[41]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

भक्त-भाव

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।

अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।।

भक्तगण दास्य, सख्य, वात्सल्य, शान्त और मधुर- इन पाँचों भावों के द्वारा अपने प्रियतम की उपासना करते हैं। उपासना में ये ही पाँच भाव मुख्य समझे गये हैं, किंतु इन पाँचों में भी दास्यभाव ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रधान है। या यों कह लीजिये कि दास्यभाव ही इन पाँचों भावों का मुख्य प्राण है। दास्यभाव के बिना न तो सख्य ही हो सकता है और न वात्सल्य, शान्त तथा मधुर ही। कोई भी भाव क्यों न हो, दास्यभाव इसमें अव्यक्त रूप से जरूर छिपा रहेगा। दास्य के बिना प्रेम हो ही नहीं सकता। जो स्वयं दास बनना नहीं जानता, वह स्वामी कभी बन ही नहीं सकेगा, जिसने स्वयं किसी की उपासना तथा वन्दना नहीं की है, वह उपास्य तथा वन्दनीय हो ही नहीं सकता। तभी तो अखिलब्राह्मण्ड कोटिनायक श्रीहरि स्वयं अपने श्रीमुख से कहते हैं- ‘क्रीतोऽहं तेन चार्जुन’ हे अर्जुन! भक्तों ने मुझे खरीद लिया है, मैं उनका क्रीतदास हूँ। क्योंकि वे स्वयं चराचर प्राणियों के स्वामी हैं। इसलिये स्वामीपने के भाव को प्रदर्शित करने के निमित्त वे भक्त तथा ब्राह्मणों के स्वयं दास होना स्वीकार करते हैं और उनके पदरज को अपने मस्तक पर चढ़ाने के निमित्त सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करते हैं।

महाप्रभु अब भावावेश में आकर भक्तों के भावों को प्रकट करने लगे। भक्तों को सम्पूर्ण लोगों के प्रति और भगवत-भक्तों के प्रति किस प्रकार के आचरण करने चाहिये, उनमें भागवत पुरुषों के प्रति कितनी दीनता, कैसी नम्रता होनी चाहिये, इसकी शिक्षा देने के निमित्त वे स्वयं आचरण करके लोगों को दिखाने लगे। क्योंकि वे तो भक्ति-भाव के प्रदर्शक भक्तशिरोमणि ही ठहरे। उनके सभी कार्य लोकमर्यादा-स्थापन के निमित्त होते थे। उन्होंने मर्यादा का उल्लंघन कहीं भी नहीं किया। यही तो प्रभु के जीवन में एक भारी विशेषता है। अध्यापकी का अन्त हो गया, ब्राह्यशास्त्र पढ़ना तथा पढ़ाना दोनों ही छूट गये, अब न वह पला-सा चांचल्य है और न शास्त्रार्थ तथा वाद-विवाद की उन्मादकारी धुन। अब तो इन पर दूसरी ही धुन सवार हुई है, जिस धुन में ये सभी संसारी कामों को ही नहीं भूल गये हैं, किंतु अपने-आपको भी विस्मृत कर बैठे हैं। इनके भाव अलौकिक हैं, इनकी बातें गूढ़ हैं। इनके चरित्र रहस्यमय हैं, भला सर्वदा स्वार्थ में ही सने रहने वाले संसारी मनुष्य इनके भावों को समझ ही कैसे सकते हैं। अब ये नित्यप्रति प्रातःकाल गंगा-स्नान के निमित्त जाने लगे। रास्ते में जो भी ब्राह्मण, वैष्णव तथा वयोवृद्ध पुरुष मिलता उसे ही नम्रतापूर्वक प्रणाम करते और उसका आशीर्वाद ग्रहण करते।

