।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
बाल्य-भाव
दिग्वाससं गतव्रीडं जटिलं धूलिधूसरम्।
पुण्याधिका हि पश्यन्ति गंगाधरमिवात्मजम्।।
‘इस काम के करने से क्या फायदा?’ ‘इसको क्यों करें, इससे हमारा क्या मतलब?’ ये प्रश्न स्वार्थजन्य हैं, स्वार्थ अज्ञानजन्य है और अज्ञान ही बन्धन का हेतु है। ‘भगवान् ने इस सृष्टि को क्यों उत्पन्न किया?’ यह सभी अज्ञानी जीवों की शंका है, जो बिना मतलब के कुछ करना ही नहीं जाते। इसीलिये भगवान व्यासदेव जी ने इसका यही सीधा-सादा उत्तर दिया है कि उसका कुछ भी मतलब नहीं। ‘बाल-लीलावत’ है। बच्चों को देखा है, ख़ाली गाड़ी देखकर उस पर बहुत दूर तक चढ़कर चले जाते हैं और फिर उधर से पैदल ही लौट आते हैं। कोई पूछे- ‘ऐसा करने से उन्हें क्या लाभ?’ इसका उत्तर कुछ भी नहीं। लाभ-हानि बच्चा जानता ही नहीं। उसके लिये दो चीज हैं ही नहीं या तो लाभ-ही-लाभ है या हानि-ही-हनि। या तो उसके लिये सभी वस्तु पवित्र-ही-पवित्र हैं या सभी अपवित्र हैं। वह ज्यों-ज्यों हम लोगों के संसर्ग में रहकर ज्ञान या अज्ञान सीखता जाता है, त्यों-ही-त्यों मतलब और फायदा सोचने लगता है। उस समय उसकी वह द्वन्द्वातीतपने की अवस्था धीरे-घीरे लोप हो जाती है। फिर वह मजा जाता रहता है।
बाल-भाव भी कितना मनोहर है, जब साधारण बालकों के ही विनोद में परम आनन्द और उल्लास भरा रहता है, तब दिव्य बालकों की लीलाओं का तो कहना ही क्या? उस समय तो लोग उन्हें नहीं जाते, ज्यों-ज्यों उनके जीवन में प्रकाश होने लगता है त्यों-ही-त्यों उन पुरानी बातों में भी रस भरता जाता है। निमाई अलौकिक बालक थे। उनकी लीलाएँ भी बड़ी मधुर और साधारण बालकों की भाँति होने पर भी परम अलौकिक थीं। पाठक स्वयं समझ लेंगे कि 3-4 वर्ष की अवस्था के बालक की कितनी गूढ़-गूढ़ बातें होती थीं।
एक दिन माता ने देखा, निमाई एकदम नंगा है। इधर-उधर से चीरें उठाकर लपेट ली है। सम्पूर्ण शरीर में धूलि लपेटे हुए है। एक घूरे पर अशुद्ध हाँड़ियों पर आप बैठे हैं। हाँड़ियों में से कारिख लेकर मुँह और माथे पर काली-काली लम्बी-लम्बी रेखाएँ खींच ली हैं। शरीर में जगह-जगह काली बिंदी लगा ली है। एक फूटी हाँड़ी को खपड़े से बजा-बजाकर आप कुछ गा रहे हैं। सुवर्ण-जैसे शरीर पर भस्म के ऊपर काली-काली बिंदी बहुत ही भली मालूम होती थी। जो भी उधर से निकलता वही उस अद्भुत स्वाँग को देखने के लिये खड़ा हो जाता। निमाई अपने राग में मस्त थे, उन्हें दीन-दुनिया का कुछ भी पता नहीं। किसी ने जाकर यह समाचार शचीमाता को सुनाया। माता दौड़ी-दौड़ी आयीं और दो-चार मीठी-मीठी प्रेमयुक्त कड़ी बातें कहकर डाँटने लगीं- ‘निमाई! तू अब बहुत बदमाशी करने लगा है। भला ब्राह्मण के बेटे को ऐसे अपवित्र स्थान में बैठना चाहिये?’
आपने कहा- ‘अम्मा! स्थान का क्या अपवित्र ओर क्या पवित्र? स्थान तो सभी एक-से हैं। हाँ, जो स्थान हरि-सेवा-पूजा से हीन हो वहाँ बैठना ठीक नहीं। इन हाँड़ियों में तो मैंने भगवान का प्रसाद बनाया है। भला, फिर ये हाँड़ियाँ अपवित्र कैसे हुई?’
