।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
पुरी में भक्तों के साथ आनन्द विहार
परिवदतु जनो यथा तथा वा
नतु मुखरो न वयं विचारयाम:।
हरिरसमदिरामदातिमत्ता
भुवि विलुठाम नटाम निर्विशाम।।
आनन्द और उल्लास को विध्वंस करने वाली राक्षसी चिन्ता ही है। संसार चिन्ता का घर है। संसारी लोगों के धन की, मान प्रतिष्ठा, स्त्री-बच्चों की तथा और हजारों प्रकार की चिन्ताएँ लगी रहती हैं। उन चिन्ताओं के ही कारण उनका आनन्द एकदम नष्ट हो जाता है और वे सदा अपने को विपद्ग्रस्त सा ही अनुभव करते रहते हैं। जिन्हें संसारी भोगों को संग्रह करने की चिन्ता है, उन्हें सुख कहाँ? वे बेचारे आनन्द का स्वाद क्या जानें। आनन्द की मिठास तो भोगों की इच्छाओं से रहित वीतरागी प्रभु प्रेमी ही जान सकते हैं। आनन्द भोगों न होकर उनकी हृदय से इच्छा न करने में ही है। इसीलिये परमार्थ के पथिक विषय-भोगों का परित्याग करके पुण्य-तीर्थों में या वनों में जाकर निवास करते हैं।
संसारी लोगों पर भी इन पुण्य स्थानों का प्रभाव पड़ता है। किसी धनिक के धर जाकर हम मिलते हैं, तो उसे मान-अपमान, स्त्री-पुत्र तथा परिवार के चिन्ताजनक वायुमण्डल में घिरा हुआ देखते है, वहाँ वह हमसे न तो खूब प्रेमपूर्वक मिलता ही है और न खुलकर बातें ही करता है। उसी से जब किसी विरक्त साधु महात्मा के स्थान पर, किसी पवित्र देवस्थान अथवा जगन्मान्य पुण्यतीर्थ पर मिलते हैं तो वह बड़ी ही सरलता से मिलता है, हंसता है, खेलताह है और बच्चों की तरह निष्कपट बातें करता है। इसका कारण यह है कि उसके हृदय में आनन्द का अंश भी है और चिन्ता का भी। घर पर चिन्ता के परमाणुओं का प्राबल्य होने से वह उन्हीं के वशीभूत रहता है। आनन्द की पवित्र इच्छा यदि उसके हृदय में होती ही नहीं, तो वह सदाचारी एकान्तप्रिय महात्माओं के पास जाने ही क्यों लगा? उनके पास जाने से प्रतीत होता है कि वह सच्चे आनन्द का भी उत्सुक है और उसके आनन्दमय भाव महापुरुष की संगति में ही आकर पूर्णरीत्या परिस्फुटत होते हैं, इसीलिये तो कहा है सदाचारी और कल्याण-मार्ग के जाने वाले सद्गृहस्थ को भी सालभर में दो एक महीनों के लिये किसी पवित्र स्थान में या किसी महापुरुष के संसर्ग में रहना चाहिये। इससे उसे परमार्थ के पथ में बहुत अधिक सहायता मिल सकती है और इन स्थानों के सेवन से उसे सच्चे आनन्द का भी कुछ-कुछ अनुभव हो सकता है।
