।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
राय रामानन्द से साधन-सम्बन्धी प्रश्न
सञ्चार्य रामाभिधभक्तमेघे
स्वभक्तिसिद्धान्तचयामृतानि
गौराब्धिरेतैरमुना वितीर्णै –
स्तञ्ज्ञत्वरत्नालयतां प्रयाति।।
दोनों ही पागल हों, दोनों की दृष्टि में संसारी पदार्थ निस्सार हों, दोनों ही किसी एक ही मार्ग के पथिक हों और फिर उन दोनों का एकान्त में समागम हो, तो फिर उस आनन्द का तो कहना ही क्या? उसे ही अनिर्वचनीय आनन्द कहते हैं। उस आनन्द-रस का आस्वादन करना सब किसी के भाग्य में नहीं बदा है, जिसके ऊपर उनकी कृपा हो वही इस आनन्द का अधिकारी हो सकता है। राय रामानन्द जी के मुख से परम साध्यतत्त्व की बात सुनकर कहने लगा- ‘राय महाशय ! आपकी असीम अनुकम्पा से मैंने परम साध्यतत्त्व जान लिया। अब यह बताइये कि उसकी उपलब्धि कैसे हो? बिना साधन जाने हुए साध्य का ज्ञान व्यर्थ है, इसलिये जिस प्रकार इस महाभाव की प्राप्ति हो सके कृपा करके उस उपाय को और बताइये ?’ राय महाशय ने अत्यन्त ही अधीरता के साथ कहा- ‘प्रभो ! आप सर्वसमर्थ हैं। मैं संसारी पंक में फंसा हुआ विषयी जीव भला साध्य-साधन-तत्त्व को समझ ही क्या सकता हूँ? किन्तु आप अपने भावों को मेरे ही द्वारा प्रकट कराना चाहते हैं, तो आपकी इच्छा के विरुद्ध कर ही कौन सकता है। इसलिये आप मेरे हृदय में जो प्ररेणा करते जायंगे मैं वही कहता जाऊँगा।’
प्रभो ! श्रीराधिका जी का प्रेम सामान्य नहीं है। संसारी सुखों में आनन्द का अनुभव करने वाले पुरुष तो इसके श्रवण के भी अधिकारी नहीं हैं, इसलिये इसे परम गोप्य कहा गया है। इसे तो व्रज की गोपिकाएँ ही जान सकती हैं। गोपिकाएँ के अतिरिक्त किसी दूसरे का रस में प्रवेश नहीं। गोपिकाएँ इन्द्रिय-सुख की अभिलाषिणी नहीं, उन्हें तो श्रीराधिका के साथ कुंज में केलि करते हुए श्रीकृष्ण की वह कमनीय प्रेमलीला ही अत्यन्त प्रिय है। अपने लिये वे कुछ नहीं चाहती, उनकी सम्पूर्ण इच्छाएँ, सम्पूर्ण भावनाएँ, सम्पूर्ण चेष्टाएँ और मन, वाणी तथा इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाएं उन प्यारी-प्यारे के विहार के ही निमित्त होती हैं। जो उस अनिर्वचनीय रस का आस्वादन करना चाहते हैं, उन्हें अपनी सम्पूर्ण भावनाएं इसी प्रकार त्यागमय और नि:स्वार्थ बना लेनी चाहिये। गोपीभाव को धारण किये बिना कोई उस आनन्दामृत का पान ही नहीं कर सकता। गोपियों के प्रेम में सांसारिकता नहीं है। वह विशुद्ध है, निर्मल है, वासनारहित और इच्छारहित है। गोपियों के विशुद्ध प्रेम का ही नाम ‘काम’ है। इस संसारी ‘काम’ को ‘काम’ नहीं कहते। उस दिव्य प्रेमभाव का ही नाम यथार्थ में काम है, जिसकी इच्छा उद्धव आदि भक्तगण भी निरन्तर रुप से किया करते हैं।
कोई चाहे कि जप से, तप से वेदाभ्यास अथवा यज्ञ-यागद्वारा हम उस रससागर में प्रविष्ट होने के अधिकारी बन जायँगे तो यह उनकी भूल है। उस अमृतरुपी महासागर के समीप पहुँचने के लिये तो भक्ति ही एकमात्र साधन हैं, जैसा कि भगवान व्यासदेव ने कहा है-
नायं सुखापो भगवान देहिनां गोपिकासुत:।
ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह।।[1]
अर्थात ‘नन्दनन्दन’ भगवान वासुदेव जिस प्रकार भक्त को भक्ति से सहज में प्राप्त हो सकते हैं, उस प्रकार देहाभिमानी, कर्मकाण्डी तथा ज्ञानाभिमानी पुरुष को प्राप्त नहीं हो सकते।’ इसीलिये तो गोपियों के प्रेम को सर्वोत्तम कहा-
यदपि जसोदा नन्द अरु ग्वालबाल सब धन्य।
पैं या रसकूँ चाखि के गोपी भईं अनन्य।।
गोपियों के प्रेम की बराबरी कौन कर सकता है। राम-बिलास के समय जिनके भुजदण्डों का आश्रय ग्रहण करके जो गोपिकाएँ धन्य बन चुकी हैं, उनकी पदधूलि के बिना कोई प्रेम का अधिकारी बन ही नहीं सकता।
प्रभु ने राय महाशय की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसी प्रकार रातभर दोनों में बातें होती रहीं। रोज प्रात:काल रात्रि समझकर चकवा-चकवी की भाँति ही पृथक हो जाते थे और रात्रि को दिन मानकर दोनों ही उस प्रेम-सरोवर के समीप एकत्रित हो जाते थे। इस प्रकार कई दिनों तक सत्संग और साध्य साधन निर्णय होता रहा। एक दिन प्रभु ने राय महाशय से कुछ अत्यन्त ही रहस्यमय गूढ़ प्रश्न पूछे, जिनका उत्तर राय ने भगवत-प्ररेणा से जैसा मन में उठा वैसा याथातथ्य दिया। प्रभु ने पूछा- ‘राय महाशय ! मुझे सम्पूर्ण विद्याओं में श्रेष्ठ पराविद्या बताइये, जिससे बढ़कर दूसरी कोई विद्या ही न हो।’
राय ने कुछ लज्जितभाव से कहा- ‘प्रभो ! मैं क्या बताऊँ, श्रीकृष्ण-भक्ति के अतिरिक्त और सर्वोत्तम विद्या हो ही कौन सकती है? उसी के लिये परिश्रम करना सार्थक है, शेष सभी व्यर्थ है।’
श्रीकृष्णेति रसायनं रसपरं शून्यै: किमन्ये: श्रमै:’
प्रभु ने पूछा- ‘सर्वश्रेष्ठ कीर्ति कौन सी कही जा सकती है?’ राय ने कहा- ‘प्रभो ! श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से लोगों में परिचय होना यही सर्वोत्तम कीर्ति है।’
प्रभु ने पूछा- ‘अच्छा, ऐसी सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति कौन-सी है जिसके सामने सभी सम्पत्तियाँ तुच्छ समझी जा सकें?’ राय ने उत्तर दिया- ‘श्रीनिकुंजविहारी राधावल्लभ की अविरल भक्ति जिसके हृदय में विद्यमान है वही सर्वश्रेष्ठ सम्पत्तिशाली पुरुष है। उसकी समता का पुरुष त्रिभुवन में कोई नहीं हो सकता।’ प्रभु ने पूछा- ‘मुझे यह बताइये कि सबसे बड़ा दु:ख कौन सा है?’ रुँधे हुए कण्ठ से अश्रुविमोचन करते हुए राय महाशय ने कहा- ‘प्रभो ! जिस क्षण श्रीहरि का हृदय में स्मरण न रहे, जिस समय विषय भोगों की बातें सूझने लगें, वही सबसे बड़ा दु:ख है।[1] इसके अतिरिक्त भगवदभक्तों से वियोग होना भी एक दारुण दु:ख है।’
प्रभु ने कहा- ‘आप मुक्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ किसे समझते हैं?’ राय ने कहा- ‘प्रभो ! जिसकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ श्रीकृष्ण की प्रेमप्राप्ति के ही निमित्त हों, जो सतत श्रीकृष्ण के ही मधुर नामों का उच्चारण करता हुआ उन्हें ही पाने का प्रयत्न करता रहता है, वही सर्वश्रेष्ठ मुक्त पुरुष है।’ प्रभु ने पूछा- ‘आप किस गान को सर्वश्रेष्ठ गान समझते हैं?’ राय ने कहा-
‘श्रीकृष्ण! गोविन्द! हरे! मुरारे!
