[125]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
प्रकाशानन्द जी के साथ पत्र-व्यवहार

मनसि वचसि काये प्रेमपीयूषपूर्णा-
स्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।

महाप्रभु गौरांगदेव के सार्वभौम भट्टाचार्य ने एक स्रोत में एक सौ आठ नाम बताये हैं। उनमें से एक नाम मुझे अत्यन्त ही प्रिय है वह है ‘अदोष-दर्शी’। सचमुच महाप्रभु अदोष-दर्शी थे, वे मुख से ही दूसरों की बुराई न करते हों, यही नहीं, किन्तु वे लोगोंके दोषों की ओर ध्यान नही नहीं देते थे। उनके जीवन मे कटुता कहीं भी नहीं पायी जाती। वे बड़ो के सामने सदा सुशील बने रहते। संन्यासी होने पर भी उन्होंने कभी संन्यासीपने का अभिमान नहीं किया, सदा अपने से ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध पुरुषों के सामने वे नम्रतापूर्वक बर्ताव करते। सदा उनके लिये सम्मानसूचक सम्बोधन का प्रयोग करते। छोटे भक्तों से अत्यन्त ही स्नेह के साथ और अपने बड़प्पन को भुलाकर इस प्रकार बातें करते कि उस समय अपने में और उसमें किसी प्रकार का भेद-भाव न रहने देते। इन्हीं सब कारणों से तो भक्त इन्हें प्राणों से अधिक प्यार करते और अपने को सदा प्रभु की इतनी असीम कृपा के भार से दबा हुआ-सा समझते।

जहाँ अत्यन्त ही प्रेम होता है, वहीं भगवान प्रकट हो जाते हैं। भगवान का न कोई एक निश्चित रूप है, न कोई एक ही नियत नाम। नाम-रूप से परे होने पर भी उनके असंख्यों रूप हैं और अगणित नाम हैं। जिसे जो नाम प्रिय हो उसी नामरूप द्वारा प्रभु प्रकट हो जाते हैं। भगवान प्रेममय तथा भावमय हैं। जहाँ भी प्रेम हो जाय, जिसमें भी दृढ़ भावना हो जाय, उसके लिये वही सच्चा ईश्वर का स्वरूप है, तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।

जब प्रेमपात्र अपने प्यारे के असीम अनुकम्पा के भार से दबने लगता है, तब उसकी स्वतः ही इच्छा होती है कि मैं अपने प्यारे के गुणों का बखान करूँ। वह ऐसा करने के लिये विवश हो जाता है। उससे उसकी बिना प्रशंसा किये रहा ही नहीं जाता। प्रेम में यही तो विशेषता है। प्रेमी अपने आनन्द को सब में बाँटना चाहता है। वह स्वार्थी पुरुष के समान स्वयं अकेला ही उसकी मधुमय मिठास से तृप्त होना नहीं चाहता। दूसरों को भी उस अद्भुत रस का आस्वादन कराने के लिये व्यग्र हो उठता है। उसी व्यग्रता में वह विवश होकर अपने उपास्यदेव के गुण गाने लगता है।

भक्त लोग महाप्रभु में भगवत-भावना रखते थे। इन सबके अग्रणी थे परम शास्त्रवेत्ता श्रीअद्वैताचार्य। इसलिये उन्होंने ही पहले-पहल नीलाचल में ही गौर-संकीर्तन का श्री गणेश किया। तब तक गौरांग के सम्बन्ध के पदों की रचना नहीं हुई थी; इसलिये अद्वैताचार्य ने स्वयं ही निम्न पद बनाया-

श्रीचैतन्य नारायण करुणासागर।
दुःखितेर बन्धु प्रभु मोर दयाकर।।

इस पद की रचना करके सभी भक्तों से उन्होंने इस ताल-स्वर में गवाया। सभी भक्त प्रेम में विभोर होकर इस पद का संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु भी कीर्तन की उल्लासमय आनन्दमय सुमधुर ध्वनि सुनकर वहाँ आ पहुँचे। जब उन्होंने अपने नाम का कीर्तन सुना तब तो वे उलटे पैरों ही लौट पड़े। पीछे कुछ प्रेमयुक्त क्रोध प्रकट करते हुए महाप्रभु श्रीवास पण्डित से कहने लगे- ‘आपलोग यह क्या अनर्थ कर रहे हैं, कीर्तनीय तो वे ही श्रीहरि हैं, उनके कीर्तन को भुलाकर अब आपलोग ऐसा आचरण करने लगे हैं, जिससे लोगों में मेरा अपयश हो और परलोक में मैं पाप का भागी बनूँ’ इतनेमें ही कुछ गौड़ीय भक्त संकीर्तन करते हुए जगन्नाथ जी के दर्शनों से लौटकर प्रभुके दर्शनों के लिये आ रहे थे।

