।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
दिग्विजयी का पराभव
परैः प्रोक्ता गुणा यस्य निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः।।
महामहिम निमाई पण्डित एकान्त में दिग्विजयी पण्डित के साथ वार्तालाप करना चाहते थे, वे भरी सभा में उस मानी और वयोवृद्ध पण्डित की हँसी करना ठीक नहीं समझते थे। प्रायः देखा गया है, भरी सभा में लोगों के सामने अपने सम्मान की रक्षा के निमित्त शास्त्रार्थ करने वाले झूठी बात पर भी अड़ जाते हैं और उसे येन-केन प्रकारेण सत्य ही सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। सत्य को झूठ और झूठ को सत्य करने के कौशल का ही नाम तो आजकल असल में शास्त्रार्थ करना है। निमाई उससे शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते थे, किन्तु उसे यह बताना चाहते थे कि संसार में परमात्मा के अतिरिक्त अद्वितीय वस्तु कोई नहीं है। कोई कितना भी अभिमान क्यों न कर ले, संसार में उससे बढ़कर कोई-न-कोई मिल ही जायगा। ब्रह्मा जी की बनायी हुई इस सृष्टि में यही तो विचित्रता है, कहावत है-
‘मल्लन कूँ मल्ल घनेरे, घर नाहिं तो बाहिर बहुतेरे’
अर्थात ‘बलवानों को बहुत-से बलवान मिल जाते हैं, उने समीप उनके समान न भी हों तो बाहर बहुत-से मिल जायँगे।’ इसी बात को जताने के निमित्त निमाई पण्डित एकान्त में दिग्विजयी से बातें करना चाहते थे। सन्ध्या का समय है, कलकलनादिनी भगवती भागीरथी अपनी द्रुत गति से सदा की भाँति सागर की ओर दौड़ी जा रही हैं, मानो उन्हें संसारी बातें सुनने का अवकाश ही नहीं, वे अपने काम में बिना किसी की परवा किये हुए निरन्तर लगी हुई हैं। कलरव करते हुए भाँति-भाँति के पक्षी आकाश-मार्ग से अपने-अपने कोटरों की ओर उड़े जा रहे हैं। भगवान भुवनभास्कर के अस्ताचल में प्रस्थान करने के कारण विधवा की भाँति सन्ध्या देवी रुदन कर रही है। शोक के कारण उसका चेहरा लाल पड़ गया है, मानो उसे ही प्रसन्न करने के निमित्त भगवान निशानाथ अपनी सोलहों कलाओं सहित गगन में उदित होकर प्राणिमात्र को शीतलता प्रदान कर रहे हैं। पुण्यतोया जाह्नवी के वैडूर्य के समान स्वच्छ नील-जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बड़ा ही भला मालूम होता है। प्रायः सभी पाठशालाओं के बहुत-से मेधावी छात्र गंगा जी के जल के बिलकुल सन्निकट बैठकर शास्त्रचर्चा कर रहे हैं। एक-दूसरे से प्रश्न पूछता है, वह उसका उत्तर देता है, पूछने वाला उसका फिर से खण्डन करता है। उत्तर देने वाले की दस-पाँच विद्यार्थी मिलकर सहायता करते हैं, अब सहायता करने वालों से शास्त्रार्थ छिड़ जाता है। इस प्रकार सब एक-दूसरे को परास्त करने की जी-जान से चेष्टा कर रहे हैं।
शास्त्रार्थ करने में असमर्थ छात्र चुपचाप उनके समीप बैठकर शास्त्रार्थ के श्रवणमात्र से ही अपने को आनन्दित कर रहे हैं। बहुत-से दर्शनार्थी चारों ओर घिरकर बैठ जाते हैं, कोई-कोई खडे़ होकर भी विद्यार्थियों के वाक्-युद्ध का आनन्द देखने लगते हैं, तब दूसरे विद्यार्थी उन्हें इशारे से बिठा देते हैं। इस प्रकार विद्यार्थियों में खूब ही शास्त्रालोचना हो रही है। इन सभी छात्रों के बीच निमाई पण्डित मानो सिरमौर हैं। इस शास्त्रार्थ की जान वे ही हैं, वे स्वयं भी विद्यार्थियों में मिलकर शास्त्रार्थ करते हैं और दूसरों को भी उत्साहित करते जाते हैं। दूसरे पंडित एकान्त में दूर खड़े होकर, कोई सन्ध्या का बहाना करके, कोई पाठ के बहाने से निमाई के मुख से निसृत वाक्सुधा का रसास्वादन कर रहे हैं। बहुत-से पण्डित यथार्थ में ही सन्ध्या करके मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों के समीप खड़े हो गये हैं, और एक-दूसरे के विवाद में कभी-कभी किसी की सहायता भी कर देते हैं। इसी बीच दिग्विजयी पण्डित भी अपने दो-चार अन्तरंग पण्डितों के साथ गंगाजी पर आये।
दिग्विजयी का सुन्दर सुहावना गौर वर्ण था, शरीर सुगठित और स्थूल था, बड़ी-बड़ी सुन्दर भुजाएँ, उन्नत वक्षःस्थल और गोल चेहरे के ऊपर बड़ी-बड़ी आँखें बड़ी ही भली मालूम पड़ती थीं। उनके प्रशस्त सुन्दर ललाट पर रोली की एक चैड़ी-सी बिन्दी लगी हुई थी, सिर के बाल आधे पक गये थे, चेहरे से रोब और विद्वत्ता प्रकट होती थी, शरीर में अभिमानजन्य स्फूर्ति थी, केवल एक सफेद कुर्ता पहने नंगे सिर आकर दिग्विजयी ने गंगा जी को प्रणाम किया, आचमन करके वे थोड़ी देर बैठे रहे। फिर वैसे ही मनोविनोद के निमित्त विद्यार्थियों की ओर चले गये।
