करम प्रधान बिस्व करि राखा’
श्रीरामचन्द्रजीको वनमें गये छठी रात बीत रही थी। जब आधी रात हुई, तब राजा दशरथको उस पहलेके किये हुए दुष्कर्मका स्मरण हुआ। पुत्रशोकसे पीड़ित हुए महाराजने अपने उस दुष्कर्मको याद करके पुत्रशोकसे व्याकुल हुई कौसल्यासे इस प्रकार कहना आरम्भ किया। ‘कल्याणि ! मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, भद्रे ! अपने उसी कर्मके फलस्वरूप सुख या दुःख कर्ताको प्राप्त होते हैं।
कौसल्ये! पिताके जीवनकालमें जब मैं केवल राजकुमार था, एक अच्छे धनुर्धरके रूपमें मेरी ख्याति फैल गयी थी। सब लोग यही कहते थे कि ‘राजकुमार दशरथ शब्दवेधी बाण चलाना जानते हैं।’ इसी ख्यातिमें पड़कर मैंने एक पाप कर डाला था।
देवि! उस अपने ही किये हुए कुकर्मका फल मुझे इस महान् दुःखके रूपमें प्राप्त हुआ है। जैसे दूसरा कोई गँवार मनुष्य पलाशके फूलोंपर ही मोहित हो उसके कड़वे फलको नहीं जानता, उसी प्रकार मैं भी ‘शब्दवेधी वाण-विद्या’ की प्रशंसा सुनकर उसपर लट्टू हो गया।। उसके द्वारा ऐसा क्रूरतापूर्ण पापकर्म बन सकता है और ऐसा भयंकर फल प्राप्त हो सकता है, इसका ज्ञान मुझे नहीं हुआ।
देवि! तब तुम्हारा विवाह नहीं हुआ था और मैं अभी युवराज ही था, उन्हीं दिनोंकी बात है। वर्षा ऋतुका अत्यन्त सुखद और सुहावन समय था, मैं धनुष बाण लेकर रथपर सवार हो शिकार खेलनेके लिये सरयूनदी के तटपर गया था। मेरी इन्द्रियाँ मेरे वशमें नहीं थीं। मैंने सोचा था कि पानी पीनेके लिये घाटपर रातके समय जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी अथवा सिंहव्याघ्र आदि दूसरा कोई हिंसक जन्तु आयेगा तो उसे मारूँगा।
उस समय वहाँ सब ओर अन्धकार छा रहा था। मुझे अकस्मात् पानीमें घड़ा भरनेकी आवाज सुनायी पड़ी। मेरी दृष्टि तो वहाँतक पहुँचती नहीं थी, किंतु वह आवाज मुझे हाथीके पानी पीते समय होनेवाले शब्दके समान जान पड़ी। तब मैंने यह समझकर कि हाथी ही अपनी सूँड़में पानी खींच रहा होगा; अतः वही मेरे बाणका निशाना बनेगा। तरकससे एक तीर निकाला और उस शब्दको लक्ष्य करके चला दिया। वह दीप्तिमान् बाण विषधर सर्पके समान भयंकर था।
वह उष:कालकी वेला थी। विषैले सर्पके सदृश उस तीखे बाणको मैंने ज्यों ही छोड़ा, त्यों ही वहाँ पानीमें गिरते हुए किसी वनवासीका हाहाकार मुझे स्पष्टरूपसे सुनायी दिया। मेरे बाणसे उसके मर्ममें बड़ी पीड़ा हो रही थी। उस पुरुषके धराशायी हो जानेपर वहाँ यह मानव- वाणी प्रकट हुई- आह! मेरे-जैसे तपस्वीपर शस्त्रका प्रहार कैसे सम्भव हुआ? मैं तो नदीके इस एकान्त तटपर रातमें पानी लेनेके लिये आया था। किसने मुझे बाण मारा है? मैंने किसका क्या बिगाड़ा था ? मैं तो सभी जीवोंको पीड़ा देनेकी वृत्तिका त्याग करके ऋषि जीवन बिताता था, वनमें रहकर जंगली फल मूलोंसे ही जीविका चलाता था। मुझ जैसे निरपराध मनुष्यका शस्त्रसे वध क्यों किया जा रहा है?
मुझे अपने इस जीवनके नष्ट होनेकी उतनी चिन्ता नहीं है; मेरे मारे जानेसे मेरे माता-पिताको जो कष्ट होगा, उसीके लिये मुझे बारम्बार शोक हो रहा है। मैंने इन दोनों वृद्धोंका बहुत समयसे पालन-पोषण किया है; अब मेरे शरीरके न रहनेपर ये किस प्रकार जीवन-निर्वाह करेंगे ?