वे जोरों से ‘जय चैतन्य की’ ‘जय सचल जगन्नाथ की’ ‘जय संन्यासी-वेषधारी कृष्ण की’ आदि जय-जयकार करते आ रहे थे। तब श्रीवास ने कहा- ‘प्रभो! हमें तो आप जो आज्ञा देंगे वही करेंगे। किन्तु हम संसार का मुख थोड़े ही बंद कर सकते हैं। आप ही बतावें इन्हें किसने सिखा दिया है ?’ इससे महाप्रभु कुछ लज्जित-से होकर चुपचाप बैठे रहे, उन्होंने इस बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। पीछे ज्यों-ज्यों लोगों का उत्साह बढ़ता गया, त्यों-त्यों भगवान के नामों के साथ निताई-गौर का नाम भी जुड़ता गया। पीछे से तो निताई-गौर का ही कीर्तन प्रधान बन गया।

अधिकांश भक्तों का भाव इनके प्रति सचमुच ईश्वरप ने का था। इतने पर भी ये सावधान ही बने रहते। अपने को सदा दासानुदास ही समझते और कभी किसी के सामने अपनी भगवत्ता स्वीकार नहीं करते। इनके भक्त भिन्न-भिन्न प्रकृति के थे। बहुत-से तो इन्हें वात्सल्य भाव से ही प्यार करते, ये भी उन्हें सदा पितृभाव से पूजते तथा मानते थे।

दामोदर पण्डित से तो पाठक परिचित ही होंगे। प्रभु ने उन्हें घर पर माता की सेवा-शुश्रूषा के निमित्त नवद्वीप भेज दिया था। एक बार जब वे पुरी में प्रभु से मिलने आये तो वैसे ही बातों-ही-बातोंमें माता का कुशल समाचार पूछते-पूछते प्रभु ने कहा- ‘पण्डित जी! माता कृष्ण-भक्ति करती हैं न ?’ बस फिर क्या था, दामोदर पण्डित का क्रोध आवश्यकता से अधिक बढ़ गया। वे माता के चरणों में बड़ी श्रद्धा रखते थे और स्पष्ट वक्ता ऐसे थे कि प्रभु का जो भी कार्य उन्हें अशास्त्रीय या अनुचित प्रतीत होता उसे उसी समय सबके सामने ही कह देते। प्रभु के ऐसा पूछने पर उन्होंने रोष के साथ कहा- ‘प्रभो! माता की भक्ति के सम्बन्ध में आप पूछते हैं ? तो सच्ची बात तो यह है कि आप में जो कुछ थोड़ी-बहुत भगवद्-भक्ति दीखती है, यह सब माता की ही कृपा का फल है।’

दामोदर पण्डित के ऐसे उत्तर को सुनकर प्रभु प्रेम में विभोर हो गये और प्रेममयी माता के स्नेह का स्मरण करते हुए गद्गदकण्ठ से कहने लगे- पण्डित जी! आपने बिलकुल सत्य बात कह दी। अहा, माता की भक्ति को कोई क्या समझ सकेगा? आपने ही यथार्थ में माता को समझाया है। सचमुच मेरे हृदय में जो भी कुछ कृष्ण-भक्ति है वह माता का ही प्रसाद है। हाय! ‘ऐसी प्रेममयी जननी को भी छोड़कर मैं चला गया।’ इतना कहते-कहते प्रभु वस्त्र से मुख ढककर रुदन करने लगे। यह महापुरुषकी दशा है, जिन्हें भक्त साक्षात ‘सचल जगन्नाथ’ समझते थे। उन्होंने दामोदर पण्डित के इस रूखे उत्तर को कुछ भी बुरा न मानकर उलटी उनकी प्रशंसा ही की। तभी तो आज असंख्यों पुरुष गौर-चरणों का आश्रय ग्रहण करके असीम आनन्द का अनुभव कर रहे हैं और अपने मनुष्य-जीवन को धन्य बना रहे हैं।

