।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
पूर्व बंगाल की यात्रा
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।
विधि के विधान को कोई ठीक-ठीक समझ नहीं सकता। जिसके पास प्रचुर परिणाम में भोज्य-पदार्थ हैं, उसे पाचनशक्ति नहीं। जिसकी पाचनशक्ति ठीक है, उसे यथेष्ठ भोज्य-पदार्थ नहीं मिलते। विद्वानों के पास धन का अभाव है, जिनमें विद्या-बुद्धि नहीं उनके पास आवश्यकता से अधिक अर्थ भरा पड़ा है। जहाँ धन है वहाँ सन्तान नहीं, जहाँ बहुत सन्तान है। वहाँ भोजन के लाले पड़े हुए हैं। इसी बात से तो खीजकर किसी कवि ने ब्रह्मा जी को बुरा-भला कहा है। वे कहते हैं-
गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाकारि पुष्पं खलु चन्दनेषु।
विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुःपुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत।।
कवि की दृष्टि में ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने में बड़ी भारीभूल की है। देखिये सुवर्ण कितना सुन्दर है, उसमें यदि सुगन्ध होती तो फिर उसकी उत्तमता का कहना ही क्या था। ईख के डंडे में जब इतनी मिठास है, तब यदि उसके ऊपर कहीं फल लगता तो वह कितना स्वादिष्ट होता? ब्रह्मा जी उस पर फल लगाना ही भूल गये। चन्दन की लकड़ी में जब इतनी सुगन्ध है, तो उस पर कहीं फूल लगता होता तो उसके बराबर उत्तम फूल संसार में और कौन हो सकता? सो ब्रह्मा जी को उस पर फूल लगाने का ध्यान ही न रहा। विद्वान लोग बिना रूपये-पैसे के ही आकाश-पाताल एक कर देते हैं, यदि उनके पास कहीं धन होता तो इस सृष्टि की सभी विषमता को दूर कर देते, सो उन्हें दरिद्री ही बना दिया, साथ ही उनकी आयु भी थोड़ी बनायी। इन सब बातों को सोचकर कवि कहता है कि इसमें बेचारे ब्रह्मा जी का कुछ दोष नहीं है, मालूम पड़ता है, सृष्टि करते समय ब्रह्मा जी को कोई योग्य सलाह देने वाला चतुर मन्त्री नहीं मिला।
इसीलिये जल्दी में ऐसी गड़बड़ी हो गयी। मन्त्री के अभाव में हुई हो अथवा उन्होंने जान-बुझकर की हो, यह गलती तो ब्रह्मा जी से जरूर ही हो गयी कि उन्होंने विद्वानों को निर्धन ही बनाया। विद्वानों को प्रायः धन के लिये सदा परमुखापेक्षी ही बनना पड़ता है। किसी ने तो यहाँ तक कह डाला है ‘अनाश्रया न शोभन्ते पण्डिता वनिता लताः’ अर्थात पण्डित, स्त्री और बेल बिना आश्रय के भले ही नहीं मालूम पड़ते। बेचारे पण्डितों को वनिता-लता के साथ समानता करके उनकी व्यथा को और भी बढ़ा दिया है। जिस समय की हम बातें कह रहे हैं, उस समय संस्कृत-विद्या की आज की भाँति दुर्गति नहीं थी।
भारतवर्षभर में संस्कृत-विद्या का प्रचार था। बिना संस्कृत पढे़ कोई भी मनुष्य सभ्य कहला ही नहीं सकता था। बंगाल में ब्राह्मण ही संस्कृत-विद्या के पण्डित नहीं थे, किन्तु कायस्थ, वैश्य तथा अन्य जाति के कुलीन पुरुष भी संस्कृत-विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। उस समय पण्डितों की दो ही वृत्तियाँ थीं, या तो वे पठन-पाठन करके अपना निर्वाह करें या किसी राजसभा का आश्रय लें। पण्डित सदा से ही दरिद्र होते चले आये पूर्व बंगाल की यात्रा हैं, इसका कारण एक कवि ने बहुत ही सुन्दर सुझाया है। उसने एक इतिहास बताते हुए कहा है कि ब्रह्मा जी के सुकृति (लक्ष्मी) और दुष्कृति (दरिद्रता) दो कन्याएँ थीं। सुकृति बड़ी थी, इसलिये विवाह के योग्य हो जाने पर ब्रह्मा जी ने उसे बिना ही सोचे-समझे मूर्ख को दे डाला। मूर्ख के यहाँ उसकी दुर्गति देखकर ब्रह्मा जी को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। तभी से वे दूसरी पुत्री दुष्कृति के लिये अच्छा-सा वर खोज रहे हैं, जिसे भी विद्वान, कुलीन और सर्वगुणसम्पन्न देखते हैं उसे ही दरिद्रता को दे डालते हैं।
