बहुत पहलेकी बात है कोई नरोत्तम नामका ब्राह्मण था। उसके घरमें माँ-बाप थे। तथापि वह उनकी परिचर्या न कर तीर्थयात्राके लिये निकल पड़ा। उसने अनेक तीर्थोंमें पर्यटन तथा अवगाहन किया, जिसके प्रतापसे उसके गीले वस्त्र निरालम्ब आकाशमें उड़ने और सूखने लगे। जब उसने यों ही स्वच्छन्द गतिसे अपने वस्त्रोंको आकाशमें उड़ते चलते देखा, तब उसे अपनी तीर्थचर्याका महान् अहंकार हो गया। वह समझने लगा कि मेरे समान पुण्यकर्मा यशस्वी इस संसार में दूसरा कोई भी नहीं है। एक बार उसने ऐसा ही कहीं कह भी दिया। तबतक उसके सिरपर एक बगुलेने बीट कर दी। क्रुद्ध होकर नरोत्तमने बगुलेको शाप दे दिया, जिससे वह बगुला वहीं जलकर भस्म हो गया। पर आश्चर्य! तबसे उसके कपड़ेका आकाशमें उड़ना और सूखना बंद हो गया। अब नरोत्तम बड़ा उदास हो गया। तबतक आकाशवाणी हुई- ‘ब्राह्मण। तुम परम धार्मिक मूक चाण्डालके पास जाओ, वहीं ‘धर्म क्या है इसका तुम्हें पता चल जायगा तथा तुम्हारा कल्याण भी होगा। 1 माता-पिताकी सेवा करनेवालेके घर नरोत्तमको इससे बड़ा कुतूहल हुआ। वह तुरंत पता लगाता हुआ मूक चाण्डालके घर पहुंचा। वहाँ मूक बड़ी श्रद्धासे अपने माता-पिताकी शुश्रूषामें लगा था। उसके विलक्षण पुण्य-प्रतापसे भगवान् विष्णु निरालम्ब उसके घर अन्तरिक्षमें वर्तमान थे। वहाँ पहुँचते ही नरोत्तमने मूकको आवाज दी और कहा-‘अरे मैं यहाँ आया हूँ, तुम मुझे यहाँ आकर शाश्वत हितकारी धर्मतत्त्वका स्वरूपतः वर्णन सुनाओ।’
मूक बोला-‘मैं अपने माता-पिताकी सेवामें लगा हूँ। इनकी विधिपूर्वक परिचर्या करके तुम्हारा कार्य करूँगा। तबतक चुपचाप दरवाजेपर बैठे रहो मैं तुम्हारा आतिथ्य करना चाहता हूँ।’
अब तो नरोत्तमकी त्योरी चढ़ गयी। वह बड़ेजोरों से बिगड़कर बोला- अरे मुझ ब्राह्मणकी सेवा बड़कर तुम्हारा क्या काम आ गया है? तुमने मुझे हैंसी खेल समझ रखा है क्या?’ मूकने कहा- ‘ब्राह्मण देवता! मैं बगुला नहीं हूँ। तुम्हारा क्रोध बस, बगुलेपर ही चरितार्थ हो सकता है, अन्यत्र कहीं नहीं। यदि तुम्हें मुझसे कुछ पूछना है तो तुम्हें यहाँ ठहरकर प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी। यदि तुम्हारा यहाँ ठहरना कठिन ही हो तो तुम पतिव्रताके यहाँ जाओ। उसके दर्शनसे तुम्हारे अभीष्टकी सिद्धि हो सकेगी।’
2 पतिव्रताके घर
तद्विरूपधारी विष्णु चाण्डालके परसे बाहर निकल पड़े और नरोत्तमसे बोले ‘चलो, मैं तुम्हें पतिव्रताका घर दिखला दूँ।’ अब नरोत्तम उनके साथ हो लिया। उसने उनसे पूछा- ‘ब्राह्मण! तुम इस चाण्डालके घर स्त्रियोंमें आवृत होकर क्यों रहते हो ?” भगवान् बोले- ‘इसका रहस्य तुम पतिव्रता आदिका दर्शन करनेपर स्वयमेव समझ जाओगे।’
नरोत्तमने पूछा- ‘महाराज ! यह पतिव्रता कौन-सी बला है ? पतिव्रताका लक्षण तथा महत्त्व क्या है ? क्या आप इस सम्बन्धमें कुछ जानते हैं?’ भगवान्ने कहा — ‘पतित्रता स्त्री अपने दोनों कुलोंके सभी पुरुषोंका उद्धार कर देती है। प्रलयपर्यन्त वह स्वर्ग भोग करती है। कालान्तरमें जब वह जन्म लेती है, तब उसका पति सार्वभौम राजा होता है। सैकड़ों जन्मोंतक यह क्रम चलकर अन्तमें उन दोनों पति-पत्नीका मोक्ष होता है। जो स्त्री प्रेममें अपने पुत्रसे सौगुना तथा भवमें राजासे सौगुना पतिसे प्रेम तथा भय करती है, उसे पतिव्रता कहते हैं। जो काम करनेमें दासीके समान, भोजन कराने में माताके समान, विहारमें वेश्याके समान, विपत्तियों में मन्त्री के समान हो, उसे पतिव्रता कहते हैं। वैसी ही यहाँ एक शुभा नामकी पतिव्रता स्त्री है। तुम उससे जाकर ‘धर्मके रहस्योंको समझो।”अब नरोत्तम पतिव्रताके दरवाजेपर पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने आवाज लगायी। पतिव्रता आवाज सुनकर बाहर आ गयी। नरोत्तम बोला- ‘मुझे धर्मका रहस्य समझाओ।’ पतिव्रता बोली- ‘ब्राह्मण देवता ! मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। इस समय मुझे पतिकी परिचर्या करनी है। अभी तो आप अतिथिके रूपमें मेरे यहाँ विराजें । पतिसेवासे निवृत्त होकर मैं आपका कार्य करूँगी।’ नरोत्तम बोला, ‘कल्याणि ! मुझे आतिथ्यकी कोई आवश्यकता नहीं है। न तो मुझे भूख है, न प्यास और न थकावट । तुम मुझे साधारण ब्राह्मण समझकर खेल मत करो। यदि तुम मेरी बात नहीं मानती हो तो मैं तुम्हें शाप दूँगा ।’
पतिव्रताने कहा- ‘मैं बगुला नहीं हूँ । यदि तुम्हें ऐसी ही जल्दी है तो तुम तुलाधार वैश्यके पास चले जाओ। वह तुम्हारा कार्य कर सकेगा।’
3 लोभरहित सत्यवादी वैश्यके घर
नरोत्तम उस वैश्यके घर पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने उस ब्राह्मणको फिर देखा, जिसे चाण्डालके घरमें देखा था। तुलाधार व्यापारके कार्यमें बेतरह फँसा था । उसने कहा- ‘ब्राह्मण देवता! एक प्रहर राततक मुझे अवकाश नहीं। आप कृपया अद्रोहकके पास पधारें; वह आपके द्वारा बगुलेकी मृत्यु, वस्त्रोंका उड़ना और फिर न उड़नेके रहस्योंको यथाविधि बतला सकेगा।’ वह ब्राह्मण फिर नरोत्तमके साथ हो गया। नरोत्तमने उससे पूछा- ‘ब्राह्मण! आश्चर्य है, यह तुलाधार स्नान, संध्या, देवर्षि, पितृ तर्पण आदिसे सर्वथा रहित है। इसका शरीर मलका भण्डार हो रहा है। इसके सारे वस्त्र भी बेढंगे हो रहे हैं, तथापि यह मेरी सारी बातोंको जो इसके परोक्षमें घटी हैं, कैसे जान गया ?’ब्राह्मण-रूपधारी भगवान् बोले- ‘इसने सत्य और समतासे तीनों लोकोंको जीत लिया है। यह मुनिगणोंके साथ देवता और पितरोंको भी तृप्त कर चुका और इसीके प्रभावसे भूत, भविष्य और वर्तमानकी परोक्ष घटनाओंको भी जान सकता है। सत्यसे बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं, झूठसे बड़ा कोई दूसरा पातक नहीं। इसी प्रकार समताकी भी महत्ता है। शत्रु मित्र, मध्यस्थ-इन तीनोंमें जिसका समान भाव उत्पन्न हो गया है, उसके सारे पाप क्षीण हो गये और वह विष्णु सायुज्यको प्राप्त कर लेता है। जिस व्यक्तिमें सत्य, शम, दम, धैर्य, स्थैर्य, अनालस्य, अनाश्चर्य, निर्लोभिता और समता-जैसे गुण हैं, उसमें सारा विश्व ही प्रतिष्ठित है। ऐसा पुरुष करोड़ों कुलोंका उद्धार कर लेता है। उसके शरीरमें साक्षात् भगवान् विराजमान हैं। वह देवलोक नरलोकके सभी वृत्तान्तोंको जान सकता है।’ * नरोत्तमने कहा- ‘अस्तु! तुलाधारकी सर्वज्ञताका कारण मुझे ज्ञात हो गया; पर अद्रोहक कौन तथा किस प्रभाववाला है, क्या यह आप जानते हैं ?’