निमाई के समीप के विद्यार्थी ने इशारे से बताया, ये ही वे दिग्विजयी हैं। दिग्विजयी को देखकर निमाई पण्डित ने उन्हें नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और बैठने के लिये आग्रह किया। पहले तो दिग्विजयी ने बैठने में संकोच किया, जब सभी ने आग्रह किया, तो वे बैठ गये। प्रायः मानियों के समीप ही मान-प्रतिष्ठा की परवा की जाती है, जो मान-अपमान से परे हैं उनके समीप मानी-अमानी, मूर्ख-पण्डित सभी समानरूप से जा-आ सकते हैं और उनकी सीधी-सादी बातों में वे मानापमान का ध्यान नहीं करते। इसीलिये तो लड़के, पागल तथा मूर्खों के साथ सभी बेखट के चले जाते हैं, उनसे उन्हें उद्वेग नहीं होता। उद्वेग का कारण तो अन्तरात्मा में सम्मान की इच्छा है। जिसके हृदय में सम्मान की लिप्सा है, वह माननीय लोगों में सम्मान के ही साथ जाना पसन्द करेगा, उसे इस बात का सदा भय बना रहता है, कि वहाँ मेरा अपमान न होने पावे। इसलिये उत्तम आसन का पहले से ही प्रबन्ध करा लेगा, तब वहाँ जाना स्वीकार करेगा।
विद्यार्थी तो मान-अपमान से दूर ही रहते हैं, उन्हें मान-अपमान की कुछ भी परवा नहीं रहती। चाहे विद्यार्थी सभी शास्त्रों को पढ़ चुका हो, जब तक वह पाठशाला में विद्यार्थी बना है, तब तक वह छोटे-से-छोटे विद्यार्थी से भी समानता का ही बर्ताव करेगा। विद्यार्थी-विद्यार्थी सब एक-से। इसीलिये विद्यार्थियों से भी किसी को उद्वेग नहीं होता। इसी कारण विद्यार्थियों के आग्रह करने पर महामानी लोक विख्यात दिग्विजयी पण्डित भी विद्यार्थियों के समीप ही बैठ गये। निमाई पण्डित ने अपना वस्त्र उनके लिये बिछा दिया। दिग्विजयी के सुखपूर्वक बैठ जाने पर सभी विद्यार्थी चुप हो गये। सभी ने शास्त्रार्थ बन्द कर दिया। हँसते हुए दिग्विजयी बोले- ‘भाई, तुम लोग चुप क्यों हो गये, कुछ शास्त्र-चर्चा होनी चाहिये।’ इतने पर भी सब चुप ही रहे। सभी विद्यार्थी धीरे-धीरे निमाई के मुख की ओर देखने लगे। कुछ प्रसंग चलने के निमित्त दिग्विजयी ने निमाई पण्डित से पूछा- ‘तुम किस पाठशाला में पढ़ते हो?’ निमाई इस प्रश्न को सुनकर चुप हो गये, वे कुछ कहने ही को थे कि उनके समीप बैठे हुए एक योग्य छात्र ने कहा- ‘ये यहाँ के विख्यात अध्यापक निमाई पण्डित हैं।’
प्रसन्नता प्रकट करते हुए दिग्विजयी ने निःसंकोचभाव से उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘ओहो! निमाई पण्डित आपका ही नाम है? आपकी तो हमने बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। आप तो यहाँ के वैयाकरणों में सिरमौर समझे जाते हैं। हाँ, आप ही कोई व्याकरण की पंक्ति सुनाइये।’ हाथ जोड़े हुए नम्रतापूर्वक निमाई पण्डित ने कहा- ‘यह तो आप-जैसे गुरुजनों की कृपा है, मैं तो किसी योग्य भी नहीं। भला, आपके सामने मैं सुना ही क्या सकता हूँ, मैं तो आपके शिष्यों के शिष्य होने के योग्य भी नहीं। आपने संसार को अपनी विद्या-बुद्धि से दिग्विजय किया है। आपके कवित्व की बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। यह छात्र-मण्डली आपके कवित्व के श्रवण करने के लिये बड़ी उत्सुक हो रही है। कृपा करके आप ही अपनी कोई कविता सुनाने की कृपा कीजिये।’
यह सुनकर दिग्विजयी पण्डित हँसने लगे। पास के दो-चार विद्यार्थियों ने कहा- ‘हाँ, महाराज! हम लोगों की इच्छा को जरूर पूर्ण कीजिये। हम सभी लोग बहुत उत्सुक हैं आपकी कविता सुनने के लिये।’ अब तक दिग्विजयी को नदिया में अपनी अलौकिक प्रतिभा और लोकोत्तर कवित्व-शक्ति के प्रकाशित करने का सुअवसर प्राप्त ही नहीं हुआ था। उसे प्रकट करने का सुअवसर समझकर उन्होंने कुछ गर्व मिली हुई प्रसन्नता के साथ कहा- ‘तुम लोग जो सुनना चाहते हो, वही सुनावें।’