ये करुणाभरे वचन सुनकर मेरे मनमें बड़ी व्यथा हुई। कहाँ तो मैं धर्मकी अभिलाषा रखनेवाला था और कहाँ यह अधर्मका कार्य बन गया। उस समय मेरे हाथोंसे धनुष और वाण छूटकर पृथ्वीपर गिर पड़े। रातमें विलाप करते हुए ऋषिका वह करुण वचन सुनकर मैं शोकके वेगसे घबरा उठा। मेरी चेतना अत्यन्त विलुप्त सी होने लगी।
मेरे हृदयमें दीनता छा गयी, मन बहुत दुखी हो गया। सरयूके किनारे उस स्थानपर जाकर मैंने देखा ‘एक तपस्वी बाणसे घायल होकर पड़े हैं। उनकी जटाएँ बिखरी हुई हैं, घड़ेका जल गिर गया है तथा सारा शरीर धूल और खूनमें सना हुआ है। वे बाणसे बिंधे हुए पड़े थे। उनकी अवस्था देखकर मैं डर गया, मेरा चित्त ठिकाने नहीं था। उन्होंने दोनों नेत्रोंसे मेरी ओर इस प्रकार देखा, मानो अपने तेजसे मुझे भस्म कर देना चाहते हों। वे कठोर वाणीमें यों बोले-‘राजन्! वनमें रहते हुए मैंने तुम्हारा कौन-सा अपराध किया था. जिससे तुमने मुझे बाण मारा ? मैं तो माता-पिताके लिये पानी लेनेकी इच्छासे यहाँ आया था। तुमने एक ही बाणसे मेरा मर्म विदीर्ण करके मेरे दोनों अन्धे और बूढ़े माता-पिताको भी मार डाला। वे दोनों बहुत दुबले और अन्धे हैं। निश्चय ही प्याससे पीड़ित होकर वे मेरी प्रतीक्षामें बैठे होंगे। वे देरतक मेरे आगमनकी आशा लगाये दुःखदायिनी प्यास लिये बाट जोहते रहेंगे।
अतः रघुकुलनरेश ! अब तुम्हीं जाकर शीघ्र ही मेरे पिताको यह समाचार सुना दो। राजन् ! यह पगडण्डी उधर ही गयी है, जहाँ मेरे पिताका आश्रम है। तुम जाकर उन्हें प्रसन्न करो, जिससे वे कुपित होकर तुम्हें शाप न दें। राजन्! मेरे शरीरसे इस बाणको निकाल दो। यह तीखा बाण मेरे मर्मस्थानको उसी प्रकार पीड़ा दे रहा है, जैसे नदीके जलका वेग उसके कोमल बालुकामय ऊँचे तटको छिन्न-भिन्न कर देता है।’
मुनिकुमारकी यह बात सुनकर मेरे मनमें यह चिन्ता समायी कि यदि वाण नहीं निकालता हूँ तो इन्हें क्लेश होता है और निकाल देता हूँ तो ये अभी प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं। इस प्रकार बाणको निकालनेके विषयमें मुझ दीन दुखी और शोकाकुल दशरथकी इस चिन्ताको उस समय मुनिकुमारने लक्ष्य किया।
यथार्थ बातको समझ लेनेवाले उन महर्षिने मुझे अत्यन्त ग्लानिमें पड़ा हुआ देख बड़े कष्टसे कहा ‘राजन्! मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। मेरी आँखें चढ़ गयी हैं, अंग-अंगमें तड़पन हो रही है। मुझसे कोई चेष्टा नहीं बन पाती। अब मैं मृत्युके समीप पहुँच गया हूँ, फिर भी धैर्यके द्वारा शोकको रोककर अपने चित्तको स्थिर करता हूँ, अब मेरी बात सुनो—’मुझसे ब्रह्महत्या हो ‘गयी’- इस चिन्ताको अपने हृदयसे निकाल दो। राजन्! मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, इसलिये तुम्हारे मनमें ब्राह्मणवधको लेकर कोई व्यथा नहीं होनी चाहिये। नरश्रेष्ठ! मैं वैश्य पिताद्वारा शूद्रजातीय माताके गर्भसे उत्पन्न हुआ हूँ।’
वाणसे मर्ममें आघात पहुँचनेके कारण वे बड़े कष्टसे इतना ही कह सके। उनकी आँखें घूम रही थीं। उनसे कोई चेष्टा नहीं बनती थी। वे पृथ्वीपर पड़े-पड़े छटपटा रहे थे और अत्यन्त कष्टका अनुभव करते थे । उस अवस्थामें मैंने उनके शरीरसे उस बाणको निकाल दिया। फिर तो अत्यन्त दीन होकर उन तपोधनने मेरी और देख करके अपने प्राण त्याग दिये।
पानी में गिरनेके कारण उनका सारा शरीर भीग गया था। मर्ममें आघात लगनेके कारण बड़े कष्टसे विलाप करके और बारम्बार उच्छ्वास लेकर उन्होंने प्राणोंका त्याग किया था। कल्याणी कौसल्ये! उस अवस्थामें सरयूके तटपर मरे पड़े मुनिपुत्रको देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ।’
उन महर्षिके अनुचित वधका स्मरण करके धर्मात्मा रघुकुलनरेशने अपने पुत्रके लिये विलाप करते हुए ही रानी कौसल्यासे इस प्रकार कहा-‘देवि! अनजानमें यह महान् पाप कर डालनेके कारण मेरी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही थीं। मैं अकेला ही बुद्धि लगाकर सोचने लगा, अब किस उपायसे मेरा कल्याण हो ?