निमाई पण्डित विद्वान थे, गुणवान थे, रूपवान और तेजवान भी थे, भला ऐसे योग्य वर को ब्रह्मा जी कैसे छोड़ सकते थे? उनके यहाँ भी दरिद्रता का साम्राज्य था, किन्तु वह निमाई पण्डित को तनिक व्यथा नहीं पहुँचा सकती। उनके सामने सदा हाथ बाँधे दूर ही खड़ी रहती थी। निमाई उसकी जरा भी परवा नहीं करते थे। उन दिनों योग्य और नामी पण्डित देश-विदेशों में अपने योग्य छात्रों के साथ भ्रमण करते थे, सद्गृहस्थ उनकी धन, वस्त्र और खाद्य-पदार्थों के द्वारा पूजा करते थे। आज की भाँति पण्डितों की उपेक्षा कोई भी नहीं करता था। निमाई की भी पूर्व बंगाल में भ्रमण करने की इच्छा हुई। उन्होंने अपनी माता की अनुमति से अपने कुछ योग्य छात्रों के साथपूर्व बंगाल की यात्रा की। उस समय लक्ष्मी देवी को अपने पितृगृह में रख गये थे। श्रीगंगा जी को पार करके निमाई पण्डित अपने शिष्यों के साथ पद्मा नदी के तट पर राढ़-देश में पहुँचे।
बंगाल में भगवती भागीरथी की दो धाराएँ हो जाती हैं। गंगा जी की मूल शाखा पूर्व की ओर जाकर जो बंगाल के उपसागर में मिली है, उसका नाम तो पद्मावती है। दूसरी जो नवद्वीप होकर गंगा सागर में जाकर समुद्र से मिली है उसे भागीरथी गंगा कहते हैं। ब्रह्मपुत्र नदी के ओर दक्षिण-तट से लेकर पद्मा नदी पर्यन्त के देश को राढ़-देश कहते हैं। पहले ‘बंगाल’ इसे ही कहते थे।
उत्तर-तट को गौड़ देश कहते थे और दक्षिण-तट को बंगाल या राढ़ के नाम से पुकारते थे। आज जिसे पूर्व बंगाल कहते हैं, यथा-
रत्नाकरं समारभ्य ब्रह्मपुत्रान्तगं शिवे।
बंगदेशो मया प्रोक्तः सर्वसिद्धिप्रदर्शकः।।
गौड़-देश वालों से बंग-देश वालों का आचार-विचार भी कुछ-कुछ भिन्न था और अब भी है। निमाई पण्डित ने पद्मा के किनारे-किनारे पूर्व बंगाल के बहुत-से स्थानों में भ्रमण किया। जो भी लोग इनका आगमन सुनते वे ही यथाशक्ति भेंट लेकर इनके पास आते। वहाँ के विद्यार्थी कहते- ‘हम बहुत दिनों से आपकी प्रशंसा सुन रहे थे। आपकी लिखी हुई व्याकरण की टिप्पणी बड़ी ही सुन्दर है। हमें अपने पाठ में उससे बहुत सहायता मिलती है।’ कोई कहते- ‘आपकी पद-धूलि से यह देश पावन बन गया, आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य की हम प्रशंसा ही मात्र सुनते थे। आपके गुणों की कौन प्रशंसा कर सकता है?’ इस प्रकार लोग भाँति-भाँति से इनकी प्रशंसा और पूजा करने लगे। इनके साथियों को भय था कि पण्डित जी यहाँ भी नवद्वीप की भाँति चंचलता करेंगे तो सब गुड़ गोबर हो जायगा, किन्तु ये स्वयं देशकाल को समझकर बर्ताव करने वाले थे।
