भगवान की प्रत्येक लीला रहस्यों से भरी होती है। वे कब कौन-सा काम किस हेतु करेंगे, इसे कोई नहीं जानता। उनकी लीला का हेतु होता है, अपने भक्तों को आनन्द देना और उन्हें भवबन्धन से मुक्त करना।
संस्कृत में डोरी को दाम कहते है और उदर कहते हैं पेट को। यशोदा मैया ने भगवान् श्री कृष्ण के पेट को रस्सी से बाँधा इसलिए भगवान् का नाम पड़ा दामोदर।
उस दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा थी। श्रीकृष्ण दो वर्ष दो मास आठ दिन के हो चुके थे। अभी वे माता का दूध ही रुचिपूर्वक पीते थे। घर की दासियां अन्य कामों में व्यस्त थीं; क्योंकि आज गोकुल में इन्द्रयाग (इन्द्र की पूजा) होना था। यशोदामाता ने निश्चय किया कि आज मैं अपने हाथ से दधि-मन्थन कर स्वादिष्ट माखन निकालूंगी और उसे लाला को मना-मनाकर खिलाऊंगी। जब वह पेट भरकर माखन खा लेगा तो उसे फिर किसी गोपी के घर का माखन खाने की इच्छा नहीं होगी।
यशोदामाता सुबह उठते ही दधि-मन्थन करने लगीं क्योंकि कन्हैया को उठते ही तत्काल का निकाला माखन चाहिए। यशोदामाता शरीर से दधि-मन्थन का सेवाकार्य कर रही हैं, हृदय से श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का स्मरण कर रही हैं और मुख से उनका गान भी करती जा रहीं हैं। जब कोई ह्रदय से कन्हैया को याद करे और उनका गुणगान भी करे तो वे कहाँ सोने वाले थे। तुरन्त उठ कर आ बैठे यशोदामाता की गोद में। मईया ! बहुत भूख लगी है ऐसा कह कर यशोदामाता से लिपट गये। अपने लाड़ले कन्हैया को भूखा देख मईया भी सब काम छोड़ अपने लला को स्तनपान कराने बैठ गयीं।
अंकाधिरूढं शिशुगोपगूढं, स्तनं धयन्तं कमलैककान्तम्।
सम्बोधयामास मुदा यशोदा, गोविन्द दामोदर माधवेति।।
अर्थात्–अपनी गोद में बैठकर दूध पीते हुए बालगोपालरूप भगवान लक्ष्मीकान्त को देखकर प्रेम में मग्न हुयी यशोदामाता उन्हें ‘ऐ मेरे गोविन्द ! ऐ मेरे दामोदर ! ऐ मेरे माधव !’–इन नामों से बुलाती थीं।
सामने पद्मगंधा गाय का दूध अग्नि पर चढ़ाया था। यह दूध बड़ा विलक्षण है। हजार गायों का दूध सौ गायों को, सौ गायों का दूध दस गायों को और दस गायों का दूध एक पद्मगंधा गाय को पिलाकर उस पद्मगंधा गाय से निकाला हुआ दूध है यह। यही दूध लाला पीता है। यशोदामाता की दृष्टि उफनते हुए दूध पर गयी। मैया ने देखा कि दूध उफनने वाला है; यदि यह दूध उफनकर गिर गया तो कन्हैया क्या पियेगा? स्तनपान तो पीछे भी कराया जा सकता है। यद्यपि दूध श्रीकृष्ण के लिए ही था, फिर भी स्वयं यशोदामाता का स्तनपान कर रहे श्रीकृष्ण से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता था। अगर कुछ उफनकर गिर भी पड़ता तो क्या अनर्थ हो जाता? शेष तो बर्तन में बचा ही रहता। यशोदामाता अतृप्त बालकृष्ण को गोदी से उतारकर दूध सम्भालने चली गयीं।
मईया के गोद से उतारते ही कन्हैया रूष्ट होकर बोले मईया ! “आज तोय पूत से दूध ज्यादा प्यार है गया।” इतना कह कन्हैया ने पास में रखा बट्टा दही की मटकी पर दे मारा। मटकी फूट गयी और सारा दही फैल गया। दही को फैलता देख कन्हैया वहां से खिसक गये। गोरस रखने वाले घर का द्वार खुला था। वे वहां जाकर एक दिन पहले का निकला बासी माखन खाने लगे। पास ही एक ऊखल उल्टा रखा था। कन्हैया ने सोचा कि यदि बच्चे को माता अपनी गोद में नहीं बैठायेगी तो वह कहां जायेगा? वह खल के पास जाकर उसकी संगति करेगा। ऐसा सोचकर कन्हैया उस ऊखल पर चढ़ गये। एक मोटा-सा बंदर कहीं से कूद कर आ गया। कन्हैया की और बंदरों की तो नित्य मैत्री है। भगवान को यह बात याद आई कि ये मेरे रामावतार के भक्त हैं। उस समय तो मैं इन्हें कुछ खिला न सका। ये सब पेड़ के पत्ते खाकर मेरे लिए युद्ध करते थे। इसलिए वे कृष्णावतार में छीके पर धरे पात्र में से निकाल-निकालकर बंदर को माखन खिलाने लगे।