तदनन्तर उस घड़ेको उठाकर मैंने सरयूके उत्तम जलसे भरा और उसे लेकर मुनिकुमारके बताये हुए मार्गसे उनके आश्रमपर गया। वहाँ पहुँचकर मैंने उनके दुबले, अन्धे और बूढ़े माता-पिताको देखा, जिनका दूसरा कोई सहायक नहीं था। उनकी अवस्था पंख कटे हुए दो पक्षियोंके समान थी।
मेरे पैरोंकी आहट सुनकर वे मुनि इस प्रकार बोले- ‘बेटा! देर क्यों लगा रहे हो ? शीघ्र पानी ले आओ। हम असहाय हैं, तुम्हीं हमारे सहायक हो। हम अन्धे हैं, तुम्हीं हमारे नेत्र हो। हमलोगोंके प्राण तुम्हींमें अटके हुए हैं। बताओ, तुम बोलते क्यों नहीं हो ?’ मुनिको देखते ही मेरे मनमें भय-सा समा गया। मेरी जवान लड़खड़ाने लगी। किसी प्रकार अस्पष्ट वाणीमें मैंने बोलनेका प्रयास किया।
मैंने कहा—’महात्मन्! मैं आपका पुत्र नहीं, दशरथ नामका एक क्षत्रिय हूँ। मैंने अपने कर्मवश यह ऐसा कलंक पाया है, जिसकी सत्पुरुषोंने सदा निन्दा की है। भगवन्! मैं धनुष-बाण लेकर सरयूके तटपर आया था। मेरे आनेका उद्देश्य यह था कि कोई जंगली हिंसक पशु अथवा हाथी घाटपर पानी पीनेके लिये आये तो मैं उसे मारूँ।
थोड़ी देर बाद मुझे जलमें घड़ा भरनेका शब्द सुनायी पड़ा। मैंने समझा कि कोई हाथी आकर पानी पी रहा है, इसलिये उसपर बाण चला दिया। फिर सरयूके तटपर जाकर देखा कि मेरा बाण एक तपस्वीकी छातीमें लगा है और वे मृतप्राय होकर धरतीपर पड़े हैं। उस बाणसे उन्हें बड़ी पीड़ा हो रही थी, अतः उस समय उन्हींके कहनेसे मैंने सहसा वह बाण उनके मर्म स्थानसे निकाल दिया। बाण निकलनेके साथ ही वे तत्काल स्वर्ग सिधार गये। मरते समय उन्होंने आप दोनों पूजनीय अन्धे पिता-माताके लिये बड़ा शोक और विलाप किया था। इस प्रकार अनजानमें मेरे हाथसे आपके पुत्रका वध हो गया है। ऐसी अवस्थामें मेरे प्रति जो शाप या अनुग्रह शेष हो, उसे देनेके लिये आप महर्षि मुझपर प्रसन्न हों।’
मैंने अपने मुँहसे अपना पाप प्रकट कर दिया था, इसलिये मेरी क्रूरतासे भरी हुई वह बात सुनकर भी वे पूज्यपाद महर्षि मुझे कठोर दण्ड-भस्म हो जानेका शाप नहीं दे सके। उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली और वे शोकसे मूच्छित होकर दीर्घ निःश्वास लेने लगे। मैं हाथ जोड़े उनके सामने खड़ा था।
उस समय उन महातेजस्वी मुनिने मुझसे कहा ‘राजन्! यदि यह अपना पापकर्म तुम स्वयं यहाँ आकर न बताते तो शीघ्र ही तुम्हारे मस्तकके सैकड़ों-हजारों टुकड़े हो जाते। नरेश्वर यदि क्षत्रिय जान-बूझकर विशेषतः किसी वानप्रस्थीका वध कर डाले तो वह वज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, वह उसे अपने स्थानसे भ्रष्ट कर देता है। तुमने अनजानमें यह पाप किया है, इसीलिये अभीतक जीवित हो। यदि जान-बूझकर किया होता तो समस्त रघुवंशियोंका कुल ही नष्ट हो जाता, अकेले तुम्हारी तो बात ही क्या है ?”