गंगा जी पर पहुँचकर ये प्रत्येक वैष्णव की पदधूलि को अपने मस्तक पर चढ़ाते। उनकी वन्दना करते और भावावेश में आकर कभी-कभी प्रदक्षिणा भी करने लगते। भक्तगण इन्हें भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते। कोई कहता- ‘भगवान करे आपको भगवान की अनन्य भक्ति की प्राप्ति हो।’ कोई कहता- ‘आप प्रभु के परम प्रिय बनें।’ कोई कहता- ‘श्रीकृष्ण तुम्हारी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करें।’ सबके आशीर्वादों को सुनकर प्रभु उनके चरणों में लोट जाते और फूट-फूटकर रोने लगते। रोते-रोते कहते- ‘आप सभी वैष्णवों के आशीर्वाद का ही सहारा है, मुझ दीन-हीन कंगाल पर आप सभी लोग कृपा कीजिये। भागवत पुरुष बड़े ही कोमल स्वभाव के होते हैं, उनका हृदय करुणा से सदा भरा हुआ होता है, वे पर-पीड़ा को देखकर सदा दुःखी हुआ करते हैं। मुझ दुखिया के दुःख को भी दूर करो? मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो, मेरी मनोकामना पूर्ण कर दो, मेरे सत्संकल्प को सफल बना दो। यही मेरी आप सभी वैष्णवों के चरणों में विनीत प्रार्थना है।

घाट पर बैठे हुए वैष्णवों की, प्रभु जो भी मिल जाती वही सेवा कर देते। किसी का चन्दन ही घिस देते, किसी की गीली धोती को ही धो देते। किसी के जल के घड़े को भरकर उसके घर तक पहुँचा आते। किसी के सिर में आँवला तथा तैल ही मलने लगते। भक्तों की सेवा-शुश्रूषा करने में ये सबसे अधिक सुख का अनुभव करते। वृद्ध वैष्णव इन्हें भाँति-भाँति के उपदेश करते। कोई कहता ‘निरन्तर श्रीकृष्ण-कीर्तन करते रहना ही एकमात्र सार है। तुम्हें श्रीकृष्ण ही कहना चाहिये, श्रीकृष्ण के मनोहर नामों का ही स्मरण करते रहना चाहिये। श्रीकृष्ण-कथाओं के अतिरिक्त अन्य कोई भी संसारी बातें न सुननी चाहिये। सम्पूर्ण जीवन श्रीकृष्णमय ही हो जाना चाहिये। खाते कृष्ण, पीते कृष्ण, चलते कृष्ण, उठते कृष्ण, बैठते कृष्ण, हँसते कृष्ण, रोते कृष्ण, इस प्रकार सदा कृष्ण-कृष्ण ही कहते रहना चाहिये। श्रीकृष्णनामामृत के अतिरिक्त इन्द्रियों को किसी प्रकार के दूसरे आहार की आवश्यकता ही नहीं है। इसी का पान करते-करते वे सदा अतृप्त ही बनी रहेंगी।’

वृद्ध वैष्णवों के सदुपदेशों को ये श्रद्धा के साथ श्रवण करते, उनकी वन्दना करते और उनकी पद-धूलि को मस्तक पर चढ़ाते तथा अंजन बनाकर आँखों में आँजने लगते। इनकी ऐसी भक्ति देखकर वैष्णव कहने लगते- ‘कौन कहता है, निमाई पण्डित पागल हो गया है, ये तो श्रीकृष्ण-प्रेम में मतवाले बने हुए हैं। इन्हें तो प्रेमोन्माद है। अहा! धन्य है इनकी जननी को जिनकी कोख से ऐसा सुपुत्र उत्पन्न हुआ।’ वैष्णवगण इस प्रकार इनकी परस्पर में प्रशंसा करने लगते।

इधर महाप्रभु की ऐसी विचित्र दशा देखकर शचीमाता मन-ही-मन बड़ी दुःखी होतीं। वह दीन होकर भगवान से प्रार्थना करतीं- प्रभो! इस विधवा के एकमात्र आश्रय को अपनी कृपा का अधिकारी बनाओ। नाथ! इस सड़सठ वर्ष की अनाथिनी दुखिया की दीन-हीन दशा पर ध्यान दो। पति परलोकवासी बन चुके, ज्येष्ठ पुत्र बिलखती छोड़कर न जाने कहाँ चला गया। अब आगे-पीछे यही मेरा एकमात्र सहारा है। इस अन्धी वृद्धा का यह निमाई ही एकमात्र लकुटी है। इस लकुटी के ही सहारे यह संसार में चल-फिर सकती है।

