।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
रूप की विदाई और प्रभु का काशी-आगमन
यः प्रागेव प्रियगुणगणैर्गाढबद्धोअपि मुक्तो
गेहाध्यासाद् रस इव परो मूर्त एवाप्यमूर्तः।
प्रेमालापैर्दृढ़तरपरिष्वंगरंगः प्रयागे
तं श्रीरूपं सममनुपमेनानुजग्राह देवः।।
प्रयाग में अपने भाई अनूप के सहित श्रीरूप दस दिनों तक प्रभु के चरण-कमलों के समीप रहे। ये विद्वान थे, भावुक थे, मेधावी थे, आस्तिक थे और थे प्रेमावतार चैतन्यदेव के परम कृपापात्र। फिर भला, इनका कल्याण होने में सन्देह ही क्या था। ये तो पहले से ही कल्याणस्वरूप थे, एक बार जिनके ऊपर गुरुचरणों की कृपा हो चुकी हो, वह फिर इस नश्वर जगत के क्षणिक और अनित्य भोगों में सुखानुभव कर ही कैसे सकता है? हंस हो जाने पर फिर वह कौए के भोजन का स्पर्श क्यों करेगा? गुरु कृपा से क्या नहीं हो सकता? यदि सदगुरु की एक बार भी कृपा हो जाये तो फिर चाहे वह पुरुष कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो उसका संसार-बन्धन बात-की-बात में छिन्न-भिन्न हो जायेगा और वह बन्धन मुक्त होकर गुरु की परम कृपा का अधिकारी बन जायेगा।
सदगुरु ही ईश्वर हैं, ब्रह्म के साकार स्वरूप का ही नाम गुरु है। हाड़-मांस का पुतला गुरु हो ही नहीं सकता। सर्वशक्तिमान का पद अल्पज्ञ जीव को प्राप्त हो ही कैसे सकता है? श्री रूप की दृष्टि में चैतन्यदेव हाड़-मांस के शरीरधारी जीव नहीं थे। वे तो उनके लिये प्रेम के साकार स्वरूप थे, सविशेष ब्रह्म थे। उन्होंने महाप्रभु को अवतारी सिद्ध करने की चेष्टा करते कि श्रीचैतन्य अवतार या अवतारी हैं। लोग कुछ भी समझें, उनके लिये तो श्री चैतन्य ही श्रीकृष्ण हैं। वास्तव में यह बात सत्य ही है। जहाँ भेदबुद्धि है वहीं इस बात का आग्रह किया जाता है कि ये ऐसे नहीं ऐसे हैं। श्री रूप की दृष्टि में भेद-भाव नहीं था तभी तो वे ‘भक्तिरसामृतसिन्धु’ के मंगलाचरण में लिखते हैं-
हृदि यस्य प्रेरणया प्रवर्तितोऽहं वराकरूपोऽपि।
तस्य हरेः पदकमलं वन्दे चैतन्यदेवस्य।।[2]
इन दस दिनों में ही प्रयाग में रहकर मेधावी श्रीरूप ने प्रभु से भक्ति के अत्यन्त गूढ़ रहस्य को समझ लिया और उसी का आपने अपने अनेकों ग्रन्थों में वर्णन किया है। महाप्रभु इनके हृदय की सच्ची लगन को जानते थे, इसलिये इन्हें वैराग्य का उपदेश करते हुए कहने लगे- ‘रूप! देखो, यह संसार विषय भोगों में कैसा पागल बना हुआ है। पद, प्रतिष्ठा, पैसा, पुत्र, परिवार तथा प्रेम-पदार्थों की प्राप्ति की चिन्ता में ही यह अमूल्य जीवन बरबाद हो जाता है। कामिनी, कांचन और कीर्ति इन तीन रस्सियों ने ही जीव को कसकर बांध रखा है। इनके कारण यह तनिक भी इधर-उधर हिल-डुल नहीं सकता।
भगवान की प्राप्ति का मार्ग इन तीनों से दूसरी ही ओर है। इन तीनों का मन से जब पुरुष त्याग कर देता है, तब तो वह उस मार्ग की ओर जाने का अधिकारी होता है। जिन्हें इन तीनों में सुख का अनुभव होता है, उन्हें भक्ति कहाँ? प्रभु-प्रेम कैसा? वे तो प्रभु के बारे में बातें करने के क्या-एक शब्द कहने के भी अधिकारी नहीं हैं। जो स्वयं बँधा पड़ा है, उसका बिना देखे मार्ग का वर्णन करना केवल विनोद ही है। बिना चाखे कोई अमृत का स्वाद बता सकता है? चाखने पर भी लोग ठीक कहने में समर्थ नहीं होते, तब सुनकर कोई कह ही क्या सकता है?