इस पर निमाई पण्डित ने धीरे से कहा- ‘कुछ भगवती भागीरथी की महिमा का ही बखान कीजिये जिससे कर्ण भी पवित्र हों और काव्यामृत का भी रसास्वादन हो।’ इतना सुनते ही दिग्विजयी धारा-प्रवाह से गंगा जी के महत्त्व के श्लोक बोलने लगे। सभी श्लोक नवीन ही थे, वे तत्क्षण नवीन श्लोकों की रचना करते जाते और उन्हें उसी समय बोलते जाते। उन्हें नवीन श्लोक बनाने में न तो प्रयास करना पड़ता था, न एक श्लोक के बाद ठहरकर कुछ सोचना ही पड़ता था। जैसे किसी को असंख्य श्लोक कण्ठस्थ हों और वह जिस प्रकार जल्दी-जल्दी बोलता जाय, उसी प्रकार दिग्विजयी श्लोक बोल रहे थे। सभी विद्यार्थी विस्मितभाव से एकटक होकर दिग्विजयी की ओर आश्चर्यभाव से देख रहे थे। सभी के चेहरों से महान आश्चर्य- अद्भुत संभ्रम-सा प्रकट हो रहा था, उन्होंने इतनी विद्या-बुद्धिवाला पुरुष आज तक कभी देखा ही नहीं था।
विद्यार्थियों के भावों को समझकर दिग्विजयी मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होते जाते थे और दूने उत्साह के साथ चमक और अनुप्रासयुक्त श्लोकों को सुमधुर कण्ठ से बोलते जाते थे। एक घड़ी भी नहीं हुई कि वे सौ से अधिक श्लोक बोलकर चुप हो गये। घाट पर सन्नाटा छा गया। गंगा जी का कलरव बंद हो गया, मानो इतनी उतावली गंगा माता भी दिग्विजयी के लोकोत्तर काव्य-रस से प्रवाहित होकर उसे अपने प्रवाह में मिलाने के लिये कुछ काल के लिये ठहर गयी हो। उस नीरवता को भंग करते हुए मधुर और गम्भीर स्वर में निमाई पण्डित बोले- ‘महाराज! हम सब लोग आज आपकी अमृतमयी वाणी सुनकर कृतार्थ हुए।
हमने ऐसा अपूर्व काव्य कभी नहीं सुना था, न आप-जैसे लोकोत्तर कवि के ही कभी दर्शन किये थे। आपके काव्य को आप ही समझ भी सकते हैं। दूसरे की क्या सामर्थ्य है, जो ऐसे सुललित काव्य को यथावत समझ ले। इसलिये इनमें से किसी एक श्लोक की व्याख्या और गुण-दोष हम और सुनना चाहते हैं।’ कुछ गर्व के साथ हँसते हुए दिग्विजयी ने कहा- ‘केशव की कमनीय कविता में दोष तो दृष्टिगोचर हो ही नहीं सकते। हाँ, व्याख्या कहो तो कर दूँ। बताओ किस श्लोक की व्याख्या चाहते हो’ यह बात दिग्विजयी ने निमाई पण्डित को युक्ति से चुप करने के ही लिये कह दी थी। वे समझते थे मेरे सभी श्लोक नवीन हैं, मैं जल्दी-जल्दी में उन्हें बोलता गया हूँ, ये उनमें से किसी को बता ही न सकेंगे, इसलिये यह बात यहीं समाप्त हो जायगी। किन्तु निमाई भी कोई साधारण पण्डित नहीं थे।
दिग्विजयी यदि भगवती के वर से कविवर हैं, तो ये भी श्रुतिधर हैं। झट से आपने अपने कोमल कण्ठ से यह श्लोक पढ़ा-
महत्त्वं गंगायाः सततमिदमाभाति नितरां
यदेषा श्रीविष्णोश्चरणकमलोत्पत्तिसुभगा।
द्वितीयश्रीलक्ष्मीरिव सुरनरैरर्च्यचरणा।
भवानीभर्तुर्या शिरसि विभवत्यद्भुतगुणा।[1]
इस श्लोक को बोलकर आपने कहा- ‘इसकी व्याख्या और गुण-दोष कहिये।’ निमाई के मुख से अपने श्लोक को यथावत सुनकर दिग्विजयी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, उनका मुख फीका पड़ गया। सभी एकटक होकर निमाई की ओर देखने लगे, मानो दिग्विजयी की श्री, प्रतिभा, कान्ति और प्रभा निमाई के पास आ गयी हो। कुछ बनावटी उपेक्षा-सी करते हुए कहा- ‘आप बड़े चतुर हैं, मैं इतनी जल्दी-जल्दी श्लोक बोलता था, उनके बीच में से आपने श्लोक को कण्ठस्थ भी कर लिया। निमाई ने धीरे से नम्रतापूर्वक कहा- ‘सब आपकी कृपा है, कृपया इस श्लोक की व्याख्या और गुण-दोष सुनाइये।’
दिग्विजयी ने कहा- ‘यह अलंकार का विषय है, तुम वैयाकरण हो, इसे क्या समझोगे?’
इन्होंने नम्रता के साथ कहा- ‘महाराज! हमने अलंकार-शास्त्र का यथावत अध्ययन नहीं किया है तो उसे सुना तो अवश्य है, कुछ तो समझेंगे ही। फिर यहाँ अलंकार-शास्त्र के ज्ञाता बहुत-से छात्र तथा पण्डित भी बैठे हुए हैं, उन्हें ही आनन्द आवेगा।’ अब दिग्विजयी अधिक टालमटोल न कर सके, वे अनिच्छापूर्वक बेमन से श्लोक की व्याख्या करने लगे। व्याख्या के अनन्तर उपमालंकार और अनुप्रासादि गुण बताकर दिग्विजयी चुप हो गये। तब निमाई पण्डित ने बड़ी नम्रता के साथ कहा- ‘आज्ञा हो और आप अनुचित न समझें तो मैं भी इस श्लोक के गुण-दोष बता दूँ?’ मानो क्रुद्ध सर्प पर किसी ने पाद-प्रहार कर दिया हो, संसार विजयी सरस्वती के वर प्राप्त दिग्विजयी पण्डित के श्लोक में यह युवक अध्यापक दोष निकालने का साहस करता है, उन्होंने भीतर के दोष से बनावटी प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘अच्छा बताओ, श्लोक में क्या गुण-दोष हैं?’