4 जितेन्द्रिय मित्रके घर
विप्ररूपी भगवान् बोले- “कुछ समय पूर्वकी बात है। एक राजकुमारकी स्त्री बड़ी सुन्दरी तथा युवती थी। एक दिन उस राजकुमारको अपने पिताकी आज्ञासे कहीं बाहर जानेकी आवश्यकता हुई। अब वह स्त्रीके सम्बन्धमें सोचने लगा कि कहाँ उसे रखा जाय, जहाँ उसकी पूरी सुरक्षा हो सके। अन्तमें वह अद्रोहकके घर गया और अपनी स्त्रीके रक्षार्थ उसने प्रार्थना की। अद्रोहकने कहा-‘न तो मैं तुम्हारा पिता हूँ न भाई बन्धु तुम्हारे मित्रोंमेंसे भी मैं नहीं होता, फिर तुम ऐसा प्रस्ताव क्यों कर रहे हो ?’
“राजकुमार बोला- ‘महात्मन्! इस विश्वमें आप जैसा धर्मज्ञ और जितेन्द्रिय कोई दूसरा नहीं है, इसे मैं भली प्रकार जानता हूँ। यह अब आपके घरमें ही रहेगी, आप ही जैसे हो इसकी रक्षा कीजियेगा।’ यों कहकर वह राजकुमार चला गया। अद्रोहकने बड़े धैर्यसे उसकी रक्षा की। छः मासके बाद राजकुमार पुनः लौटा। उसने लोगोंसे अपनी स्त्री तथा अद्रोहकके प्रबन्धके सम्बन्धमें पूछ-ताछ की। अधिकांश लोगोंने अद्रोहककी निन्दा की। बात अद्रोहकको भी मालूम हुई। उसने लोकनिन्दासे मुक्त होनेके लिये एक बड़ी चिता बनाकर उसमें आग लगा दी; तबतक राजकुमार वहाँ पहुँच गया। अद्रोहकको उसने रोकना चाहा। पर उन्होंने एक न सुनी और अग्निमें प्रवेश कर गये। फिर भी अग्निने उनके अङ्गों तथा वस्त्रोंको नहीं जलाया। देवताओंने साधुवाद दिया और अद्रोहकके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा की। जिन लोगोंने अद्रोहककी निन्दा की थी, उनके मुँहपर अनेकों प्रकारकी कोढ़ हो गयी। देवताओंने ही उन्हें अग्निसे बाहर किया। उनका चरित्र सुनकर मुनियोंको भी बड़ा विस्मय हुआ ।देवताओंने राजकुमारसे कहा- ‘तुम अपनी स्त्रीको स्वीकार करो। इन अद्रोहकके समान कोई मनुष्य इस संसारमें नहीं हुआ है।’ तदनन्तर वे राजकुमार दम्पति अपने राजमहलको चले गये। तबसे अद्रोहकको भी दिव्य दृष्टि हो गयी है।”
तत्पश्चात् नरोत्तम अद्रोहकके पास पहुँचे और उनका दर्शन किया। जब अद्रोहकने उनके पधारनेका कारण पूछा, तब उसने धोतियोंके न सूखने, बगुलेके बीट करने और उसके जलनेका रहस्य पूछा। अद्रोहकने उन्हें वैष्णवके पास जानेको कहा। वैष्णवने कहा- ‘भीतर चलकर भगवान्का दर्शन कीजिये।’ भीतर जानेपर नरोत्तमने देखा कि वे ही ब्राह्मण जो चाण्डाल, पतिव्रता एवं धर्मव्याधके घरमें थे और जो ‘उसे बराबर राह बतलाते रहे थे, उस मन्दिरमें वर्तमान हैं। वहाँ उन्होंने सब बातोंका समाधान कर दिया और उसे माता-पिताकी सेवाकी आज्ञा दी। तबसे नरोत्तम घर लौट आया और माता-पिताकी दृढ़ भक्तिमें तल्लीन हो गया।
(पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड, अध्याय 47)