रूप! तुम सोचो तो सही, जिस स्त्री के पीछे संसार पागल हो रहा है, वह वास्तव में है क्या? इन्हीं पंचभूतों की एक पुतली है। किसी सुन्दर-से-सुन्दर स्त्री को एकान्त में ऐसी हालत में देखो जब उसे संग्रहणी का रोग हो गया हो और उसके पास सेवा करने के लिये कोई भी मनुष्य न हो, तुम देखोगे, उसके सम्पूर्ण शरीर से दुर्गन्ध उठ रही होगी।
वस्त्रों को छूने की तबीयत न चाहेगी। उसकी नासिका में से गाढ़ा-गाढ़ा मल निकल रहा होगा। निरन्तर शौच जाने से उसका गुलाब के समान मुख पिचककर पीला पड़ गया होगा। आँखें भीतर धँस गयी होंगी। स्तन और बुरे हो गये होंगे। आँखों के दोनों ओर मल भर रहा होंगे। पेट सिकुड़कर पीठ में लग गया होगा। मूत्र और पुरीष से उसकी जांघें सन गयी होगी, जिनकी ओर देखने से ही फुरहुरी आ जाती होगी। नख पीले पड़ गये होंगे। मुख में से बदबू उठ रही होगी और वाणी में गहरी वेदना और करुणा आ गयी होगी। आज से चार दिन पहले उसका पति उसे सर्वस्व समझकर उसके आलिंगन में महान-से-महान सुख का अनुभव करता होगा, वही ऐसी दशा में उसका आलिंगन करना तो दूर रहा, पास भी नहीं बैठ सकता। जो रूप इतना विकृत हो सकता है, जिसका सौन्दर्य पेट में भरे हुए दुर्गन्धयुक्त मल के ही निकल जाने से ही क्षणभर में नष्ट हो सकता है उसमें सुख की खोज करना और उसी को जीवन का परम सुख समझकर उसकी प्राप्ति के लिये पागल होना कैसी भारी मुर्खता है? अरे, इस पंचभूत के बने हुए और नौ छिद्रों वाले मल-मूत्र से भरे हुए शरीर में सुख कहाँ, शान्ति कहाँ, सौन्दर्य और आनन्द कहाँ? वह तो उस ब्रह्मानन्द के आनन्द की छायामात्र थी, जो विकृति होने से कुरुपता को प्राप्त हो गयी। छाया को छोड़कर असली आनन्द को खोजो, तुम्हें शान्ति मिलेगी।
रूप! यही हाल कांचन का है पृथ्वी का नाम है वसुन्धरा। वसु कहते हैं रत्नों को। इस पृथ्वी में असंख्यों रत्न भरे पड़े हैं। इस पृथ्वी में सात द्वीप हैं, सात समुद्र हैं, समुद्रों में असंख्यों रत्न भरे पड़े हैं, परन्तु सप्तद्वीप वाली पृथ्वी का आधिपत्य पाकर भी मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती, वह तीनों लोकों का स्वामित्व चाहता है, त्रिलोकेश होने पर चौदह भुवनों के आधिपत्य की इच्छा रखता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का स्वामित्व लाभ करने पर भी शान्ति नहीं तब दस-बीस गांव या हजार-पांच-सौ गांवों का आधिपत्य या स्वामित्व लाभ करके जो अपने को सुखी बनाना चाहता है, वह कितना भारी मूर्ख है। तुम ध्यान पूर्वक देखो, सोने में और मिट्टी में क्या भेद है, जैसे पृथ्वी में से सफेद मिट्टी, पीली मिट्टी, हरी मिट्टी और काली मिट्टी स्थान भेद से निकलती है वैसे ही सोना-चांदी भी पीली और सफेद मिट्टी ही है। तुमने उसमें श्रेष्ठपना का भाव स्थापित कर रखा है तो वह श्रेष्ठ है। स्वयं ही तुमने उसे श्रेष्ठ बनाया है और फिर स्वयं ही उसकी प्राप्ति के लिये पागल बनकर प्रयास कर रहे हो। छाया का तुमसे अलग-भिन्न अस्तित्व नहीं। छाया तुम्हारे शरीर की ही है, अब तुम भ्रमवश उस छाया को पकड़ने दौड़ो, तो कितना भी प्रयास क्यों न करो, छाया तुम्हारे हाथ कभी भी न आवेगी। भला, पीछे दौड़ने से कहीं छाया पकड़ी जा सकती हैं? छाया का अस्तित्व तो तुमने पृथक मान लिया है, जब तुम छाया को अपनी ही समझकर छोड़कर भागो, तो फिर वह तुम्हारा पीछा करेगी। तुम्हें छोड़कर वह जा ही कहाँ सकती है। मेरी बात को समझे?’
रूप ने धीरे से कहा- ‘हाँ, प्रभो! कुछ-कुछ समझा’ यही कि वास्तव में सोने में न तो श्रेष्ठत्व है और न मिट्टी में कनिष्ठत्व। श्रेष्ठतव-कनिष्ठत्व हमारे ही हृदय में है। जिसे जब चाहें छोटा मान लें और जब मानना चाहें तब बड़ा मान लें।
प्रभु ने कहा- ‘हाँ, ठीक है। अच्छा, इसे यों समझो। जैसे तुम अब तक रूपये को ही श्रेष्ठ मानते थे। उसी की प्राप्ति के लिये तुम हुसैनशाह के दरबार में रहते थें। हुसैनशाह जाति का यवन था, तुम ब्राह्मण थे। वह स्वामिद्रोही कृतध्न था, तुम धर्म पूर्वक जीवन-निर्वाह करने वाले थे। वह मूर्ख था, तुम पण्डित थे। वह प्रमादी था, तुम जागरूक थे। वह अधर्मी था, तुम धर्मात्मा थे। सभी बातों में वह तुमसे हीन था, तुम उससे श्रेष्ठ थे। किन्तु तुम उसके बराबर सम्पत्तिशाली नहीं थे। तब तक तुम धन-सम्पत्ति को ही सर्वश्रेष्ठ सुख का साधन समझते थे। इसीलिये अपनी कुलीनता, विद्वत्ता, धार्मिकता, जागरूकता आदि सभी को तुच्छ समझकर उस मूर्ख के सामने सदा थर-थर काँपते हुए डरे-से खड़े रहते थे। अब जब तुम्हें पता चल गया कि धन-सम्पत्ति में सच्चा सुख नहीं है, तब जो धन-सम्पत्ति तुमने पसीने की जगह खून बहाकर पैदा की थी, उसे भक्तिमार्ग में प्रवेश करते ही मिट्टी की तरह लुटाकर चले आये क्यों ठीक है न?’