महाप्रभु की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। साधारण जनता में ही नहीं, किन्तु विद्वन्मण्डली में भी इनके अद्भुत प्रभाव की चर्चा होने लग गयी थी। सार्वभौम भट्टाचार्य की विद्वत्ता, धारणा शक्ति और पढ़ाने की सुगम और सरल शैली की सर्वत्र प्रसिद्धि हो चुकी थी। काशी के विद्वत्समाज में उनका नाम गौरव के साथ लिया जाता था। उन दिनों काशी में प्रकाशान्द सरस्वती नामक एक दण्डी संन्यासी परम विद्वान और वेदान्त-शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। वे सार्वभौम की अलौकिक प्रतिभा और प्रचण्ड पाण्डित्य से परिचित थे। उन्होंने जब सुना कि पुरी में एक नवीन अवस्था का युवक संन्यासी विराजमान है और सार्वभौम-जैसे विद्वान अपने वेदान्त-ज्ञान को तुच्छ समझकर उनके चरणों में भक्ति करते हैं और उसे साक्षात ईश्वर समझते हैं, तब तो उन्हें बड़ा कुतूहल हुआ। तब तक उनकी अद्वैत-वेदान्त में निष्ठा थी, वैसे वे सरस और प्रेमी हृदय के थे, किन्तु अभी तक उनकी सरसता छिपी ही हुई थी, उसे किसी भारी चीज की ठेस नहीं लगी थी, जिससे वह छलकर प्रस्फुटित हो सकती। उन्होंने कौतुकवश एक श्लोक लिखकर जगन्नाथ जी आने वाले किसी गौड़ीय भक्त के हाथों प्रभु के पास भेजा। वह श्लोक यह था-

यत्रास्ते मणिकर्णिका मलहरी स्वर्दीर्घिका दीर्घिका
रत्नं तारकमोक्षदं मृततनौ शम्भुः स्वयं यच्छति।
एतत्त्वद्भुतमेव यत् सुरपुरान्निर्वाणमार्गस्थितान्
मूढोऽन्यत्र मरीचिकासु पशुवत् प्रत्याशया धावति।।

इस श्लोक में ज्ञान को प्रधानता दी गयी और मोक्ष को ही परम पुरुषार्थ बताकर उसी की प्राप्ति के लिये संकेत किया गया है। इसका भाव यह है- ‘जिस स्थान पर मर्णिकर्णिका कुण्ड और पाप-ताप-हारिणी स्वर्दीर्घिका भगवती भागीरथी हैं, जहाँ मुर्दे को देवाधिदेव भगवान शूलपाणि स्वयं मोक्ष देने वाले तारकरत्नको प्रदान करते हैं, मूर्खलोग ऐसी परमपावन मोक्ष के मार्ग में स्थित सुरपुरी का परित्याग करके पृथ्वी पर पशु के समान इधर-उधर भटकते फिरते हैं, यही आश्चर्य है।’

गौड़ीय भक्त ने यथासमय नीलाचल पहुँचकर पूज्यपाद प्रकाशानन्द जी का पत्र प्रभु के पादपद्यों में समर्पित किया। प्रभु पत्र को पाकर और प्रकाशानन्द जी का नाम सुनकर बहुत अधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने बड़े ही आदर के सहित पत्र को स्वयं खोला और खोलकर पढ़ने लगे। श्लोकों को पढ़ते ही प्रभु उसका भाव समझ गये और मन्द-मन्द मुसकराते हुए वे सार्वभौम आदि भक्तों की ओर देखने लगे। भक्तों के जिज्ञासा करने पर स्वरूपदानमोदर ने यह पत्र पढ़कर उपस्थित सभी भक्तों को सुना दिया। प्रभु ने श्रीपाद प्रकाशानन्द जी के पाण्डित्य की प्रशंसा की और उनके सम्मानार्थ स्वरूप गोस्वामी से एक श्लोक लिखवाकर उसी भक्त के हाथ उत्तरस्वरूप में उनके पास भिजवा दिया। वह श्लोक यह है-

घर्माम्भो मणिकर्णिका भगवतः पादाम्बु भागीरथी
काशीनां पतिरर्द्धमेव भजते श्रीविश्वनाथः स्वयम्।
एतस्यैव हि नाम शम्भुनगरे निस्तारकं तारकं
तस्मात्कृष्णपदाम्बुजं भज सखे! श्रीपादनिर्वाणदम्।।

