देवर्षि नारद व्रजभूमिमें भ्रमण कर रहे थे। श्रीकृष्णचन्द्रका अवतार हुआ नहीं था; किंतु होनेवाला ही था। घूमते हुए वे एक यमुनापारके वनमें पहुँचे। देवर्षिको आश्चर्य हुआ – सृष्टिमें इतनी शान्ति भी सम्भव है? लगता था कि उस काननमें पवनके पद भी शिथिल हो जाते हैं। पशु-पक्षी कहीं दीखते नहीं थे। पूरा कानन निस्पंद— गतिहीन और आश्चर्य तो यह था कि वहाँ पहुँचकर देवर्षिकी वीणा भी मूक हो गयी थी। उनकी गति भी शिथिल होती जा रही थी और उनका मन भी लगता था कि विलीन होने जा रहा है।
‘कौन है यहाँ ? किसका प्रभाव है यह?’ देवर्षिने इधर-उधर देखा। एक अद्भुत शान्ति वहाँ सर्वत्र व्याप्त थी; किंतु उसमें तमस् नहीं था। शुद्ध सत्त्वमयी शान्ति। जैसे आलोक एवं आनन्दसे परितृप्त कण-कण अपनी गति खोकर स्थिर हो गया हो l
‘तुम कौन हो देवि ?’ एक अद्भुत ज्योतिर्मयी देवी वृक्षमूलमें बैठी दीख पड़ी। वह तपस्विनी थी, शृङ्गार और आभूषणसे रहित थी। उसमें लगता था कि कोई पार्थिव अंश है ही नहीं, केवल ज्योतिका पुञ्जीभाव है वह। देवर्षिको लगा कि वह चिरपरिचिता है, फिर भी अपरिचित है। उसे पहचानकर भी पहचाना नहीं जा पाता। ‘मैं ब्रह्मविद्या हूँ।’ देवीका स्वर प्रणवके परानादके
समान गूँजा ।
‘ब्रह्मविद्या ! आप ? आप क्या कर रही हैं यहाँ ?’ देवर्षिने श्रद्धासे मस्तक झुका दिया। ‘आप देख ही रहे हैं कि तपस्या कर रही हूँ।’
देवीने उत्तर दिया।
‘परंतु आपका प्राप्तव्य क्या है ?’ देवर्षि नहीं समझ पाते थे कि जिनकी प्राप्तिके लिये ऋषिगण युग-युगके तपसे पवित्र मनके द्वारा ध्यान करते हैं, मनन निदिध्यासन करते हैं, उस ब्रह्मज्ञानकी साक्षात् अधिदेवताको पाना क्या हो सकता है। जो निखिल कामनाओंकी निषेधरूपा हैं, उनमें कामना क्या और बिना कामनाके तप क्यों ?
‘मैं गोपीभावसे श्रीनन्दनन्दनके चरण-कमल पाना चाहती हूँ !’ ब्रह्मविद्याके नेत्र सजल हो गये। ‘उनकी | कृपाके बिना उनके श्रीचरण मिला नहीं करते देवर्षि !’
-पद्मपुराण, पातालखण्ड 72
Devarshi Narad was traveling in Vrajbhoomi. The incarnation of Shri Krishna Chandra had not happened; But it was bound to happen. While wandering, they reached a Yamunapark forest. Devarshi wondered – is this much peace even possible in the world? It seemed that even the feet of the wind get relaxed in that song. Animals and birds were nowhere to be seen. The whole Kanan was motionless and the surprise was that even Devarshi’s veena had become mute after reaching there. His pace was also slowing down and his mind also felt that it was going to dissolve.
‘Who’s here? Whose influence is this?’ Devarshi looked here and there. A wonderful peace pervaded everywhere there; But there was no tamas in him. Pure sattvamayi peace. As if every particle saturated with light and joy has lost its motion and has become stable.
‘Who are you Devi?’ A wonderful Jyotirmayi Devi was seen sitting at the root of the tree. She was ascetic, devoid of adornment and ornaments. It seemed that there is no earthly part in it, it is only Jyoti’s capital. Devarshi felt that he was familiar, yet he was unfamiliar. He cannot be recognized even after recognizing him. ‘I am Brahmavidya.’ Devika Swar Pranavke Paranadke
The same echoed.
‘Brahmavidya! You ? What are you doing here?’ Devarshi bowed his head in reverence. ‘You can see that I am doing penance.’
Devi replied.
‘But what is your receipt?’ Devarshi could not understand that for the attainment of which Rishis meditate with the sacred mind of ages and ages, meditate and meditate, what can it be to attain that divine knowledge in person. What is desire in those who are the negation of endless desires, and why penance without desire?
‘I want to get the lotus feet of Shrinandanandan with Gopibhaav!’ The eyes of Brahmavidya became beautiful. ‘His | Devarshi does not meet his feet without grace!
– Padmapuran, Patalkhand 72