गौड़ीय भक्त घर-बार की चिन्ता छोड़कर चार महीने प्रभु के चरणों में रहने के लिये आये थे। एक तो वे वैसे ही भगवद्भक्त थे, उस पर भी महाप्रभु के परम कृपापात्र थे और संसारी भोगों से एकदम उदासीन थे। तभी तो उन्हें पुरुषोत्तम जैसे परम पावन पुण्यक्षेत्र में प्रेमावतार श्रीचैतन्यदेव की संगति में इतने दिनों तक निवास करने का सौभाग्य प्राप्त हो सका। महाप्रभु तो आनन्द की मूर्ति ही थे, उनकी संगति परम आनन्द का अनुभव होना अनिवार्य ही था। इसीलिये चार महीनों तक भक्तों को प्रभु के साथ बड़ा ही आनन्द रहा। महाप्रभु भी उनके साथ नित्य भाँति-भाँति की नयी नयी क्रीडाएँ किया करते थे।
रथ-यात्रा के पश्चात जो पंचमी आती है, उसे ‘हेरापंचमी’ कहते हैं। उस दिन महालक्ष्मी भगवान को हेरती अर्थात खोजती हैं। इसीलिये उसका नाम हेरापंचमी है। जगन्नाथ जी में हेरापंचमी का उत्सव भी खूब धूम धाम से होता है। जिस प्रकार जगन्नाथ जी के मन्दिर को नीलाचल कहते हैं। उसी प्रकार गुण्टिचा उद्यान के मन्दिर को सुन्दराचल कहते हैं। भगवान तो उस दिन सुन्दराचल में ही विराजते हैं, किन्तु हेरापंचमी का उत्सव यहाँ नीलाचल में ही होता है। अबके महाराज ने अपने कुल पुरोहित श्रीकाशी मिश्र को हेरापंचमी उत्सव को धूम धाम के साथ करने की आज्ञा दी। महाराज के आज्ञानुसार भगवान का मन्दिर विविध भाँति से सजाया गया। महाराज ने स्वयं अपने घर का सामान उत्सव की सजावट के लिये दिया और महाप्रभु के दर्शन के लिये विशेष रीति से प्रबन्ध किया गया। प्रात:काल सभी भक्तों को साथ लेकर महाप्रभु हेरापंचमी के लक्ष्मी-विजयोत्सव को देखने के लिये सुन्दराचल से नीलाचल पधारे। महाराज ने उनके बैठने का पहले से ही सुन्दर प्रबन्ध कर रखा था। महाप्रभु अपने सभी भक्तों के सहित यहाँ बैठ गये। इतने में ही एक बहुत बढ़िया सुन्दर डोला में बैठकर भगवान को खोजती हुई लक्ष्मी जी अपनी सभी दासियों के सहित पधारीं। उस समय लक्ष्मी जी की शोभा अपूर्व ही थी। उनके सम्पूर्ण अंगों में भाँति-भाँति क बहुमुल्य अलंकार शोभायमान थे, आगे आगे देव दासियाँ नृत्य करती आ रही थीं और अनेक प्रकार के वाद्य उनके आगे बज रहे थे। आते ही लक्ष्मी जी की दासियों ने जगन्नाथ जी के मुख्य मुख्य सेवकों को बांध लिया और बाँधकर उन्हें लक्ष्मी जी के सम्मुख उपस्थित किया। दासियाँ उन सेवकों को मारती भी जाती थीं। महाप्रभु ने स्वरूपदामोदर से पूछा- ‘स्वरूप ! यह क्या बात है, लक्ष्मी जी इतनी कुपित क्यों हैं?’
स्वरूपदामोदर ने कहा- ‘प्रभो ! क्रोध की बात है। अपने प्राणप्यारे से पृथक होने पर किसे अपार दु:ख न होगा।’
महाप्रभु ने पूछा-‘मैं यह जानना चाहता हूँ कि भगवान अकेले ही चुपके से चोर की भाँति वृन्दावन क्यों चले गये, लक्ष्मी जी को वे साथ क्यों नहीं ले गये?’
