।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
दक्षिण के तीर्थों का भ्रमण
भगद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त: स्थेन गदाभृता।।
महापुरुषों का तीर्थ भ्रमण लोक कल्याण के ही निमित्त होता है। उनके लिये स्वयं कोई कर्तव्य नहीं होता, किन्तु फिर भी लोकशिक्षण के लिये, गृहस्थियों को पावन बनाने के लिये, भक्तों को कृतार्थ करने के लिये, तीर्थों को निष्पाप बनाने के लिये तथा पृथ्वी को पवित्र करने के लिये वे नाना तीर्थों में भ्रमण करते हुए देखे गये हैं। इसी से अब तक ये तीर्थ पावनता की रक्षा करते हुए संसारी लोगों के पाप तापों को शमन करने में समर्थ बने हुए हैं।
महाप्रभु प्रात:काल गोदावरी में स्नान करके विद्यानगर से आगे के लिये चल दिये। वे गौतमी, गंगा, मल्लिकार्जुन, अहोबलनृसिंह, सिद्धवट, स्कन्धक्षेत्र, त्रिपठ, वृद्धकाशी, बौद्धस्थान, त्रिपती, त्रिमल्ल, पानानृसिंह, शिवकांची, विष्णुकांची, त्रिकालहस्ती, वृद्धकोल, शियालीभैरवी, काबेरीतीर, कुम्भकर्ण-कपाल आदि पुण्य तीर्थों में दर्शन स्नान आदि करते हुए और अपने दर्शनों से नर नारियों को कृतार्थ करते हुए श्रीरंग क्षेत्र पर्यन्त पहुँचे। रास्ते में महाप्रभु सर्वत्र श्रीहरि नामों का प्रचार करते जाते थे। लाखों मनुष्य प्रभु के दर्शनमात्र से ही भगवद्भक्त बन गये। प्रभु रास्ते में चलते-चलते इस मन्त्र का उच्चारण करते जाते थे-
राम राघव! राम राघव! राम राघव! रक्ष माम्।
कृष्ण केशव! कृष्ण केशव! कृष्ण केशव! पाहि माम्।।
महाप्रभु के मुख से नि:सृत इस मन्त्र को सुनते ही चारों ओर से स्त्री-पुरुष इन्हें घेरकर खड़े हो जाते और फिर ये उनके बीच में खड़े होकर नृत्य करने लगते। इसी प्रकार अपने संकीर्तन, नृत्य और दर्शनों से लोगों को सुख पहुँचाते हुए आषाढ़ मास में ये श्रीरंगक्षेत्र में पहुँचे। वहाँ परम भाग्यवान श्रीवेंकट भट्ट नामक एक वैष्णव ब्राह्मण के अनुरोध से प्रभु ने व्यतीत किया। वेंकट भट्ट के पुत्र श्रीगोपाल भट्ट ने महाप्रभु की रूप-माधुरी से विमुग्ध होकर उन्हें आत्मसमर्पण कर दिया। वेकंट भट्ट का सम्पूर्ण परिवार श्रीकृष्ण-भक्त बन गया। सभी को महाप्रभु की संगति से अत्यधिक आनन्द हुआ।
महाप्रभु सायंकाल के समय जंगलों में घूमने जाया करते थे। एक दिन वे एक बगीचे में गये। वहाँ जाकर उन्होंने देखा एक ब्राह्मण आसन लगाये बड़े ही प्रेम के साथ गदगद कण्ठ से गीता का पाठ कर रहा है। यद्यपि वह श्लोकों का उच्चारण अशुद्ध कर रहा था, किन्तु पाठ करते समय वह ध्यान में ऐसा तन्मय था कि उसे ब्राह्य संसार का पता ही नहीं रहा। वह भाव में मग्न होकर श्लोकों को बोलता था उसका सम्पूर्ण शरीर रोमांचित हो रहा था, नेत्रों से जल बह रहा था। महाप्रभु बहुत देर तक खड़े खड़े उसका पाठ सुनते रहे। जब वह पाठ करके उठा, तब महाप्रभु ने उससे अत्यन्त ही स्नेह के साथ पूछा- ‘क्यों भाई, तुम्हें इस पाठ में ऐसा क्या आनन्द मिलता है, जिसके कारण तुम्हारी ऐसी अदभुत दशा हो जाती है! इतने ऊंचे प्रेम के भाव तो अच्छे-अच्छे भक्तों के शरीर में प्रकट नहीं होते, तुम अपनी प्रसन्नता का मुझसे ठीक-ठीक कारण बताओ?’
