सदाचारका बल

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वरुणा नदीके तटपर अरुणास्पद नामके नगरमें एक ब्राह्मण रहता था। वह बड़ा सदाचारी तथा अतिथिवत्सल था। रमणीय वनों एवं उद्यानोंको देखनेकी उसकी बड़ी इच्छा थी । एक दिन उसके घरपर एक ऐसा अतिथि आया, जो मणि-मन्त्रादि विद्याओंका ज्ञाता था और उनके प्रभावसे प्रतिदिन हजारों योजन चला जाता था। ब्राह्मणने उस सिद्ध अतिथिका बड़ा सत्कार किया। बातचीतके प्रसंगमें सिद्धने अनेकों वन, पर्वत, नगर, राष्ट्र, नद, नदियों एवं तीर्थोंकी चर्चा चलायी। यह सुनकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। उसने कहा कि मेरी भी इस पृथ्वीको देखनेकी बड़ी इच्छा है। यह सुनकर उदारचित्त आगन्तुक सिद्धने उसे पैरमें लगानेके लिये एक लेप दिया, जिसे लगाकर ब्राह्मण हिमालय पर्वतको देखने चला। उसने सोचा था कि सिद्धके कथनानुसार मैं आधे दिनमें एक हजार योजन चला जाऊँगा तथा शेष आधे दिनमें पुनः लौट आऊंगा।

अस्तु! वह हिमालयके शिखरपर पहुँच गया और वहाँको पर्वतीय भूमिपर पैदल ही विचरना शुरू किया। बर्फपर चलनेके कारण उसके पैरोंमें लगा हुआ दिव्य लेप धुल गया। इससे उसकी तीव्रगति कुण्ठित हो गयी। अब वह इधर-उधर घूमकर हिमालयके मनोहर शिखरोंका अवलोकन करने लगा। वह स्थान सिद्ध, गन्धर्व, किन्नरोंका आवास हो रहा था। इनके विहारस्थल होनेसे उसकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। वहाँके मनोहर शिखरोंके देखनेसे उसके शरीरमें आनन्दसे रोमाञ्च हो आया।

दूसरे दिन उसका विचार हुआ कि अब घर चलें। पर अब उसे पता चला कि उसके पैरोंकी गति कुण्ठित हो चुकी है। वह सोचने लगा-‘अहो ! यहाँ बर्फके पानीसे मेरे पैरका लेप धुल गया। इधर यह पर्वत अत्यन्त दुर्गम है और में अपने घरसे हजारों योजनकीदूरीपर हूँ। अब तो घर न पहुँचनेके कारण मेरे अग्रिहोत्रादि नित्यकर्मोका लोप होना चाहता है। यह तो मेरे ऊपर भयानक संकट आ पहुँचा। इस अवस्थामें किसी तपस्वी या सिद्ध महात्माका दर्शन हो जाता तो वे कदाचित् मेरे घर पहुँचनेका कोई उपाय बतला देते।’ इसी समय उसके सामने वरूथिनी नामकी अप्सरा आयी। वह उसके रूपसे आकृष्ट हो गयी थी। उसे सामने देखकर ब्राह्मणने पूछा- ‘देवि! मैं ब्राह्मण हूँ और अरुणास्पद नगरसे यहाँ आया हूँ। मेरे पैरमें दिव्य लेप लगा हुआ था, उसके घुल जानेसे मेरी दूरगमनकी शक्ति नष्ट हो गयी है और अब मेरे नित्यकर्मीका लोप होना चाहता है। कोई ऐसा उपाय बतलाओ, जिससे सूर्यास्त के पूर्व ही अपने घरपर पहुँच जाऊँ।’

वरूथिनी बोली- ‘महाभाग! यह तो अत्यन्त रमणीय स्थान है। स्वर्ग भी यहाँसे अधिक रमणीय नहीं है। इसलिये हमलोग स्वर्गको भी छोड़कर यहीं रहते हैं। आपने मेरे मनको हर लिया है। मैं आपको देखकर कामके वशीभूत हो गयी हूँ। मैं आपको सुन्दर वस्त्र, हार, आभूषण, भोजन, अनुरागादि दूंगी। आप यहीं रहिये। यहाँ रहनेसे कभी बुढ़ापा नहीं आयेगा। यह यौवनको पुष्ट करनेवाली देवभूमि है।’ यह कहते वह बावली-सी हो गयी और मुझपर कृपा कीजिये, कृपा कीजिये’ कहती हुई उसका आलिङ्गन करने लगी।