धीरे से रूप जी ने कहा- ‘हाँ प्रभो! वे रूपये मुझे भार-से मालूम पड़ते थे, एक दिन में ही जैसे-तैसे मैंने उन्हें लुटा-पुटाकर किसी तरह अपना पिण्ड छुड़ाया।’
प्रभु ने उसी स्वर में श्री रूपजी के हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा- ‘अच्छा, तो अब तुम ही सोचो रूपये में बड़प्पन है? हुसैनशाह से तुम डरते नहीं थे। इस बात से डरते थे कि कहीं हमारी रूपयों की प्राप्ति में विध्न न हो जाये। अब जब तुम्हें धन-सम्पत्ति की तुच्छता का बोध हो गया तो एक हुसैनशाह क्या लाख हुसैनशाह आ जायँ तो भी तुम उनसे नहीं डरोगे। क्योंकि जिस कारण से डर होता था, वह कारण तो नष्ट हो गया। जिस प्रकार विष की बेल को उखाड़ देने पर फिर उस पर लगने वाले दुःखदायी फलों से लोगों के मरण का भय नहीं होता, उसी प्रकार हृदय में से धन-सम्पत्ति की श्रेष्ठता निकाल देने पर फिर किसी के सामने दीन होना या गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता। जब तक हम लोगों को गुणों के कारण बड़ास न मानकर धन होने के कारण बड़ा आदमी मानते हैं और इसी कारण धनिकों का आदर करते हैं, तब तक समझो कि धन को ही सुख-साधन समझने की आसुरी वृत्ति हमारे हृदय में विद्यमान है। जिसकी दृष्टि में धन का कोई विशेष महत्त्व नहीं, जो धन को भी पृथ्वी का एक विकार समझता है वह किसी के सामने क्यों गिड़गिड़ाने लगा? उसकी दृष्टि में धनी-गरीब सभी समान हैं? धन की तृष्णा ही गरीब-अमीर का भेदभाव पैदा कर देती है। जब हृदय में किसी से कुछ लेने की इच्छा ही नहीं, तब जैसे ही धनी वैसा ही गरीब।
‘मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः’
यही दशा कीर्ति की है। कीर्ति भी धन की तरह अनित्य और तुच्छ ही है। वास्तव में तो इसे धन का ही एक अंग समझना चाहिये। धन और कीर्ति प्रयत्न करने से थोड़े ही मिलते हैं, ये तो पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार प्राप्त होते हैं। जडभरत की तरह असंख्यों ज्ञानी पागलों की तरह जीवन बिताकर मुक्त हो गये होंगे, उनका नाम कोई नहीं जानता। जडभरत के भाग्य में ही अवधूतप ने का आदर्श उपस्थित करने वाली कीर्ति बदी थी। बहुत-से धनिक एकदम मूर्ख होते हैं, अच्छे-अच्छे विद्वान धन के लिये प्रयत्न करते रहते हैं, उन्हें उतना धन प्राप्त ही नहीं होता तभी तो कहा है-
‘भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरूषम्।’
अर्थात सर्वत्र भाग्य ही फलीभूत होता है। विद्या और पुरुषार्थ से ही सब कुछ नहीं हो जाता, जब धन तथा कीर्ति हमें भाग्य के ही अनुसार प्राप्त होगी, तब कीर्ति के लिये प्रयत्न करना मूर्खता है। कीर्ति की इच्छा करके हम वासनाजन्य एक नये पाप की और सृष्टि करते हैं, इसलिये जो कीर्ति के लिये प्रयत्न करते हैं।, वे मूर्ख हैं। भला जिन्होंने चौदह भुवन वाले अनेक ब्रह्माण्डों का आधिपत्य किया, ऐसे असंख्यों ब्रह्मा उत्पन्न हुए और नष्ट हुए, उनका कोई नाक भी नहीं जानता, तब यह क्षुद्र प्राणी अपनी कीर्ति को अमर बनाने के लिये बाग-बगीचा और कूप-मन्दिर बनाकर ही अपने नाम को अक्षुण्ण रखना चाहता है, वह कितना भारी मूर्ख है।
भाई! कीर्ति तो पतिव्रता है, वह पुंश्चली स्त्री नहीं है। उसने तो एक ही पुरुष श्री हरि को वरण कर लिया है, इसलिये तुम उसकी आशा को छोड़ दो, छोड़ दो, छोड़ दो। तुम्हें कीर्ति नही मिल सकती, नहीं मिल सकती, नहीं मिल सकती। कीर्ति के पति वे ही श्रीहरि हैं, इसलिये उन्हीं की कीर्ति को कथन करने में कल्याण है। यदि तुम्हें कीर्ति बढ़ानी ही है, तो श्री हरि की कीर्ति बढ़ाओ। तुम इस कीर्ति को धारण करो कि हम कीर्तिपति के कीर्तनिया सेवक हैं। हाँ, हरि के कीर्तनिया होने से कीर्ति तुम्हें प्यार करने लगेगी, क्योंकि अपने पति की प्रशंसा सुनकर सभी को सुख होता है और प्रशंसा करने वाले के प्रति स्वाभाविक ही अनुराग हो जाता है।
श्रीरूप ने हाथ जोड़े हुए दीन भाव से कहा- ‘हाँ, प्रभो! श्री चरणों के अनुग्रह से मैं इतना तो समझा कि भक्ति मार्ग की ओर बढ़ने वाले साधक को कामिनी-कांचन और कीर्ति के स्वरूप-पद, प्रतिष्ठा, पैसा, पुत्र, परिवार और यावत प्रेय पदार्थ हैं, उनका परित्याग करके तब इस पथ की ओर अग्रसर होना चाहिये। अब मैं कुछ साधन-तत्त्व समझना चाहता हूँ।’