हे नाथ! नारायण! वासुदेव!’
‘इस सुमधुर नामों के गान को ही मैं सर्वश्रेष्ठ गायन समझता हूँ।’ प्रभु ने पूछा- ‘आप जीवों के कल्याण के निमित्त सर्वश्रेष्ठ कार्य किसे समझते हैं ?’ राय ने कहा- ‘प्रभो ! महत्पुरुषों के पादपद्मों की पावन पराग से अपने मस्तक को अलंकृत बनाये रहना और उनके मुख नि:सृत अमृत वचनों का कर्णरन्ध्रों से निरन्तर पान करते रहना-इसे ही मैं जीवों के कल्याण का मुख्य हेतु समझता हूँ।’ प्रभु ने पूछा- ‘प्राणिमात्र के लिये सर्वश्रेष्ठ स्मरणीय क्या वस्तु है ?’ राय ने कहा-
‘श्रीकृष्ण!’ गोविन्द! हरे! मुरारे!
हे नाथ! नारायण! वासुदेव!’
‘बस यही सर्वश्रेष्ठ स्मरणीय है।’ प्रभु ने पूछा- ‘आप ध्यान में सर्वश्रेष्ठ ध्यान किसे समझते हैं ?’ राय ने कहा- ‘श्रीवृन्दावनविहारी की बांकी झांकी का ही निरन्तर ध्यान बना रहे: बस यही सर्वश्रेष्ठ ध्यान है।’ प्रभु ने पूछा- ‘आप जीवों के लिये ऐसा सर्वोत्तम निवास स्थान कौन सा समझते हैं, जहाँ सर्वस्व के मुख में धूलि देकर निवास किया जाय?’ राय ने कहा- ‘प्रभो !
‘सरबसु के मुख धरि दै सरबसु कै व्रज-धूरि’
बस, सब कुछ छोड़कर वृन्दावन वास करना ही जीव का अन्तिम निवास स्थान है। वृन्दावन को परित्याग करके एक पैर भी कहीं अन्यत्र न जाना चाहिये’-
‘वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति।’
-बस राधा-मुरलीधर का ध्यान करते रहना चाहिये और वृन्दावन को न छोड़ना चाहिये-
‘श्रीराधामुरलीधरौ भज सखे ! वृन्दावनं मा त्यज।’
प्रभु ने पूछा- ‘आप श्रवणों में सर्वश्रेष्ठ श्रवणीय क्या समझते हैं?’
राय ने कहा-
‘श्रीकृष्ण! गोविन्द! हरे! मुरारे!
हे नाथ! नारायण! वासुदेव!’
‘यह सम्पूर्ण श्रवणों का सार है। जिसने इसे यथावत रीति से सुन लिया फिर उसके लिये कुछ श्रवण करना शेष नहीं रह जाता।’
प्रभु ने पूछा- ‘आप उपासनाओं में सर्वश्रेष्ठ उपासना किसे समझते हैं?’
राय ने कहा- ‘युगल सरकार के सिवा और उपासना की ही किसकी जा सकती है। असल में तो वृन्दावन विहारी ही परम उपास्य हैं। शक्ति से वे पृथक हो ही नहीं सकते।’
प्रभु ने पूछा- ‘आप भक्ति और मुक्ति में किसे अधिक पसन्द करते हैं?’ राय ने कहा- ‘प्रभो ! मुक्ति के नीरस फल को तो कोई विचारप्रधान दार्शनिक पुरुष ही पसन्द करेगा। मुझे तो प्रभु के पादपपद्मों में निरन्तर लोट लगाते रहना ही सबसे अधिक पसन्द है। मैं अमृत के सागर में जाकर अमृत बनना नही चाहता। मैं तो उसके समीप बैठकर उसकी मधुरिमा के रसास्वादन करने को ही सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ।’
इस प्रकार के प्रश्नोत्तरों में ही वह रात शेष हो गयी और दोनों फिर एक-दूसरे से पृथक हो गये।
राय महाशय का अनुराग प्रभु के पादपपद्मों में उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता था, वे उनमें साक्षात श्रीकृष्ण के रुप का अनुभव करने लगे। उनके नेत्रों के सामने से प्रभु का वह प्राकृत रुप एकदम ओझल हो गया और वे अपने इष्टदेव श्रीराधा-कृष्ण के स्वरूप का दर्शन करने लगे। इसीलिये उन्होंने एक दिन प्रभु से पूछा- ‘प्रभो ! मैं आपके श्रीविग्रह में अपने इष्टदेव के दर्शन करता हूँ। मुझे ऐसा भान होने लगा है कि आप साक्षात श्रीमन्नारायण ही हैं। लोगों को भ्रम में डालने के लिये आपने यह छद्म-वेष धारण कर लिया है।’
हंसते हुए प्रभु ने उत्तर दिया- ‘राय महाशय ! आपको भी मेरे शरीर में अपने इष्टदेव के दर्शन न होंगे तो और किसे होंगे? आपकी दृष्टि में तो जितने संसार के दृश्य पदार्थ हैं सब के सब इष्टमय यही होने चाहिये।
श्रीमदभागवत में लिखा है कि ‘सर्वश्रेष्ठ भगवद्भक्त सम्पूर्ण चराचर प्राणियों मे भगवान के ही दर्शन करता है, उसकी दृष्टि में भगवान से पृथक कोई वस्तु है ही नहीं।’ आप सर्वश्रेष्ठ भागवतोत्तम हैं,[1] फिर आपको मेरे शरीर में अपने इष्टदेव के दर्शन होते हैं, तो इसमे आश्चर्य की कौन-सी बात है?