तब ब्राह्मणने ‘अरी ओ दुष्टे! मेरे शरीरको न छू। जो तेरे ही ऐसा हो, वैसे ही किसी अन्य पुरुषके पास चली जा। मैं कुछ और भावसे प्रार्थना करता हूँ और तू कुछ और ही भावसे मेरे पास आती है? मूर्खे! यह सारा संसार धर्ममें प्रतिष्ठित है। सायं प्रातः का अग्निहोत्र, विधिपूर्वक की गयी इज्या ही विश्वको धारण करने में समर्थ है और मेरे उस नित्यकर्मका ही यहाँ लोप होनाचाहता है। तू तो मुझे कोई ऐसा सरल उपाय बता, जिससे मैं शीघ्र अपने घर पहुँच जाऊँ।’ इसपर वरूथिनी बहुत गिड़गिड़ाने लगी। उसने कहा, ‘ब्राह्मण ! जो आठ आत्मगुण बतलाये गये हैं, उनमें दया ही प्रधान है। आश्चर्य हैं, तुम धर्मपालक बनकर भी उसकी अवहेलना कैसे कर रहे हो ? कुलनन्दन ! मेरी तो तुमपर कुछ ऐसी प्रीति उत्पन्न हो गयी है कि, सच मानो, अब तुमसे अलग होकर जी न सकूँगी। अब तुम कृपाकर मुझपर प्रसन्न हो जाओ।’

ब्राह्मणने कहा – ‘यदि सचमुच तुम्हारी मुझमें प्रीति हो तो मुझे शीघ्र कोई ऐसा उपाय बतलाओ, जिससे मैं तत्काल घर पहुँच जाऊँ।’ पर अप्सराने एक न सुनी और नाना प्रकारके अनुनय-विनय तथा विलापादिसे वह उसे प्रसन्न करनेकी चेष्टा करती गयी। ब्राह्मणने अन्तमें कहा, ‘वरूथिनी ! मेरे गुरुजनोंने उपदेश दिया है। कि परायी स्त्रीकी कदापि अभिलाषा न करे। इसलिये तू चाहे विलख या सूखकर दुबली हो जा; मैं तो तेरा स्पर्श नहीं ही कर सकता, न तेरी ओर दृष्टिपात ही करता हूँ।’ यों कहकर उस महाभागने जलका स्पर्श तथाआचमन किया और गार्हपत्य अग्निको मन-ही-मन कहा – ‘भगवन्! आप ही सब कर्मोंकी सिद्धिके कारण हैं। आपकी ही तृप्तिसे देवता वृष्टि करते और अन्नादिकी वृद्धिमें कारण बनते हैं। अन्नसे सम्पूर्ण जगत् जीवन धारण करता है, और किसीसे नहीं। इस तरह आपसे ही जगत्की रक्षा होती है। यदि यह सत्य है तो मैं सूर्यास्तके पूर्व ही घरपर पहुँच जाऊँ । यदि मैंने कभी भी वैदिक कर्मानुष्ठानमें कालका परित्याग न किया हो तो आज घर पहुँचकर डूबनेसे पहले ही सूर्यको देखूँ । यदि मेरे मनमें पराये धन तथा परायी स्त्रीकी अभिलाषा कभी भी न हुई हो तो मेरा यह मनोरथ सिद्ध हो जाय ।

ब्राह्मणके यों कहते ही उनके शरीरमें गार्हपत्य अग्निने प्रवेश किया। फिर तो वे ज्वालाओंके बीचमें प्रकट हुए मूर्तिमान् अग्रिदेवकी भाँति उस प्रदेशको प्रकाशित करने लगे और उस अप्सराके देखते-ही देखते वे वहाँसे चले तथा एक ही क्षणमें घर पहुँच गये। घर पहुँचकर पुनः उन्होंने यथाशास्त्र सब कर्मोंका अनुष्ठान किया और बड़ी शान्ति एवं धर्म-प्रीतिसे जीवन व्यतीत किया l

– जा0 श0 (मार्कण्डेयपुराण, अध्याय 61 )