माता ने डाँटकर कहा- ‘बहुत ज्ञान मत छाँट, जल्दी से उठकर स्नान कर ले।’
निमाई भला कब उठने वाले थे? वे तो वहीं डटे रहे और फिर वही अपना पुराना राग अलापने लगे। माता ने जब देखा वह किसी भी तरह नहीं उठता, तो स्वयं जाकर इनका हाथ पकड़कर उठा लायीं और घर में आकर इन्हें स्नान कराया और स्वयं स्नान किया।
इसी प्रकार से सभी बालोचित लीलाएँ करते। कभी किसी कुत्ते के बच्चे को पकड़ लाते और उसे दूध-भात खिलाते। दिनभर उसे बाँधे रखते। माता यदि उसे भगा देती तो खूब रोते। कभी पक्षियों को पकड़ने को दौड़ते ओर कभी गौ के छोटे बच्चे के साथ खेलते और उससे धीरे-धीरे न जाने क्या-क्या बातें करते। सबके घरों में बिना रोक-टोक चले जाते। कोई कहती- ‘निमाई! तुझे हम सन्देश दें, जरा नाच तो दे।’ तब आप कहते- ‘पहले सन्देश (मिठाई) दो, तब नाचेंगे।’ वे सन्देश-लड्डू-पेड़े इन्हें दे देतीं। ये उसी समय कुछ मुँह में भर लेते, शेष को हाथ में लेकर ऊपर हाथ उठा-उठाकर खूब नाचते। इस प्रकार ये घर-घर जाकर खूब नाच दिखाते और खाने के लिये खूब माल पाते। स्त्रियाँ इन्हें बहुत प्यार करतीं। कोई केला देती, कोई मेवा देती, कोई मिठाई देती। ये सबसे ले लेते, स्वयं खाते ओर अपने साथियों को बाँट देते। इस प्रकार ये सभी के मन को अपनी ओर आकर्षित करने लगे और नर-नारियों को परम सुख देने लगे।
एक दिन ये बाहर से दौड़े-दौड़े आये ओर जल्दी से माता से बोले- ‘अम्मा! अम्मा! बड़ी भूख लग रही है, कुछ खाने के लिये हो तो दे।’
माता ने कहा- ‘बेटा! बैठ जा। अभी दूध-चिउरा लाती हूँ, उन्हें तब तक खा ले फिर झट से भात बनाऊँगी।’ यह कहर माता ने भीतर से लाकर एक कटोरे में दूध-चिउरा इन्हें दिया। माता तो देकर भीतर चली गयीं।, ये दूध-चिउरा न खाकर पास में पड़ी मिट्टी को खाने लगे। माता ने जब आकर देखा कि निमाई तो मिट्टी खा रहा है, तब वे जल्दी से कहने लगीं- ‘अरे निमाई! तू यह क्या कर रहा है? मिट्टी क्यों खाता है?’
आपने भोली सूरत बनाकर कहा- ‘अम्मा! तैने भी तो मुझे मिट्टी लाकर दी है। मिट्टी ही मैं खा रहा हूँ’। माता ने कहा- ‘मैंने तो तुझे दूध-चिउरा दिया है, उसे न खाकर तू मिट्टी खा रहा है।’
आपने कहा- ‘माँ! यह सब मिट्टी ही तो है। सभी पदार्थ मिट्टी के ही विकार हैं।’ माता इस मूढ़ ज्ञान को समझ गयी। पुचकारकर बोलीं- ‘बेटा! है तो सब मिट्टी ही किन्तु काम सबका अलग-अलग है। घड़ा भी मिट्टी है, रेत भी मिट्टी है। घडे़ में पानी भरकर लाते हैं, तो वह रखा रहता है और रेत में पानी डालें तो वह सूख जायगा। इसलिये सबके काम अलग-अलग हैं।’
आपने मुँह बनाकर कहा- ‘हाँ, ऐसी बात है? तब हमें तैंने पहले से क्यों नहीं बताया, अब ऐसा न किया करेंगे। अब कभी मिट्टी न खायेंगे। भूख लगने पर तुझसे ही माँग लिया करेंगे।’
इस प्रकार भाँति-भाँति की क्रीड़ाओं के द्वारा निमाई माता को दिव्य सुख का आस्वादन कराने लगे। माता इनकी भोली और गूढ़ ज्ञान से सनी हुई बातें सुन-सुनकर कभी तो आश्चर्य करने लगतीं, कभी आनन्द के सागर में गोता लगाने लगतीं।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
childishness
He was dressed in directional clothes and was shy and matted and dusty
For the most pious see their son as Gangadhar.