निमाई पण्डित अब श्लोक की व्याख्या करने लगे। उन्होंने कहा- ‘श्लोक बड़ा ही सुन्दर है, वैसे लगाने से तो सैकड़ों गुण-दोष निकल सकते हैं, किन्तु मुख्यरूप से इसमें पाँच गुण हैं और पाँच दोष हैं।’ दिग्विजयी ने झुँझलाकर सिर हिलाते हुए कहा- ‘बताओ न कौन-कौन-से दोष हैं?’ निमाई ने उसी सरलता के साथ कहा- पहले श्लोक के गुण ही सुनिये।
(1) पहला गुण तो इसमें ‘शब्दालंकार’ है। श्लोक के पहले चरण में पाँच ‘तकारों’ की पंक्ति बड़ी ही सुन्दरता के साथ ग्रथित की गयी है। तृतीय चरण में पाँच ‘रकार’ और चतुर्थ चरण में चार ‘भकार’ बड़े ही भले मालूम पड़ते हैं। इन शब्दों के कारण श्लोक में शब्दालंकार-गुण आ गया है।
(2) दूसरा गुण है ‘पुनरुक्तिवदाभास’। पुनरुक्तिवदाभास उस गुण को कहते हैं जो सुनने में तो पुनरुक्ति प्रतीत हो, किन्तु पुनरुक्ति न होकर दोनों पदों के दो भिन्न-भिन्न अर्थ हों। जैसे श्लोक में ‘श्री-लक्ष्मी-इव’ यह पद आया है। सुनने में तो श्री और लक्ष्मी दोनों समान अर्थवाचक ही प्रतीत होते हैं किन्तु यहाँ श्री और लक्ष्मी का अलग-अलग अर्थ न करके ‘श्रीसे युक्त लक्ष्मी’ ऐसा अर्थ करने से सुन्दर अर्थ भी हो जाता है और साथ ही ‘पुनरुक्तिवदाभास’ गुण भी प्रकट होता है।
(3) तीसरा गुण है ‘अर्थालंकार’। अर्थालंकार उसे कहते हैं, जिसमें अर्थ के सहित उपमा का प्रकाश किया हो। जैसे श्लोक में ‘लक्ष्मीः इव’ अर्थात लक्ष्मी की तरह कहकर गंगा जी को लक्ष्मी की उपमा दी गयी है। इस कारण बड़ा ही मनोहर ‘अर्थालंकार’ है।
(4) चौथा एक और भी ‘अर्थालंकार’ गुण है, उसका नाम है ‘विरोधाभासार्थालंकार’। विरोधाभासरूपी अर्थालंकार उसे कहते हैं कि उपमा-उपमेय एक-दूसरे से बिलकुल विभिन्न गुणवाले हों, जैसे-
अम्बुजमम्बुनि जातं क्वचिदपि न जातमम्बुजादम्बु।
मुरभिदि तद्विपरीतं पादाम्भोजान्महानदी जाता।।
अर्थात जल से तो कमलों की उत्पत्ति होती हुई देखी गयी है, किन्तु कमल से जल कभी उत्पन्न नहीं हुआ है, परन्तु भगवान की लीला विचित्र ही है, उनके पाद-पद्मों से जगत्पावनी महानदी उत्पन्न हुई है। यहाँ कमल से जल की उत्पत्ति का विरोध है, किन्तु भगवान तो ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ सभी प्रकार से समर्थ हैं, इसलिये आपके श्लोक में ‘विष्णोश्चरणकमलोत्पत्तिसुभगा’ इस पद से विष्णु भगवान के चरण-कमलों से उत्पत्ति बताने से ‘विरोधाभासरूपी अर्थालंकार’ आ गया है।
(5) पाँचवाँ एक और भी ‘अनुमान’ अलंकार है। श्लोक में साध्य वस्तु गंगाजी का महत्त्व वर्णन करना है। विष्णुपादोत्पत्ति उसका साधन बताकर बड़ा चमत्कारपूर्ण अनुमानालंकार सिद्ध हो जाता है अर्थात ‘विष्णुपादोत्पत्ति वाक्य ही अनुमानालंकार है।’ इस प्रकार पाँच गुणों को बताकर निमाई पण्डित चुप हो गये। सभी अनिमेषभाव से टकट की लगाये निमाई पण्डित की ही ओर देख रहे थे, उन्होंने ये सब बातें बडत्री सरलता और निर्भीकता के साथ कहीं थीं, दिग्विजयी का कलेजा भीतर-ही-भीतर खिंच-सा रहा था, वे उदासीनभाव से गंगाजी की सीढ़ी के घाट की ओर देख रहे थे, मानो वे कह रहे हैं, यह पत्थर यहाँ से हट जाय तो मैं इसमें समा जाऊँ। निमाई पण्डित के गुण बताने पर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। जैसे किसी शास्त्री पण्डित से कह दें आप थोड़ा-सा व्याकरण भी जानते हैं, जैसे उसे इस वाक्य से कोई विशेष प्रसन्नता न होकर और दुःख ही होगा, उसी प्रकार अपने काव्य को सर्वगुणसम्पन्न समझने वाले दिग्विजयी को इन पाँच गुणों के श्रवण से प्रसन्नता की जगह दुःख ही हुआ। उन्होंने कुछ चिढ़कर कहा- ‘अच्छा, ये तो गुण हो गये, अब तुम बता सकते हो तो इसके दोषों को भी बताओ।’
यह सुनकर उसी गम्भीर वाणी से निमाई पण्डित कहने लगे- गुणों की भाँति दोष भी इसमें अनेकों निकाले जा सकते हैं, किन्तु पाँच मोटे-मोटे दोष प्रत्यक्ष ही हैं। श्लोक में दो स्थानों पर तो ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दो दोष हैं। तीसरा ‘विरुद्धमति’ दोष है, चैथा ‘भग्नक्रम’ ओर पाँचवाँ ‘पुनरुक्ति’ दोष भी है। इस प्रकार ये पाँच दोष मुख्य हैं, अब इनकी व्याख्या सुनिये।
(1) ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष उसे कहते हैं जिसमें ‘अनुवाद’ अर्थात परिज्ञात विषय आगे न लिखा जाय। ऐसा करने से अर्थ में दोष आ जाता है। आपके श्लोक का मूल विधेय है। ‘गगा जी का महत्त्व’ और ‘इदम्’ शब्द अनुवाद है। आपने ‘अनुवाद’ को पहले न कहकर सबसे पहले ‘महत्त्वं गंगायाः’ जो ‘विधेय’ है उसे ही आगे कह दिया, इससे ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष आ गया।