प्रभु के ऐसे उत्तर को सुनकर राय कहने लगे- ‘प्रभो ! आप मेरी प्रवंचना न कीजिये। मुझे अपने यथार्थ रुप के दर्शन दीजिये। मुझे शुद्राधम समझकर अपने यथार्थ स्वरूप से वंचित न कीजिये।’ यह कहते-कहते राय महाशय प्रेम के आवेश में आकर मूर्च्छित होकर प्रभु के पैरों में गिर पड़े। उसी समय उन्हें प्रभु के शरीर में श्रीराधा और श्रीकृष्ण के सम्मिलित दर्शन हुए। प्रभु के शरीर में उस अदभुत रुप के दर्शन करके राय महाशय ने अपने को कृतकृत्य समझा और वे अपने भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
सावधान होने पर प्रभु ने राय रामानन्द जी का दृढ़ आलिंगन किया और उनसे कहने लगे- ‘राय महाशय ! मेरे ये दस दिन आपके साथ श्रीकृष्ण-कथा सुनते सुनते बहुत ही आनन्दपूर्वक व्यतीत हुए। इतना अपूर्व रस पहले मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ था। आपकी कृपा से इस अत्यन्त ही दुर्लभ प्रेमरस का मैं यह किंचित रसास्वादन कर सका। अब मेरी इच्छा है कि आप शीघ्र ही इस राज-काज को छोड़कर पुरी आ जाइये। वहाँ हम दोनों साथ रहकर निरन्तर इस आनन्दरस का पान करते रहेंगे, आपकी संगति से मेरा भी कल्याण हो जायगा।’
हाथ जोड़े हुए अनन्त ही विनीतभाव से राय रामानन्द ने कहा- ‘प्रभो ! यह तो सब आपके ही हाथ में है। जब इस भव-जंजाल से छुड़ाकर अपने चरणों की शरण प्रदान करेंगे, तभी चरणों के समीप रहने का सुयोग प्राप्त हो सकेगा। मेरे सामर्थ्य के बाहर की बात है। आप ही अनुग्रह करके मुझे ऐसा धन्य-जीवन दान कर सकते हैं।’ प्रभु ने कहा- ‘अच्छा, अब जाइये। दक्षिण से लौटकर एक बार मैं आपसे मिलूँगा। तभी आप मेरे साथ पुरी चलियेगा।’ प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके राय रामानन्द जी अपने स्थान की ओर चले गये और प्रभु ने तो प्रात:काल आगे की यात्रा का विचार किया।
क्रमशः अगला पोस्ट [106]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Instrumental question to Rai Ramanand
Walking in the cloud of devotees called Rama The nectars of the principles of self-devotion Gaurabdhiretairamuna vitirnai – He goes to become a gem of knowledge.