बहुत पहलेकी बात है कोई नरोत्तम नामका ब्राह्मण था। उसके घरमें माँ-बाप थे। तथापि वह उनकी परिचर्या न कर तीर्थयात्राके लिये निकल पड़ा। उसने अनेक तीर्थोंमें पर्यटन तथा अवगाहन किया, जिसके प्रतापसे उसके गीले वस्त्र निरालम्ब आकाशमें उड़ने और सूखने लगे। जब उसने यों ही स्वच्छन्द गतिसे अपने वस्त्रोंको आकाशमें उड़ते चलते देखा, तब उसे अपनी तीर्थचर्याका महान् अहंकार हो गया। वह समझने लगा कि मेरे समान पुण्यकर्मा यशस्वी इस संसार में दूसरा कोई भी नहीं है। एक बार उसने ऐसा ही कहीं कह भी दिया। तबतक उसके सिरपर एक बगुलेने बीट कर दी। क्रुद्ध होकर नरोत्तमने बगुलेको शाप दे दिया, जिससे वह बगुला वहीं जलकर भस्म हो गया। पर आश्चर्य! तबसे उसके कपड़ेका आकाशमें उड़ना और सूखना बंद हो गया। अब नरोत्तम बड़ा उदास हो गया। तबतक आकाशवाणी हुई- ‘ब्राह्मण। तुम परम धार्मिक मूक चाण्डालके पास जाओ, वहीं ‘धर्म क्या है इसका तुम्हें पता चल जायगा तथा तुम्हारा कल्याण भी होगा। 1 माता-पिताकी सेवा करनेवालेके घर नरोत्तमको इससे बड़ा कुतूहल हुआ। वह तुरंत पता लगाता हुआ मूक चाण्डालके घर पहुंचा। वहाँ मूक बड़ी श्रद्धासे अपने माता-पिताकी शुश्रूषामें लगा था। उसके विलक्षण पुण्य-प्रतापसे भगवान् विष्णु निरालम्ब उसके घर अन्तरिक्षमें वर्तमान थे। वहाँ पहुँचते ही नरोत्तमने मूकको आवाज दी और कहा-‘अरे मैं यहाँ आया हूँ, तुम मुझे यहाँ आकर शाश्वत हितकारी धर्मतत्त्वका स्वरूपतः वर्णन सुनाओ।’
मूक बोला-‘मैं अपने माता-पिताकी सेवामें लगा हूँ। इनकी विधिपूर्वक परिचर्या करके तुम्हारा कार्य करूँगा। तबतक चुपचाप दरवाजेपर बैठे रहो मैं तुम्हारा आतिथ्य करना चाहता हूँ।’
अब तो नरोत्तमकी त्योरी चढ़ गयी। वह बड़ेजोरों से बिगड़कर बोला- अरे मुझ ब्राह्मणकी सेवा बड़कर तुम्हारा क्या काम आ गया है? तुमने मुझे हैंसी खेल समझ रखा है क्या?’ मूकने कहा- ‘ब्राह्मण देवता! मैं बगुला नहीं हूँ। तुम्हारा क्रोध बस, बगुलेपर ही चरितार्थ हो सकता है, अन्यत्र कहीं नहीं। यदि तुम्हें मुझसे कुछ पूछना है तो तुम्हें यहाँ ठहरकर प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी। यदि तुम्हारा यहाँ ठहरना कठिन ही हो तो तुम पतिव्रताके यहाँ जाओ। उसके दर्शनसे तुम्हारे अभीष्टकी सिद्धि हो सकेगी।’
2 पतिव्रताके घर
तद्विरूपधारी विष्णु चाण्डालके परसे बाहर निकल पड़े और नरोत्तमसे बोले ‘चलो, मैं तुम्हें पतिव्रताका घर दिखला दूँ।’ अब नरोत्तम उनके साथ हो लिया। उसने उनसे पूछा- ‘ब्राह्मण! तुम इस चाण्डालके घर स्त्रियोंमें आवृत होकर क्यों रहते हो ?” भगवान् बोले- ‘इसका रहस्य तुम पतिव्रता आदिका दर्शन करनेपर स्वयमेव समझ जाओगे।’
नरोत्तमने पूछा- ‘महाराज ! यह पतिव्रता कौन-सी बला है ? पतिव्रताका लक्षण तथा महत्त्व क्या है ? क्या आप इस सम्बन्धमें कुछ जानते हैं?’ भगवान्ने कहा — ‘पतित्रता स्त्री अपने दोनों कुलोंके सभी पुरुषोंका उद्धार कर देती है। प्रलयपर्यन्त वह स्वर्ग भोग करती है। कालान्तरमें जब वह जन्म लेती है, तब उसका पति सार्वभौम राजा होता है। सैकड़ों जन्मोंतक यह क्रम चलकर अन्तमें उन दोनों पति-पत्नीका मोक्ष होता है। जो स्त्री प्रेममें अपने पुत्रसे सौगुना तथा भवमें राजासे सौगुना पतिसे प्रेम तथा भय करती है, उसे पतिव्रता कहते हैं। जो काम करनेमें दासीके समान, भोजन कराने में माताके समान, विहारमें वेश्याके समान, विपत्तियों में मन्त्री के समान हो, उसे पतिव्रता कहते हैं। वैसी ही यहाँ एक शुभा नामकी पतिव्रता स्त्री है। तुम उससे जाकर ‘धर्मके रहस्योंको समझो।”