प्रभु ने कहा- रूप! जीव का स्वरूप शास्त्रों में ऐसा बताया है कि बाल के अग्रभाग को लो, उसके सौ टुकड़े करो। उन सौ में से एक को लो, फिर उसके सौ टुकड़े करे। उससे भी सूक्ष्म जीव का स्वरूप है। अर्थात जीव अति सूक्ष्म है। जीव ‘इस चराचर विश्व में’ समान रूप से व्याप्त है, एक तिल रखने योग्य भी ब्रह्माण्ड में जगह नहीं है, जहाँ जीव न हो। अब जीव के दो भेद हैं- एक जड, दूसरा चेतन अथवा स्थावर-जंगम। पत्थर, लकड़ी आदि स्थावर हैं और हलचल या क्रिया करने वाले जंगम कहाते है। स्थावर से जंगम श्रेष्ठ माने गये हैं। जंगमों में हाथी, घोड़ा आदि समझदार जानवर श्रेष्ठ हैं, उसमें भी मुनष्य श्रेष्ठ है, मनुष्यों में ब्राह्मण और ब्राह्मणों में भी विद्वान, विद्वानों में भी परिष्कृत बुद्धि वाला श्रेष्ठ है और उनमें भी सत-आचरणों को अपने जीवन में परिणत करने वाला कर्ता श्रेष्ठ है और उन कर्ताओं में से भी वह श्रेष्ठ है जिसे ब्रह्मज्ञान हो गया हो। ब्रह्मज्ञानियों में भी जो मुक्त हो गया हो वह श्रेष्ठ है और मुक्तों में भी सर्वश्रेष्ठ श्रीकृष्ण भक्त है। जिसके हृदय में सच्ची कृष्ण भक्ति है उससे बढ़कर श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता। श्रेष्ठ पाने की यही पराकाष्ठा है।’ जैसे कि श्रीमद्भागवत में कहा है-
मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः।
सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने।।
संसार में प्रयत्न करने पर चाहे सब कुछ प्राप्त हो सके, किन्तु श्रीकृष्ण भक्ति का प्राप्त होना अत्यन्त ही दुर्लभ है। बस, भक्ति प्राप्ति का एक ही उपाय है। सब जगह, सब अवस्थाओं में और सर्वकाल में श्री हरि के ही नामों का संकीर्तन करता रहे। श्रवण, कीर्तन ही प्रभु प्रेम प्राप्ति का मुख्य उपाय है और सब उपाय तथा आश्रयों का परित्याग करके श्री हरि की ही शरण लेनी चाहिये।
सर्वधर्मों का परित्याग करके केवल उन्हीं का चिन्तन-स्मरण करते रहना चाहिये। मैं तुम्हें भगवत-कृपा और अहैतु की भक्ति की एक मोटी-सी पहचान बताता हूँ, उसी से तुम समझ जाओगे कि भगवान की भक्ति कैसे करनी चाहिये जैसा कि श्रीमद्भागवत में भगवान कपिलदेव ने स्वयं बताया है-
मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये।
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गंगाम्भसोऽम्बुधौ।।[1]
प्राणि मात्र की हृदयरूपी गुहा में रहने वाले मुझे सर्वान्तर्यामी ईश्वर के भक्त वत्सलता आदि गुणों के श्रवण मात्र से ही बिना किसी रोक-टोक के जिस प्रकार गंगा जी का प्रवाह समुद्र की ही ओर बहता रहता है, उसी प्रकार उनके मन की गति मेरी ओर बहती रहे, तो समझना चाहिये कि उसे ऐकान्ति की या अहैतु की भक्ति प्राप्त हो चुकी है। उसके प्राप्त होने पर फिर श्रीकृष्ण दूर नहीं रहते। वे तो आकर भक्त से लिपट जाते हैं। यही तो उनकी भक्त वत्सलता है।
आरम्भ में साधन-भक्ति होती है, साधन-भक्ति से रति-भक्ति होती है और रति-भक्ति से शुद्धा भक्ति या प्रेमरूपा भक्ति होती है। रति-भक्ति के पांच भेद-भक्ति शास्त्रों में बताये गये हैं। उनके नाम (1) शान्तरति, (2) दास्यरति, (3) सख्यरति, (4) वात्सल्यरति और (5) मधुररति-इस प्रकार हैं। शान्त रस के उपासकों में उदाहरण स्वरूप शुकदेव और जनक जी के नाम लिये जा सकते हैं। दास्य रस के उपासक अनेक भक्त हैं, व्रज के ग्वाल-बाल तथा अर्जुनादि सख्यरति के उदाहरण हैं, नन्द, यशोदा, देवकी और वसुदेवादि को वात्सल्यरति के उपासक समझिये।
मधुर रस की उपासना में व्रज की गोपियाँ ही सर्वश्रेष्ठ समझी जाती हैं, वैसे रुक्मिणी आदि हजारों रानियाँ तथा लक्ष्मी आदि इसकी उदाहरण स्वरूपा हैं। शान्त रस में अपने को छोटा मानने की भावना है। दास्य में अपने को छोटा समझकर विविध प्रकार से अपने सेव्य की सेवा-चाकरी करने की इच्छा होती है। सख्यरति का उपासक अपने को छोटा भी मानता है, सेवा भी करता है, किन्तु उपास्य के सम्मुख निस्संकोच भाव से बर्ताव करता है। वह शान्त और दास्य के उपासकों की भाँति डरता-सा नहीं रहता।
वात्सल्य रूप से उपासना करने वाले मन-मन में अपने प्रिय को ही श्रेष्ठ समझते हैं। ऊपर से व्यक्त नहीं करते। सेवा भी वे करते हैं और निस्संकोच भी रहते हैं, यही इस रस में विशेषता है। कान्ता भावस में ये पांचों ही बातें हैं। सेव्य को मन से बड़ा भी मानते हैं, सेवा करने की भी उत्कट इच्छा रहती है, उसके सामने किसी प्रकार का संकोच भी नहीं होता। प्रगाढ़ ममता भी होती है और अपने शरीर तथा शरीर की सम्पूर्ण क्रियाओं और चेष्टाओं को प्यारे के ही लिये समर्पित कर दिया जाता है। इसलिये यह कान्ता भाव ही सर्वश्रेष्ठ है। इस उपासना के उपासक करोड़ों में क्या असंख्यों में कोई एक होते हैं। शान्त, सख्य आदि के उपासक ही जब दुर्लभ हैं, तब कान्ता भाव के उपासकों के लिये तो कहना ही क्या? यह मैंने तुमसे भक्ति का तत्त्व बहुत ही संक्षेप में कहा है। तुम बुद्धिमान हो, कवि हृदय के हो, सरस हो, भगवत-कृपा के अधिकारी हो, अतः इन भावों को विस्तार के साथ वर्णन करके भक्तों के सम्मुख रखना। अब मैं कल वाराणसी जाने के लिये सोच रहा हूँ।’
प्रभु के चरणों में प्रणाम करते हुए गद्गद कण्ठ से श्री रूप ने कहा- ‘प्रभो! मैं कृतकृत्य हुआ, मुझे विश्वब्रह्माण्ड के आधिपत्य से भी जितनी प्रसन्नता न होती उतनी आज प्राप्त हुई है। अब मेरे लिये क्या आज्ञा होती है? श्री चरणों के सन्निकट निवास करने की मेरी बड़ी उत्कट इच्छा है, जैसे आज्ञा हो?’