उन्होंने मुझसे यह भी कहा- ‘नरेश्वर ! तुम हम दोनोंको उस स्थानपर ले चलो, जहाँ हमारा पुत्र मरा पड़ा है। इस समय हम उसे देखना चाहते हैं। यह हमारे लिये उसका अन्तिम दर्शन होगा।’
तब मैं अकेला ही अत्यन्त दुःखमें पड़े हुए उ दम्पतीको उस स्थानपर ले गया, जहाँ उनका पु कालके अधीन होकर पृथ्वीपर अचेत पड़ा था। उसके सारे अंग खूनसे लथपथ हो रहे थे, मृगचर्म और वस् बिखरे पड़े थे। मैंने पत्नीसहित मुनिको उनके पुत्र शरीरका स्पर्श कराया।
वे दोनों तपस्वी अपने उस पुत्रका स्पर्श करके उसके अत्यन्त निकट जाकर उसके शरीरपर गिर पड़े। फिर पिताने पुत्रको सम्बोधित करके उससे कहा- ‘अब कौन ऐसा है, जो कन्द, मूल और फल लाकर मुझ अकर्मण्य, अन्नसंग्रहसे रहित और अनाथको प्रिय अतिथिकी भाँति भोजन करायेगा। बेटा! तुम्हारी यह तपस्विनी माता अन्धी, बूढ़ी, दीन तथा पुत्रके लिये उत्कण्ठित रहनेवाली है। मैं स्वयं अन्धा होकर इसका भरण-पोषण कैसे करूँगा? पुत्र ठहरो, आज यमराजके घर न जाओ। कल मेरे और अपनी माताके साथ चलना। बेटा! तुम निष्पाप हो, किंतु एक पापकर्मा क्षत्रियने तुम्हारा वध किया है, इस कारण मेरे सत्यके प्रभावसे तुम शीघ्र ही उन लोकोंमें जाओ, जो अस्त्रयोधी शूरवीरोंको प्राप्त होते हैं। बेटा! युद्धमें पीठ न दिखानेवाले शूरवीर सम्मुख युद्धमें मारे जानेपर जिस गतिको प्राप्त होते हैं, उसी उत्तम गतिको तुम भी जाओ। हम जैसे तपस्वियोंके इस कुलमें पैदा हुआ कोई पुरुष बुरी गतिको नहीं प्राप्त हो सकता। बुरी गति तो उसकी होगी, जिसने मेरे बान्धवरूप तुम्हें अकारण मारा है ?’
इस प्रकार वे दीनभावसे बारम्बार विलाप करने लगे। तत्पश्चात् अपनी पत्नीके साथ वे पुत्रको जलांजलि देनेके कार्यमें प्रवृत्त हुए। इसी समय वह धर्मज्ञ मुनिकुमार अपने पुण्यकर्मोंके प्रभावसे दिव्य रूप धारण करके शीघ्र ही इन्द्रके साथ स्वर्गको जाने लगा।
इन्द्रसहित उस तपस्वीने अपने दोनों बूढ़े पिता माताको एक मुहूर्ततक आश्वासन देते हुए उनसे बातचीत की; फिर वह अपने पितासे बोला- ‘में आप दोनोंकी सेवाये महान स्थानको प्राप्त हुआ है, अब आपलोग भी शीघ्र ही मेरे पास आ जाइयेगा।’ यह कहकर वह जितेन्द्रिय मुनिकुमार उस सुन्दर आकारवाले दिव्य विमानसे शीघ्र ही देवलोकको चला गया। तदनन्तर पत्नीसहित उन महातेजस्वी तपस्वी मुनिने तुरंत ही पुत्रको जलांजलि देकर हाथ जोड़े खड़े हुए मुझसे कहा- ‘राजन्! तुम आज ही मुझे भी मार डालो; अब मरनेमें मुझे कष्ट नहीं होगा। मेरे एक ही बेटा था, जिसे तुमने अपने बाणका निशाना बनाकर मुझे पुत्रहीन कर दिया। तुमने प्रमादवश जो मेरे बालककी हत्या की है, उसके कारण मैं तुम्हें भी अत्यन्त भयंकर एवं भलीभाँति दुःख देनेवाला शाप दूँगा। राजन्! इस समय पुत्रके वियोगसे मुझे जैसा कष्ट हो रहा है, ऐसा ही तुम्हें भी होगा। तुम भी पुत्रशोकसे ही कालके गाल में जाओगे। नरेश्वर! क्षत्रिय होकर अनजानमें तुमने वैश्यजातीय मुनिका वध किया है, इसलिये तुम्हें ब्रह्महत्याका पार तो नहीं लगेगा, तथापि जल्दी ही तुम्हें भी ऐसी ही भयानक और प्राण लेनेवाली अवस्था प्राप्त होगी।’
इस प्रकार मुझे शाप देकर वे बहुत देरतक करुणाजनक विलाप करते रहे; फिर वे दोनों पति-पत्नी अपने शरीरोंको जलती हुई चितामें डालकर स्वर्गको चले गये।
देवि ! इस प्रकार बालस्वभावके कारण मैंने पहले शब्दवेधी बाण मारकर और फिर उस मुनिके शरीरसे बाणको खींचकर जो उनका वधरूपी पाप किया था, वह आज इस पुत्रवियोगकी चिन्तामें पड़े हुए मुझे स्वयं ही स्मरण हो आया है।