हे अशरण-शरण! इसे रोगमुक्त कीजिये, इसे सुन्दर स्वास्थ्य प्रदान कीजिये।’ भोली-भाली माता सभी के सामने अपना दुखड़ा रोतीं। रोते-रोते कहने लगतीं- ‘न जाने निमाई को क्या हो गया है, वह कभी तो रोता है, कभी हँसता है, कभी गाता है, कभी नाचता है, कभी रोते-रोते मूर्च्छित होकर गिर पड़ता है, कभी जोरों से दोड़ने लगता है और कभी किसी पेड़ पर चढ़ जाता है।’ स्त्रियाँ भाँति-भाँति की बातें कहतीं। कोई कहती- ‘अम्मा जी! तुम भी बड़ी भोली हो, इसमें पूछना ही क्या है, वही पुराना वायुरोग है। समय पाकर उभर आया है। किसी अच्छे वैद्य से इसका इलाज कराइये।’

कोई कहती- ‘वायुरोग बड़ा भयंकर होता है, तुम निमाई के दोनों पैरों को बाँधकर उसे कोठरी में बंद करके रखा करो, खाने के लिये हरे नारियल का जल दिया करो। इससे धीरे-धीरे वायुरोग दूर हो जायगा।’ कोई-कोई सलाह देतीं- ‘शिवातैल का सिर में मर्दन कराओ, सब ठीक हो जायगा। भगवान सब भला ही करेंगे।

वे ही हम सब लोगों की एकमात्र शरण हैं।’ बेचारी शचीमाता सबकी बातें सुनतीं और सुनकर उदासभाव से चुप हो जातीं। इकलौते पुत्र के पैर बाँधकर उसे कोठरी में बंद कर देने की उसकी हिम्मत न पड़ती। बेचारी एक तो पुत्र के दुःख से दुःखी थी, दूसरा उसे विष्णुप्रिया का दुःख था। पति की ऐसी दशा देखकर विष्णुप्रिया सदा चिन्ति ही बनी रहतीं। उन्हें अन्न-जल कुछ भी अच्छा नहीं लगता। उदासीन भाव से सदा पति के ही सम्बन्ध में सोचती रहतीं। शचीमाता के बहुत अधिक आग्रह करने पर पति के उच्छिष्ट अन्न में से दो-चार ग्रास खा लेतीं, नहीं तो सदा वैसे ही बैठी रहतीं। इससे शचीमाता का दुःख दुगुना हो गया था। उनकी अवस्था सड़सठ वर्ष की थी।

वृद्धावस्था के कारण इतना दुःख उनके लिये असह्या था। किंतु नीलाम्बर चक्रवर्ती की पुत्री को, जगन्नाथ मिश्र- जैसे पण्डित की धर्मपत्नी को तथा विश्वरूप और विश्वम्भर- जैसे महापुरुषों की माता के लिये ये सभी दुःख स्वाभाविक ही थे, वे ही इन दुःखों को सहन करने में भी समर्थ हो सकती थीं, साधारण स्त्रियों का काम नहीं था कि वे इतने भारी-भारी दुःखों को सहन कर सकें।

महाप्रभु की नूतनावस्था की नवद्वीप भर में चर्चा होने लगी। जितने मुख थे उतने ही प्रकार की बातें भी होती थीं। जिसके मन में जो आता वह उसी प्रकार की बातें कहता। बहुत-से तो कहते- ‘ऐसा पागलपन तो हमने कभी नहीं देखा।’ बहुत-से कहते- ‘सचमुच भाव तो विचित्र है, कुछ समझ में नहीं आता, असली बात क्या है। चेष्टा तो पागलों की-सी जान नहीं पड़ती। चेहरे की कान्ति अधिकाधिक दिव्य होती जाती है। उनके दर्शनमात्र से ही हृदय में हिलोरें-सी मारने लगती हैं, अन्तःकरण उमड़ने लगता है। न जाने उनकी आकृति में क्या जादू भरा पड़ा है। पागलों की भी कहीं ऐसी दशा होती है?’ कोई-कोई इन बातों का खण्डन करते हुए कहने लगते- ‘कुछ भी क्यों न हो, है तो यह मस्तिष्क का ही विकार। किसी प्रकार की हो, यह वातव्याधि के सिवाय और कुछ नहीं है।’