कई मास तक ये पूर्व बंगाल में भ्रमण करते रहे, किन्तु वहाँ इन्होंने एक दिन भी चंचलता नहीं की। एक योग्य गम्भीर पण्डित की भाँति ये सदा बने रहते थे। इनसे जो जिस विषय का प्रश्न पूछता उसे उसी के प्रश्न के अनुसार यथावत उत्तर देते। यहाँ इन्होंने वैष्णवों की आलोचना नहीं की, किन्तु उलटा भगवद्भक्ति का सर्वत्र प्रचार किया। इन्होंने लोगों के पूछने पर भगवन्नाम का माहात्म्य बताया, भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध की और कलियुग में भक्ति-मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ, सुलभ और सर्वोपयोगी बताया। किन्तु ये बातें इन्होंने एक विद्वान पण्डित की ही हैसियत से कही थीं, जैसे विद्वानों से जो भी प्रश्न करो उसी का शास्त्रानुसार उत्तर दे देंगे। भक्ति का असली स्त्रोत तो इनका अभी अव्यक्तरूप से छिपा ही हुआ था। उसे प्रवाहित होने में अभी देरी थी। फिर भी इनके पाण्डित्यपूर्ण उत्तरों से राढ़-देशवासी श्रद्धालु मनुष्यों को बहुत लाभ हुआ।
वे भगवन्नाम और भक्ति के महत्त्व को समझ गये, उनके हृदय में भक्ति का एक नया अंकुर उत्पन्न हो गया, जिसे पीछे से गौरांग की आज्ञानुसार नित्यानन्द प्रभु ने प्रेम से सींचकर पुष्पित, पल्लवित, फलान्वित बनाया। इस प्रकार ये शास्त्रीय उपदेश करते हुए राढ़-देश के मुख्य-मुख्य स्थानों में घूमने लगे। शाम को अपने साथियों को लेकर ये पद्मों में स्नान करते और घण्टों एकान्त में जलविहार करते रहते। लोग बड़े सत्कार से इन्हें खाने-पीने की सामग्री देते। इनके साथी अपना भोजन स्वयं ही बनाते थे। इस प्रकार इनकी यात्रा के दिन आनन्द से कटने लगे।
एक दिन महामहिम निमाई पण्डित एकान्त स्थान में बैठे हुए थे। उसी समय एक तेजस्वी ब्राह्मण उनके समीप आया। ब्राह्मण के चेहरे से उसकी नम्रता, शीलता, पवित्रता ओर प्रभु-प्राप्ति के लिये विकलता प्रकट हो रही थी। ब्राह्मण अपनी वाणी से निरन्तर भगवान के सुमधुर नामों का उच्चारण कर रहा था। उसने आते ही इनके चरण पकड़ लिये और फूट-फूटकर रोने लगा। इन्होंने उस ब्राह्मण को उठाकर गले से लगाया और अपना कोमल कर उसके अंग पर फेरते हुए बोले- ‘आप यह क्या कर रहे हैं, आप तो हमारे पूज्य हैं, हम तो अभी बालक हैं। आप स्वयं हमारे पूजनीय हैं।’ ब्राह्मण इनके पैरों को पकड़े हुए निरन्तर रुदन कर रहा था, वह कुछ सुनता ही नहीं था, बस, हिचकियाँ भर-भरकर जोरों से रोता ही था।
प्रभु ने आश्वासन देते हुए कहा- ‘बात तो बताओ, इस प्रकार रुदन क्यों कर रहे हों तुम पर क्या विपत्ति है, मंगलमय भगवान तुम्हारा सब भला ही करेंगे, मुझे अपने दुःख का कारण बताओ।’ प्रभु के इस प्रकार बहुत आश्वासन देने पर ब्राह्मण ने कहा- ‘प्रभो! मैं बड़ा ही अधम और साधन शून्य दीन-हीन ब्राह्मण-बन्धु हूँ। अभी तक इस संसार में मनुष्य का साध्य क्या है, उस तक पहुँचने का असली साधन कौन-सा है, इस बात को नहीं समझ सका हूँ। मैं सदा इसी चिन्ता में मग्न रहा करता था कि साध्य-साधन का निर्णय कैसे हो, भगवान से नित्य प्रार्थना किया करता था कि- ‘भगवन! मैं तुम्हारी स्तुति-प्रार्थना कुछ नहीं जानता। आपको कैसे पुकारा जाता है, यह बात भी नहीं जानता। इस दीन-हीन कंगाल को आप स्वयं ही किसी प्रकार साध्य-साधन का तत्त्व समझा दीजिये।’
अन्तर्यामी भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। कल रात में मैं सो रहा था। स्वप्न में एक महापुरुष ने आकर मुझसे कहा- ‘पूर्व बंगाल में जो आजकल निमाई पण्डित भ्रमण कर रहे हैं उन्हें तुम साधारण पण्डित ही न समझो, वे साक्षात नारायणस्वरूप हैं, उन्हीं के पास तुम चले जाओ, वे ही तुम्हारी शंका का समाधान करके तुम्हें साध्य-साधन का मर्म समझावेंगे।’ बस, आँख खुलते ही मैं इधर चला आया हूँ। आज मेरा जीवन सफल हुआ, मैं श्रीचरणों के दर्शन करके कृतकृत्य हो गया। प्रभु तनिक मुसकराये और फिर धीरे-धीरे तपन मिश्र से कहने लगे- ‘महाभाग! आपके ऊपर श्रीकृष्ण भगवान की बड़ी कृपा है। आपकी अन्तरात्मा अत्यन्त पवित्र है, इसीलिये आप सभी में भगवद्भावना करते हैं। मनुष्य जैसी भावना किया करता है, वैसे ही रात्रि में स्वप्न देखता है। आप इस बात को सत्य समझें और किसी के सामने प्रकाशित न करें।’
