राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना

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बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी *महर्षि कम्बन की इरामावतारम्में यह कथा है.
रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..! उसे भविष्य का पता था..! वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव है..!

जब श्री राम ने खर-दूषण का सहज ही बध कर दिया, तब तुलसी कृत मानस में भी रावण के मन भाव लिखे हैं–

खर दूसन मो सम बलवंता.!
तिनहि को मरहि बिनु भगवंता.!!

रावण के पास जामवंत जी को आचार्यत् का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..!

जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे.! लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे.! इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा.! स्वयं रावण को उन्हें राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ.! मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ.! उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है.!

रावण ने सविनय कहा —
आप हमारे पितामह के भाई हैं.! इस नाते आप हमारे पूज्य हैं.! कृपया आसन ग्रहण करें.! यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा.!

जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की.! उन्होंने आसन ग्रहण किया.! रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया.! तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं.! इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है.!
“मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ.!”

प्रणाम.! प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया..!
“क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है..?”
“बिल्कुल ठीक.! श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है..!”

जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है.! क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे..?

रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा –”आप पधारें.! यजमान उचित अधिकारी है.! उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है.! राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया.!”

जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है.! रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए.!

अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है..!
“यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है.! तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं.! विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना.! ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी.! अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना.!”

स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य.!
यह जान, जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया.!
स्वस्थ कण्ठ से “सौभाग्यवती भव” कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया.!

सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे.!
“आदेश मिलने पर आना” कहकर सीता को उन्होंने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे.!

जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे.! सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया.!

“दीर्घायु भव.! लंका विजयी भव.!”

दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया.!

सुग्रीव ही नहीं विभीषण की भी उन्होंने उपेक्षा कर दी.! जैसे वे वहाँ हों ही नहीं.!

भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा..!
“यजमान.! अर्द्धांगिनी कहाँ है.? उन्हें यथास्थान आसन दें.!”

श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की, कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं..!

“अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं.! यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था.! इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है.! इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो.?”

“कोई उपाय आचार्य.?”

“आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं.! स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं.!”

श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया.! श्री रामादेश के परिपालन में, विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे
अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान ..”

आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया.!
गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा – लिंग विग्रह.?

यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं.! अभी तक लौटे नहीं हैं.! आते ही होंगे.!

आचार्य ने आदेश दे दिया – ” विलम्ब नहीं किया जा सकता.! उत्तम मुहूर्त उपस्थित है.! इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले.!”

जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया.!

यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया.! श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया.!

आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया.!

अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की..!

श्रीराम ने पूछा – “आपकी दक्षिणा.?”

पुनः एक बार सभी को चौंकाया … आचार्य के शब्दों ने..

“घबराओ नहीं यजमान.! स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती.! आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है..”

“लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है.!”

“आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे …..” आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी.!

“ऐसा ही होगा आचार्य.!”
यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी—–

“रघुकुल रीति सदा चली आई.!
प्राण जाई पर वचन न जाई.!!”

यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए.! सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया.!

रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी.? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है.?
(रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी )

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This story is not described in the Valmiki Ramayana and the Tulsikrit Ramayana, but there is this story in the Iramavatharam of Maharishi Kamban, written in Tamil language. Ravana was not only a devotee of Shiva, a scholar and a hero, he was also a very humanist..! He knew the future..! He knew that it is impossible for him to win over Shri Ram..!

When Shri Ram easily killed the contamination, then even in Tulsi’s mind, the thoughts of Ravana have been written-

Khar Dusan Mo Sam Balwanta.! Tinhi ko marhi binu Bhagwanta.!!

Jamwant ji was sent to Lanka to invite Acharyat to Ravana..!

Jamwant ji was tall, he was only slightly smaller than Kumbhakarna. The sentinels in Lanka were also showing the way with folded hands. Thus Jamwant did not have to ask anything from anyone. Seeing Ravana himself doing the initiative to greet him at the royal gate, Jamwant smiled and said that I do not deserve to be congratulated. I have come as a messenger of Vanvasi Ram. He has called you a warm greeting.

Ravana said politely – You are our grandfather’s brother. Because of this you are our worship. Please take your seat! If you accept my request, then probably I will also be able to listen to your message carefully.

Jamwant did not object. He took his seat. Ravana also took his place. Thereafter, Jamwant again narrated that after the construction of the ocean-bridge, the forest dweller Ram now wants to establish the Maheshva-linga-deity as soon as possible. In order to complete this ritual, he has expressed his desire to select Brahmin, Vedagya and Shaiva Ravana on the post of Acharya. “I have come to invite you on their behalf.”