हम पहले ही बता चुके हैं कि श्रीवास पण्डित प्रभु के पूज्य पिता जी के परम स्नेही ओर सखा थे, उनकी पत्नी मालती देवी से शचीमाता का सखीभाव था। वे दोनों ही प्रभु को पुत्र की भाँति प्रेम करते थे। श्रीवास पण्डित को इस बात का हार्दिक दुःख बना रहता था कि निमाई पण्डित जैसे समझदार और विद्वान पुरुष भगवत-भक्ति से उदासीन ही बने हुए हैं, उनके मन में सदा यही बात बनी रहती कि निमाई पण्डित कहीं वैष्णव बन जायँ तो वैष्णव-धर्म का बेड़ा पार ही हो जाय। फिर वैष्णवों की आज की भाँति दुर्गति कभी न हो। प्रभु के सम्बन्ध में लोगों के मुखों से भाँति-भाँति की बातें सुनकर श्रीवास पण्डित के मन में परम कुतूहल हुआ। वे आनन्द और दुःख के बीच में पड़कर भाँति-भाँति की बातें सोचने लगे। कभी तो सोचते- ‘सम्भव है, वायुरोग ही उमड़ आया हो, इस शरीर का पता ही क्या है? शास्त्रों में इसे अनित्य और आगमापायी बताया है, रोगों का तो यह घर ही है।’ फिर सोचते- ‘लोगों के मुखों से जो मैं लक्षण सुन रहा हूँ, वैसे तो भगवत-भक्तों में ही होते हैं, मेरा हृदय भी भीतर-ही-भीतर किसी अज्ञात सुख का-सा अनुभव कर रहा है, कुछ भी हो चलकर उनकी दशा देखनी चाहिये।’ यह सोचकर वे प्रभु की दशा देखने के निमित्त अपने घर से चल दिये।

महाप्रभु उस समय श्रीतुलसी जी में जल देकर उनकी प्रदक्षिणा कर रहे थे। पिता के समान पूजनीय श्रीवास पण्डित को देखकर प्रभु उनकी ओर दौड़े और प्रेम के साथ उनके गले से लिपट गये। श्रीवास ने प्रभु के अंगों का स्पर्श किया। प्रभु के अंगों के स्पर्शमात्र से उनके शरीर में बिजली-सी दौड़ गयी। उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमांच हो गया। वे प्रेम में विभोर होकर एकटक प्रभु के मनोहर मुख की ही ओर देखते रहे। प्रभु ने उन्हें आदर से ले जाकर भीतर बिठाया और उनकी गोदी में अपना सिर रखकर वे फूट-फूटकर रोने लगे। शचीमाता भी श्रीवास पण्डित को देखकर वहाँ आ गयीं और रो-रोक प्रभु की व्याधि की बातें सुनाने लगीं। पुत्र-स्नेह के कारण उनका गला भरा हुआ था, वे ठीक-ठीक बातें नहीं कह सकती थीं। जैसे-तैसे श्रीवास पण्डित को माता ने सभी बातें सुनायीं।

सब बातें सुनकर भावावेश में श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘जो इसे वायुरोग बताते हैं, वे स्वयं वायुरोग से पीड़ित हैं। उन्हें क्या पता कि यह ऐसा रोग है जिसके लिये शिव-सनकादि बड़े-बड़े योगीजन तरसते रहते हैं।

शचीदेवी! तुम बड़भागिनी हो, जो तुम्हारे भगवत्-भक्त पुत्र उत्पन्न हुआ। ये सब तो पूर्ण भक्ति के चिह्न हैं।’ श्रीवास पण्डित की ऐसी बातें सुनकर माता को कुछ-कुछ संतोष हुआ। अधीर भाव से प्रभु ने श्रीवास पण्डित से कहा- ‘आज आपके दर्शन से मुझे परम शान्ति हुई। सभी लोग मुझे वायुरोग ही बताते थे। मैं भी इसे वायुरोग ही समझता था और मेरे कारण विष्णुप्रिया तथा माता को जो दुःख होता था, उसके कारण मेरा हृदय फटा-सा जाता था। यदि आज आप यहाँ आकर मुझे इस प्रकार आश्वासन न देते तो मैं सचमुच ही गंगा जी में डूबकर अपने प्राणों का परित्याग कर देता। लोग मेरे सम्बन्ध में भाँति-भाँति की बातें करते हैं।’