तपन मिश्र ने हाथ जोड़कर कहा- ‘प्रभो! मुझे भुलाइये नहीं। अब तो मैं सर्वतोभावेन आपकी शरण में आ गया हूँ। जैसे भी उचित समझें मुझे अपनाइये ओर मेरी शंका का समाधान कीजिये।’ प्रभु ने हँसते हुए पूछा- ‘अच्छा, तुम क्या पूछना चाहते हो? तुम्हारी शंका क्या है?’ दीनभाव से तपन मिश्र ने कहा- ‘प्रभो! इस कलिकाल में प्राचीन साधन जो शास्त्रों में सुने जाते हैं, उनका होना तो असम्भव है। समयानुसार कोई सरल, सुन्दर और सर्वश्रेष्ठ साधन बताइये ओर किसको साध्य मानकर उस साधन को करें।’ प्रभु थोड़ी देर चुप रहे, फिर बड़े ही प्रेम के साथ मिश्र से बोले- ‘विप्रवर! प्रभु-प्राप्ति ही मनुष्य का मुख्य साध्य है। उसकी प्राप्ति के लिये प्रत्येक युग में अलग-अलग साधन होते हैं। सत्ययुग में ध्यान ही मुख्य साधन समझा जाता था, त्रेता में बड़े-बड़े़ यज्ञों के द्वारा उस यज्ञ पुरुष भगवान की अर्चना की जाती थी, द्वापर में पूजा-अर्चा के द्वारा प्रभु-प्रसन्नता समझी जाती थी, किन्तु इस कलियुग में तो केवल केशव-कीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ साधन बताया जाता है। जो फल अन्य युगों में उन-उन साधनों से हाते थे वही फल कलियुग में भगवन्नाम-स्मरण से होता है। यथा-
कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्।।
बस, सब साधनों को छोड़कर हरि-नाम का ही आश्रय पकड़ना चाहिये। भगवान व्यासदेव तीन बार प्रतिज्ञा करके कहते हैं-
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।
अर्थात कलियुग में केवल हरि का ही नाम सार है। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कलियुग में हरि नाम को छोड़कर दूसरी गति नहीं है, नहीं है, नहीं है। लोग हरिनाम का माहात्म्य समझकर ही संसार में भाँति-भाँति की यातनाएँ सह रहे हैं। जो भगवन्नाम की महिमा समझ लेगा, फिर उसे भव-बाधाएँ व्यथा पहुँचा ही नहीं सकतीं।
मैं तुम्हें सार-से-सार बात, गुह्य-से-गुह्य साधन बताये देता हूँ। इसे खूब यत्नपूर्वक स्मरण रखना और इसे ही अपने जीवन का मूलमन्त्र समझना-
संसारसर्पदंष्टानामेकमेव सुभेषजम्।
सर्वदा सर्वकालेषु सर्वत्र हरिचिन्तनम्।।
अर्थात् संसाररूपी सर्प के काटे हुए मनुष्य के लिये एक ही सर्वोत्तम ओषधि है, वह यह कि हर समय, हर काल में और हर स्थान में निरन्तर हरिस्मरण ही करते रहना चाहिये। बस, मुख्य साधन यह है-
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