If both are insane, worldly things are worthless in their eyes, both are pilgrims on the same path and then they both meet in solitude, then what to say about that bliss? That is called indescribable joy. It is not in anyone’s fortune to taste that blissful juice, only the one on whom He is blessed can be entitled to this bliss. After listening to the words of ultimate truth from the mouth of Rai Ramanand ji, he started saying – ‘ Rai sir! By your infinite mercy, I have come to know the ultimate reality. Now tell me how to achieve that? Without knowing the means, the knowledge of the achievement is useless, so please tell more about the way in which this great feeling can be attained?’ Rai sir said with extreme impatience – ‘Lord! You are omnipotent. How can I, a subjective creature trapped in the dust of the world, understand the principle of achievement? But you want to express your feelings through me, then who can do it against your will. That’s why I will keep saying whatever you inspire in my heart.’
Lord! Shriradhika ji’s love is not normal. Men who experience pleasure in worldly pleasures are not even entitled to hear it, that is why it is called Param Gopya. Only the Gopikas of Vraj can know this. Apart from the Gopikas, no one else enters the juice. The Gopikas are not desirous of sensual pleasures, they are very fond of the lowly love-lila of Shri Krishna while he is frolicking in the grove with Shriradhika. She does not want anything for herself, all her desires, all her feelings, all her efforts and all the activities of her mind, speech and senses are only for the sake of her beloved. Those who want to taste that indescribable juice, they should make all their feelings sacrificial and selfless in this way. No one can drink that Anandamrit without imbibing Gopibhav. There is no worldliness in the love of Gopis. He is pure, pure, without lust and without desire. The name of the pure love of the Gopis is ‘Kaam’. This worldly ‘work’ is not called ‘work’. Kama is actually the name of that divine love, whose wishes are continuously fulfilled by the devotees like Uddhava etc.
If someone wants to become entitled to enter that Ocean of Rasa by chanting, penance, study of Vedas or by performing Yagya-Yag, then it is their mistake. Devotion is the only means to reach near that nectar-like ocean, as Lord Vyasdev has said-
The venerable son of the cowherd woman is not a happy drinker for embodied beings And for the wise and the self-being, as for the devotees here.
That is, ‘Nandanandan’ Lord Vasudev, the way a devotee can get it easily through devotion, in the same way a body conscious, ritualistic and knowledgeable man cannot get it. That’s why the love of Gopis is said to be the best-
Although Jasoda Nanda and the shepherds are blessed. Tasting the taste of the water, the gopis became unique.
Who can match the love of Gopis. At the time of Ram-Bilas, no one can be entitled to love without the dust of the feet of the Gopikas who have become blessed by taking shelter of their arms.
Prabhu praised Rai Mahashay a lot. In the same way both of them kept talking throughout the night. Every morning, considering it to be night, they used to separate like chakwa-chakvi and considering night as day, both of them used to gather near that love-lake. In this way, satsang and sadhna means were decided for many days. One day Prabhu asked Rai Mahasaya some very mysterious mysterious questions, to which Rai answered the truth as he got into his mind with divine inspiration. The Lord asked – ‘ Opinion sir! Show me the best Paravidya among all the Vidyas, beyond which there is no other Vidya.’
Rai said with some shame – ‘ Lord! What can I tell, what can be the best education other than devotion to Shri Krishna? It is worthwhile to work hard for that, all else is futile.
Sri Krishna is the chemistry that is tasty with nothing but effort.
The Lord asked – ‘What is the best fame that can be said?’ Rai said – ‘Lord! It is the best fame to be introduced to people in relation to Shri Krishna.
The Lord asked- ‘Ok, what is the best wealth in front of which all other wealth can be considered insignificant?’ Rai replied- ‘The one who has unceasing devotion to Shrinikunjvihari Radhavallabh in his heart is the best wealthy man. There can be no man equal to him in Tribhuvan.’ The Lord asked- ‘Tell me, which is the biggest sorrow?’ Rai Mahasaya, shedding tears from a choked throat, said- ‘Lord! The moment when there is no remembrance of Sri Hari in the heart, the moment when things of sensual pleasures begin to be understood, that is the greatest sorrow. [1] Apart from this, separation from the devotees of Bhagavad is also a great sorrow.’
The Lord said- ‘Who do you consider to be the best among the free creatures?’ Rai said- ‘Lord! The one whose all efforts are for the attainment of the love of Shri Krishna, the one who constantly chants the sweet names of Shri Krishna and tries to get them, he is the best free man.’ The Lord asked- ‘Which song do you consider to be the best song? Are you?’ Rai said.
‘Sri Krishna! Govind! Hare! Murare! O Lord! Narayana! Vasudeva!’