उस पुरुष ने कहा- ‘भगवन ! मैं एक अपठित बुद्धिहीन ब्राह्मण-वंश में उत्पन्न हुआ निरक्षर और मूर्ख ब्राह्मण बन्धु हूँ। शुद्धाशुद्ध का कुछ भी बोध नहीं है। मेरे गुरुदेव ने मुझे आदेश दिया था कि तू गीता का नित्यप्रति पाठ किया कर। भगवन ! मैं गीता का अर्थ क्या जानूँ। मैं तो पाठ करते समय इसी बात का ध्यान करता हूँ कि सफेद रंग के चार घोड़ों से जुता हुआ एक बहुत सुन्दर रथ खड़ा हुआ है। उसकी विशाल ध्वजा पर हनुमान जी विराजमान हैं, खुले हुए रथ में अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित अर्जुन कुछ शोक के भाव से धनुष को नीचे रखे बैठा है। भगवान अच्युत सारथी के स्थान पर बैठे हुए मंद मुस्कान के साथ अर्जुन को गीता का उपदेश कर रहे हैं। बस, भगवान की इसी रुपमाधुरी का पान करते करते मैं अपने आपे को भूल जाता हूँ। भगवान की वह त्रिलोकपावनी मूर्ति मेरे नेत्रों के सामने नृत्य करने लगती है, उसी के दर्शनों से मैं पागल-सा बन जाता हूँ। लोग मेरे पाठ को सुनकर पहले बहुत हंसते थे। बहुत से तो मुझे बुरा-भला भी कहते थे। अब कहते हैं या नहीं-इस बात का तो मुझे पता नहीं है, किन्तु मैंने किसी की हंसी की कुछ परवा नहीं की। मैं इसी भाव से पाठ करता ही रहा। अब मुझे इस पाठ में इतना रस आने लगा है कि मैं एकदम संसार को भूल-सा जाता हूँ। आज ही आकर आपने मुझसे दो मीठी बातें की हैं, नहीं तो लोग सदा मेरी हंसी ही उड़ाते रहते हैं। मालूम पड़ता है, आप साक्षात श्रीनारायण हैं, जो मेरे पाठ का फल देने के लिये यहाँ पधारे हैं। आप चाहे कोई भी क्यों न हों, हैं तो कोई अलौकिक दिव्य पुरुष। आपके चरणकमलों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है।’ इतना कहकर वह प्रभु के चरणों में गिर पड़ा।
प्रभु ने उसे बड़े स्नेह से उठाकर छाती से लगाया और बड़े ही मीठे स्वर से कहने लगे, ‘विप्रवर! तुम धन्य हो, यथार्थ में गीता का असली अर्थ तो तुमने ही समझा है। भगवान शुद्ध अथवा अशुद्ध पाठ से प्रसन्न या असन्तुष्ट नहीं होते। वे तो भाव के भूखे हैं। भावग्राही भगवान से किसी के घटकी बात छिपी नहीं है। लाखों शुद्ध पाठ करो और भाव अशुद्ध हैं, तो उनका फल अशुद्ध ही होगा। यदि भाव शुद्ध हैं और अक्षर चाहे अशुद्ध भी उच्चारण हो जायँ तो उसका फल शुद्ध ही होगा। भावों को शुद्धि की ही अत्यन्त आवश्यकता है। भाव शुद्ध होने पर पाठ शुद्ध हो तब तो बहुत ही अच्छा है। सोने में सुगन्ध है और यदि पाठ शुद्ध न भी हो तो भी कोई हानि नहीं। जैसा कि कहा है-
मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
तयो: फलं तु तुल्यं हि भावग्राही जनार्दन:।।
अर्थात ‘मुर्ख कहता है ‘विष्णाय नम’ और पण्डित कहता है ‘विष्णवे नम:’ भाव शुद्ध होने से इन दोनों का फल समान ही होगा। कारण कि भगवान जनार्दन भावग्राही हैं।’ महाप्रभु के मुख से इस बात को सुनकर उस ब्राह्मण को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उसी समय प्रभु को आत्मसमर्पण कर दिया। जब तक प्रभु श्रीरंगक्षेत्र में रहे, तब तक वह महाप्रभु के साथ ही रहा।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Pilgrimage to the South
O Lord, devotees like Bhaga are themselves holy places. Carrying clubs they make holy places holy with their own places
The pilgrimage of great men is only for the welfare of the people. He does not have any duty for himself, but still he is seen traveling to various places of pilgrimage for the education of the people, for purifying the householders, for making the devotees virtuous, for making the pilgrimages sinless and for purifying the earth. Have gone From this till now these pilgrimages have been able to reduce the sins of the worldly people while protecting the sanctity.