(2) दूसरा ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष ‘द्वितीयश्रीलक्ष्मी’ इस पद में है। यहाँ पर ‘द्वितीयत्व’ ही ‘विधेय’ है, द्वितीयशब्द ही समास में पड़ गया। समास में पड़ जाने से वह मुख्य न रहकर गौण पड़ गया। इससे शब्दार्थ क्षय हो गया अर्थात लक्ष्मी की समता प्रकाश करना ही अर्थ का मुख्य तात्पर्य था, सो द्वितीय शब्द के समास में पड़ जाने से अर्थ ही नाश हो गया।
(3) तीसरे श्लोक में ‘विरुद्धमति’ दोष है। विरुद्धमति दोष उसे कहते हैं कि कहना तो किसी के लिये चाहते हैं और अर्थ करने पर किसी दूसरे पर घटता है। आपके श्लोक में ‘भवानीभर्तु’ पद आया है, आपका अभिप्राय शंकर जी से है, किन्तु अर्थ लगाने पर महादेव जी का न लगकर किसी दूसरे का ही भास होता है। ‘भवानीभर्ता’ के शब्दार्थ हुए (भवस्य पत्नी भवानी भवान्या भर्ता- भवानीभर्ता) अर्थात शिव जी की पत्नी का पति। इससे पार्वती जी के किसी दूसरे पति का अनुमान किया जा सकता है। जैसे ‘ब्रह्मणपत्नी के स्वामी को दान दो’ इस वाक्य के सुनते ही दूसरे पति का बोध होता है। काव्य में इसे ‘विरुद्धमति’ दोष कहते हैं, यह बड़ा दोष समझा जाता है।
(4) चौथा ‘पुनरूक्ति’ दोष है। पुनरूक्ति दोष उसे कहते हैं, एक बात को बार-बार कहना- या क्रिया के समाप्त होने पर फिर से उसी बात को दुहराना। आपके श्लोक में ‘विभवति’ क्रिया देकर विषय को समाप्त कर दिया है, फिर भी क्रिया के अन्त में ‘अद्भुतगुणा’ विशेषण दकर ‘पुनरुक्तिदोष’ कर दिया गया है।
(5) पाँचवाँ ‘भग्नक्रम’ दोष है। भग्नक्रम दोष उसे कहते हैं कि दो या तीन पदों में तो कोई क्रम जारी रहे और एक पद में वह क्रम भग्न हो जाये। आपके श्लोक के प्रथम चरण में पाँच ‘तकार’ तीसरे में पाँच ‘रकार’ और चतुर्थ चरण में चार भकारों का अनुप्रास है किन्तु दूसरा चरण अनुप्रासों से रहित ही है। इससे श्लोक में ‘भग्नक्रम’ दोष आ गया।’
महामहिम निमाई पण्डित बृहस्पति के समान निर्भीक होकर धारा-प्रवाह गति से बोलते जाते थे। सभी दर्शकों के चेहरे से प्रसन्नता की किरणें निकल रही थीं। दिग्विजयी लज्जा के कारण सिर नीचा किये हुए चुपचाप बैठे थे। निमाई पण्डित का एक-एक शब्द उने हृदय में शूल की भाँति चुभता था, उससे वे मन-ही-मन व्यथित होते जाते थे, किन्तु बाहर से ऐसी चेष्टा करते थे, जिससे भीतर की व्यथा प्रकट न हो सके, किन्तु चेहरा तो अन्तःकरण का दर्पण है, उस पर तो अन्तःकरण के भावों का प्रतिबिम्ब पड़ता ही है। निमाई पण्डित के चुप हो जाने पर भी दिग्विजयी नीचा सिर किये हुए चुपचाप ही बैठे रहे, उन्होंने अपने मुख से एक भी शब्द इनके प्रतिवाद में नहीं कहा।
यह देखकर विद्यार्थी ताली पीटकर हँसने लगे। गुणग्राही निमाई पण्डित ने डाँटकर उन्हें ऐसा करने से निषेध किया। दिग्विजयी को लज्जित और खिन्न देखकर आप नम्रता के साथ कहने लगे- ‘हमने बाल-चापल्य के कारण ये बातें कह दी हैं। आप इनको कुछ बुरा न मानें। हम तो आपके शिष्य तथा पुत्र के समान हैं। अब बहुत रात्रि व्यतीत हो गयी है, आपको भी नित्यकर्म के लिये देर हो रही होगी। हमें भी अपने-अपने घर जाना है। अब आप पधारें। कल फिर दर्शन होंगे। आपके काव्य को सुनकर हम सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। रही गुण-दोष की बात, सो सृष्टि की कोई भी वस्तु दोष से ख़ाली नहीं है। गुण-दोषों के सम्मिश्रण से ही तो इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है।
कालिदास, भवभूति, जयदेव आदि महाकवियों के काव्यों में भी बहुत-से दोष देखे जाते हैं। यह तो कुछ बात नहीं है, दोष ही न हों, तो फिर गुणों के महत्त्व को कौन समझे? अच्छा तो आज्ञा दीजिये’ यह कहकर सबसे पहले निमाई पण्डित ही उठ बैठे। इनके उठते ही सभी छात्र भी एक साथ ही उठ खडे़ हुए। सर्वस्व गँवाये हुए व्यापारी की भाँति निराशा के भाव से दिग्विजयी भी उठ खडे़ हुए और धीरे-धीरे उदास-मन से अपने डेरे की ओर चले गये। इधर निमाई पण्डित नित्य की भाँति हँसते-खेलते और चौकड़ी लगाते शिष्यों के साथ अपने स्थान को चले गये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
Digvijayi’s defeat
He whose virtues are spoken of by others may become virtuous even if he is devoid of virtue.