‘ये सोलह नाम और बत्तीस अक्षरों का मन्त्र ही मुख्य साधन है। साध्य के चक्कर में अभी से मत पड़ो। इसका जप करते-करते साध्य का निर्णय स्वयं ही हो जायगा।’ प्रभु के मुख से साधन का गुह्य रहस्य सुनकर मिश्र जी को बड़ा ही आनन्द हुआ। आनन्द के कारण उनकी आँखों में से अश्रुधारा बहने लगी। उन्होंने रोते-रोते प्रभु के चरण पकड़कर प्रार्थना की- ‘प्रभो! आपकी असीम अनुकम्पा से आज मेरे सभी संशयों का मूलोच्छेदन हो गया। अब मुझे कोई भी शंका नहीं रही। अब मेरी यही अन्तिम प्रार्थना है कि मुझे श्रीचरणों से पृथक न कीजिये। सदा चरणों के ही समीप बना रहूँ, ऐसी आज्ञा प्रदान कीजिये।’ प्रभु ने कहा- ‘अब काशी जाकर निवास कीजिये। कालान्तर में हम भी काशी जी आवेंगे तभी आपसे भेंट होगी। आपको वहीं शिवपुरी में जाकर रहना चाहिये।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके तपन मिश्र काशी जी को चले गये ओर इधर प्रभु अब घर लौटने की तैयारियाँ करने लगे।
क्रमशः अगला पोस्ट [27]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
trip to east bengal
Being a scholar and being a king are never equal.
A king is worshiped in his own country and a learned man is worshiped everywhere.
No one can understand the rule of law properly. The one who has food in abundance, does not have digestive power. One who has good digestion power does not get enough food items. Scholars lack money, those who do not have knowledge and intelligence, they have more meaning than necessary. Where there is wealth there are no children, where there are many children. There are food stalls lying there. Irritated by this very thing, some poet has called Brahma ji bad. They say-
Fragrance is in gold, fruit in sugarcane stalks, no flower in sandalwood.
Learned, rich, but not long-lived, no one in the past gave wisdom to the metal.
In the view of the poet, Brahma ji has made a big mistake in creating the universe. Look how beautiful gold is, if it had fragrance, then what could be said about its excellence. When there is so much sweetness in the reed stick, then how delicious it would be if there was some fruit on it? Brahma ji forgot to put fruit on it. When there is so much fragrance in the sandalwood, if flowers grow on it, then who else in the world can be the best flower? So Brahma ji didn’t care to put flowers on it. Scholars unite heaven and hell without money, if they had money somewhere, they would have removed all the disparity in this world, so they made them poor, and also made their life short. Thinking about all these things, the poet says that there is no fault of poor Brahma ji in this, it seems that Brahma ji could not find any clever minister to give suitable advice while creating the universe.
That’s why such a mess happened in a hurry. Whether it was due to the absence of a minister or he did it deliberately, this mistake was definitely made by Brahma ji that he made the scholars poor. Scholars often always have to be super-oriented for money. Someone has even said ‘Anashraya na shobhante pandita vanita lataah’ which means that a scholar, a woman and a vine do not seem good without shelter. By equating the poor pundits with Vanita-Lata, their agony has increased even more. The time we are talking about, at that time there was no degradation of Sanskrit learning like it is today.