देवि ! अपथ्य वस्तुओंके साथ अन्नरस ग्रहण कर लेनेपर जैसे शरीरमें रोग पैदा हो जाता है, उसी प्रकार कल्याणि ! उस उदार महात्माका शाप रूपी वचन इस समय मेरे पास उस पापकर्मका फल देनेके लिये आ गया है।’
करम प्रधान बिस्व करि राखा’
श्रीरामचन्द्रजीको वनमें गये छठी रात बीत रही थी। जब आधी रात हुई, तब राजा दशरथको उस पहलेके किये हुए दुष्कर्मका स्मरण हुआ। पुत्रशोकसे पीड़ित हुए महाराजने अपने उस दुष्कर्मको याद करके पुत्रशोकसे व्याकुल हुई कौसल्यासे इस प्रकार कहना आरम्भ किया। ‘कल्याणि ! मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, भद्रे ! अपने उसी कर्मके फलस्वरूप सुख या दुःख कर्ताको प्राप्त होते हैं।
कौसल्ये! पिताके जीवनकालमें जब मैं केवल राजकुमार था, एक अच्छे धनुर्धरके रूपमें मेरी ख्याति फैल गयी थी। सब लोग यही कहते थे कि ‘राजकुमार दशरथ शब्दवेधी बाण चलाना जानते हैं।’ इसी ख्यातिमें पड़कर मैंने एक पाप कर डाला था।
देवि! उस अपने ही किये हुए कुकर्मका फल मुझे इस महान् दुःखके रूपमें प्राप्त हुआ है। जैसे दूसरा कोई गँवार मनुष्य पलाशके फूलोंपर ही मोहित हो उसके कड़वे फलको नहीं जानता, उसी प्रकार मैं भी ‘शब्दवेधी वाण-विद्या’ की प्रशंसा सुनकर उसपर लट्टू हो गया।। उसके द्वारा ऐसा क्रूरतापूर्ण पापकर्म बन सकता है और ऐसा भयंकर फल प्राप्त हो सकता है, इसका ज्ञान मुझे नहीं हुआ।
देवि! तब तुम्हारा विवाह नहीं हुआ था और मैं अभी युवराज ही था, उन्हीं दिनोंकी बात है। वर्षा ऋतुका अत्यन्त सुखद और सुहावन समय था, मैं धनुष बाण लेकर रथपर सवार हो शिकार खेलनेके लिये सरयूनदी के तटपर गया था। मेरी इन्द्रियाँ मेरे वशमें नहीं थीं। मैंने सोचा था कि पानी पीनेके लिये घाटपर रातके समय जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी अथवा सिंहव्याघ्र आदि दूसरा कोई हिंसक जन्तु आयेगा तो उसे मारूँगा।
उस समय वहाँ सब ओर अन्धकार छा रहा था। मुझे अकस्मात् पानीमें घड़ा भरनेकी आवाज सुनायी पड़ी। मेरी दृष्टि तो वहाँतक पहुँचती नहीं थी, किंतु वह आवाज मुझे हाथीके पानी पीते समय होनेवाले शब्दके समान जान पड़ी। तब मैंने यह समझकर कि हाथी ही अपनी सूँड़में पानी खींच रहा होगा; अतः वही मेरे बाणका निशाना बनेगा। तरकससे एक तीर निकाला और उस शब्दको लक्ष्य करके चला दिया। वह दीप्तिमान् बाण विषधर सर्पके समान भयंकर था।
वह उष:कालकी वेला थी। विषैले सर्पके सदृश उस तीखे बाणको मैंने ज्यों ही छोड़ा, त्यों ही वहाँ पानीमें गिरते हुए किसी वनवासीका हाहाकार मुझे स्पष्टरूपसे सुनायी दिया। मेरे बाणसे उसके मर्ममें बड़ी पीड़ा हो रही थी। उस पुरुषके धराशायी हो जानेपर वहाँ यह मानव- वाणी प्रकट हुई- आह! मेरे-जैसे तपस्वीपर शस्त्रका प्रहार कैसे सम्भव हुआ? मैं तो नदीके इस एकान्त तटपर रातमें पानी लेनेके लिये आया था। किसने मुझे बाण मारा है? मैंने किसका क्या बिगाड़ा था ? मैं तो सभी जीवोंको पीड़ा देनेकी वृत्तिका त्याग करके ऋषि जीवन बिताता था, वनमें रहकर जंगली फल मूलोंसे ही जीविका चलाता था। मुझ जैसे निरपराध मनुष्यका शस्त्रसे वध क्यों किया जा रहा है?
मुझे अपने इस जीवनके नष्ट होनेकी उतनी चिन्ता नहीं है; मेरे मारे जानेसे मेरे माता-पिताको जो कष्ट होगा, उसीके लिये मुझे बारम्बार शोक हो रहा है। मैंने इन दोनों वृद्धोंका बहुत समयसे पालन-पोषण किया है; अब मेरे शरीरके न रहनेपर ये किस प्रकार जीवन-निर्वाह करेंगे ?