Even Indra is lightened by the virtues he himself has proclaimed.
His Highness Nimai Pandit wanted to have a conversation with Digvijayi Pandit in private, he did not think it right to laugh at that respected and elderly Pandit in a crowded gathering. It has often been seen, in front of the people in front of the people, for the sake of protecting their honor, those who argue on a false thing also get stuck and try to prove it as truth in every possible way. Nowadays, in fact, the name of the skill of turning truth into lie and falsehood into truth is actually doing scriptures. Nimai did not want to argue with him, but wanted to tell him that there is nothing unique in the world except God. No matter how proud one may be, one will surely find someone greater than him in the world. This is the strangeness in this creation created by Lord Brahma, there is a saying-
‘Mallan kun Malla Ghanere, if there is no house then there are many outside’
That is, ‘The strong find many strong, even if they are not equal to them, many will be found outside.’ Nimai Pandit wanted to talk to Digvijayi in private to express this point. It is evening time, Kalkalnadini Bhagwati Bhagirathi is running towards the sea at her fast speed as always, as if she has no time to listen to worldly things, she is continuously engaged in her work without caring for anyone. Chirping birds of all kinds are flying through the sky to their respective nests. Sandhya Devi is crying like a widow because of Lord Bhuvanbhaskar’s departure to Astachal. His face has turned red due to grief, as if to please him, Lord Nishanath is giving coolness to the living beings by rising in the sky with his sixteen arts. Like the Vaidurya of Punyatoya Jhanvi, the reflection of the moon looks very good in the clear blue water. Many meritorious students of almost all the schools are discussing scriptures sitting very close to the water of Ganga ji. Asks each other a question, he answers it, the asker refutes it again. Ten-five students together help the one who answers, now the debate starts with those who help. In this way all are trying their best to defeat each other.
The students who are unable to debate are sitting quietly near him and are enjoying themselves just by listening to the debate. Many visitors sit huddled around, some even while standing, start watching the joy of the students’ war of words, then other students gesture them to sit. In this way, a lot of scripture criticism is happening among the students. Nimai Pandit is like Sirmaur among all these students. He is the soul of this debate, he himself conducts debates with the students and continues to encourage others as well. Other pundits are standing far away in solitude, some on the pretext of evening, some on the pretext of reciting, relishing the nectar emanating from Nimai’s mouth. Many pundits have actually stood near the students in the evening for the sake of entertainment, and sometimes even help someone in each other’s dispute. Meanwhile, Digvijayi Pandit also came to Gangaji with two-four intimate pundits.
Digvijayi had a beautiful fair complexion, well built and stout body, large beautiful arms, elevated chest and large eyes on the round face seemed very good. There was a broad dot of roli on his broad beautiful forehead, the hair of the head was half cooked, the face was revealed to be awe and scholarship, there was pride in the body; Bowed down to ji, he sat for a while after doing achaman. Then in the same way went towards the students for entertainment.
The student near Nimai told by gesture, this is the Digvijayi. Seeing Digvijayi, Nimai Pandit humbly bowed down to him and requested him to sit. At first Digvijay hesitated to sit, when everyone insisted, he sat down. Often respect and prestige are taken care of only near respectable people, those who are beyond respect and dishonor, near them respectable people, fools and scholars can come and go equally and they do not care about respect in their simple talk. Do. That’s why all the boys go away with lunatics and fools, they are not disturbed by them. The reason for the excitement is the desire of respect in the conscience. The one who has a desire for respect in his heart, he would like to go with respect to honorable people, he always remains in fear that he may not be insulted there. That’s why he will make arrangements for the best seat in advance, then he will accept to go there.
Students stay away from honor and dishonor, they do not care about honor and dishonor. Even if the student has read all the scriptures, as long as he is a student in the school, he will treat even the smallest student equally. Student-student all alike. That’s why no one is worried about the students. For this reason, on the request of the students, Mahamani Lok Renowned Digvijayi Pandit also sat near the students. Nimai Pandit spread his cloth for him. All the students became silent when Digvijay sat down happily. Everyone stopped discussing the scriptures. Laughing, Digvijayi said – ‘Brother, why have you become silent, there should be some scripture-discussion.’ Even then everyone remained silent. All the students slowly started looking towards Nimai’s face. Digvijay asked Nimai Pandit for some context – ‘In which school do you study?’ Eminent teacher is Nimai Pandit.
Expressing his happiness, Digvijay without any hesitation, turning his hand on his back said – ‘Oh! Is Nimai Pandit your name? We have heard a lot of praise from you. You are considered to be the pinnacle of grammar here. Yes, you yourself should recite a line of grammar.’ Nimai Pandit humbly with folded hands said-‘ This is the grace of teachers like you, I am not even worthy of anything. Well, what can I say in front of you, I am not even eligible to be a disciple of your disciples. You have conquered the world with your knowledge and wisdom. I have heard great praise for your poetry. This student body is getting very eager to listen to your poetry. Kindly, you yourself be pleased to recite any of your poems.