श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘मेरा हृदय बार-बार कह रहा है, आपके द्वारा संसार का बड़ा भारी उद्धार होगा। आप ही भक्तों के एकमात्र आश्रय और आराध्य बनेंगे। आपकी इस अद्वितीय और अलौकिक मादकता को देखकर तो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अखिलकोटि ब्रह्माण्डनायक अनादि पुरुष श्रीहरि ही अवनितल पर अवतीर्ण होकर अविद्या और अविचार का विनाश करते हुए भगवन्नाम का प्रचार करेंगे। मुझे प्रतीत हो रहा है कि सम्भवतया प्रभु इसी शरीर द्वारा उस शुभ कार्य को करावें।’

प्रभु ने अधीरता के साथ कहा- ‘मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। वैष्णवों के चरणों में मेरी अनुरक्ति हो, ऐसा आशीर्वाद दीजिये। श्रीकृष्ण-कीर्तन के अतिरिक्त कोई भी कार्य मुझे अच्छा ही न लगे, यही मेरी अभिलाषा है, सदा प्रभु-प्रेम में विकल होकर मैं रोया ही करूँ, यही मेरी हार्दिक इच्छा है।’

श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘आप ही ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे इस प्रकार का थोड़ा-बहुत पागलपन हमें भी प्राप्त हो सके। हम भी आपकी भाँति प्रेम में पागल हुए लोक-बाह्य बनकर उन्मत्तों की भाँति नृत्य करने लगें।’

इस प्रकार बहुत देर तक इन दोनों ही महापुरुषों में विशुद्ध अन्तःकरण की बातें होती रहीं। अन्त में प्रभु की अनुमति लेकर श्रीवास पण्डित अपने घर को चले आये।

क्रमशः अगला पोस्ट [42]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:.

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

devotion

It is lower than grass and tolerant of trees

Hari should always be praised with pride and respect

Devotees worship their Beloved through these five feelings – Dasya, Sakhya, Vatsalya, Shant and Madhur. These five feelings are considered to be the main ones in worship, but even among these five, slavery is the best and most important. Or just say that slavery is the main life of these five feelings. Without slavery, there can be neither friendship nor affection, peace and sweetness. No matter what the emotion, the feeling of servitude will definitely be hidden in it in an unmanifested form. There cannot be love without slavery. The one who does not know how to be a slave himself, he will never be able to become a master, the one who himself has not worshiped and worshiped anyone, he cannot be worshiped and worshipable. That’s why Akhilbrahmand Kotinayak Shri Hari himself says from his Shrimukh – ‘Kreeto’ham ten charjun’ O Arjuna! Devotees have bought me, I am their Kritdas. Because he himself is the lord of grazing animals. That’s why in order to show the sense of mastery, he accepts to be the servant of devotees and Brahmins himself and always follows them for the sake of offering their padraj on his head.

Mahaprabhu now got emotional and started revealing the feelings of the devotees. In order to teach what kind of behavior the devotees should behave towards all the people and towards the devotees of God, how humble, what kind of humility they should have towards Godly men, he himself started showing them to the people. Because he was a devotee-shiromani, the exhibitor of devotion. All his works were for the establishment of public order. He did not violate the dignity anywhere. This is a heavy feature in the life of the Lord. The teacher has come to an end, both reading and teaching the Brahma Shastras have been left out, now he is neither playful nor the frenzied tune of Shastrarth and debate. Now a different tune has taken over them, in which they have not only forgotten all the worldly works, but have also forgotten themselves. His feelings are supernatural, his words are mysterious. Their characters are mysterious, how can worldly people who are always engaged in selfishness understand their feelings. Now he started going every morning for bathing in the Ganges. Whatever Brahmin, Vaishnav and elderly man he met on the way, he humbly bowed down to him and took his blessings.

