किसी शहरमें एक बड़ा धर्मात्मा राजा राज्य करता था। उसके दानधर्मका प्रवाह कभी बंद नहीं होता था। एक दिन उसके यहाँ एक साधु आया उसने राजासे कहा- ‘राजन्! मुझे कुछ दो।’ राजा बोला- ‘कहिये, क्या दूँ ?’ साधुने कहा- ‘या तो बारह वर्षके लिये अपना राजपाट दे दो या अपना धर्म दे दो।’ साधुकी बात सुनकर राजा पहले तो कुछ चिन्तामें पड़ गया, फिर सोच-विचारकर उसने कहा- ‘महाराज! मैंने राजपाट सब आपको दिया। आप सँभाल लीजिये।’ इतना कहकर वह वहाँसे अकेले चल पड़ा।
चलते-चलते मार्गमें एक बगीचा आया। वहीं एक कुआँ और प्याऊ भी था। बड़ा रम्य स्थान था। राजा वहीं विश्राम करनेके विचारसे ठहर गया! अगल-बगल देखनेपर उसे एक जीन कसा हुआ सुन्दर घोड़ा दीखा। वहाँ एक सुन्दरी स्त्री बैठी हुई रो रही थी। राजाकोस्वभावतः दया आयी। उसने उस स्त्रीसे रोनेका कारण पूछा। स्त्री बोली- ‘महाराज! मैं एक राजकुमारी हूँ। मेरे पिता, भ्राता सबको शत्रुओंने मार डाला है। मैं किसी | प्रकार जान बचाकर यहाँ भाग आयी हूँ। अब आप ही | दैवके द्वारा भेजे मेरे आश्रयदाता हैं। अतः मुझे शरण दें।’ राजाने कहा – ‘ठीक है, घोड़ेपर चढ़कर चलो।’ वह बोली- ‘नहीं महाराज! तुम्हीं घोड़ेपर चलो, तुम्हारे सामने मेरा घोड़ेपर चलना ठीक नहीं है।’ चलते-चलते | दोनों एक-दूसरे राजाके नगरमें पहुँचे। स्त्रीने कहा-
‘तुम शहरमें जाकर कोई बढ़िया मकान भाड़ेपर ठीक करो। तबतक मैं यहीं बैठती हूँ।’ राजाने कहा- ‘भाई! मेरे पास अधेला भी नहीं है, फिर मकानकी बात किस मुँहसे करूँगा।’ स्त्रीने कहा- ‘महाराज ! रुपयों-पैसोंकी आवश्यकता हो तो मेरे पाससे ले जाओ।’ और उसने निकालकर दस मोहरें राजाको थमा दीं। राजा भी मकानठीक कर आया और राजकुमारीको लेकर उसी मकानमें रहने लगा। राजा बाहरसे घोड़े और उस स्त्री आदिके लिये भोजन सामग्री ले आया। राजकुमारीने भोजन तैयार किया और राजासे भोजन करनेको कहा। राजाने कहा, ‘अरे! आप भोजन करो!’ उसने कहा, ‘नहीं महाराज! पहले आप भोजन कर लें तो पीछे मैं करूँगी।’ राजाने भोजन किया। स्त्रीने भी किया।
दूसरे दिन उस स्त्रीने कहा-‘राजन्! आपको कष्ट अधिक होता है, एक नौकर रख लो।’ राजा बोला “भाई मेरे पास एक अधेला भी नहीं है और तुम तो राजाओंकी-सी बात कर रही हो।’ स्त्रीने कहा ‘राजन्! आप असमंजसमें न पड़िये, मैं स्त्री न हुई होती तो स्वयं इन कामोंको कर लाती, आपकी कहने भी न जाती। रुपये-पैसोंकी आपको जब भी आवश्यकता पड़े आप हमसे निस्सङ्कोच मांग लिया कीजिये।’ राजा गया और एक नौकर ले आया।