अब नरोत्तम पतिव्रताके दरवाजेपर पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने आवाज लगायी। पतिव्रता आवाज सुनकर बाहर आ गयी। नरोत्तम बोला- ‘मुझे धर्मका रहस्य समझाओ।’ पतिव्रता बोली- ‘ब्राह्मण देवता ! मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। इस समय मुझे पतिकी परिचर्या करनी है। अभी तो आप अतिथिके रूपमें मेरे यहाँ विराजें । पतिसेवासे निवृत्त होकर मैं आपका कार्य करूँगी।’ नरोत्तम बोला, ‘कल्याणि ! मुझे आतिथ्यकी कोई आवश्यकता नहीं है। न तो मुझे भूख है, न प्यास और न थकावट । तुम मुझे साधारण ब्राह्मण समझकर खेल मत करो। यदि तुम मेरी बात नहीं मानती हो तो मैं तुम्हें शाप दूँगा ।’
पतिव्रताने कहा- ‘मैं बगुला नहीं हूँ । यदि तुम्हें ऐसी ही जल्दी है तो तुम तुलाधार वैश्यके पास चले जाओ। वह तुम्हारा कार्य कर सकेगा।’
3 लोभरहित सत्यवादी वैश्यके घर
नरोत्तम उस वैश्यके घर पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने उस ब्राह्मणको फिर देखा, जिसे चाण्डालके घरमें देखा था। तुलाधार व्यापारके कार्यमें बेतरह फँसा था । उसने कहा- ‘ब्राह्मण देवता! एक प्रहर राततक मुझे अवकाश नहीं। आप कृपया अद्रोहकके पास पधारें; वह आपके द्वारा बगुलेकी मृत्यु, वस्त्रोंका उड़ना और फिर न उड़नेके रहस्योंको यथाविधि बतला सकेगा।’ वह ब्राह्मण फिर नरोत्तमके साथ हो गया। नरोत्तमने उससे पूछा- ‘ब्राह्मण! आश्चर्य है, यह तुलाधार स्नान, संध्या, देवर्षि, पितृ तर्पण आदिसे सर्वथा रहित है। इसका शरीर मलका भण्डार हो रहा है। इसके सारे वस्त्र भी बेढंगे हो रहे हैं, तथापि यह मेरी सारी बातोंको जो इसके परोक्षमें घटी हैं, कैसे जान गया ?’ब्राह्मण-रूपधारी भगवान् बोले- ‘इसने सत्य और समतासे तीनों लोकोंको जीत लिया है। यह मुनिगणोंके साथ देवता और पितरोंको भी तृप्त कर चुका और इसीके प्रभावसे भूत, भविष्य और वर्तमानकी परोक्ष घटनाओंको भी जान सकता है। सत्यसे बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं, झूठसे बड़ा कोई दूसरा पातक नहीं। इसी प्रकार समताकी भी महत्ता है। शत्रु मित्र, मध्यस्थ-इन तीनोंमें जिसका समान भाव उत्पन्न हो गया है, उसके सारे पाप क्षीण हो गये और वह विष्णु सायुज्यको प्राप्त कर लेता है। जिस व्यक्तिमें सत्य, शम, दम, धैर्य, स्थैर्य, अनालस्य, अनाश्चर्य, निर्लोभिता और समता-जैसे गुण हैं, उसमें सारा विश्व ही प्रतिष्ठित है। ऐसा पुरुष करोड़ों कुलोंका उद्धार कर लेता है। उसके शरीरमें साक्षात् भगवान् विराजमान हैं। वह देवलोक नरलोकके सभी वृत्तान्तोंको जान सकता है।’ * नरोत्तमने कहा- ‘अस्तु! तुलाधारकी सर्वज्ञताका कारण मुझे ज्ञात हो गया; पर अद्रोहक कौन तथा किस प्रभाववाला है, क्या यह आप जानते हैं ?’