स्वरूपदामोदर ने कहा- ‘प्रभो ! रासलीला में व्रज की गोपिकाओं का ही अधिकार है, लक्ष्मी जी के भाग्य में यह सौभाग्य सुख नहीं है।’
इस प्रकार महाप्रभु जी इसी सम्बंध में श्रीवास पण्डित तथा स्वरूपदामोदर से बहुत देर तक बातें करते रहे। श्रीवास पण्डित लक्ष्मीजी का पक्ष लेकर स्वरूपदामोदर की बातों का चातुरीपूर्वक खण्डन करते थे। इस प्रकार यह प्रेमयुक्त विवाद कुछ देर और चलता रहा। इतने में ही सेवकों के यह वचन देने पर कि हम आपके स्वामी को शीघ्र ही लाकर आपसे भेंट करा देंगे, लक्ष्मी जी ने उनके बन्धन खुलवा दिये और वे अपने स्थान को लौट आयीं। महाप्रभु जी भी लक्ष्मीजी का प्रसाद लेकर सुन्दराचल लौट आये। वहाँ भक्तों के सहित उन्होंने सन्ध्या-आरती के दर्शन किये और बहुत रात्रि तक संकीर्तन होता रहा।
इस प्रकार आठ दिनों तक महाप्रभु सुन्दराचल में भक्तों के साथ आनन्द-विहार करते रहे। वे नित्य प्रति इन्द्रद्युम्न-सरोवर में भक्तों के साथ जल क्रीड़ा करते। कोई किसी के ऊपर जल उलीच रहा है, तो कोई किसी के ऊपर सवारी ही कर रहा है। झुंड-के-झुंड भक्त टोली बना बनाकर एक दूसरे के ऊपर जल की वर्षा करते, फुहारे छोड़ते और डुबकी लगाकर एक दूसरे के पैर पकड़ते। फिर दो दो मिलकर परस्पर में जल युद्ध करते।
गौड़ीय भक्तो के सहित सार्वभौम भट्टाचार्य, राय रामानन्द, गोपीनाथाचार्य तथा और भी राज्य के बहुत से प्रतिष्ठित पुरुष प्रभु की जल क्रीडा में सम्मिलित होते। राय महाशय और सार्वभौम का जोड़ तोड़ था। वे परस्पर विविध प्रकार से जलयुद्ध करते। महाप्रभु इन दोनों के कुतूहल को देखकर एक ओर खड़े खड़े हंसते रहते। कभी कभी गोपीनाथाचार्य से कहते- ‘आचार्य ! आप इन दोनों को बरजते क्यों नहीं। इस तरह बच्चों की तरह क्रीडा करते देखकर लोग इन्हें क्या कहेंगे, ये दोनों ही महान प्रतिष्ठित और सम्मानिय पुरुष हैं।’
आचार्य हंसकर कहते- ‘जब आपका इन दोनों के ऊपर इतना असीम अनुग्रह है, तब ये क्या सदा अपने बड़प्पन को साथ ही बाँध फिरेंगे? यह सब आपकी कृपा का ही फल है।’
आचार्य सार्वभौम जोरों से जल उलीचते हुए कहा हैं- ‘हरिरसमदिरामदेन मत्ता भुवि विलुठाम नटाम निर्विशाम’ हम पागल हो गये हैं पागल!’ इतने में प्रभु उन्हें नीच करके उनके ऊपर सवार हो जाते, वे भी शेषनाग की तरह प्रभु को अपने शरीर पर शयन करा लेते। इस प्रकार यह आनन्द प्राय: रोज ही होता था। शाम को महाप्रभु आई टोटा बाग में नित्य प्रति श्रीकृष्णलीलाओं का अभिनय करते, जिससे भक्तों को अत्यन्त ही सुख मिलता। इस प्रकार आनन्द विहार करते करते आठ दिन बात-की-बात में निकल गये, किसी को पता ही न होगा कि कब हम सुन्दराचल आये और कब आठ दिन व्यतीत हो गये! सुख का समय इसी प्रकार सहज ही बीत जाता है।
इस प्रकार आठ दिनों तक आनन्द के साथ निवास करने के अनन्तर अब जगन्नाथ की ‘उलटी रथ यात्रा’ का समय आया। भगवान अब सुन्दराचल को छोड़कर नीलाचल पधारेंगे। इसलिये सेवकवृन्द भगवान को रथ पर चढ़ाने का प्रयत्न करने लगे। भगवान को दयितागण पट्टडोरियों में बाँधकर रथ पर चढ़ाते हैं। उस समय भगवान को रथ पर चढ़ाते समय उनकी एक ‘पट्टडोरी’ टूट गयी। इस पर प्रभु को बड़ा दु:ख हुआ और कुलीन ग्राम निवासी श्रीरामानन्द और सत्यराज खाँसे आप कहने लगे- ‘आप लोग समर्थ हो, धनी हो। धन का सर्वोत्तम उपयोग यही है कि वह भगवान की सेवा-पूजा मे व्यय हो। इस काम को आप अपने जिम्मे ले लें। प्रतिवर्ष अपने यहाँ से भगवान की सुन्दर सी मजबूत पट्टडोरी बनाकर रथोत्सव के समय साथ लाया करें।’