‘जिनके पसीन के जल से मणिकर्णिकाकी उत्पत्ति हुई है, भगवती भागीरथी जिनके चरण-जल से उत्पन्न हुई हैं, स्वयं साक्षात काशीपति भगवान विश्वनाथ जिनके आधे अंग बने हुए हैं और काशी-नगरी में जिनका तारक नाम ही जीवों को संसार-सागर से तारने में समर्थ है। हे सखे! ऐसे मोक्षदायक श्रीकृष्ण-चरणों का भजन तुम क्यों नहीं करते? अर्थात उन्हीं चरणारविन्दों का चिन्तन करो।’ इस श्लोक में भगवद्-भक्ति को प्रधानता दी गयी है और मुक्ति को भक्ति के सामने तुच्छ बताया है।

इस उत्तर को पाकर स्वामी प्रकाशानन्द जी महाराजकी क्या दशा हुई होगी, इसे तो वे ही जानें, किन्तु उन्होंने थोड़े दिनों के बाद एक श्लोक प्रभु के पास और भेजा।

महाप्रभु का नियम था कि वे भगवान के प्रसाद पाने में आगा-पीछा नहीं करते थे। मन्दिर का प्रसाद जब भी उन्हें मिल जाता तभी उसे मुंह में डाल देते थे। भक्त उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे, इसलिये वे इन्हें नित्य ही बहुत बढ़िया-बढ़िया विवधि प्रकार के पदार्थ खिलाया करते थे। प्रभु भी उनकी प्रसन्नता के निमित्त सभी प्रकार के पदार्थों को खा लेते और दिनमें अनेकों बार। यह संन्यासके साधारण नियमके विरुद्ध आचरण है। संन्यासी को तो एक बार ही भिक्षा में जो रूखा-सूख अन्न मिल जाय, उसी से उदर-पूर्ति कर लेनी चाहिये। उसे विविध प्रकार के रसों का पृथक्-पृथक् स्वाद नहीं लेना चाहिये, किन्तु महाप्रभु तो प्रेमी थे। वे संन्यासी भी थे। किन्तु पहले प्रेमी और पीछे संन्यासी। प्रेम के सामने वे संन्यास-नियमों को कभी-कभी स्वतः ही भूल जाते, कहावत भी है ‘प्रेम में नियम नहीं।’ सचमुच वे प्रेमी भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर उनकी प्रसन्नता के निमित्त नियमों की विशेष परवा नहीं करते थे। इसे मस्तिष्क प्रधान विचारक कैसे समझ सकता है? वह तो नियमों को ईश्वर समझता है और कठोरता तथा हठके साथ नियमों को पालन करता है। ऐसा पुरुष भी वन्दनीय और पूजनीय है, किन्तु दूसरों को भी ऐसा ही बनने के लिये आग्रह करना ठीक नहीं। प्रेमी का तो पथ ही दूसरा है।

‘गोकुल गांव को पैंडो ही न्यारो’ प्रेमियों की मथुरा तो तीन लोकों से न्यारी ही है। प्रकाशानन्द जी ने नियमों की कठोरता दिखाते हुए भर्तृहरिशतक के श्रृंगारश तक का निम्नलिखित श्लोक लिखकर प्रभु के पास भेजा-

विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना-
स्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः।
शाल्यन्नं सघ्तं पयोदधियुतं भुंजन्ति ये मानवा-
स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यस्तरेत् सागरम्।।

इसका भाव यह है कि विश्वामित्र, पराशर प्रभृति ऋषि-महर्षि सहस्रों वर्षपर्यन्त वायु भक्षण करके तथा सूखे पत्ते खाकर घोर तप करते रहे, इतने पर भी वे स्त्री के कमलरूपी मनोहर मुख को देखकर मोहित हो गये। जब इतने-इतने बड़े संयम करने वाले महर्षियों की यह दशा है, तो नित्यप्रति बढ़िया चावल, दूध, दही, घृत तथा इनके बने हुए भाँति-भाँति के पदार्थों को रोज ही खाते हैं, उनकी इन्द्रियों को यदि वश में रहना सम्भव है तो विन्ध्याचल पर्वत का भी समुद्र के ऊपर तैरते रहना सम्भव हो सकता है। अर्थात ऐसे पदार्थों को खाकर इन्द्रियों को संयम करना असम्भव है। महाप्रभु ने इस श्लोक को पढ़ा, पढ़ते ही उन्हें कुछ लज्जा-सी आयी और विरक्तभाव से उन्हें यह पत्र स्वरूपदामोदर के हाथ में दे दिया। स्वरूपदामोदर जी ने कुछ रोष के स्वर में कहा- ‘मैं इसका अभी उत्तर देता हूँ।’