There was promotion of Sanskrit-lore throughout India. No human being could be called civilized without studying Sanskrit. In Bengal, it was not only the Brahmins who were learned in Sanskrit, but the elite men of Kayastha, Vaishya and other castes were also well versed in Sanskrit. At that time, the pundits had only two instincts, either they should make their living by studying or take shelter of a royal assembly. Pandits have always been poor and have been traveling to East Bengal, the reason for this has been suggested very beautifully by a poet. He has told a history that Brahma ji had two daughters Sukriti (Lakshmi) and Duskriti (poverty). Sukriti was big, so on becoming eligible for marriage, Brahma ji gave her to a fool without thinking. Seeing his plight in the place of a fool, Brahma ji repented a lot. Since then, they are searching for a good husband for the second daughter, Duskriti, whosoever they see as learned, noble and full of all virtues, they give them to poverty.
Nimai Pandit was learned, virtuous, beautiful and bright, how could Brahma ji leave such a worthy groom? There was a kingdom of poverty in his place too, but it could not cause any pain to Nimai Pandit. She always used to stand at a distance in front of him with folded hands. Nimai didn’t care for him at all. In those days qualified and famous pundits used to travel in country and abroad with their qualified students, good householders used to worship them with money, clothes and food items. No one used to ignore the pundits like today. Nimai also had a desire to travel in East Bengal. With the permission of his mother, he traveled to East Bengal with some of his ablest students. At that time, Lakshmi Devi was kept in her ancestral house. After crossing Shriganga ji, Nimai Pandit along with his disciples reached Raad-Desh on the banks of river Padma.
Bhagwati Bhagirathi becomes two streams in Bengal. The original branch of Ganga ji going towards the east and found in the Bay of Bengal, its name is Padmavati. The other one which after going to Navadweep and joining the Ganges Sea is called Bhagirathi Ganga. The country from the south-coast towards the river Brahmaputra till the river Padma is called Raad-desh. Earlier it was called ‘Bengal’.
The north-coast was called Gaur Desh and the south-coast was called Bengal or Raad. Today what is called East Bengal, as-
O auspicious one beginning with Ratnakara and ending with the son of Brahma
I have described the country of Bengal as the demonstrator of all perfections
The ethics and thoughts of the people of Banga were also somewhat different from the people of Gaur country and even now. Nimai Pandit traveled along the banks of the Padma to many places in East Bengal. Whoever heard of his arrival would come to him with whatever gifts he could. The students there used to say- ‘ We were listening to your praise for many days. Your grammar comment is very beautiful. We get a lot of help from him in our lessons.’ Some say- ‘This country became pure by the dust of your feet, we used to hear only the praise of your great scholarship. Who can praise your qualities?’ Thus people started praising and worshiping him in many ways. His colleagues were afraid that if Pandit ji behaves like in Navadweep here too, then everything will turn into dung, but he himself was going to behave considering the time of the country.
For several months he kept on traveling in East Bengal, but there he did not fidget even for a day. He always remained like a qualified serious scholar. Whoever asked him a question about any subject, he would have answered it according to that question. Here he did not criticize the Vaishnavas, but on the contrary propagated Bhagavad Bhakti everywhere. On the question of the people, he told the greatness of the name of God, proved the superiority of devotion and told the path of devotion to be the best, accessible and all-useful in Kaliyuga. But he had said these things only in the capacity of a learned scholar, as if you ask any question to the learned scholars, they will answer the same according to the scriptures. The real source of devotion was still hidden in its unmanifested form. It was too late to flow. Nevertheless, his learned answers greatly benefited the devout people of Raad-country.
He understood the importance of God’s name and devotion, a new sprout of devotion was born in his heart, which Nityananda Prabhu watered with love from behind and made it blossom, flourish, flourish, as per Gaurang’s order. In this way, while preaching the scriptures, Raad started roaming in the main places of the country. In the evening, along with his companions, he used to bathe in lotus and spend hours in solitude. People would give them food and drink with great hospitality. His companions used to cook their own food. In this way the days of their journey started passing happily.
One day His Highness Nimai Pandit was sitting in a lonely place. At the same time a Tejasvi Brahmin came near him. The Brahmin’s face was showing his humility, modesty, purity and yearning for the attainment of God. The Brahmin was continuously chanting the melodious names of the Lord with his voice. As soon as he came, he held his feet and started crying bitterly. He picked up that Brahmin and hugged him and while turning his soft hand on his part said – ‘ What are you doing, you are our worshiper, we are still a child. You yourself are our worshipper.’ The Brahmin was crying continuously holding his feet, he did not listen to anything, just kept crying loudly with hiccups.