Digvijay Pandit started laughing after hearing this. Two-four students nearby said – ‘ Yes, Maharaj! Please fulfill our wishes. We all are very eager to hear your poetry. Till now Digvijayi had not got the opportunity to publish his supernatural talent and extraterrestrial poetic power in Nadia. Considering it as an opportunity to reveal it, he said with some proud pleasure – ‘You people should tell what you want to hear.’
On this, Nimai Pandit said softly- ‘Speak something of the glory of Bhagwati Bhagirathi, so that Karna can also be pure and Kavyamrit can also be relished.’ On hearing this, Digvijayi started speaking verses of the importance of Ganga ji. All the verses were new, he used to compose new verses immediately and recite them at the same time. He didn’t have to make any effort to compose a new verse, nor did he have to stop and think after a verse. As if someone has innumerable verses by heart and the way he keeps on speaking quickly, Digvijayi was reciting the verses in the same way. All the students were staring at Digvijay with awe. Great wonder-wonderful confusion was appearing on everyone’s faces, they had never seen such a learned man till date.
Understanding the feelings of the students, Digvijay used to become very happy in his heart and with double enthusiasm, he used to speak the shining and alliterating verses in a melodious voice. Not even a moment passed that he became silent after uttering more than a hundred verses. There was silence on the ghat. Ganga ji’s chirping stopped, as if Mother Ganga, who was so eager, had stopped for some time to mix it in her flow after being flown by Digvijayi’s extraterrestrial poetry. Breaking that silence Nimai Pandit said in a sweet and serious voice – ‘ Maharaj! All of us were grateful to hear your nectar-filled speech today.
We had never heard such unique poetry, nor had we ever seen an extraterrestrial poet like you. Only you can understand your poetry. What is the ability of others, who can understand such beautiful poetry as it is. That’s why we want to hear the explanation and merits and demerits of one of these shlokas.’ Digvijayi laughing with some pride said- ‘Flaws cannot be visible in Keshav’s inferior poetry. Yes, if you say explain, I will do it. Tell me which verse do you want explained’ Digvijay had told this thing only to make Nimai Pandit silent. They used to think that all my verses are new, I have been telling them in a hurry, they will not be able to tell any of them, so this matter will end here. But Nimai was also not an ordinary scholar.
If Digvijay is a poet from Bhagwati’s groom, then he is also Shrutidhar. Hastily you recited this verse with your soft voice-
The importance of Ganga is constantly evident
That this is the auspicious source of the lotus feet of Sri Vishnu.
The feet of the gods and men are worshiped like the second Sri Lakshmi.
Bhavani has wonderful qualities on her husband’s head.
Speaking of this verse, you said- ‘Tell its explanation and its merits and demerits.’ Digvijayi’s surprise knew no bounds after hearing his verse from Nimai’s mouth, his face turned pale. Everyone started looking at Nimai in a daze, as if Digvijayi’s Shree, Pratibha, Kanti and Prabha had come near Nimai. With some feigned neglect, he said- ‘You are very clever, I used to speak verses so quickly, you have memorized the verses from among them. Nimai said slowly and humbly- ‘It is all your grace, please explain the merits and demerits of this verse.’
Digvijay said- ‘This is a matter of ornamentation, you are a grammarian, what will you understand by it?’
He humbly said – ‘ Maharaj! We have not studied Alankar-Shastra properly, so we must have heard it, at least we will understand something. Then there are many students and pundits who are connoisseurs of rhetoric are sitting here, they will enjoy themselves.’ Digvijay became silent after telling the qualities of metaphor and anuprasadi. Then Nimai Pandit said with great humility- ‘If you are allowed and if you don’t think it inappropriate, then I should also tell the merits and demerits of this verse?’ In Digvijayi Pandit’s shloka, this young teacher dares to find fault, expressing artificial happiness from the inner fault, he said- ‘Well tell me, what are the merits and demerits in the shloka?’
Nimai Pandit now started explaining the verse. He said- ‘The verse is very beautiful, hundreds of merits and demerits can be removed by reciting it, but mainly it has five virtues and five defects.’ Digvijay shook his head in annoyance and said- ‘Tell me which Are there faults with it?’ Nimai said with the same simplicity – First listen to the virtues of the verse.
(1) The first quality is ‘word ornamentation’ in it. In the first phase of the verse, the line of five ‘Takaras’ has been composed very beautifully. Five ‘Rakar’ in the third phase and four ‘Bhakars’ in the fourth phase seem very good. Because of these words, the verse has got the quality of rhetoric.
(2) The second quality is ‘repetition’. Repetition is said to be that quality which appears to be repetition in hearing, but instead of repetition, both the words have two different meanings. For example, the verse ‘Shri-Lakshmi-Iva’ has come in the verse. In hearing, both Shri and Lakshmi seem to have the same meaning, but instead of giving separate meaning of Shri and Lakshmi, by saying ‘Lakshmi with Shrise’, a beautiful meaning also becomes and at the same time the quality of ‘repetition’ also appears. Is.
(3) The third quality is ‘Arthalankar’. Arthalankar is called the one in which simile has been highlighted along with meaning. For example, Ganga ji has been given the metaphor of Lakshmi by saying ‘Lakshmi: Eva’ means like Lakshmi. For this reason, ‘Arthalankar’ is very beautiful.
(4) The fourth is another ‘Arthalankar’ quality, its name is ‘Virodhabhasarthalankar’. Paradoxical connotations are called similes that have completely different qualities from each other, such as:
A lotus is born in water, but nowhere is it born from a lotus.