प्रभु ने कहा- ‘रूप! तुम समर्थ हो, तुम्हें मेरी संगति की अब विशेष आवश्यकता नहीं। इस समय तुम सीधे श्री वृन्दावन जाओं और वहाँ के सभी तीर्थों की यात्रा करके जहाँ तक बन पड़े लुप्त तीर्थों के प्रकट करने की कोशिश करो। कालान्तर में गौड़ होकर मुझसे पुरी में आकर भेंट करना।’ इतना कहकर दूसरे दिन प्रभु तो नाव पर चढ़कर उस पार को चले गये और रूप, अनूप, माथुरिया ब्राह्मण तथा कृष्णदास को प्रभु वहीं से विदा कर दिये।
महाप्रभु के चरणों का चिन्तन करते हुए अपने भाई के सहित श्री रूप मथुरा पहुँचे, वहाँ उन्हें गौड़ के भूतपूर्व महाराजा सुबुद्धिराय मिल गये। उनके सम्बन्ध में हम पुस्तक के आदि में ही बता चुके हैं कि वे लकड़ी बेच-बेचकर एक पैसे के चनों में निर्वाह करते, शेष पैसों से बंगाली साधुओं की सेवा करते। बंगाल में स्नान से पूर्व तेल लगाने की प्रथा है। तेल के बिना वहाँ स्नान ही ठीक नहीं समझा जाता। सुबुद्धिराय उन पैसों से तेल खरीदकर साधुओं को देते तथा उन्हें दही-चिउरा भी खिलाते। सहसा विश्रान्त घाट पर उनकी श्री रूप और अनूप-इन दोनों भाईयों से भेंट हो गयी। सुबुद्धिराय ने इन दोनों भाइयों का जैसा वे कर सकते थे, स्वागत-सत्कार किया और फिर इनके साथ वे व्रज के बाहर वन तथा उपवनों में भी पैदल-पैदल यात्रा करने के लिये गये। विधि का विधान तो देखिये, कल तक जो एक महाराजा थे और एक महामन्त्री, वे दोनों ही आज भिखारी के वेष में घर-घर से टुकड़े माँगते हुए साधु वेष में फिर रहे हैं। जिनके आश्रय से हजारों पण्डित और विद्वानों का निर्वाह होता था, वे ही आज एक टुकड़ा रोटी के लिये एक कंजूस गृहस्थी के द्वार पर खड़े-खड़े प्रतीक्षा करते हैं कि सम्भव है अब कोई घर से निकल कर टुकड़ा डाले। विधाता! सचमुच भाग्य का खेल बड़ा ही विलक्षण है। इसी विधि की विडम्बना को दुर्लक्ष्य करके किसी कवि ने कैसा सुन्दर मार्मिक वचन कहा है-
जातः सूर्यकुले पिता दशरथः क्षोणीभुजामग्रणीः
सीता सत्यपरायणा प्रणयिनी यस्यानुजो लक्ष्मणः।
दोर्दण्डेन समो न चास्ति भुवने प्रत्यक्षविष्णुः स्वयं
रामो येन विडम्बितोऽपि विधिना चान्ये जने का कथा।।
‘सर्वश्रेष्ठ सूर्यकुल में जिनका जन्म हुआ, महाराजाओं के भी पूजनीय चक्रवर्ती दशरथ जी जिनके पिता थे, सत्य में निष्ठा रखने वाली त्रैलोक्य में अद्वितीय रूपलावण्य युक्त पतिपरायणा सीता जी जिनकी पत्नी थीं, युद्ध में यमराज के समान साहस करने वाले शूरवीर और पराक्रमी लक्ष्मण जी जिनके छोटे भाई थे, जिनके समान त्रिलोकी में कोई धनुर्धारी शूर नहीं था, ऐसे रामचन्द्र जी स्वयं साक्षात विष्णु के अवतार थे। उन श्री रामचन्द्र जी की भी जिस विधि ने वंचना की, जिन्हें भी चौदह वर्ष विपत्तियों को झेलते हुए कुश-कण्टकाकीर्ण वनों में फिरना पड़ा, तो फिर अन्य लोगों की तो बात ही क्या है?’ हे देव! तुम्हारे चरणों में हमारा नमस्कार है। वस्तुतः भगवान श्री रामचन्द्र जी के सम्बन्ध में यह कथन कवि विनोद ही है।
हे देव! तुम्हारे चरणों में हमारा नमस्कार है। वस्तुतः भगवान श्री रामचन्द्र जी के सम्बन्ध में यह कथन कवि विनोद ही है। इधर महाप्रभु अपने भक्तों से विदा होकर गंगा जी के किनारे-किनारे श्री वाराणसी क्षेण में पहुँचे। नगर के बाहर ही उन्हें चन्द्रशेखर जी मिल गये। प्रभु को देखते ही उन्होंने भूमि पर लोटकर प्रभु को प्रणाम किया। महाप्रभु ने उनका आलिंगन करते हुए प्रेम पूर्वक पूछा-‘चन्द्रशेखर! तुम यहाँ कहां? तुम्हें कैसे पता चला कि मैं आज आऊंगा?’ चन्द्रशेखर जी ने कहा-‘प्रभो! कल रात्रि में मैंने स्वप्न देखा था कि आप आज काशी जी में आ गये हैं। इसीलिये खोज में आया था। यहाँ आते ही सहसा श्री चरणों के दर्शन हो गये। अब मेरी कुटिया को अपनी चरण-रजसे कृतार्थ कीजिये।’ वैद्य चन्द्रशेखर के आग्रह से प्रभु उनके घर गये। समाचार पाते ही तपन मिश्र, उनके पुत्र रघुनाथ, वह मरहठा ब्राह्मण तथा और भी बहुत-से भक्त प्रभु के दर्शनों के लिये आ गये। तपन मिश्र ने दोनों हाथों की अंजलि बांधकर प्रभु से प्रार्थना की कि ‘प्रभु जब तक काशी में निवास करे तब तक मेरे ही घर भिक्षा करें। प्रभु ने मिश्र जी की विनती स्वीकार कर ली और आप चन्द्रशेखर वैद्य के घर पर ही रहने लगे। रहते यहाँ थे और भिक्षा करने तपन मिश्र के यहाँ चले जाते थे। इस प्रकार महाप्रभु लगभग दो मास तक काशी जी में ठहरे। यहीं श्री रूप के भाई सनातन जी प्रभु से आकर मिले, जिनका वृत्तान्त अगले अध्याय में पाठकों को मिलेगा।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Roop’s Farewell and Lord’s Arrival in Kashi
He who is already freed from being tightly bound by hosts of dear virtues Like taste, the other is immaterial from the meditation of the house. The color of a stronger embrace with love conversations in Prayag The god followed him in incomparable form in the form of Sri.