Greetings.! After the reaction, expression, Ravana asked in a smiling voice..! “Is the establishment of Maheshva-linga-deity by Rama with the desire of Lanka-victory..?” “All right.! Shri Ram has full devotion at the feet of Maheshwar..!”

For the first time in life someone has considered Ravana to be a Brahmin and has been known to be able to become an Acharya. Would Ravana want to be called so stupid that he rejects the invitation of the host of Maharishi Vashistha, the real brother of India’s first acclaimed Maharishi Pulastya, and the post of Acharya for the establishment of his adoration..?

Ravana managed himself and said – “You come.! The host is the right officer. He has to protect his messenger. Tell Rama that I accepted his mastership.!”

Immediately after leaving Jamwant, Lankesh ordered the servants to collect the necessary materials and himself reached Ashok Vatika, who could not provide the necessary equipment, the host is the ultimate duty of the Acharya. Ravana knows what the forest dweller Ram has and what should be.

As soon as he reached Ashoka Udyan, Ravana told Sita that Rama was going to establish Maheshwar Linga Deity on the beach with the wish of victory of Lanka and has chosen Ravana as Acharya..! “It is the responsibility of the Acharya to complete the rituals of the host. You know that without Ardhangini all the rituals of the householder remain incomplete. The plane is coming, get on it! Keep in mind that you will remain under Ravana there too. After the completion of the ritual, get back on the plane to come here.

Swami’s Acharya means own Acharya. This life, Janki ji bowed her head with folded hands. Saying “Saubhagyavati Bhava” from a healthy throat, Ravana raised both his hands and blessed him immensely.

Ravana with Sita and other necessary equipment landed on the beach through the sky. Saying “come on receiving orders” he left Sita in the plane itself and reached in front of Rama himself.

After receiving the message from Jamwant, Shri Ram along with his brother, friend and army were already ready to welcome him. As soon as he was in front, he bowed down to the forest dweller Ram Acharya Dashgriv with folded hands.

“Long live! May Lanka be victorious.”

Dashagriva’s words of blessings surprised everyone.!

He ignored not only Sugriva but also Vibhishana. Like they’re not even there.

After cleaning the land, Ravanacharya said..! “Host.! Where is Ardhangini? Give them a seat at their place.”

Shri Ram bowed his head and prayed with folded hands, that if the host is unable, then in the absence of the best option, Yogacharya can perform the rituals even with other equivalent options..!

“Sure, but it is possible in the absence of other alternative, not in the absence of the main alternative. It would have been possible if you were single, widower or abandoned. Apart from all this, you are not even a sannyasin and you have not taken a vow of wifeless vanaprastha. How can you perform wifeless rituals in these circumstances?

“Any way Acharya.?”

“The Acharya takes the necessary tools, equipments back after the rituals.! If it is accepted, then send someone, the host wife is seated in the Pushpak Viman near the ocean.

Shri Ram accepted this best trick with folded hands, bowing his head silently. In the observance of Sri Ramadesh, Vibhishana along with the ministers went to Pushpak Vimana and returned with Sita. Sit on the side of the half-host, the half-host..”

Vaidehi followed this order of Acharya. After worshiping Ganapati, setting up the vase and worshiping the Navagraha, the Acharya asked – Linga Deity.?

The host requested that the son of Pawan has gone to Kailash from the first prahar of last night to pick him up. Haven’t returned yet! Will be coming.!

The Acharya ordered – “Cannot be delayed! The best time is present. Therefore, without delay, the host-wife should make the linga-deity of Balu himself.!”

Janak Nandini created a sufficient linga-deity from the wet renukas of the beach with her own lotuses as per the instructions of Acharya.

The base bench of Renukas was made by the host. Shri Sitaram established the same Maheshwar Linga-deity.

Acharya completed the rituals with perfect rituals.

Now it is the turn of Acharya’s Dakshina..!

Shriram asked – “Your Dakshina.?”

Once again everyone was shocked… Acharya’s words..

“Don’t worry, host. The owner of Swarnapuri cannot have Dakshina property. Acharya knows that his host is currently a forest dweller.

“But still Ram promises to fulfill whatever his Acharya demands.”

“When Acharya takes the death bed, then the host should be present in front of him….” Acharya asked for his dakshina.!

“It will be like this, Acharya.!” The host made a promise and fulfilled it when the time came.

“Raghukul riti sada chali aai.! Pran Jai Par Vachan Na Jai.!!”

After hearing this scene, the entire people present were filled with the panoramic love of the community. All together with one voice saluted this wonderful Acharya with true devotion.

What could be a bigger dakshina than what a prophet like Ravana asked for? Ravana, who can present Rama’s captive wife to the enemy to complete the yagya-work, how can he ask for Dakshina from Rama to return? (It is written in Rameshwaram Devasthan that this Jyotirlinga was established by Shri Ram by Ravana)

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