कुछ दिनोंके बाद उस स्त्रीने कहा- ‘राजन्! मन बहलानेके लिये कभी-कभी यहाँके राजाकी कचहरीमें चले जाया करो और वहाँकी कुछ बातें सुन लिया करो।’ अब राजा रोज कचहरी जाने लगा। राजा यह समझकर कि यह मेरे मन्त्रियोंमेंसे किसीका सम्बन्धी होगा, उससे कुछ न पूछता। इधर मन्त्रीलोग उसकी आकृति राजाके समान देखकर राज-सम्बन्धी जानकर कुछ न बोलते। कुछ दिन यों ही बीत गये। एक दिन राजा और मन्त्रिवर्गने आपसमें आखिर उस राजाके सम्बन्धमें बात चीत की। वह किसीका कोई होता तो था ही नहीं। लोगोंको बड़ा कौतूहल हुआ। दूसरे दिन राजाने उससे परिचय माँगा। उसने अपनी सारी बात बता दी। उसकी धर्मप्रियता देख राजाने उसका बड़ा स्वागत किया और अपना मुकुट उसके सिरपर रख उसकी पगड़ी अपने सिरपर रख ली, अपने सिंहासनपर बैठाया और मैत्रीकी प्रतिज्ञा की दूसरे दिन उसेनिमन्त्रण दिया। राजाने सारी घटना उस स्त्रीसे कहा। उसने कहा- ‘ठीक है, आप इसके बदले राजाको सारे परिकर, परिषद् तथा नगरको भी न्यौता दे आइये।’ वह पहले तो हिचकिचाया पर उसके प्रभाव तथा आग्रहको देखकर राजासे जाकर बोला- ‘भाई साहब! आपको और आपकी सारी फौज पल्टनको और तमाम शहरको मेरे यहाँ कल निमन्त्रण है।’ राजा बोला-‘कहीं भाँग पी ली है क्या? खैर बोले जाओ मनमानी, मित्र हो तो हो।’ शामको उसने एक सिपाही भेजकर पता चलाया तो वहाँ कुछ नहीं था। राजाने कहा, ‘भाई! उसने कहीं भाँग फाँग पी ली होगी।’ इधर इसको भी चैन न थी। उस स्त्रीसे कहने लगा- ‘भाई तूने मेरी अच्छी फजीहत की। प्रातः राजा न जाने मुझे क्या कहेगा ?’ स्त्रीने कहा-‘महाराज! चिन्ता न करें, यदि आपको धैर्य न हो तो उस बगीचेमें देख आयें, जहाँसे मुझे लिवा लाये थे।’ राजाने घोड़ेपर चढ़कर जा देखा तो वहाँ सम्पूर्ण देववर्ग ही कार्यमें तत्पर था। अनन्त दिव्य ऐश्वर्य भरा था। वह तो आश्चर्यमें डूब गया। प्रातःकाल राजासहित सम्पूर्ण नगरको उसने भोजन कराया। इस आश्चर्यको देखकर सभी लोग आश्चर्यमें डूब गये। भोजनोपरान्त सारा देववर्ग अन्तर्धान हो गया।
अब उस स्त्रीने कहा – ‘राजन् तुमने उस साधुको कितने दिनोंके लिये राज्य दिया था। जरा कागज तो देखो।’ राजाने देखा, समय पूरा हो चुका था। स्त्री | बोली तो तुम अब अपने घरको जाओ। राजाने कहा “देवि! तुम्हें छोड़कर तो मैं एक डग भी न जाऊँगा। स्त्री बोली- ‘राजन्! तुम मुझे क्या समझ रहे हो? मैं कोई तुम्हारी स्त्री नहीं हूँ। मैं तो तुम्हारा धर्म हूँ। जब | तुमने मुझे नहीं छोड़ा तो मैंने भी तुम्हें नहीं छोड़ना चाहा और तुम्हारी स्त्री बनकर तुम्हारे साथ रहकर | किसी प्रकारका तुम्हें क्लेश नहीं होने दिया। पर अब ‘तुम्हारी जैसी इच्छा।’ -जा0 श0