On the opposite side of the murabhidi a great river was born from the lotus feet of the deity
That is, lotuses have been seen to originate from water, but water has never originated from lotuses, but God’s Leela is strange, the world-spanning Mahanadi has originated from his lotus feet. Here there is opposition to the origin of water from lotus, but God is capable in all ways ‘Kartumkartumanyathakartum’, therefore in your verse ‘Vishnoshcharankamalotpattisubhaga’, by stating the origin from the lotus feet of Lord Vishnu, ‘contradictory meaning’ has come.
(5) The fifth is another ‘guess’ figure. The objective in the verse is to describe the importance of Gangaji. Describing the origin of Vishnupadotpatti as its means, a miraculous inference is proved, that is, ‘The sentence Vishnupadotpatti is an inference.’ In this way, Nimai Pandit became silent after telling the five qualities. Everyone was looking at Nimai Pandit with fixed eyes, he said all these things with great simplicity and fearlessness, Digvijayi’s heart was pulling inside, he indifferently walked down the stairs of Gangaji. They were looking towards him, as if they are saying, if this stone is removed from here, then I will get absorbed in it. He was not pleased when he was told about the qualities of Nimai Pandit. Just as if you tell a learned scholar that you know even a little bit of grammar, just as he will not be particularly happy with this sentence and will be sad, in the same way Digvijayi, who considers his poetry to be full of all qualities, instead of being happy, hearing these five qualities Sadness happened. He said with some irritation – ‘Well, these are his qualities, now if you can tell, then tell his faults also.’
Hearing this, Nimai Pandit started saying in the same serious voice – Like qualities, many defects can also be removed in it, but five major defects are evident. At two places in the verse, there are two defects ‘Avimrishta-Vidheyansh’. The third is ‘Virudhamati’ dosha, the fourth is ‘Bhagnakram’ and the fifth is ‘Punarukti’ dosha. In this way, these five defects are main, now listen to their explanation.
(1) ‘Missing-predicate’ defect is called that in which ‘translation’ means the known subject is not written further. By doing this, there is a defect in the meaning. The core of your stanza is the predicate. The words ‘Gaga ji’s importance’ and ‘Idam’ are translations. Instead of saying ‘Anuvad’ first, you first said ‘Mahatvam Gangayah’ which is ‘Predicate’, due to which the fault of ‘Avimrishta-Predicate’ came.
(2) The second ‘Avimrishta-Vidheyaansh’ defect ‘Dwitiyasreelakshmi’ is in this verse. Here ‘secondity’ is the ‘predicate’, the second word itself has got mixed up. Due to falling in Samas, he became secondary instead of being main. Due to this, the meaning of the word was destroyed, that is, the main meaning of the meaning was to illuminate the equality of Lakshmi, so the meaning itself was destroyed when the second word got mixed up.
(3) In the third verse, there is a defect of ‘contrary mind’. Virudhumati Dosha is said to mean that it is said for someone and when it is meant, it happens to someone else. The word ‘Bhavanibhartu’ has come in your verse, you mean Shankar ji, but on applying the meaning, it seems to be someone else instead of Mahadev ji. The meaning of ‘Bhavani Bharta’ is (भावस्य पत्नि भवानी भवण्या भर्ता-भवानिभर्ता) means the husband of Lord Shiva’s wife. From this, any other husband of Parvati ji can be estimated. For example, on hearing this sentence ‘Donate to the owner of a Brahmin wife’, the other husband is understood. In poetry it is called ‘Virudhamati’ defect, it is considered a big defect.
(4) The fourth ‘repetition’ is the fault. Repetition defect is called saying one thing again and again – or repeating the same thing again after the action is over. In your verse, the subject has been ended by giving the verb ‘vibhavati’, yet at the end of the verb, the adjective ‘adbhutaguna’ has been made ‘punaruktidosh’.
(5) The fifth ‘fractal’ defect is. Bhagnakram defect is said to be that a sequence continues in two or three terms and that sequence becomes fragmented in one term. In the first phase of your verse, there are five ‘Takar’, five ‘Rakar’ in the third and four Bhakars in the fourth phase, but the second phase is without alliteration. Due to this, ‘fractal’ defect came in the verse.
His Highness Nimai Pandit used to speak fluently, fearlessly like Brihaspati. Rays of happiness were emanating from the faces of all the spectators. Digvijay was sitting silently with his head down due to shame. Each and every word of Nimai Pandit used to pierce his heart like a prong, due to which he used to get upset inside, but he used to try from outside, so that the inner pain could not be revealed, but the face was of the inner heart. It is a mirror, on which the reflection of the feelings of the heart is bound to fall. Even after Nimai Pandit became silent, Digvijay remained silent with his head lowered, he did not utter a single word in his protest.
Seeing this, the students started laughing by clapping. Nimai Pandit scolded and forbade him from doing so. Seeing Digvijayi ashamed and upset, you humbly said – ‘ We have said these things because of childishness. Don’t consider them bad. We are like your disciple and son. Now a lot of night has passed, you too must be getting late for routine. We also have to go to our respective homes. You come now Will see you again tomorrow. We all felt very happy listening to your poetry. As for the merits and demerits, nothing in the universe is free from faults. This creation has originated from the combination of virtues and vices.
Many faults are also seen in the poems of great poets like Kalidas, Bhavabhuti, Jaydev etc. This is not a matter, if there are no faults, then who can understand the importance of virtues? Well, at least give orders. Saying this, Nimai Pandit was the first to get up. As soon as he got up, all the students also stood up together. Like a merchant who had lost everything, Digvijay also got up with a feeling of despair and slowly went towards his camp with a sad heart. Here Nimai Pandit went to his place with his disciples laughing and playing like usual.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]