ये करुणाभरे वचन सुनकर मेरे मनमें बड़ी व्यथा हुई। कहाँ तो मैं धर्मकी अभिलाषा रखनेवाला था और कहाँ यह अधर्मका कार्य बन गया। उस समय मेरे हाथोंसे धनुष और वाण छूटकर पृथ्वीपर गिर पड़े। रातमें विलाप करते हुए ऋषिका वह करुण वचन सुनकर मैं शोकके वेगसे घबरा उठा। मेरी चेतना अत्यन्त विलुप्त सी होने लगी।
मेरे हृदयमें दीनता छा गयी, मन बहुत दुखी हो गया। सरयूके किनारे उस स्थानपर जाकर मैंने देखा ‘एक तपस्वी बाणसे घायल होकर पड़े हैं। उनकी जटाएँ बिखरी हुई हैं, घड़ेका जल गिर गया है तथा सारा शरीर धूल और खूनमें सना हुआ है। वे बाणसे बिंधे हुए पड़े थे। उनकी अवस्था देखकर मैं डर गया, मेरा चित्त ठिकाने नहीं था। उन्होंने दोनों नेत्रोंसे मेरी ओर इस प्रकार देखा, मानो अपने तेजसे मुझे भस्म कर देना चाहते हों। वे कठोर वाणीमें यों बोले-‘राजन्! वनमें रहते हुए मैंने तुम्हारा कौन-सा अपराध किया था. जिससे तुमने मुझे बाण मारा ? मैं तो माता-पिताके लिये पानी लेनेकी इच्छासे यहाँ आया था। तुमने एक ही बाणसे मेरा मर्म विदीर्ण करके मेरे दोनों अन्धे और बूढ़े माता-पिताको भी मार डाला। वे दोनों बहुत दुबले और अन्धे हैं। निश्चय ही प्याससे पीड़ित होकर वे मेरी प्रतीक्षामें बैठे होंगे। वे देरतक मेरे आगमनकी आशा लगाये दुःखदायिनी प्यास लिये बाट जोहते रहेंगे।
अतः रघुकुलनरेश ! अब तुम्हीं जाकर शीघ्र ही मेरे पिताको यह समाचार सुना दो। राजन् ! यह पगडण्डी उधर ही गयी है, जहाँ मेरे पिताका आश्रम है। तुम जाकर उन्हें प्रसन्न करो, जिससे वे कुपित होकर तुम्हें शाप न दें। राजन्! मेरे शरीरसे इस बाणको निकाल दो। यह तीखा बाण मेरे मर्मस्थानको उसी प्रकार पीड़ा दे रहा है, जैसे नदीके जलका वेग उसके कोमल बालुकामय ऊँचे तटको छिन्न-भिन्न कर देता है।’
मुनिकुमारकी यह बात सुनकर मेरे मनमें यह चिन्ता समायी कि यदि वाण नहीं निकालता हूँ तो इन्हें क्लेश होता है और निकाल देता हूँ तो ये अभी प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं। इस प्रकार बाणको निकालनेके विषयमें मुझ दीन दुखी और शोकाकुल दशरथकी इस चिन्ताको उस समय मुनिकुमारने लक्ष्य किया।
यथार्थ बातको समझ लेनेवाले उन महर्षिने मुझे अत्यन्त ग्लानिमें पड़ा हुआ देख बड़े कष्टसे कहा ‘राजन्! मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। मेरी आँखें चढ़ गयी हैं, अंग-अंगमें तड़पन हो रही है। मुझसे कोई चेष्टा नहीं बन पाती। अब मैं मृत्युके समीप पहुँच गया हूँ, फिर भी धैर्यके द्वारा शोकको रोककर अपने चित्तको स्थिर करता हूँ, अब मेरी बात सुनो—’मुझसे ब्रह्महत्या हो ‘गयी’- इस चिन्ताको अपने हृदयसे निकाल दो। राजन्! मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, इसलिये तुम्हारे मनमें ब्राह्मणवधको लेकर कोई व्यथा नहीं होनी चाहिये। नरश्रेष्ठ! मैं वैश्य पिताद्वारा शूद्रजातीय माताके गर्भसे उत्पन्न हुआ हूँ।’
वाणसे मर्ममें आघात पहुँचनेके कारण वे बड़े कष्टसे इतना ही कह सके। उनकी आँखें घूम रही थीं। उनसे कोई चेष्टा नहीं बनती थी। वे पृथ्वीपर पड़े-पड़े छटपटा रहे थे और अत्यन्त कष्टका अनुभव करते थे । उस अवस्थामें मैंने उनके शरीरसे उस बाणको निकाल दिया। फिर तो अत्यन्त दीन होकर उन तपोधनने मेरी और देख करके अपने प्राण त्याग दिये।
पानी में गिरनेके कारण उनका सारा शरीर भीग गया था। मर्ममें आघात लगनेके कारण बड़े कष्टसे विलाप करके और बारम्बार उच्छ्वास लेकर उन्होंने प्राणोंका त्याग किया था। कल्याणी कौसल्ये! उस अवस्थामें सरयूके तटपर मरे पड़े मुनिपुत्रको देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ।’
उन महर्षिके अनुचित वधका स्मरण करके धर्मात्मा रघुकुलनरेशने अपने पुत्रके लिये विलाप करते हुए ही रानी कौसल्यासे इस प्रकार कहा-‘देवि! अनजानमें यह महान् पाप कर डालनेके कारण मेरी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही थीं। मैं अकेला ही बुद्धि लगाकर सोचने लगा, अब किस उपायसे मेरा कल्याण हो ?