4 जितेन्द्रिय मित्रके घर
विप्ररूपी भगवान् बोले- “कुछ समय पूर्वकी बात है। एक राजकुमारकी स्त्री बड़ी सुन्दरी तथा युवती थी। एक दिन उस राजकुमारको अपने पिताकी आज्ञासे कहीं बाहर जानेकी आवश्यकता हुई। अब वह स्त्रीके सम्बन्धमें सोचने लगा कि कहाँ उसे रखा जाय, जहाँ उसकी पूरी सुरक्षा हो सके। अन्तमें वह अद्रोहकके घर गया और अपनी स्त्रीके रक्षार्थ उसने प्रार्थना की। अद्रोहकने कहा-‘न तो मैं तुम्हारा पिता हूँ न भाई बन्धु तुम्हारे मित्रोंमेंसे भी मैं नहीं होता, फिर तुम ऐसा प्रस्ताव क्यों कर रहे हो ?’
“राजकुमार बोला- ‘महात्मन्! इस विश्वमें आप जैसा धर्मज्ञ और जितेन्द्रिय कोई दूसरा नहीं है, इसे मैं भली प्रकार जानता हूँ। यह अब आपके घरमें ही रहेगी, आप ही जैसे हो इसकी रक्षा कीजियेगा।’ यों कहकर वह राजकुमार चला गया। अद्रोहकने बड़े धैर्यसे उसकी रक्षा की। छः मासके बाद राजकुमार पुनः लौटा। उसने लोगोंसे अपनी स्त्री तथा अद्रोहकके प्रबन्धके सम्बन्धमें पूछ-ताछ की। अधिकांश लोगोंने अद्रोहककी निन्दा की। बात अद्रोहकको भी मालूम हुई। उसने लोकनिन्दासे मुक्त होनेके लिये एक बड़ी चिता बनाकर उसमें आग लगा दी; तबतक राजकुमार वहाँ पहुँच गया। अद्रोहकको उसने रोकना चाहा। पर उन्होंने एक न सुनी और अग्निमें प्रवेश कर गये। फिर भी अग्निने उनके अङ्गों तथा वस्त्रोंको नहीं जलाया। देवताओंने साधुवाद दिया और अद्रोहकके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा की। जिन लोगोंने अद्रोहककी निन्दा की थी, उनके मुँहपर अनेकों प्रकारकी कोढ़ हो गयी। देवताओंने ही उन्हें अग्निसे बाहर किया। उनका चरित्र सुनकर मुनियोंको भी बड़ा विस्मय हुआ ।देवताओंने राजकुमारसे कहा- ‘तुम अपनी स्त्रीको स्वीकार करो। इन अद्रोहकके समान कोई मनुष्य इस संसारमें नहीं हुआ है।’ तदनन्तर वे राजकुमार दम्पति अपने राजमहलको चले गये। तबसे अद्रोहकको भी दिव्य दृष्टि हो गयी है।”
तत्पश्चात् नरोत्तम अद्रोहकके पास पहुँचे और उनका दर्शन किया। जब अद्रोहकने उनके पधारनेका कारण पूछा, तब उसने धोतियोंके न सूखने, बगुलेके बीट करने और उसके जलनेका रहस्य पूछा। अद्रोहकने उन्हें वैष्णवके पास जानेको कहा। वैष्णवने कहा- ‘भीतर चलकर भगवान्का दर्शन कीजिये।’ भीतर जानेपर नरोत्तमने देखा कि वे ही ब्राह्मण जो चाण्डाल, पतिव्रता एवं धर्मव्याधके घरमें थे और जो ‘उसे बराबर राह बतलाते रहे थे, उस मन्दिरमें वर्तमान हैं। वहाँ उन्होंने सब बातोंका समाधान कर दिया और उसे माता-पिताकी सेवाकी आज्ञा दी। तबसे नरोत्तम घर लौट आया और माता-पिताकी दृढ़ भक्तिमें तल्लीन हो गया।
(पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड, अध्याय 47)