After reaching Ganga ji, he used to put the dust of every Vaishnav’s feet on his head. While worshiping him, sometimes he used to do Pradakshina after getting emotional. Devotees give him many blessings. Some say- ‘May God bless you with exclusive devotion to God.’ Some say- ‘You become the most beloved of the Lord.’ Some say- ‘May Shri Krishna fulfill all your wishes.’ Hearing everyone’s blessings, the Lord returned at his feet. Used to go and started crying bitterly. Weeping and saying – ‘ All of you Vaishnavs have the support of their blessings, all of you please bless me, the poor poor. Bhagwat men are very soft natured, their heart is always full of compassion, they are always sad seeing the suffering of others. Remove the sorrow of my sorrow too? Meet me with Shri Krishna, fulfill my wishes, make my good resolution successful. This is my humble prayer at the feet of all you Vaishnavas.

The Lord would have served the Vaishnavas sitting on the ghat whatever he could get. He used to rub someone’s sandalwood, used to wash someone’s wet dhoti. Used to fill someone’s water pitcher and reach his house. Amla and oil start rubbing on someone’s head. He used to feel the most happiness in serving the devotees. Old Vaishnav used to preach them in different ways. Someone says, ‘The only essence is to keep chanting Shri Krishna-Kirtan continuously. You should say Shri Krishna only, keep remembering the beautiful names of Shri Krishna. Apart from Shri Krishna-stories, no other worldly things should be heard. The whole life should be devoted to Shri Krishna only. Krishna eats, Krishna drinks, Krishna walks, Krishna wakes up, Krishna sits, Krishna laughs, Krishna cries, thus one should always keep saying Krishna-Krishna. The senses do not need any other kind of food except Shri Krishnanamamrit. Drinking this, she will always remain unsatisfied.

He used to listen to the good advice of old Vaishnavs with devotion, worshiped him and put the dust of his feet on his head and started burning in his eyes by making anjan. Seeing such devotion of him, Vaishnav used to say- ‘Who says, Nimai Pandit has gone mad, he has become intoxicated in the love of Shri Krishna. They have infatuation. Aha! Blessed is his mother from whose womb such a son was born.’ Vaishnavgana started praising him among themselves in this way.

On the other hand, seeing such a strange condition of Mahaprabhu, Sachimata would have been deeply saddened. She humbly prayed to God – Lord! Make this widow the only refuge of your grace. God! Pay attention to the poor condition of this sixty-seven year old orphan girl. Husband has become a resident of the other world, don’t know where the eldest son has gone leaving behind. Now back and forth this is my only recourse. This nimai is the only wood of this blind old woman. With the help of this stick, it can move around in the world.

Oh refuge! Make him disease free, give him beautiful health.’ The innocent mother used to cry her sorrow in front of everyone. While crying, she said- ‘Don’t know what has happened to Nimai, he sometimes cries, sometimes laughs, sometimes sings, sometimes dances, sometimes falls down while crying, sometimes starts running fast. And sometimes it climbs a tree.’ The women used to say different things. Someone says – ‘ Amma ji! You are also very innocent, what is there to ask in this, the same old air disease. Has emerged after getting time. Get it treated by a good doctor.

Someone says- ‘Vayu disease is very dangerous, you tie both the legs of Nimai and keep him locked in the closet, give green coconut water to eat. Due to this, the air disease will go away gradually.’ Some advise- ‘Get Shivatail rubbed in the head, everything will be fine. God will do good to all.

He is the only refuge of all of us. Poor Sachimata used to listen to everyone’s talk and after listening to it became silent with sadness. She would not have had the courage to tie the feet of the only son and lock him in the closet. The poor thing was sad because of her son’s sorrow, secondly she was sad about Vishnupriya. Seeing such a condition of her husband, Vishnupriya always remained worried. They don’t like food or water. With an indifferent attitude, she always used to think only about her husband. On the insistence of Sachi Mata, she used to eat two or four morsels from her husband’s leftover food, otherwise she would always sit like that. Sachimata’s sorrow was doubled by this. His condition was sixty-seven years old.

Due to old age, so much sorrow was unbearable for him. But all these sorrows were natural for the daughter of Neelambar Chakravarti, the wife of a priest like Jagannath Mishra and the mother of great men like Vishwaroop and Vishwambhar, only she could have been able to bear these sorrows. There was no work that they could bear such heavy sorrows.