तदनन्तर उस घड़ेको उठाकर मैंने सरयूके उत्तम जलसे भरा और उसे लेकर मुनिकुमारके बताये हुए मार्गसे उनके आश्रमपर गया। वहाँ पहुँचकर मैंने उनके दुबले, अन्धे और बूढ़े माता-पिताको देखा, जिनका दूसरा कोई सहायक नहीं था। उनकी अवस्था पंख कटे हुए दो पक्षियोंके समान थी।
मेरे पैरोंकी आहट सुनकर वे मुनि इस प्रकार बोले- ‘बेटा! देर क्यों लगा रहे हो ? शीघ्र पानी ले आओ। हम असहाय हैं, तुम्हीं हमारे सहायक हो। हम अन्धे हैं, तुम्हीं हमारे नेत्र हो। हमलोगोंके प्राण तुम्हींमें अटके हुए हैं। बताओ, तुम बोलते क्यों नहीं हो ?’ मुनिको देखते ही मेरे मनमें भय-सा समा गया। मेरी जवान लड़खड़ाने लगी। किसी प्रकार अस्पष्ट वाणीमें मैंने बोलनेका प्रयास किया।
मैंने कहा—’महात्मन्! मैं आपका पुत्र नहीं, दशरथ नामका एक क्षत्रिय हूँ। मैंने अपने कर्मवश यह ऐसा कलंक पाया है, जिसकी सत्पुरुषोंने सदा निन्दा की है। भगवन्! मैं धनुष-बाण लेकर सरयूके तटपर आया था। मेरे आनेका उद्देश्य यह था कि कोई जंगली हिंसक पशु अथवा हाथी घाटपर पानी पीनेके लिये आये तो मैं उसे मारूँ।
थोड़ी देर बाद मुझे जलमें घड़ा भरनेका शब्द सुनायी पड़ा। मैंने समझा कि कोई हाथी आकर पानी पी रहा है, इसलिये उसपर बाण चला दिया। फिर सरयूके तटपर जाकर देखा कि मेरा बाण एक तपस्वीकी छातीमें लगा है और वे मृतप्राय होकर धरतीपर पड़े हैं। उस बाणसे उन्हें बड़ी पीड़ा हो रही थी, अतः उस समय उन्हींके कहनेसे मैंने सहसा वह बाण उनके मर्म स्थानसे निकाल दिया। बाण निकलनेके साथ ही वे तत्काल स्वर्ग सिधार गये। मरते समय उन्होंने आप दोनों पूजनीय अन्धे पिता-माताके लिये बड़ा शोक और विलाप किया था। इस प्रकार अनजानमें मेरे हाथसे आपके पुत्रका वध हो गया है। ऐसी अवस्थामें मेरे प्रति जो शाप या अनुग्रह शेष हो, उसे देनेके लिये आप महर्षि मुझपर प्रसन्न हों।’
मैंने अपने मुँहसे अपना पाप प्रकट कर दिया था, इसलिये मेरी क्रूरतासे भरी हुई वह बात सुनकर भी वे पूज्यपाद महर्षि मुझे कठोर दण्ड-भस्म हो जानेका शाप नहीं दे सके। उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली और वे शोकसे मूच्छित होकर दीर्घ निःश्वास लेने लगे। मैं हाथ जोड़े उनके सामने खड़ा था।
उस समय उन महातेजस्वी मुनिने मुझसे कहा ‘राजन्! यदि यह अपना पापकर्म तुम स्वयं यहाँ आकर न बताते तो शीघ्र ही तुम्हारे मस्तकके सैकड़ों-हजारों टुकड़े हो जाते। नरेश्वर यदि क्षत्रिय जान-बूझकर विशेषतः किसी वानप्रस्थीका वध कर डाले तो वह वज्रधारी इन्द्र ही क्यों न हो, वह उसे अपने स्थानसे भ्रष्ट कर देता है। तुमने अनजानमें यह पाप किया है, इसीलिये अभीतक जीवित हो। यदि जान-बूझकर किया होता तो समस्त रघुवंशियोंका कुल ही नष्ट हो जाता, अकेले तुम्हारी तो बात ही क्या है ?”