किसी शहरमें एक बड़ा धर्मात्मा राजा राज्य करता था। उसके दानधर्मका प्रवाह कभी बंद नहीं होता था। एक दिन उसके यहाँ एक साधु आया उसने राजासे कहा- ‘राजन्! मुझे कुछ दो।’ राजा बोला- ‘कहिये, क्या दूँ ?’ साधुने कहा- ‘या तो बारह वर्षके लिये अपना राजपाट दे दो या अपना धर्म दे दो।’ साधुकी बात सुनकर राजा पहले तो कुछ चिन्तामें पड़ गया, फिर सोच-विचारकर उसने कहा- ‘महाराज! मैंने राजपाट सब आपको दिया। आप सँभाल लीजिये।’ इतना कहकर वह वहाँसे अकेले चल पड़ा।
चलते-चलते मार्गमें एक बगीचा आया। वहीं एक कुआँ और प्याऊ भी था। बड़ा रम्य स्थान था। राजा वहीं विश्राम करनेके विचारसे ठहर गया! अगल-बगल देखनेपर उसे एक जीन कसा हुआ सुन्दर घोड़ा दीखा। वहाँ एक सुन्दरी स्त्री बैठी हुई रो रही थी। राजाकोस्वभावतः दया आयी। उसने उस स्त्रीसे रोनेका कारण पूछा। स्त्री बोली- ‘महाराज! मैं एक राजकुमारी हूँ। मेरे पिता, भ्राता सबको शत्रुओंने मार डाला है। मैं किसी | प्रकार जान बचाकर यहाँ भाग आयी हूँ। अब आप ही | दैवके द्वारा भेजे मेरे आश्रयदाता हैं। अतः मुझे शरण दें।’ राजाने कहा – ‘ठीक है, घोड़ेपर चढ़कर चलो।’ वह बोली- ‘नहीं महाराज! तुम्हीं घोड़ेपर चलो, तुम्हारे सामने मेरा घोड़ेपर चलना ठीक नहीं है।’ चलते-चलते | दोनों एक-दूसरे राजाके नगरमें पहुँचे। स्त्रीने कहा-
‘तुम शहरमें जाकर कोई बढ़िया मकान भाड़ेपर ठीक करो। तबतक मैं यहीं बैठती हूँ।’ राजाने कहा- ‘भाई! मेरे पास अधेला भी नहीं है, फिर मकानकी बात किस मुँहसे करूँगा।’ स्त्रीने कहा- ‘महाराज ! रुपयों-पैसोंकी आवश्यकता हो तो मेरे पाससे ले जाओ।’ और उसने निकालकर दस मोहरें राजाको थमा दीं। राजा भी मकानठीक कर आया और राजकुमारीको लेकर उसी मकानमें रहने लगा। राजा बाहरसे घोड़े और उस स्त्री आदिके लिये भोजन सामग्री ले आया। राजकुमारीने भोजन तैयार किया और राजासे भोजन करनेको कहा। राजाने कहा, ‘अरे! आप भोजन करो!’ उसने कहा, ‘नहीं महाराज! पहले आप भोजन कर लें तो पीछे मैं करूँगी।’ राजाने भोजन किया। स्त्रीने भी किया।
दूसरे दिन उस स्त्रीने कहा-‘राजन्! आपको कष्ट अधिक होता है, एक नौकर रख लो।’ राजा बोला “भाई मेरे पास एक अधेला भी नहीं है और तुम तो राजाओंकी-सी बात कर रही हो।’ स्त्रीने कहा ‘राजन्! आप असमंजसमें न पड़िये, मैं स्त्री न हुई होती तो स्वयं इन कामोंको कर लाती, आपकी कहने भी न जाती। रुपये-पैसोंकी आपको जब भी आवश्यकता पड़े आप हमसे निस्सङ्कोच मांग लिया कीजिये।’ राजा गया और एक नौकर ले आया।