वरुणा नदीके तटपर अरुणास्पद नामके नगरमें एक ब्राह्मण रहता था। वह बड़ा सदाचारी तथा अतिथिवत्सल था। रमणीय वनों एवं उद्यानोंको देखनेकी उसकी बड़ी इच्छा थी । एक दिन उसके घरपर एक ऐसा अतिथि आया, जो मणि-मन्त्रादि विद्याओंका ज्ञाता था और उनके प्रभावसे प्रतिदिन हजारों योजन चला जाता था। ब्राह्मणने उस सिद्ध अतिथिका बड़ा सत्कार किया। बातचीतके प्रसंगमें सिद्धने अनेकों वन, पर्वत, नगर, राष्ट्र, नद, नदियों एवं तीर्थोंकी चर्चा चलायी। यह सुनकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। उसने कहा कि मेरी भी इस पृथ्वीको देखनेकी बड़ी इच्छा है। यह सुनकर उदारचित्त आगन्तुक सिद्धने उसे पैरमें लगानेके लिये एक लेप दिया, जिसे लगाकर ब्राह्मण हिमालय पर्वतको देखने चला। उसने सोचा था कि सिद्धके कथनानुसार मैं आधे दिनमें एक हजार योजन चला जाऊँगा तथा शेष आधे दिनमें पुनः लौट आऊंगा।
अस्तु! वह हिमालयके शिखरपर पहुँच गया और वहाँको पर्वतीय भूमिपर पैदल ही विचरना शुरू किया। बर्फपर चलनेके कारण उसके पैरोंमें लगा हुआ दिव्य लेप धुल गया। इससे उसकी तीव्रगति कुण्ठित हो गयी। अब वह इधर-उधर घूमकर हिमालयके मनोहर शिखरोंका अवलोकन करने लगा। वह स्थान सिद्ध, गन्धर्व, किन्नरोंका आवास हो रहा था। इनके विहारस्थल होनेसे उसकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। वहाँके मनोहर शिखरोंके देखनेसे उसके शरीरमें आनन्दसे रोमाञ्च हो आया।
दूसरे दिन उसका विचार हुआ कि अब घर चलें। पर अब उसे पता चला कि उसके पैरोंकी गति कुण्ठित हो चुकी है। वह सोचने लगा-‘अहो ! यहाँ बर्फके पानीसे मेरे पैरका लेप धुल गया। इधर यह पर्वत अत्यन्त दुर्गम है और में अपने घरसे हजारों योजनकीदूरीपर हूँ। अब तो घर न पहुँचनेके कारण मेरे अग्रिहोत्रादि नित्यकर्मोका लोप होना चाहता है। यह तो मेरे ऊपर भयानक संकट आ पहुँचा। इस अवस्थामें किसी तपस्वी या सिद्ध महात्माका दर्शन हो जाता तो वे कदाचित् मेरे घर पहुँचनेका कोई उपाय बतला देते।’ इसी समय उसके सामने वरूथिनी नामकी अप्सरा आयी। वह उसके रूपसे आकृष्ट हो गयी थी। उसे सामने देखकर ब्राह्मणने पूछा- ‘देवि! मैं ब्राह्मण हूँ और अरुणास्पद नगरसे यहाँ आया हूँ। मेरे पैरमें दिव्य लेप लगा हुआ था, उसके घुल जानेसे मेरी दूरगमनकी शक्ति नष्ट हो गयी है और अब मेरे नित्यकर्मीका लोप होना चाहता है। कोई ऐसा उपाय बतलाओ, जिससे सूर्यास्त के पूर्व ही अपने घरपर पहुँच जाऊँ।’
वरूथिनी बोली- ‘महाभाग! यह तो अत्यन्त रमणीय स्थान है। स्वर्ग भी यहाँसे अधिक रमणीय नहीं है। इसलिये हमलोग स्वर्गको भी छोड़कर यहीं रहते हैं। आपने मेरे मनको हर लिया है। मैं आपको देखकर कामके वशीभूत हो गयी हूँ। मैं आपको सुन्दर वस्त्र, हार, आभूषण, भोजन, अनुरागादि दूंगी। आप यहीं रहिये। यहाँ रहनेसे कभी बुढ़ापा नहीं आयेगा। यह यौवनको पुष्ट करनेवाली देवभूमि है।’ यह कहते वह बावली-सी हो गयी और मुझपर कृपा कीजिये, कृपा कीजिये’ कहती हुई उसका आलिङ्गन करने लगी।
