिता उनके करियर और व्यक्तित्व निर्माण को लेकर बहुत सजग रहते हैं, वे बच्चे सख्त पाबंदी मे जीते हैं. दिन भर पढ़ाई करते हैं, महंगी कोचिंग जाते हैं,अनहेल्दी फूड नहीं खाते, नींद तोड़कर अलसुबह साइकिलिंग या स्विमिंग को जाते हैं. महंगी कारें, गैजेट्स और क्लोदिंग सीख जाते हैं क्योंकि देर सवेर उन्हें अमीरों की लाइफ स्टाइल जीना है. फिर वे बच्चे औसत प्रतिभा के हों कि होशियार, उनका अच्छा करियर बन ही जाता है क्योंकि स्कूल से निकलते ही उन्हें बड़े शहरों के महंगे कॉलेजों में भेज दिया जाता है जहां जैसे-तैसे उनकी पढ़ाई भी हो जाती है और प्लेसमेंट भी. अब वह बच्चे बड़े शहरों में रहते हैं और छोटे शहरों को हिकारत से देखते हैं. मजदूर, रिक्शा वालों, खोमचे वालों की गंध से बचते हैं. छोटे शहरों के गली-कूचे, धूल गंध देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं. रिश्तेदारों की आवाजाही उन्हें खामखा की दखल लगती है. फिर वे विदेश चले जाते हैं और अपने देश को भी हिकारत से देखते हैं. वे बहुत खुदगर्ज और संकीर्ण जीवन जीने लगते हैं. अब माता-पिता की तीमारदारी और खोज खबर लेना भी उन्हें बोझ लगने लगता है. पुराना मकान, पुराना सामान, पैतृक प्रॉपर्टी को बचाए रखना उन्हें मूर्खता लगने लगती है, वे जल्दी ही उसे बेचकर ‘राइट इन्वेस्टमेंट’ करना चाहते हैं. माता-पिता से वीडियो चैट में उनकी बातचीत का मसला अक्सर यहीं रहता है. इधर दूसरी तरफ कुछ ऐसे बच्चे होते हैं जो सबके सुख-दुख में जाते हैं जो किराने की दुकान पर भी जाते हैं. बुआ, चाचा, दादा-दादी को अस्पताल भी ले जाते हैं. तीज त्यौहार,श्राद्ध,बरसी के सब कार्यक्रमों में हाथ बँटाते हैं क्योंकि उनके माता-पिता ने उन्हें यह मैनर्स सिखाया है कि सब के सुख-दुख में शरीक होना चाहिए और किसी की तीमारदारी, सेवा और रोजमर्रा के कामों से जी नहीं चुराना चाहिए. इन बच्चों के माता-पिता, उन बच्चों के माता-पिता की तरह समझदार नहीं होते क्योंकि वे इन बच्चों का क़ीमती समय गैरजरूरी कामों में नष्ट करवा देते हैं. फिर ये बच्चे शहर में ही रहे आते हैं और जिंदगी भर निभाते हैं सब रिश्ते, कुटुम्ब के दायित्व, कर्तव्य. यह बच्चे, उन बच्चों की तरह बड़ा करियर नहीं बना पाते इसलिए उन्हें असफल और कम होशियार मान लिया जाता है. समय गुजरता जाता है, फिर कभी कभार, वे ‘सफल बच्चे’ अपनी बड़ी गाड़ियों या फ्लाइट से छोटे शहर आते हैं, दिन भर ए.सी. में रहते हैं, पुराने घर और गृहस्थी में सौ दोष देखते हैं. फिर रात को, इन बाइक, स्कूटर से शहर की धूल-धूप में घूमने वाले, ‘असफल बच्चों’ को ज्ञान देते हैं कि तुमने अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली है. असफल बच्चे लज्जित और हीन भाव से सब सुन लेते हैं. फिर वे ‘सफल बच्चे’ जाते वक्त इन असफल बच्चों को, पुराने मकान में रह रही उनकी मां-बाप, नानी, दादी का ख्याल रखने की हिदायतें देकर, वापस बड़े शहरों को लौट जाते हैं.
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Then the children living in those big cities, if there is any seepage or repair work in the house of mother, father, grandmother living in these small cities, then these are called ‘failed children’. These ‘failed children’ run for every small and big task of those aged parents of successful children. Sometimes pension, sometimes grocery, sometimes house repair, sometimes worship. While those ‘successful kids’ are doing a treadmill in an air-conditioned gym in the Metros, these ‘failed kids’ from the small town make their old father’s glasses frame, stand at a shop counter and set fire to the thirteenth. Till then do all the activities. They could have been successful, there was no shortage of talent and hard work, but these children and their parents probably had more life vision that they preferred human relations and social harmony over wealth. There is no problem with successful children, but if those ‘successful children’ of yours are ‘gold’ living in big cities, then these children living in small towns are no less than ‘diamonds’. These people who come running for your every small and big work Deserves more attention and respect than those career-conscious kids.
sensitize your children It’s not a money making machine