इन दोनों धनी भक्तों ने प्रभु की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने भाग्य की सराहना की। उसके दूसरे साल से वे प्रतिवर्ष भगवान को पट्टाडोरी बनवाकर अपने साथ लाते थे।
भगवान की ‘पाण्डुविजय’ अर्थात रथारोहणपूजा हो जाने पर रथ श्रीजगन्नाथ जी की ओर चला, महाप्रभु भी भक्तों के सहित संकीर्तन करते हुए रथ के आगे-आगे चले। भगवान के मन्दिर में विराजमान होने पर और उनके दर्शन करके महाप्रभु अपने स्थान पर आ गये और भक्तों के सहित प्रसाद पाकर उन्होंने विश्राम किया।
गौड़ीय भक्त बारी बारी से नित्यप्रति प्रभु को अपने यहाँ भिक्षा कराते थे। महाप्रभु भी प्रेम के साथ सभी भक्तों के यहाँ भिक्षा करते और उनसे घर द्वार, कुटुम्ब परिवार के सम्बन्ध में विविध प्रकार के प्रश्न पूछते। इसी प्रकार श्रावण बीतने पर जन्माष्टमी आयी। महाप्रभु ने भक्तों के सहित धूम धाम से जन्माष्टमी का महोत्सव मनाया। नन्दोत्सव के दिन अपने गौड़ीय भक्तरुपी ग्वालबालों को साथ लेकर नन्दोत्सव लीला की। उसमें उत्कल देशीय भक्त तथा मन्दिर के कर्मचारी भी सम्मिलित थे। कानाई खूटिया और जगन्नाथ माइति क्रमश: नन्द-यशोदा बने। महाप्रभु स्वयं युवक गोप के वेश में लाठी हाथ में लेकर नृत्य करने लगे। महाप्रभु की लाठी फिराने की चातुरी को देखकर सभी दर्शक विस्मित हो गये। महाराज प्रतापरुद्र जी ने उस समय प्रभु की भावावेशावस्था में ही उनके सिर पर एक बहुमुल्य वस्त्र और जगन्नाथ जी का प्रसाद बांध दिया।
प्रभु के सभी साथी ग्वाल-बाल किलकारियाँ मारकर नृत्य करने लगे। जो भक्त नन्द यशोदा बने थे, उन्होंने सचमुच अपने अपने घरों में घुसकर अपना सब धन ब्राह्मण तथा अभ्यागतों को लुटा दिया, इससे महाप्रभु को परम प्रसन्नता हुई। इस प्रकार उस दिन की वह लीला बड़े ही आनन्द के साथ समाप्त हुई। जन्माष्टमी बीतने पर विजयादशमी का उत्सव आया। उसमें महाप्रभु स्वयं महावीर हनुमान बने और भक्तों को रीछ वानर बनाकर रावण पर विजय लाभ करने चले। महाप्रभु के सहवास का समय किसी को मालूम न पड़ा कि वह कब समाप्त हो गया। सभी अपने अपने घर तथा परिवार वालों को एकदम भूल गये थे। उन सबका चित्त श्रीजगन्नाथ जी में तथा महाप्रभु के चरणों में लगा रहता था। अब महाप्रभु ने भक्तों को अपने अपने घर लौट आने की आज्ञा दी। इस बात को सुनते ही मानो छोटे छोटे कोमल वृक्षों पर तुषार गिर पड़ा हो, उसी प्रकार का दु:ख उन सब भक्तों को हुआ।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Anand Vihar with devotees in Puri
Let the people talk about it as it is or so But we don’t think about Mukhro. Harirasamadiramdatimatta Bhuvi vilutham natam nirvisham।।
Worry is the demonic destroyer of joy and happiness. The world is a house of worries. Worldly people are worried about their wealth, respect, women and children and thousands of other types of worries. Because of those worries, their joy is completely destroyed and they always feel themselves to be distressed. Where is the happiness for those who are concerned about accumulating worldly pleasures? How can those poor people know the taste of happiness. The sweetness of bliss can be known only by the devotee of the Lord who is free from the desires of pleasures. Happiness is not in enjoyments but in not desiring them from the heart. That’s why the pilgrims of God leave the worldly pleasures and live in holy places or in the forests.