‘I consider the singing of these melodious names to be the best singing.’ The Lord asked – ‘What do you consider to be the best work for the welfare of the living beings?’ Rai said – ‘Lord! Keeping your head decorated with the holy pollen of lotus flowers of great men and continuously drinking the nectar words emanating from their mouths – this I consider to be the main reason for the welfare of the living beings.’ What is the best memorable thing?’ Rai said-
‘Sri Krishna!’ Govinda! Hare! Murare! O Lord! Narayana! Vasudeva!’
‘This is the best thing to remember.’ The Lord asked – ‘What do you consider to be the best meditation in meditation?’ Rai said – ‘Continuously meditate on the rest of the tableau of Sri Vrindavanvihari: this is the best meditation.’ The Lord asked – ‘Which do you consider to be the best abode for living beings, where one can reside by dusting off the face of all?’ Rai said- ‘Lord!
‘Sarabasu ke mukh dhari dai sarabasu kai vraj-dhuri’
Just leaving everything and living in Vrindavan is the last abode of the soul. Abandoning Vrindavan, even a foot should not go anywhere else’-
‘He does not leave Vrindavan on one foot.
Just keep meditating on Radha-Murlidhar and don’t leave Vrindavan.
‘Sri Radha Muralidharau Bhaja Sakhe ! Don’t leave Vrindavan. The Lord asked, ‘What do you think is the best hearing?’
Rai said-
‘Sri Krishna! Govind! Hare! Murare! O Lord! Narayana! Vasudeva!’
This is the essence of all hearings. The one who listens to it in the same way, then nothing remains to be heard for him.
The Lord asked – ‘Which do you consider to be the best of worships?’
Rai said- ‘Who else can be worshiped except the couple’s government. In fact, Vrindavan Vihari is the ultimate worshipper. They cannot be separated from Shakti.
The Lord asked – ‘Which one do you like more in devotion and liberation?’ Rai said – ‘Lord! Only a thoughtful philosopher will like the dreary fruit of liberation. Most of all, I like to keep rolling continuously in the lotus feet of the Lord. I don’t want to become nectar by going to the ocean of nectar. I consider it best to sit near her and taste her sweetness.’
The rest of the night was spent in such questions and answers and both of them again separated from each other.
Rai Mahasaya’s affection for the lotus feet of the Lord kept on increasing, he started experiencing the form of Shri Krishna in them. That natural form of the Lord completely disappeared from his eyes and he started seeing the form of his presiding deity Shriradha-Krishna. That’s why one day he asked the Lord – ‘Lord! I see my presiding deity in your Deity. I have started to feel that you are srIman nArAyaNan in person. You have assumed this disguise to mislead people.’
Laughing, the Lord replied – ‘ Mr. Rai! If you don’t get to see your God in my body then who else will? In your view, all the visible objects of the world should be the best of all.
It is written in the Shrimad Bhagwat that ‘the best devotee of the Lord sees only the Lord in all living beings, there is nothing separate from the Lord in his eyes.’ If so, what is the matter of surprise in this?
After listening to such an answer of the Lord, Rai started saying – ‘ Lord! Don’t trick me. Show me your true form. Don’t deprive me of my true form considering me as Shudradham.’ Saying this, Rai Mahasaya fainted in love and fell at the feet of the Lord. At the same time, he had a combined darshan of Shriradha and Shri Krishna in the body of the Lord. Seeing that wonderful form in the body of the Lord, Rai Mahasaya considered himself to be grateful and started praising his fortune.
On being careful, the Lord hugged Rai Ramanand ji firmly and said to him – ‘ Rai sir! I spent these ten days with you very happily listening to Shri Krishna’s story. I had never received such a wonderful juice before. By your grace, I could taste a little of this very rare love juice. Now I wish that you should come to Puri soon leaving this Raj-Kaj. There, both of us will continue to drink this pleasure continuously, I will also be benefited by your association.’
With folded hands, Rai Ramanand said with utmost humility – ‘Lord! All this is in your hands. When you get rid of this worldly entanglement and provide shelter at your feet, then only you will get the opportunity to stay close to the feet. It is beyond my power. Only you can give me such a blessed life by your grace.’ The Lord said – ‘Okay, now go. I will meet you once I return from the south. Only then you will go to Puri with me.’ After obeying the Lord, Rai Ramanand ji went towards his place and the Lord thought of further journey in the morning.
respectively next post [106] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]