‘What is the use of doing this work?’ ‘Why do it, what do we mean by it?’ These questions are selfish, selfishness is ignorant and ignorance is the cause of bondage. ‘Why did the Lord create this universe?’ This is the doubt of all ignorant living beings, who go about doing nothing without any meaning. That’s why Lord Vyasdev ji has given this simple answer that it does not mean anything. There is ‘Baal-Lilavat’. I have seen children, seeing an empty vehicle, climb on it for a long distance and then return from there on foot. Someone asks- ‘What is the benefit to them by doing this?’ The answer is nothing. The child does not know profit or loss. There are only two things for him, either profit-only profit or loss-only loss. Either all things are sacred for him or all are unholy. As he learns knowledge or ignorance by being in contact with us, he starts thinking about its meaning and benefit. At that time, his state of duality gradually vanishes. Then the fun goes on.
Childishness is also so charming, when the humor of ordinary children is full of joy and gaiety, then what to say about the pastimes of divine children? At that time people do not know him, as soon as the light starts coming in his life, the interest in those old things also goes on increasing. Nimai was a supernatural child. His leelas were also very sweet and like ordinary children, yet they were very supernatural. Readers themselves will understand that the child of 3-4 years of age used to talk so much in depth.
One day the mother saw Nimai completely naked. Picked up rags from here and there and wrapped them. The whole body is covered with dust. You are sitting on impure pots on a gazing. Taking soot from pots, long black lines have been drawn on the face and forehead. A black dot has been applied at various places on the body. You are singing something by banging a broken pot with a rag. The black dot on the ashes on the gold-like body looked very good. Whoever came out from there would have stood up to see that amazing farce. Nimai was engrossed in his melody, he did not know anything about the world. Someone went and told this news to Sachimata. Mother came running and started scolding by saying two-four sweet loving harsh words- ‘Nimai! You have started bullying a lot now. Should the son of a Brahmin sit in such an unholy place?’
You said – ‘ Amma! What is impure and what is pure in the place? All the places are the same. Yes, it is not right to sit in a place which is inferior to Hari-Seva-Puja. I have made God’s prasad in these vessels. Well, then how did these pots become impure?’
Mother scolded and said- ‘Don’t sort out much knowledge, get up quickly and take a bath.’
When was Nimai going to get up? He stood there and then started chanting his old tune. When the mother saw that he did not wake up in any way, she herself went and picked him up by holding his hand and came home and got him bathed and took bath herself.
In the same way all childish pastimes were performed. Sometimes they would catch a puppy and feed it milk and rice. Kept him tied all day long. If the mother had driven him away, he would have cried a lot. Sometimes he used to run to catch birds and sometimes he used to play with the small child of the cow and talk to him slowly and don’t know what. He used to go to everyone’s homes without any hindrance. Someone says – ‘Nimai! We will give you the message, at least give a dance.’ Then you would say- ‘First give the message (sweets), then we will dance.’ She would give him the message-laddoos-trees. At the same time, he would put some in his mouth, take the rest in his hand and dance a lot by raising his hands up. In this way, they went from house to house, showed a lot of dance and got a lot of goods to eat. Women loved him very much. Some would give bananas, some would give dry fruits, some would give sweets. He would have taken it from everyone, eaten it himself and distributed it to his companions. In this way, he started attracting everyone’s mind towards him and started giving ultimate happiness to men and women.
One day he came running from outside and quickly said to his mother – ‘ Amma! Mother! I am very hungry, give me something to eat.
Mother said – ‘ Son! Sit down Now I will bring milk and chiura, eat them till then and then quickly cook rice. Mother brought this havoc from inside and gave milk and chiura in a bowl to them. Mother gave it and went inside. Instead of eating milk and chiura, they started eating the soil lying nearby. When the mother came and saw that Nimai was eating mud, then she quickly started saying- ‘Hey Nimai! what are you doing Why does he eat soil?’
You made an innocent face and said – ‘ Amma! Tane has also brought me soil. I am eating only the soil. Mother said- ‘I have given you milk powder, instead of eating it, you are eating soil.’
You said – ‘ Mother! It is all dust. All substances are impurities of the soil.’ Mother understood this foolish knowledge. Pleadingly said – ‘ Son! Everything is dust, but everyone’s work is different. Pot is also soil, sand is also soil. If you bring water in a pitcher, then it remains there and if you pour water in the sand, it will dry up. That’s why everyone’s work is different.
You made a face and said – ‘ Yes, it is such a thing? Then why didn’t you tell us earlier, now you will not do this. Will never eat soil again. When I am hungry, I will ask for it from you.’
In this way, Nimai Mata was made to taste divine happiness through various games. Mother would sometimes start wondering after listening to his innocent and deep knowledge-filled talks, sometimes she would start diving in the ocean of joy.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]