The youth of Mahaprabhu started being discussed all over Navadweep. As many faces were there, so many types of things used to happen. Whatever comes to his mind, he used to say such things. Many would say- ‘We have never seen such madness.’ Efforts don’t cost like madmen. The radiance of the face becomes more and more divine. The mere sight of him fills the heart with excitement, the conscience begins to swell. Don’t know what magic is filled in his figure. Do lunatics also have such a condition somewhere?’ While refuting these things, some started saying- ‘Whatever happens, it is a disorder of the brain. Be it any type, it is nothing but arthritis.’

We have already told that Srivas Pandit was the most affectionate and close friend of Prabhu’s respected father, Sachimata had a friendship with his wife Malati Devi. Both of them loved the Lord like a son. Shrivas Pandit used to feel deeply saddened by the fact that intelligent and learned men like Nimai Pandit have remained indifferent to Bhagvat-Bhakti, he always had this thought in his mind that if Nimai Pandit becomes a Vaishnav, then the fleet of Vaishnavism will be destroyed. Just cross over. Never again should Vaishnavs be in misery like today. Srivas Pandit’s mind was extremely curious after hearing different things from the mouths of people regarding the Lord. Falling between joy and sorrow, they started thinking of different things. Sometimes they think- ‘It is possible that the disease has arisen, what is the address of this body? In the scriptures, it has been described as impermanent and inflammable, it is the home of diseases.’ Then thinking- ‘The symptoms that I am hearing from people’s mouths, they are found only in devotees of God, my heart is also inside- He is experiencing some unknown happiness inside, whatever may happen, his condition should be seen.’ Thinking this, he left his home to see the condition of the Lord.

At that time Mahaprabhu was circumambulating Shri Tulsi ji by giving him water. Seeing Shrivas Pandit, revered like a father, the Lord ran towards him and embraced him lovingly. Srivas touched the limbs of the Lord. At the mere touch of the Lord’s limbs, electricity ran through his body. There was excitement in his whole body. Being engrossed in love, he kept looking at the charming face of the Lord. The Lord took him with respect and made him sit inside and keeping his head on his lap, he started crying bitterly. Sachimata also came there after seeing Shrivas Pandit and started crying and narrating about the disease of the Lord. Her throat was full because of son-affection, she could not say the right things. Somehow the mother narrated everything to Shrivas Pandit.

After listening to all the things, Srivas Pandit said in emotion – ‘ Those who call it air disease, they themselves are suffering from air disease. Little did they know that this is such a disease for which great Yogis yearn for Shiva-Sankadi.

Shachidevi! You are very lucky that a son was born to you who is a devotee of the Lord. All these are signs of complete devotion.’ Mother was somewhat satisfied after hearing such words of Shrivas Pandit. With impatience, the Lord said to Srivas Pandit – ‘ Today I felt immense peace by your darshan. Everyone used to tell me only air disease. I also used to consider it to be an air disease and my heart used to break due to the pain Vishnupriya and mother used to suffer because of me. If you had not given me such assurance by coming here today, I would have really sacrificed my life by drowning in Ganga ji. People talk all kinds of things about me.’

Shrivas Pandit said- ‘My heart is saying again and again, the world will be greatly saved through you. You will become the only shelter and worship of the devotees. Seeing this unique and supernatural intoxication of yours, it seems to me that Akhilkoti Brahmandanayak Aadi Purush Shri Hari will incarnate on the avanital and propagate the name of Bhagwan by destroying ignorance and thoughtlessness. It seems to me that possibly the Lord may get that auspicious work done through this body.’

The Lord said with impatience – ‘ I am like your son. Give me such a blessing that I have attachment at the feet of Vaishnavas. I don’t like any work other than Shri Krishna-Kirtan, this is my desire, I should always cry in the Lord’s love, this is my heart’s desire.

Shrivas Pandit said – ‘ You only give such a blessing, so that we can also get a little of this kind of madness. We too became crazy in love like you and started dancing like maniacs.

In this way, for a long time both these great men had talks of pure conscience. At last, after taking the permission of the Lord, Shrivas Pandit returned to his home.

respectively next post [42]

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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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