The worldly people are also affected by these holy places. When we meet a rich man at his house, we see him surrounded by an atmosphere of honor and dishonour, worries about his wife and son and his family, where he neither meets us lovingly nor talks openly. That is why when a disinterested sage meets at the place of Mahatma, at a holy place of worship or at a world-famous holy place, he meets very easily, laughs, plays and talks innocently like children. The reason for this is that there is an element of joy in his heart as well as an element of worry. Due to the predominance of the atoms of worry at home, he remains under their control. If the pure desire of Anand was not there in his heart, then why did he start going to virtuous reclusive Mahatmas? By going near him, it seems that he is also eager for true happiness and his blissful feelings blossom completely in the company of a great man, that is why it is said that even a righteous and virtuous householder who goes on the path of well-being, gets two months in a year. For this one should live in a holy place or in association with a great man. This can help him a lot in the path of Paramarth and he can also experience some real joy by consuming these places.
Devotees of Gaudiya had come to stay at the feet of the Lord for four months leaving the worries of home and family. One, he was the same devotee of Bhagavad, on that too he was blessed by Mahaprabhu and was completely indifferent to worldly pleasures. That’s why he could get the good fortune of living for so many days in the company of Premavatar Sri Chaitanyadev in the supremely pure Punyakshetra like Purushottam. Mahaprabhu was an embodiment of bliss, it was inevitable to experience ultimate bliss in his company. That’s why the devotees were very happy with the Lord for four months. Mahaprabhu also used to do different types of sports with him everyday.
The Panchami that comes after the Rath Yatra is called ‘Herapanchami’. On that day Mahalakshmi herti means searching for God. That’s why her name is Herapanchami. The festival of Herapanchami in Jagannath ji is also celebrated with great fanfare. Just like the temple of Jagannath ji is called Neelachal. Similarly, the temple of Gunticha Garden is called Sundarachal. God resides in Sundarachal only on that day, but the festival of Herapanchami takes place here in Neelachal only. This time Maharaj ordered his family priest Srikashi Mishra to celebrate Herapanchami with great pomp. As per the order of Maharaj, the temple of God was decorated in various ways. Maharaj himself gave his household items for the decoration of the festival and special arrangements were made for the darshan of Mahaprabhu. Early in the morning, Mahaprabhu reached Neelachal from Sundarachal to see the Lakshmi-Vijayotsav of Herapanchami along with all the devotees. Maharaj had already made beautiful arrangements for his seating. Mahaprabhu sat here along with all his devotees. Meanwhile, sitting in a very beautiful dola, Lakshmi ji, searching for God, came along with all her maids. At that time Lakshmi ji’s beauty was unique. His whole body was adorned with various precious ornaments, in front of him danced female deities and various musical instruments were playing in front of him. As soon as Lakshmi ji arrived, the maidservants tied the chief servants of Jagannath ji and after tying them, presented them in front of Lakshmi ji. The maids used to beat those servants too. Mahaprabhu asked Swarupadamodar – ‘Swaroop! What is the matter, why is Lakshmi ji so angry?
Swarupadamodar said – ‘ Lord! It is a matter of anger. Who would not feel immense sorrow on being separated from their beloved.
Mahaprabhu asked – ‘I want to know why the Lord secretly went to Vrindavan alone like a thief, why did He not take Lakshmi ji with Him?’
Swarupadamodar said – ‘ Lord! Only the Gopikas of Vraj have the right in Rasleela, Lakshmi ji’s fate does not have this good fortune.’
In this way, Mahaprabhu ji kept talking to Shrivas Pandit and Swarupadamodar for a long time in this regard. Shrivas Pandit used to tactfully refute the words of Swarupadamodar by taking the side of Lakshmiji. In this way this loving dispute continued for some more time. In the meantime, on the promise of the servants that we will bring your master soon and meet you, Lakshmi ji untied her bonds and she returned to her place. Mahaprabhu ji also returned to Sundarachal with Lakshmiji’s prasad. There, along with the devotees, he had darshan of Sandhya-Aarti and sankirtan continued till late night.