मैया दूध उतारकर लौटी तो देखती है कि दहेड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गये हैं। मैया को हंसी आ गयी। फिर उसने सोचा, ऐसे तो बालक बिगड़ जायेगा। माता ने लाला को दूध पिलाने की जगह दण्ड देने का विचार किया। अत: एक छड़ी लेकर श्रीकृष्ण को धमकाने चलीं। दही में सने कन्हैया के चरणचिह्न उनका पता अपने-आप बता रहे थे। कन्हैया ने मैया को छड़ी लेकर अपनी ओर आते देखा तो ऊखल से उतर कर आँगन में भागे। चंचल कन्हाई के पीछे दौड़ रही थी मैया। पुत्र को डरा देखकर मां का वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया और उन्होंने छड़ी दूर फेंक दी। मैया यह समझ जाती है कि मेरे छड़ी फेंकने से लाला को यह विश्वास हो गया है कि अब माता मुझे मारेगी नहीं। इसलिए कन्हैया पास आकर खड़े हो गये। कन्हैया को डांटते हुए यशोदामाता ने कहा–’अरे वानरबन्धो ! चंचलप्रकृते ! मन्थनीस्फोटक ! तू बहुत ऊधमी हो गया है। अब तुझे माखन कहां से मिलेगा? ठहर, आज मैं तुझे बिल्कुल छोड़ने वाली नहीं हूं। तूने जिस ऊखल पर चढ़कर चोरी की है उसी से आज तुझे बांधे देती हूँ।’ यशोदामाता ने सोचा कि ऊखल भी चोर है; क्योंकि माखनचोरी करते समय इसने श्रीकृष्ण की सहायता की थी। चोर का साथी चोर। इसलिए दोनों बंधन के योग्य हैं।
मैया ने रस्सी ली और बांधने लगी। रस्सी दो अंगुल छोटी हो गयी। माता उस रस्सी के साथ दूसरी रस्सी जोड़ती हैं और श्रीकृष्ण को बांधने का प्रयास करती है; किन्तु यह डोरी भी दो अंगुल छोटी पड़ती है। तीसरी जोड़ी, चौथी जोड़ी, पांचवीं जोड़ी; एक-पर-एक रस्सियां जोड़ती चली गयी; किन्तु वह दो अँगुल का अन्तर न घटा। मैया आश्चर्यचकित रह गयी। उसके पुत्र की मुट्ठी भर की कमर तो मोटी हुयी नहीं। कन्हैया की कमर में पड़ी करधनी ज्यों-की-त्यों है, फिर इतनी रस्सियां क्यों पूरी नहीं पड़ती ?
श्रीकृष्ण ने देखा कि मैया बांधना ही चाहती है पर वह थक गयी है। उसका सारा शरीर पसीने से भीग गया है। उसके केशों में लगे फूल बिखर गये हैं। माता सबसे बड़ी है, अत: उसको थकाना उचित नहीं है। मैं गोकुल का दु:ख दूर करने के लिए प्रकट हुआ और माता का दु:ख दूर न करूँ, तो यह क्या ठीक होगा ? दयामय स्वयं बंध जाते हैं मां के प्रेमपाश में। ऐश्वर्य शक्ति हट गयी, श्रीहरि बंध गये।
मैया कन्हैया को ऊखल से बाँधकर अपने काम में लग गई। कन्हैया ने देखा मैया अपना काम कर रही है, तो मैं भी अपना काम कर लूँ। नन्द भवन के बाहर यमलार्जुन के दो वृक्ष खड़े हुए थे। एक का नाम नलकूबर और दुसरे का नाम मणिग्रीव जो नारद जी के शाप से वृक्ष हो गये थे, उनका उद्धार करना था। कन्हैया ऊखल को खीचतें हुए नन्दभवन के बाहर आ गये। वहाँ उन्होंने ऊखल को दोनों वृक्षों के बीच में फंसाया और जोर से जहाँ खीचा, भयानक आवाज हुई और दोनों वृक्ष गिर पड़े। उनमे से दिव्य पुरुष प्रकट हो गये। भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करते हुए इनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। आज उन्हें अपने वृक्ष अवतार से मुक्ति मिल गई।
इसे कहते हैं एक पंथ दो काज प्रभु की ओखल बन्धन लीला भी हो गई और साथ-ही-साथ नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार भी हो गया।
श्रीकृष्ण की लीलाओं का जितना विस्तृत वर्णन किया जाये उतना ही अधिक आनन्द आता है किन्तु यहाँ जगह और समय अभाव बैरी बन जाता है और भाव पूर्ण रूप से बाहर नहीं आ पाते। अतः इसे श्रीकृष्ण की दामोदर लीला का संक्षिप्त रूप ही कहना उचित होगा।