In Prayag, along with his brother Anup, Shrirup stayed near the lotus feet of the Lord for ten days. He was a scholar, passionate, brilliant, a believer and was the most blessed of Premavatara Chaitanyadev. Then there was no doubt about their welfare. These were already in the form of welfare, once the one who has been blessed by the Guru’s feet, how can he experience happiness in the temporary and impermanent pleasures of this mortal world? After becoming a swan, why would he touch the crow’s food? What cannot be done by Guru’s grace? If Sadguru is pleased even once, then no matter how big a sinner that person may be, his worldly bondage will be shattered in every matter and he will be free from bondage and become entitled to the supreme grace of the Guru.
Sadguru is God, the name of the corporeal form of Brahma is Guru. An effigy of flesh and blood cannot be a teacher. How can a person with little knowledge attain the position of the Almighty? In the eyes of Shri Roop, Chaitanyadev was not a living being with a flesh and bone body. He was the embodiment of love for them, especially Brahma. They try to prove Mahaprabhu as an Avatari that Sri Chaitanya is an Avatar or an Avatari. No matter what people think, for them Sri Chaitanya is Sri Krishna. Actually this is true. Where there is discrimination, it is insisted that they are not like this. There was no discrimination in the vision of Shri Roop, that’s why he writes in the invocation of ‘Bhaktirsamritsindhu’-
Even in the form of a boar I was inspired by whose heart I salute the lotus feet of that Hari, the God of consciousness.
Staying in Prayag within these ten days, the meritorious Shrirup understood the most profound secret of devotion to the Lord and you have described the same in your many books. Mahaprabhu knew the true passion of his heart, that’s why while preaching disinterest to him, he said- ‘Roop! Look how mad this world has become in sensual pleasures. This priceless life gets wasted in worrying about getting position, prestige, money, son, family and love. Kamini, Kanchan and Kirti these three ropes have tied the soul tightly. Because of them, it cannot move here and there even a little bit.
The way to attain God is on the other side of these three. When a man renounces these three from his mind, then he is entitled to go towards that path. Where is devotion for those who experience happiness in all these three? How is God’s love? They don’t even have the right to say a single word to talk about the Lord. Describing the path of the one who is bound himself without seeing it is just a joke. Can anyone tell the taste of nectar without tasting it? People are not able to say right even after tasting, then what can anyone say after listening?
form! If you think about it, the woman behind whom the world is going crazy, what is she really? There is a statue of these five ghosts. Look at a beautiful woman in solitude in such a condition when she has got the disease of storage and there is no human being near her to serve her, you will see that her whole body must be stinking.
The health will not want to touch the clothes. Thick feces must be coming out of his nostrils. Due to continuous defecation, his face must have turned pale like a rose. The eyes must have sunk in. The breasts must have become worse. There will be mucus filling on both sides of the eyes. The stomach must have shrunk and hit the back. His thighs must have been stained with urine and urine, which would have made Furhuri just to look at them. The nails must have turned yellow. The stench must have been rising from the mouth and deep pain and compassion must have come in the speech. Four days before today, her husband considering her to be everything, would have experienced the greatest of happiness in her embrace, in such a condition, he could not even sit close to her, let alone hug her. The form which can be so deformed, whose beauty can be destroyed in a moment only by the discharge of foul-smelling faeces in the stomach, to search for happiness in it and to be mad to get it considering it as the ultimate happiness of life, what a great folly! Is? Hey, where is the happiness, where is the peace, where is the beauty and joy in this body made of five elements and filled with excrement and urine with nine holes? She was only a shadow of the joy of that Brahmanand, which got ugliness due to perversion. Leave the shadow and seek the real joy, you will find peace.
form! Kanchan’s condition is the same. Earth’s name is Vasundhara. Gems are called Vasu. This earth is filled with innumerable gems. There are seven islands in this earth, there are seven seas, there are innumerable jewels in the seas, but man does not get peace even after having the lordship of the seven-dweep earth, he wants the possession of all the three worlds; keeps. There is no peace even after gaining the ownership of the whole universe, then the one who wants to make himself happy by gaining the lordship or ownership of ten-twenty villages or thousand-five-hundred villages, how foolish he is. Look carefully, what is the difference between gold and soil, just as white soil, yellow soil, green soil and black soil emerge from the earth at different places, similarly gold and silver are also yellow and white soil. If you have established the sense of superiority in him, then he is superior. You yourself have made it the best and then you yourself are trying madly to achieve it. The shadow has no separate existence from you. The shadow is only of your body, now you run to catch that shadow under illusion, then no matter how much you try, the shadow will never come in your hands. Well, can the shadow be caught somewhere by running behind? You have accepted the existence of the shadow as separate, when you leave the shadow as your own and run away, then it will follow you. Where can she go leaving you? Got my point?’
Roop said softly- ‘Yes, Lord! Understood to some extent that in reality there is neither superiority in gold nor inferiority in soil. Superiority-inferiority is in our own heart. Whatever you want, consider it small and whenever you want, consider it big.