महाप्रभु ने अत्यन्त ही सरलता से कहा- ‘इसका उत्तर हो ही क्या सकता है? गाली का उत्तर गाली ही हो सकती है और विवेकी पुरुष गाली देना उचित नहीं समझते। इसीलिये वे दूसरों की गाली सुनकर मौन ही रह जाते हैं। वे कैसी भी गाली का उत्तर नहीं देते। इसलिये अब इसका उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं है। बात ठीक ही है। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान होती हैं, वे विद्वानों को भी अपनी ओर खींच लेती हैं।’

महाप्रभु की आज्ञा से उस समय तो सभी भक्त चुप रह गये, किन्तु सभी में महाप्रभु के समान सहनशीलता नहीं हो सकती। इसलिये भक्तों ने प्रभु के परीक्षा में नीचे का श्लोक लिखकर प्रकाशानन्द जी के पास इस श्लोक का उत्तर भेज दिया-

सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी
संवत्सरेण कुरुते रतिमेकवारम्।
पारावतस्तृणशिखाकणमात्रभोगी
कामी भेवदनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः।।

अर्थात ‘महाबली सिंह शूकर और हाथियों का पुष्टकारी मांस ही खाता है फिर भी वर्षभर में केवल एक ही बार काम-क्रीड़ा करता है। (किसी-किसी का कथन है कि सिंह सम्पूर्ण आयु में एक ही बार रति करता है।) इसके विपरीत कपोत साधारण तृणों के अग्रभाग तथा कंकड़ आदि को ही खाकर जीवन-निर्वाह करता है, फिर भी नित्यप्रति काम-क्रीड़ा करता है! (कपोत के समान कामी पक्षी दूसरा कोई है ही नहीं, वह दिन में अनेकों बार रति करता है।) यदि भोजन ही ऊपर कामी होना और न होना अवलम्बित हो तो बताओ इस बैषम्य का क्या कारण है?’ पता नहीं इस श्लोक का श्रीपाद प्रकाशानन्द जी पर क्या असर हुआ, किन्तु इसके बाद फिर पत्र-व्यवहार बन्द ही हो गया। सार्वभौम भट्टाचार्य ने महाप्रभु से आज्ञा माँगी कि हमें काशी जाने की आज्ञा दीजिये। हम वहाँ प्रकाशानन्द जी को शास्त्रार्थ में पराजित करके उन्हें भक्ति तत्त्व समझा आवेंगे। महाप्रभु को शास्त्रार्थ और जय-पराजय ये सांसारिक प्रतिष्ठा के कार्य पसंद नहीं थे। भगवद्-भक्त किसे पराजित करें। सभी तो उसके इष्टदेव के स्वरूप हैं। इसलिये सभी को ‘सीयराम’ समझकर वह हाथ जोड़े हुए प्रणाम करता है-

सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।

किन्तु सार्वभौम कैसे भी भक्त सही, उन्हें अपने शास्त्र का कुछ-न-कुछ थोड़ा-बहुत अभिमान तो था ही। भक्तों के सामने वह दबा रहता था और अभिमानियों के सम्मुख प्रस्फुटित हो जाता था। महाप्रभु के मने करने पर भी उन्होंने काशी जाने के लिये प्रभु से आग्रह किया। महाप्रभु ने उनकी उत्कट इच्छा देखकर काशी जी जाने की आज्ञा दे दी। ये काशी गये भी। किन्तु वहाँ से जैसे गये थे वैसे ही लौट आये, न तो वे महामहिम प्रकाशानन्द जी को शास्त्रार्थ में पराजित ही कर सके और न उन्हें ज्ञानी से भक्त ही बना सके। इससे वे कुछ लज्जित भी हुए और महाप्रभु के सामने आने से संकोच करने लगे। तब महाप्रभु स्वयं उनसे जाकर मिले और उन्हें सान्त्वना देते हुए कहने लगे- ‘आपका कार्य बड़ा ही स्तुत्य था। भक्तिविहीन जीवों को भक्ति-मार्ग में लाने की इच्छा किसी भाग्यशाली महापुरुष के ही हृदयमें होती है।’ महाप्रभु के इन सान्त्वनापूर्ण वाक्यों से सार्वभौम की लज्जा कुछ कम हुई। इस घटना के अनन्तर उनका प्रेम महाप्रभु के चरणों में और भी अधिक बढ़ गया।