कुछ दिनोंके बाद उस स्त्रीने कहा- ‘राजन्! मन बहलानेके लिये कभी-कभी यहाँके राजाकी कचहरीमें चले जाया करो और वहाँकी कुछ बातें सुन लिया करो।’ अब राजा रोज कचहरी जाने लगा। राजा यह समझकर कि यह मेरे मन्त्रियोंमेंसे किसीका सम्बन्धी होगा, उससे कुछ न पूछता। इधर मन्त्रीलोग उसकी आकृति राजाके समान देखकर राज-सम्बन्धी जानकर कुछ न बोलते। कुछ दिन यों ही बीत गये। एक दिन राजा और मन्त्रिवर्गने आपसमें आखिर उस राजाके सम्बन्धमें बात चीत की। वह किसीका कोई होता तो था ही नहीं। लोगोंको बड़ा कौतूहल हुआ। दूसरे दिन राजाने उससे परिचय माँगा। उसने अपनी सारी बात बता दी। उसकी धर्मप्रियता देख राजाने उसका बड़ा स्वागत किया और अपना मुकुट उसके सिरपर रख उसकी पगड़ी अपने सिरपर रख ली, अपने सिंहासनपर बैठाया और मैत्रीकी प्रतिज्ञा की दूसरे दिन उसेनिमन्त्रण दिया। राजाने सारी घटना उस स्त्रीसे कहा। उसने कहा- ‘ठीक है, आप इसके बदले राजाको सारे परिकर, परिषद् तथा नगरको भी न्यौता दे आइये।’ वह पहले तो हिचकिचाया पर उसके प्रभाव तथा आग्रहको देखकर राजासे जाकर बोला- ‘भाई साहब! आपको और आपकी सारी फौज पल्टनको और तमाम शहरको मेरे यहाँ कल निमन्त्रण है।’ राजा बोला-‘कहीं भाँग पी ली है क्या? खैर बोले जाओ मनमानी, मित्र हो तो हो।’ शामको उसने एक सिपाही भेजकर पता चलाया तो वहाँ कुछ नहीं था। राजाने कहा, ‘भाई! उसने कहीं भाँग फाँग पी ली होगी।’ इधर इसको भी चैन न थी। उस स्त्रीसे कहने लगा- ‘भाई तूने मेरी अच्छी फजीहत की। प्रातः राजा न जाने मुझे क्या कहेगा ?’ स्त्रीने कहा-‘महाराज! चिन्ता न करें, यदि आपको धैर्य न हो तो उस बगीचेमें देख आयें, जहाँसे मुझे लिवा लाये थे।’ राजाने घोड़ेपर चढ़कर जा देखा तो वहाँ सम्पूर्ण देववर्ग ही कार्यमें तत्पर था। अनन्त दिव्य ऐश्वर्य भरा था। वह तो आश्चर्यमें डूब गया। प्रातःकाल राजासहित सम्पूर्ण नगरको उसने भोजन कराया। इस आश्चर्यको देखकर सभी लोग आश्चर्यमें डूब गये। भोजनोपरान्त सारा देववर्ग अन्तर्धान हो गया।
अब उस स्त्रीने कहा – ‘राजन् तुमने उस साधुको कितने दिनोंके लिये राज्य दिया था। जरा कागज तो देखो।’ राजाने देखा, समय पूरा हो चुका था। स्त्री | बोली तो तुम अब अपने घरको जाओ। राजाने कहा “देवि! तुम्हें छोड़कर तो मैं एक डग भी न जाऊँगा। स्त्री बोली- ‘राजन्! तुम मुझे क्या समझ रहे हो? मैं कोई तुम्हारी स्त्री नहीं हूँ। मैं तो तुम्हारा धर्म हूँ। जब | तुमने मुझे नहीं छोड़ा तो मैंने भी तुम्हें नहीं छोड़ना चाहा और तुम्हारी स्त्री बनकर तुम्हारे साथ रहकर | किसी प्रकारका तुम्हें क्लेश नहीं होने दिया। पर अब ‘तुम्हारी जैसी इच्छा।’ -जा0 श0