उन्होंने मुझसे यह भी कहा- ‘नरेश्वर ! तुम हम दोनोंको उस स्थानपर ले चलो, जहाँ हमारा पुत्र मरा पड़ा है। इस समय हम उसे देखना चाहते हैं। यह हमारे लिये उसका अन्तिम दर्शन होगा।’
तब मैं अकेला ही अत्यन्त दुःखमें पड़े हुए उ दम्पतीको उस स्थानपर ले गया, जहाँ उनका पु कालके अधीन होकर पृथ्वीपर अचेत पड़ा था। उसके सारे अंग खूनसे लथपथ हो रहे थे, मृगचर्म और वस् बिखरे पड़े थे। मैंने पत्नीसहित मुनिको उनके पुत्र शरीरका स्पर्श कराया।
वे दोनों तपस्वी अपने उस पुत्रका स्पर्श करके उसके अत्यन्त निकट जाकर उसके शरीरपर गिर पड़े। फिर पिताने पुत्रको सम्बोधित करके उससे कहा- ‘अब कौन ऐसा है, जो कन्द, मूल और फल लाकर मुझ अकर्मण्य, अन्नसंग्रहसे रहित और अनाथको प्रिय अतिथिकी भाँति भोजन करायेगा। बेटा! तुम्हारी यह तपस्विनी माता अन्धी, बूढ़ी, दीन तथा पुत्रके लिये उत्कण्ठित रहनेवाली है। मैं स्वयं अन्धा होकर इसका भरण-पोषण कैसे करूँगा? पुत्र ठहरो, आज यमराजके घर न जाओ। कल मेरे और अपनी माताके साथ चलना। बेटा! तुम निष्पाप हो, किंतु एक पापकर्मा क्षत्रियने तुम्हारा वध किया है, इस कारण मेरे सत्यके प्रभावसे तुम शीघ्र ही उन लोकोंमें जाओ, जो अस्त्रयोधी शूरवीरोंको प्राप्त होते हैं। बेटा! युद्धमें पीठ न दिखानेवाले शूरवीर सम्मुख युद्धमें मारे जानेपर जिस गतिको प्राप्त होते हैं, उसी उत्तम गतिको तुम भी जाओ। हम जैसे तपस्वियोंके इस कुलमें पैदा हुआ कोई पुरुष बुरी गतिको नहीं प्राप्त हो सकता। बुरी गति तो उसकी होगी, जिसने मेरे बान्धवरूप तुम्हें अकारण मारा है ?’
इस प्रकार वे दीनभावसे बारम्बार विलाप करने लगे। तत्पश्चात् अपनी पत्नीके साथ वे पुत्रको जलांजलि देनेके कार्यमें प्रवृत्त हुए। इसी समय वह धर्मज्ञ मुनिकुमार अपने पुण्यकर्मोंके प्रभावसे दिव्य रूप धारण करके शीघ्र ही इन्द्रके साथ स्वर्गको जाने लगा।
इन्द्रसहित उस तपस्वीने अपने दोनों बूढ़े पिता माताको एक मुहूर्ततक आश्वासन देते हुए उनसे बातचीत की; फिर वह अपने पितासे बोला- ‘में आप दोनोंकी सेवाये महान स्थानको प्राप्त हुआ है, अब आपलोग भी शीघ्र ही मेरे पास आ जाइयेगा।’ यह कहकर वह जितेन्द्रिय मुनिकुमार उस सुन्दर आकारवाले दिव्य विमानसे शीघ्र ही देवलोकको चला गया। तदनन्तर पत्नीसहित उन महातेजस्वी तपस्वी मुनिने तुरंत ही पुत्रको जलांजलि देकर हाथ जोड़े खड़े हुए मुझसे कहा- ‘राजन्! तुम आज ही मुझे भी मार डालो; अब मरनेमें मुझे कष्ट नहीं होगा। मेरे एक ही बेटा था, जिसे तुमने अपने बाणका निशाना बनाकर मुझे पुत्रहीन कर दिया। तुमने प्रमादवश जो मेरे बालककी हत्या की है, उसके कारण मैं तुम्हें भी अत्यन्त भयंकर एवं भलीभाँति दुःख देनेवाला शाप दूँगा। राजन्! इस समय पुत्रके वियोगसे मुझे जैसा कष्ट हो रहा है, ऐसा ही तुम्हें भी होगा। तुम भी पुत्रशोकसे ही कालके गाल में जाओगे। नरेश्वर! क्षत्रिय होकर अनजानमें तुमने वैश्यजातीय मुनिका वध किया है, इसलिये तुम्हें ब्रह्महत्याका पार तो नहीं लगेगा, तथापि जल्दी ही तुम्हें भी ऐसी ही भयानक और प्राण लेनेवाली अवस्था प्राप्त होगी।’
इस प्रकार मुझे शाप देकर वे बहुत देरतक करुणाजनक विलाप करते रहे; फिर वे दोनों पति-पत्नी अपने शरीरोंको जलती हुई चितामें डालकर स्वर्गको चले गये।
देवि ! इस प्रकार बालस्वभावके कारण मैंने पहले शब्दवेधी बाण मारकर और फिर उस मुनिके शरीरसे बाणको खींचकर जो उनका वधरूपी पाप किया था, वह आज इस पुत्रवियोगकी चिन्तामें पड़े हुए मुझे स्वयं ही स्मरण हो आया है।
देवि ! अपथ्य वस्तुओंके साथ अन्नरस ग्रहण कर लेनेपर जैसे शरीरमें रोग पैदा हो जाता है, उसी प्रकार कल्याणि ! उस उदार महात्माका शाप रूपी वचन इस समय मेरे पास उस पापकर्मका फल देनेके लिये आ गया है।’