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Correspondence with Prakashanandji

In your mind, in your words, in your body, you are full of the nectar of love- Pleasing the three worlds with a series of benefits. Ever mountainous atoms of other qualities How many saints are there who are developing in their own hearts

Sarvabhauma Bhattacharya of Mahaprabhu Gaurangadeva has mentioned one hundred and eight names in one source. One of those names is very dear to me and that is ‘Adosha-Darshi’. Truly Mahaprabhu was innocent, he may not have spoken ill of others, not only this, but he did not pay attention to the faults of the people. Bitterness is not found anywhere in his life. He always remained polite in front of the elders. Even after being a monk, he never took pride in being a monk, he always behaved humbly in front of knowledgeable and elderly men. Always used respectful address for them. He used to talk to small devotees with utmost affection and forgetting his greatness in such a way that at that time he would not allow any kind of discrimination between himself and them. For all these reasons, the devotees love him more than their lives and always consider themselves to be burdened by the immense grace of the Lord.

Where there is immense love, there God appears. There is neither one fixed form of God, nor one fixed name. Though He is beyond name and form, He has innumerable forms and innumerable names. To whomever name is dear, the Lord appears through that name and form. God is loving and emotional. Wherever there is love, wherever there is strong feeling, that is the form of true God, that is why Goswami Tulsidas ji has said-

Those who have feelings like I saw three idols of God.

When the beloved begins to be suppressed by the weight of his beloved’s infinite compassion, then he automatically desires to extol the virtues of his beloved. He is forced to do so. He cannot help but praise him. This is the specialty in love. The lover wants to share his joy with all. Like a selfish man, he himself does not want to be satisfied with her honey sweetness alone. He gets anxious to make others taste that wonderful juice. In the same anxiety, he is forced to sing the praises of his worshiped god.

Devotees used to have Bhagwat-feeling in Mahaprabhu. The pioneer of all these was the supreme scholar Shri Advaitacharya. That’s why he first performed Gaur-Sankirtan to Shri Ganesh in Neelachal itself. Till then the posts regarding Gauranga had not been created; That’s why Advaitacharya himself made the following post-

Sri Chaitanya Narayana Karunasagar. Lord, friend of the suffering, have mercy on me.

After composing this verse, he made all the devotees sing it in this rhythm. All the devotees started chanting this post being engrossed in love. Mahaprabhu also reached there after hearing the joyous melodious sound of kirtan. When he heard the kirtan of his name, he turned back. Later, expressing some loving anger, Mahaprabhu Shrivas said to Pandit – ‘What disaster are you doing, he is Shri Hari, who is worthy of praise, forgetting his kirtan, now you have started behaving in such a way that I will be discredited among people and in the next world. May I become a partaker of sin’ In the meantime, some Gaudiya devotees were coming back from Jagannath ji’s darshan while doing Sankirtan to see the Lord.

They were loudly chanting ‘Jai Chaitanya’, ‘Jai Sachal Jagannath’, ‘Jai Sanyasi-Veshdhari Krishna’ etc. Then Shrivas said – ‘Lord! We will do whatever you order. But we can only close the mouth of the world. You tell me, who has taught them?’ Due to this, Mahaprabhu sat silently due to some shame, he did not answer anything about this. Later on, as the enthusiasm of the people increased, the names of Nitai-Gaur were also associated with the names of God. From behind, Nitai-Gaur’s kirtan became the main thing.

Most of the devotees really had the feeling of God towards them. Despite this, he would have remained careful. He always considers himself to be a slave and never accepts his divinity in front of anyone. His devotees were of different nature. Many loved him only out of affection, he also always worshiped and respected him with paternal attitude.

Readers must be familiar with Damodar Pandit. The Lord had sent him to Navadweep for the service and care of his mother at home. Once when he came to meet the Lord in Puri, while asking about the good news of the mother in the same way, the Lord said – ‘Pandit ji! Mother worships Krishna, doesn’t she? What was it then, Damodar Pandit’s anger increased more than necessary. He had great faith in the feet of the mother and was such a clear speaker that whatever work of the Lord seemed unscriptural or inappropriate to him, he would have told it in front of everyone at the same time. When the Lord asked this, he said with anger – ‘ Lord! You ask about devotion to mother? So the truth is that whatever little devotion to God is seen in you, all this is the result of Mother’s grace.’