तब ब्राह्मणने ‘अरी ओ दुष्टे! मेरे शरीरको न छू। जो तेरे ही ऐसा हो, वैसे ही किसी अन्य पुरुषके पास चली जा। मैं कुछ और भावसे प्रार्थना करता हूँ और तू कुछ और ही भावसे मेरे पास आती है? मूर्खे! यह सारा संसार धर्ममें प्रतिष्ठित है। सायं प्रातः का अग्निहोत्र, विधिपूर्वक की गयी इज्या ही विश्वको धारण करने में समर्थ है और मेरे उस नित्यकर्मका ही यहाँ लोप होनाचाहता है। तू तो मुझे कोई ऐसा सरल उपाय बता, जिससे मैं शीघ्र अपने घर पहुँच जाऊँ।’ इसपर वरूथिनी बहुत गिड़गिड़ाने लगी। उसने कहा, ‘ब्राह्मण ! जो आठ आत्मगुण बतलाये गये हैं, उनमें दया ही प्रधान है। आश्चर्य हैं, तुम धर्मपालक बनकर भी उसकी अवहेलना कैसे कर रहे हो ? कुलनन्दन ! मेरी तो तुमपर कुछ ऐसी प्रीति उत्पन्न हो गयी है कि, सच मानो, अब तुमसे अलग होकर जी न सकूँगी। अब तुम कृपाकर मुझपर प्रसन्न हो जाओ।’
ब्राह्मणने कहा – ‘यदि सचमुच तुम्हारी मुझमें प्रीति हो तो मुझे शीघ्र कोई ऐसा उपाय बतलाओ, जिससे मैं तत्काल घर पहुँच जाऊँ।’ पर अप्सराने एक न सुनी और नाना प्रकारके अनुनय-विनय तथा विलापादिसे वह उसे प्रसन्न करनेकी चेष्टा करती गयी। ब्राह्मणने अन्तमें कहा, ‘वरूथिनी ! मेरे गुरुजनोंने उपदेश दिया है। कि परायी स्त्रीकी कदापि अभिलाषा न करे। इसलिये तू चाहे विलख या सूखकर दुबली हो जा; मैं तो तेरा स्पर्श नहीं ही कर सकता, न तेरी ओर दृष्टिपात ही करता हूँ।’ यों कहकर उस महाभागने जलका स्पर्श तथाआचमन किया और गार्हपत्य अग्निको मन-ही-मन कहा – ‘भगवन्! आप ही सब कर्मोंकी सिद्धिके कारण हैं। आपकी ही तृप्तिसे देवता वृष्टि करते और अन्नादिकी वृद्धिमें कारण बनते हैं। अन्नसे सम्पूर्ण जगत् जीवन धारण करता है, और किसीसे नहीं। इस तरह आपसे ही जगत्की रक्षा होती है। यदि यह सत्य है तो मैं सूर्यास्तके पूर्व ही घरपर पहुँच जाऊँ । यदि मैंने कभी भी वैदिक कर्मानुष्ठानमें कालका परित्याग न किया हो तो आज घर पहुँचकर डूबनेसे पहले ही सूर्यको देखूँ । यदि मेरे मनमें पराये धन तथा परायी स्त्रीकी अभिलाषा कभी भी न हुई हो तो मेरा यह मनोरथ सिद्ध हो जाय ।
ब्राह्मणके यों कहते ही उनके शरीरमें गार्हपत्य अग्निने प्रवेश किया। फिर तो वे ज्वालाओंके बीचमें प्रकट हुए मूर्तिमान् अग्रिदेवकी भाँति उस प्रदेशको प्रकाशित करने लगे और उस अप्सराके देखते-ही देखते वे वहाँसे चले तथा एक ही क्षणमें घर पहुँच गये। घर पहुँचकर पुनः उन्होंने यथाशास्त्र सब कर्मोंका अनुष्ठान किया और बड़ी शान्ति एवं धर्म-प्रीतिसे जीवन व्यतीत किया l
– जा0 श0 (मार्कण्डेयपुराण, अध्याय 61 )

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