In this way, for eight days, Mahaprabhu kept enjoying with the devotees in Sundarachal. He regularly used to play water sports with the devotees in Prati Indradyumna-sarovar. Some are splashing water on someone, while some are riding on someone. Devotees flock in groups and shower water on each other, shower and take a dip and hold each other’s feet. Then two would fight with each other in water.
Sarvabhauma Bhattacharya, Raya Ramananda, Gopinathacharya and many other eminent men of the kingdom, including Gaudiya devotees, would participate in the water sports of the Lord. Rai Mahasaya and Sarvabhaum’s manipulation was broken. They used to fight with each other in various ways. Seeing the curiosity of these two, Mahaprabhu used to stand aside and laugh. Sometimes he used to say to Gopinathacharya – ‘Acharya! Why don’t you avoid both of them? Seeing them playing like children, what would people say to them, both of them are men of great prestige and honour.’
Acharya laughingly said- ‘When you have so much grace on these two, then will they always keep their greatness together? All this is the result of your grace.
Acharya Sarvabhaum, gulping water loudly, said- ‘Harirasamdiramden matta bhuvi vilutham natam nirvisham’ we have gone mad, mad!” Would have taken In this way this joy used to happen almost everyday. In the evening, Mahaprabhu came to Tota Bagh to enact Shri Krishna Leelas regularly, which gave immense pleasure to the devotees. In this way, eight days were spent talking and talking like this, no one would know when we came to Sundarachal and when eight days passed! The time of happiness passes easily like this.
Thus, after living with Ananda for eight days, now the time has come for Jagannath’s ‘Ulti Rath Yatra’. God will now leave Sundarachal and come to Neelachal. That’s why the servants started trying to get God on the chariot. Dayitagan ties the Lord in the strings and puts him on the chariot. At that time one of his ‘Pattadori’ broke while offering the Lord on the chariot. The Lord felt very sad on this and Shri Ramanand and Satyaraj, the residents of the elite village coughed and said – ‘You people are capable, you are rich. The best use of money is that it should be spent in the service and worship of God. You take this work on yourself. Every year make a beautiful strong pattadori of God from your place and bring it with you at the time of chariot festival.
Both these rich devotees heeded this order of the Lord and appreciated their fortune. From his second year onwards, he used to bring the Lord with him every year after making him a Pattadori.
After Lord’s ‘Panduvijaya’ i.e. Ratarohan Puja, the chariot moved towards Shri Jagannath ji, Mahaprabhu also walked in front of the chariot doing sankirtan along with the devotees. After sitting in the temple of the Lord and seeing Him, Mahaprabhu returned to His place and rested after receiving the Prasad along with the devotees.
Devotees of Gaudiya used to offer alms to the Lord at their place regularly. Mahaprabhu also used to give alms to all the devotees with love and asked them different types of questions regarding family and family. Similarly, Janmashtami came when Shravan was over. Mahaprabhu celebrated the festival of Janmashtami with great pomp along with the devotees. On the day of Nandotsav, he performed Nandotsav Leela by taking along his Gaudiya Bhaktarupi cowherd boys. Utkal’s native devotees and the employees of the temple were also included in it. Kanai Khutia and Jagannath Maiti became Nanda-Yashoda respectively. Mahaprabhu himself disguised himself as a young cow and started dancing with a stick in his hand. All the spectators were amazed to see Mahaprabhu’s cleverness in wielding his stick. At that time, Maharaj Prataparudra ji tied a costly cloth and Prasad of Jagannath ji on his head in the spirit of the Lord.
All the companions of the Lord started dancing by shouting and shouting. The devotees who had disguised themselves as Nanda Yashoda, literally entered their homes and looted all their wealth to brahmins and visitors, which pleased Mahaprabhu. Thus that day’s leela ended with great joy. After Janmashtami, the festival of Vijayadashami came. In it, Mahaprabhu himself became Mahavir Hanuman and went to win over Ravana by making the devotees into bears and monkeys. No one knew when Mahaprabhu’s cohabitation time ended. Everyone had completely forgotten their homes and family members. Their mind was fixed on Lord Jagannath and at the feet of Mahaprabhu. Now Mahaprabhu ordered the devotees to return to their respective homes. On hearing this, as if frost had fallen on small tender trees, all those devotees felt the same kind of sorrow.
respectively next post [121] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]