Mahaprabhu took bath in Godavari early in the morning and left for Vidyanagar. They visit and bathe in holy shrines like Gautami, Ganga, Mallikarjuna, Ahobalanrisingha, Siddhavat, Skandhakshetra, Tripatha, Vriddhakashi, Buddhsthan, Tripathi, Trimalla, Pananrisingha, Sivakanchi, Vishnukanchi, Trikalahasti, Vriddhakol, Shiyalibhairavi, Kaberitir, Kumbhakarna-Kapal etc. Men and women with their darshans reached till Srirang area. On the way, Mahaprabhu used to propagate the names of Sri Hari everywhere. Lakhs of people became devotees of Bhagavad only by seeing the Lord. Prabhu used to chant this mantra while walking on the way-
Ram Raghav! Ram Raghav! Ram Raghav! Protect me. Krishna Keshav! Krishna Keshav! Krishna Keshav! Protect me.
As soon as they heard this mantra emanating from the mouth of Mahaprabhu, men and women surrounded him from all sides and then he stood in their midst and started dancing. In the same way, he reached Shrirangkshetra in the month of Ashadh, bringing happiness to the people with his sankirtan, dance and darshan. The Lord spent there with the request of a Vaishnava Brahmin named Param Bhagyavan Srivenkata Bhatta. Shri Gopal Bhatt, son of Venkata Bhatt, being enamored by the beauty of Mahaprabhu, surrendered to him. The entire family of Venkat Bhatt became devotees of Shri Krishna. Everyone was overjoyed by the company of Mahaprabhu.
Mahaprabhu used to go for walks in the forests in the evening. One day they went to a garden. After going there, he saw a Brahmin reciting the Gita with great love in a gadgad voice. Although he was pronouncing the verses impure, but while reciting he was so engrossed in meditation that he was not aware of the external world. He recited the verses engrossed in emotion, his whole body was thrilled, water was flowing from his eyes. Mahaprabhu kept standing and listening to his recitation for a long time. When he woke up after reciting, Mahaprabhu asked him very affectionately – ‘Why brother, what joy do you get in this lesson, due to which you are in such a wonderful condition! Such high feelings of love do not appear in the body of good devotees, you tell me the exact reason for your happiness?’
That man said – ‘ God! I am an illiterate and foolish Brahmin brother born in an uneducated mindless Brahmin-lineage. There is no sense of the pure. My Gurudev had ordered me to recite the Gita regularly. God ! How can I know the meaning of Gita? While reciting, I keep in mind that a very beautiful chariot drawn by four white colored horses is standing. Hanuman ji is sitting on his huge flag, in an open chariot, Arjuna, equipped with weapons, is sitting with a bow down with a sense of mourning. Lord Achyuta is teaching the Gita to Arjuna with a soft smile, sitting in the seat of the charioteer. Simply, I forget myself while drinking this auspicious spindle of God. That Trilokapavani idol of God starts dancing in front of my eyes, I become insane by seeing her. Earlier people used to laugh a lot after listening to my lesson. Many even used to say bad things about me. I don’t know whether he says it now or not, but I didn’t care about anyone’s laughter. I kept reciting in this spirit. Now I am getting so much interest in this lesson that I completely forget the world. You have come today and said two sweet things to me, otherwise people always make fun of me. It seems that you are Srinarayan in person, who has come here to give the result of my lessons. No matter who you are, you are some supernatural divine man. I offer my obeisances at your lotus feet. Having said this, he fell at the feet of the Lord.
The Lord picked him up with great affection and hugged him and said in a very sweet voice, ‘ Vipravar! You are blessed, in fact you have understood the real meaning of Gita. God is not pleased or displeased with pure or impure text. They are hungry for emotion. Nothing is hidden from the empathetic God. Do lakhs of pure lessons and if the feelings are impure, then their result will be impure. If the feelings are pure and even if the words are pronounced impure, then its result will be pure. There is a great need of purification of emotions. It is very good when the text is pure when the feeling is pure. There is fragrance in gold and there is no harm even if the text is not pure. As said-
The fool speaks to Vishnu, the sober speaks to Vishnu. The fruits of the two are equal for Janardana who grasps the senses.
That is, ‘a fool says ‘Vishnaya Namah’ and a scholar says ‘Vishnave Namah’, if the feelings are pure, the result of both of them will be the same. The reason is that Lord Janardan is sensitive.’ Hearing this from the mouth of Mahaprabhu, that Brahmin was very happy and he surrendered to the Lord at the same time. As long as the Lord remained in Srirangakshetra, he remained with Mahaprabhu.
respectively next post [107] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]