The Lord said assuring- ‘Tell me, why are you crying like this, what is your calamity, auspicious God will do all good for you, tell me the reason for your sorrow.’ Said – ‘ Lord! I am very lowly and resourceless Brahmin-brother. Till now, I have not been able to understand what is the goal of man in this world, what is the real means to reach it. I used to always be engrossed in this concern that how to decide the end-means, used to pray to God daily that- ‘ God! I don’t know anything about your praise and prayer. I don’t even know how you are called. You yourself somehow explain the principle of means and ends to this destitute pauper.’
The inner God heard my prayer. Last night I was sleeping. A great man came in a dream and said to me- ‘Don’t consider Nimai Pandit, who is currently traveling in East Bengal, as an ordinary Pandit, he is Narayan Swarup in person, go to him only, he will solve your doubts and give you success. Will explain the meaning of the instrument.’ That’s all, I came here as soon as I opened my eyes. Today my life was successful, I became grateful after having darshan of the holy feet. Prabhu smiled for a while and then slowly started saying to Tapan Mishra – ‘Great part! You are greatly blessed by Lord Krishna. Your conscience is very pure, that’s why you feel God in everyone. As a man feels, so does he dream in the night. You should consider this to be true and do not publish it in front of anyone.
Tapan Mishra folded hands and said – ‘Lord! Don’t forget me Now I have completely come under your shelter. Adopt me as you think fit and solve my doubts.’ The Lord smilingly asked – ‘Well, what do you want to ask? What is your doubt?’ Tapan Mishra said humbly – ‘Lord! In this Kalikal, it is impossible to have the ancient means which are heard in the scriptures. According to the time, tell some simple, beautiful and best means and considering which one is feasible, do that means.’ The Lord remained silent for a while, then spoke to Mishra with great love – ‘Vipravar! God-attainment is the main goal of man. There are different means in each era to achieve it. In Satyayuga, meditation was considered to be the main means, in Tretayuga, that Yagya Purush God was worshiped through big yagyas, in Dwaparyuga, by worshiping, the Lord’s pleasure was understood, but in this Kaliyuga, only Keshav- Kirtan is said to be the best means. The fruits that used to be obtained by those means in other ages, the same result is obtained by remembering the name of God in Kaliyuga. as-
That which is done by meditating on Vishnu and performing sacrifices in Treta.
By chanting the name of Hari in the age of Kali in the service of Dvapara
Simply, leaving all means, one should take shelter of Hari-Naam only. Lord Vyasadeva vows thrice and says-
The name of Hari, the name of Hari, the name of Hari alone.
In Kali there is no movement otherwise.
That is, only Hari’s name is the essence in Kaliyuga. I promise that in Kaliyuga, there is no other movement other than the name of Hari, no, no. People are tolerating different types of tortures in the world only by understanding the greatness of Harinam. The one who understands the glory of the Lord’s name, then the obstacles of life cannot hurt him.
I tell you the essence and the essence, the most secret means. Remember this very diligently and consider this as the basic mantra of your life.
The only good remedy for those bitten by the snakes of this world.
Always at all times and everywhere thinking of Hari.
That is, there is only one best medicine for a man who has been bitten by the snake of the world, and that is, at all times, at all times and at every place, one should keep remembering Harisman continuously. Simply, the main means is-
Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare.
Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.
‘ These sixteen names and thirty two syllables mantra are the main means. Don’t get bogged down by the achievement from now on. By chanting this, the end will be decided by itself.’ Mishra ji was overjoyed to hear the secret of means from the mouth of the Lord. Because of joy, tears started flowing from his eyes. He cried holding the feet of the Lord and prayed – ‘Lord! Today all my doubts were cleared by your infinite kindness. Now I don’t have any doubts. Now this is my last request that do not separate me from the holy feet. Order me to always remain near your feet.’ The Lord said – ‘Now go and live in Kashi. In course of time, we will also come to Kashi ji, only then will we meet you. You should go and live there in Shivpuri.’ After obeying the Lord, Tapan Mishra went to Kashi ji and here the Lord started making preparations to return home.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]