Hearing such an answer from Damodar Pandit, the Lord became overwhelmed with love and remembering the affection of the loving mother, started saying in a loud voice – Pandit ji! You have told absolutely the truth. Ahha, how can anyone understand the devotion of the mother? You have actually explained to the mother. Truly whatever Krishna-devotion I have in my heart is the mother’s prasad. Oh! ‘I left such a loving mother and left.’ Saying this, the Lord started crying by covering his face with a cloth. This is the condition of a great man, whom the devotees used to consider as ‘Sachal Jagannath’. He did not consider this rude answer of Damodar Pandit as anything bad and on the contrary praised him. That’s why today innumerable men are experiencing immense joy by taking shelter of Gaur-feet and are making their human life blessed.

The fame of Mahaprabhu had spread far and wide. Not only in the general public, but also in the Vidwanmandali, the discussion about his amazing effect had started. Universal Bhattacharya’s scholarship, perception power and easy and simple style of teaching had become famous everywhere. His name was taken with pride in the learned community of Kashi. In those days, a Dandi monk named Prakashand Saraswati was a supreme scholar and a great scholar of Vedanta-Shastra in Kashi. He was familiar with the supernatural talent and immense erudition of the universal. When he heard that a young monk of a new stage is sitting in Puri and universal-like scholars, considering their Vedanta-knowledge as insignificant, do devotion at his feet and consider him to be God in person, then he was very curious. Until then, he had faith in Advaita-Vedanta, although he was a rasa and a lover of heart, but till now his rasa was hidden, he was not hurt by any heavy thing, due to which it could emerge deceitfully. Out of appreciation, he wrote a verse and sent it to the Lord in the hands of a Gaudiya devotee coming to Jagannath ji. That verse was

Where there is the Manikarnika Malahari Svardirghika Dirghika Shambhu himself gives the gem that gives liberation to the stars in the dead body. It is wonderful that the city of the gods is on the path to Nirvana A fool runs like an animal in anticipation among the peppers elsewhere

In this verse, priority has been given to knowledge and Moksha has been indicated for its attainment by telling it as the ultimate effort. The meaning of this is- ‘The place where Manikarnika Kund and sin-tapa-harini Swardighika Bhagirathi are Bhagirathi, where Devadhidev Lord Shoolpani himself provides Tarakaratna to the dead, leaving Surpuri situated in the path of such supreme salvation, the foolish people leave the earth. But they wander here and there like animals, that is the wonder.’

Devotee Gaudiya reached Neelachal in time and dedicated the letter of Pujyapad Prakashanand ji to the Lord’s footsteps. Prabhu was very happy after receiving the letter and hearing the name of Prakashanand ji. With great respect, he himself opened the letter and opened it and started reading it. As soon as he read the shlokas, the Lord understood his meaning and started looking at the devotees like Sarvabhaum with a soft smile. On the curiosity of the devotees, Swaroopdanmodar read this letter and narrated it to all the devotees present. Prabhu praised Shripad Prakashanand ji’s scholarship and in his honor got Swaroop Goswami to write a verse and sent it to the same devotee in the form of a reply. That verse is –

Gharmambho Manikarnika Bhagirathi is the water of the Lord’s feet Sri Vishwanath himself, the lord of Kashi, worships only half. This is the name of the savior and star in the city of Shambhu Therefore, worship the lotus feet of Krishna, my friend! Sripadanirvanadam.

From the water of whose sweat Manikarnika originated, Bhagwati Bhagirathi from whose feet-water originated, Lord Vishwanath, the Lord of Kashipati himself, whose half-organs are made and in the city of Kashi, whose name is the star to save the living beings from the world-ocean. is able. Hey friend! Why don’t you worship such savior Shri Krishna’s feet? That is, think about those Charanaravindas only. In this verse, importance has been given to Bhagavad-Bhakti and Mukti has been told as insignificant in front of Bhakti.

Swami Prakashanand Ji Maharaj’s condition must have been after getting this answer, only he knows, but after a few days he sent one more verse to the Lord.