The Lord said – ‘ Yes, it is okay. Ok, put it this way. Just like till now you used to consider money as the best. You used to live in Hussain Shah’s court to get the same. Hussain Shah was a Yavan by caste, you were a Brahmin. That traitor was grateful, you were about to lead a righteous life. He was a fool, you were a scholar. He was careless, you were aware. He was unrighteous, you were righteous. He was inferior to you in all respects, you were superior to him. But you were not as wealthy as him. Till then you used to consider wealth and property as the means of best happiness. That’s why considering their nobility, scholarship, religiousness, awareness etc. as insignificant, they always used to stand trembling in front of that fool. Now that you have come to know that there is no real happiness in wealth, then the wealth that you had created by shedding blood instead of sweat, as soon as you entered the path of Bhakti, you looted it like mud, why is it okay?’
Slowly Roop ji said – ‘ Yes Lord! Those rupees seemed heavy to me, in a day somehow I looted them and somehow got rid of my body.’
In the same voice, the Lord took Shri Roopji’s hand in his and said – ‘Ok, so now you only think that there is greatness in money? You were not afraid of Hussain Shah. They were afraid that there might be a disturbance in their receipt of money. Now that you have realized the insignificance of wealth, then even if one Hussain Shah or lakhs of Hussain Shahs come, you will not be afraid of them. Because the reason for which there was fear has been destroyed. Just as if the vine of poison is uprooted, then there is no fear of death due to the painful fruits that fall on it, in the same way, after removing the superiority of wealth from the heart, then one does not have to be humble or beg in front of anyone. As long as we do not consider people to be great because of their qualities, we consider them to be great people because of their wealth, and for this reason we respect the rich, till then understand that the evil instinct of considering money as a means of happiness is present in our hearts. In whose eyes there is no special importance of money, who considers money as a disorder of the earth, why did he start begging in front of someone? Are the rich and the poor all equal in his eyes? The thirst for money creates the discrimination between the rich and the poor. When there is no desire in the heart to take anything from anyone, then the poor as the rich.
‘And when the mind is satisfied, who is rich and who is poor?’
This is the condition of Kirti. Fame is also temporary and trivial like money. In fact, it should be considered as a part of wealth. Wealth and fame are not achieved by making efforts, they are achieved according to the deeds of the previous births. Like Jadbharat, innumerable wise men must have become free after living like lunatics, no one knows their names. It was in the fate of Jadbharat that Avdhutap had a reputation for presenting the ideal. Many rich people are completely foolish, good scholars keep trying for money, they do not get that much money, that’s why it is said-
‘Fortune bears fruit everywhere, neither knowledge nor manliness.
That means luck is fruitful everywhere. Everything is not done by education and effort, when we will get money and fame according to luck, then it is foolish to try for fame. By desiring fame, we create another sin of lust, therefore those who strive for fame are fools. No one even knows the nose of the one who ruled many universes with fourteen Bhuvans, such innumerable Brahmas were born and destroyed, then this small creature makes his name immortal by building gardens and well-temples to make his fame immortal. Wants to keep intact, what a heavy fool he is.
Brother Kirti is husbandly, she is not a puschli woman. She has betrothed only one man Shri Hari, so you leave her hope, leave, leave. You can’t get fame, can’t get it, can’t get it. He is Sri Hari, the husband of Kirti, that’s why it is good to narrate his fame. If you want to increase fame, then increase the fame of Shri Hari. You imbibe this fame that you are Kirtanya servants of Kirtipati. Yes, being Hari’s Kirtanya, Keerti will start loving you, because hearing the praise of her husband makes everyone happy and naturally becomes affectionate towards the one who praises.
Shrirup said with folded hands – ‘ Yes, Lord! By the grace of Shri Charan, I have understood that a seeker who is moving towards the path of Bhakti, abandoning Kamini-Kanchan and Kirti’s form-status, prestige, money, son, family and yavat, then move towards this path. Should be. Now I want to understand some means and elements.’
The Lord said – form! The nature of the living being has been told in the scriptures in such a way that take the front part of the hair, divide it into hundred pieces. Take one of those hundred, then cut it into hundred pieces. Even more than that is the form of a subtle organism. That means the soul is very subtle. Jiva is equally pervaded in ‘this grazing world’, there is no place in the universe even for a mole, where there is no Jiva. Now there are two types of creatures – one is non-living, the other conscious or immovable-movable. Stone, wood etc. are immovable and those who move or act are called Jangam. The movable is considered better than the fixed. Elephants, horses etc. intelligent animals are the best among movables, humans are the best in that too, Brahmins among humans and scholars among Brahmins, those with refined intellect are the best and among them also the doer who transforms the right conduct into his life is the best. And even among those doers, he is the best who has attained Brahmagyan. The one who has become liberated is the best even among the Brahmagyanis and the best among the liberated is the devotee of Shri Krishna. No one can be better than the one who has true Krishna devotion in his heart. This is the pinnacle of attaining the best.’ As it is said in Shrimad Bhagwat-
He is devoted to Narayana even among the liberated Siddhas. O great sage a peaceful soul is very rare even among crores
Everything can be achieved by making efforts in the world, but it is very rare to get devotion to Shri Krishna. There is only one way to attain devotion. Keep chanting only the names of Shri Hari everywhere, in all situations and at all times. Shravan, Kirtan is the main way to get God’s love and after leaving all the solutions and shelters, one should take refuge in Shri Hari.
Abandoning all religions, one should keep thinking and remembering only them. I will tell you a rough identification of devotion of God-Kripa and Ahaitu, from that you will understand how to worship God as told by Lord Kapildev himself in Shrimad Bhagwat-
By merely hearing of My virtues in Me in all the caves. The movement of the mind is uninterrupted as in the waters of the Ganges.
Living in the cavity of the heart of the living being, Me, the devotee of the omniscient God, just by listening to the qualities like Vatsalata etc., without any hindrance, as the flow of Ganga ji keeps on flowing towards the sea, in the same way, the speed of his mind flows towards me. If it remains, then it should be understood that he has attained devotion for solitude or for no reason. When he is attained, Shri Krishna does not remain far away. He comes and hugs the devotee. This is his devotional love.