Mahaprabhu’s rule was that he did not rush to get the prasad of God. Whenever he got the prasad of the temple, he used to put it in his mouth. Devotees loved him more than life itself, so they used to feed him various kinds of delicious food everyday. The Lord also used to eat all kinds of things for his happiness and many times a day. This is conduct against the general rule of sannyas. The monk should fill his stomach with the dry food that he gets in alms only once. He should not taste different types of juices separately, but Mahaprabhu was a lover. He was also a monk. But first a lover and then a sannyasin. In front of love, they sometimes automatically forget the rules of retirement, there is a saying ‘There are no rules in love’. Truly, being influenced by the love of the loving devotees, they did not particularly care about the rules for the sake of their happiness. How can a brain-oriented thinker understand this? He considers the rules as God and follows the rules with rigor and stubbornness. Such a man is also praiseworthy and worshipable, but it is not right to urge others to become like him. The path of the lover is different.

The Mathura of the lovers of ‘Gokul Gaon Ko Pando Hi Nyaro’ is more unique than the three worlds. Showing the strictness of the rules, Prakashanand ji wrote the following verse till the Shringarash of Bhartriharishtak and sent it to the Lord-

Vishvamitra, Parashar and others destroyed the wind, water and leaves. They too were fascinated by the beautiful lotus face of the woman Those who eat rice mixed with milk and yogurt are human- If they have restraint of their senses they will cross the ocean of Vindhya

The meaning of this is that Vishwamitra, Parashara Prabhriti Rishi-Maharishi kept on doing great penance for thousands of years by eating air and eating dry leaves, even then they were fascinated by seeing the beautiful lotus-like face of a woman. When this is the condition of great sages who exercise so much restraint, they eat good rice, milk, curd, ghee and various preparations made from them daily, if it is possible to control their senses, then Vindhyachal It is possible for even a mountain to float on the ocean. That is, it is impossible to control the senses by eating such substances. Mahaprabhu read this verse, felt a bit ashamed as soon as he read it and gave this letter to him in the hands of Swaroopadamodar. Swaroopdamodar ji said in a voice of anger – ‘I will answer it now.’

Mahaprabhu said very simply – ‘ What can be the answer to this? The answer to abuse can only be abuse and sensible men do not think it appropriate to abuse. That’s why they remain silent after listening to the abuses of others. They do not respond to any abuse. So there is no need to answer it now. It’s all right. The senses are very strong, they pull even the learned towards themselves.’

By the order of Mahaprabhu, all the devotees remained silent at that time, but not everyone can have tolerance like Mahaprabhu. That’s why the devotees wrote the following verse in the examination of the Lord and sent the answer of this verse to Prakashanand ji-

The lion is strong, elephant, pig, carnivore He makes love once a year. The pigeon enjoys only the grass crest Tell me why you are lustful every day

That is, ‘Mahabali Singh eats nutritious meat of pigs and elephants, yet he does sex and play only once in a year. (Some say that a lion mates only once in its entire life.) On the contrary, a pigeon survives by eating only the tips of grasses and pebbles etc., yet it performs sexual activities on a daily basis! (There is no other lustful bird like a pigeon, it sleeps many times a day.) If food itself depends on being lustful and not being lustful, then what is the reason for this disparity?’ Don’t know what effect this verse had on Shripad Prakashanand ji, but after this the correspondence stopped. Sarvabhaum Bhattacharya requested Mahaprabhu to allow us to go to Kashi. We will defeat Prakashanand ji there and understand him to be the element of devotion. Mahaprabhu did not like the work of worldly prestige and victory and defeat. Whom should the Bhagavad-devotees defeat? All are forms of his presiding deity. That’s why considering everyone as ‘Siyaram’, he salutes with folded hands-

Sita knows all the world as Ramamaya. karaun pranam jori jug pani।।

But however universal a devotee may be, he had at least some degree of pride in his scriptures. He used to remain suppressed in front of the devotees and used to blossom in front of the arrogant. Despite Mahaprabhu’s refusal, he urged the Lord to go to Kashi. Seeing his great desire, Mahaprabhu ordered him to go to Kashi. He also went to Kashi. But he returned from there in the same way as he had left, neither he could defeat His Highness Prakashanand ji in debate nor could he turn him into a devotee from a scholar. Due to this, he was somewhat ashamed and hesitated to come in front of Mahaprabhu. Then Mahaprabhu himself went and met him and while consoling him said – ‘ Your work was very praiseworthy. The desire to bring devotionless creatures to the path of devotion is only in the heart of a fortunate great man.’ With these consoling sentences of Mahaprabhu, the shame of the universal was reduced a bit. After this incident, his love for the feet of Mahaprabhu increased even more.

respectively next post [126] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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