In the beginning there is sadhana-bhakti, from sadhana-bhakti there is night-bhakti and from night-bhakti there is pure devotion or devotion in the form of love. Five differences of night-devotion have been told in the scriptures. Their names are (1) Shantarati, (2) Dasyarati, (3) Sakhyarati, (4) Vatsalyarati and (5) Madhurarati. Among the worshipers of Shant Ras, the names of Shukdev and Janak ji can be taken as examples. There are many devotees who worship Dasya Rasa, Vraj’s Gwal-Bal and Arjunadi are examples of Sakhyrati, consider Nanda, Yashoda, Devaki and Vasudevadi as worshipers of Vatsalyarati.
Only the gopis of Vraj are considered to be the best in the worship of sweet juice, in the same way thousands of queens like Rukmini and Lakshmi etc. are examples of this. There is a feeling of considering oneself small in a peaceful state. Servant has a desire to serve his servant in various ways considering himself as a small one. The worshiper of Sakhyrati considers himself small as well, does service, but behaves without hesitation in front of the worshipper. He is not afraid like the worshipers of peace and slavery.
Those who worship with affection consider their beloved as the best in their mind. They don’t express it superficially. They do service as well as remain without hesitation, this is the specialty of this Rasa. All these five things are there in Kanta Bhavas. The service is considered bigger than the mind, there is a strong desire to serve, there is no hesitation in front of him. There is also intense affection and all the actions and efforts of the body and the body are dedicated to the beloved. That’s why this Kanta Bhav is the best. The worshipers of this worship are one among the millions or innumerable. When the worshipers of Shant, Sakhya etc are rare, then what to say about the worshipers of Kanta Bhav? I have told you the essence of devotion very briefly. You are intelligent, you are a poet of heart, you are succulent, you are entitled to God’s grace, so describe these feelings in detail and keep them in front of the devotees. Now I am thinking of going to Varanasi tomorrow.’
While bowing down at the feet of the Lord, Shri Roop said in a thunderous voice – ‘Lord! I am grateful, I have received today as much happiness as I would not have received even from the lordship of the universe. What is the order for me now? I have a great desire to reside near Shri’s feet, as if permitted?’
The Lord said – ‘ Form! You are capable, you don’t need my company anymore. At this time, go directly to Shri Vrindavan and visit all the pilgrimages there and try to reveal the missing pilgrimages as far as you can. In course of time, come and meet me in Puri after becoming Gaur.’ Having said this, the next day the Lord boarded the boat and went to the other side and sent Roop, Anoop, Mathuria Brahmin and Krishnadas away from there.
Thinking of Mahaprabhu’s feet, Shri Roop reached Mathura along with his brother, where he found Subuddhirai, the former Maharaja of Gaur. We have told about him in the beginning of the book itself that he used to live by selling wood and used to live in grams of one paise, with the remaining money he used to serve Bengali sadhus. In Bengal there is a practice of applying oil before bath. Bathing there without oil is not considered proper. Subuddhirai would buy oil from that money and give it to the sadhus and would also feed them curd and chiura. Suddenly, at the resting ghat, he met both the brothers Mr. Roop and Anoop. Subuddhiraya welcomed and felicitated these two brothers as best he could, and then went with them to travel on foot in the forests and groves outside Vraja. Look at the rule of law, who till yesterday was a Maharaja and a General Secretary, today both of them are roaming around in the guise of beggars begging for pieces from house to house. From whose shelter thousands of pundits and scholars used to live, today they are the ones waiting for a piece of bread standing at the door of a miserly householder, that it is possible that now someone may come out of the house and throw a piece. Creator! Really the game of luck is very strange. Ignoring the irony of this method, what a beautiful poignant word a poet has said-
Born in the Sun dynasty his father Dasaratha was the foremost of the lowly arms Sita is devoted to truth and loving to him whose younger brother Lakshmana is And there is no one in the world equal to the rod of arms, the direct Vishnu Himself What is the story of Rama who has been ridiculed by others in accordance with the law
‘ Who was born in the best sun clan, who was revered by even the kings, whose father was Chakravarti Dasharatha, who was faithful to the truth, who had unique beauty in Trilokya, whose wife was Sita, who had the same courage as Yamraj in the war and the brave and mighty Lakshman, whose He was a younger brother, like whom there was no brave archer in Triloki, such Ramchandra himself was an incarnation of Vishnu. The method which deprived even Shri Ramchandra ji, who also had to wander in the Kush-Kantakakirna forests for fourteen years after suffering calamities, then what to talk about other people.’ Hey, God! We salute you at your feet. In fact, this statement in relation to Lord Shri Ramchandra ji is a joke of the poet.
Hey, God! We salute you at your feet. In fact, this statement in relation to Lord Shri Ramchandra ji is a joke of the poet. Here Mahaprabhu left his devotees and reached Shri Varanasi area on the banks of Ganga ji. He found Chandrashekhar ji outside the city. On seeing the Lord, he returned to the ground and bowed down to the Lord. Mahaprabhu hugged him and asked lovingly – ‘ Chandrashekhar! where are you here How did you know that I will come today?’ Chandrashekhar ji said – ‘ Lord! Last night I had a dream that you have come to Kashi ji today. That’s why came in search. As soon as I came here, suddenly I saw the feet of Shri. Now bless my hut with your feet.’ On the request of Vaidya Chandrashekhar, Prabhu went to his house. Tapan Mishra, his son Raghunath, that Maratha Brahmin and many other devotees came to see the Lord as soon as they got the news. Tapan Mishra prayed to the Lord by tying both his hands that ‘ As long as the Lord resides in Kashi, do alms at my house only. Prabhu accepted Mishra ji’s request and you started living at Chandrashekhar Vaidya’s house. Lived here and used to go to Tapan Mishra’s place for alms. In this way Mahaprabhu stayed in Kashi for about two months. It was here that Shri Roop’s brother Sanatan ji came and met the Lord, whose story the readers will find in the next chapter.
respectively next post [140] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]