।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
गोपीनाथ पट्टनायक सूली से बचे
अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी:।
तीव्रेण भक्ति योगेन यजेत पुरुषं परम्॥
पाठकवृन्द राय रामानन्द जी के पिता राजा भवानन्द जी को तो भूले ही न होंगे। उनके राय रामानन्द, गोपीनाथ पट्टनायक और वाणीनाथ आदि पाँच पुत्र थे, जिन्हें प्रभु पाँच पाण्डवों की उपमा दिया करते थे और भवानन्द जी का पाण्डु कहकर सम्मान और सत्कार किया करते थे। वाणीनाथ तो सदा प्रभु की सेवा में रहते थे। राय रामानन्द पहले विद्यानगर के शासक थे, पीछे से उस काम को छोड़कर वे सदा पुरी में ही प्रभु के पादपद्मों के सन्निकट निवास किया करते थे और महाप्रभु को निरन्तर श्रीकृष्ण-कथा-श्रवण कराते रहते। उनके छोटे भाई गोपीनाथ पट्टनायक ‘माल जाठ्या दण्डपाट’ नामक उड़ीसा राज्यान्तर्गत एक प्रान्त के शासक थे। ये बडत्रे शौकीन थे, इनका रहन सहन, ठाट बाट, सब राजसी ढंग का ही था। धन पारक जिस प्रकार प्रायः लोग विषयी बन जाते हैं, उसी प्रकार के ये विषयी बने हुए थे। विषयी लोगों की इच्छा सर्वभुक अग्नि के समान होती है, उसमें धनरूपी ईंधन कितना भी क्यों न डाल दिया जाय उसकरी तृप्ति नहीं होती। तभी तो विषयी पुरुषों को शास्त्रकारों ने अविश्वासी कहा है। विषयी लोगों के वचनों का कभी विश्वास न करना चाहिये। उनके पास कोई धरोहर की चीज रखकर फिर उसे प्राप्त करने की आशा व्यर्थ है। विषय होता ही तब है जब हृदय में अविवेक होता है और अविवेक में अपने-पराये या हानि-लाभ का ध्यान नहीं रहता। इसलिये विषयी पुरुष अपने को तो आपत्ति के जाल में फंसाता ही है, साथ ही अपने संसर्गियों को भी सदा क्लेश पहुँचाता रहता है। विषयियों का संसर्ग होने से किसे क्लेश नहीं हुआ है। इसीलिये नीतिकारों ने कहा है-
दुर्वतसंगातिरनर्थपरम्पाराया
हेतू: सतां भावति किं वचनीयमत्र।
लंकेश्वरो हरति दाशरथे: कलत्रं
प्राप्नोति बंधनमसौ किल सिंधुराज:॥
‘इसमें विशेष कहने सुनने की बात ही क्या है ? यह तो सनातन की रीति चली आयी है कि विषयी पुरुषों से संसर्ग रचाने से अच्छे पुरुषों को भी क्लेश होता ही है। देखो, उस विषयी रावण ने तो जनकनन्दिनी सीता जी का हरण किया और बन्धन में पड़ा बेचारा समुद्र।’ साथियों के दुःख सुख का उपभोग सभी को करना होता है। वह सम्बन्धी नहीं जो सुख में सम्मिलित रहता है और दुःख में दूर हो जाता है। किन्तु एक बात है, यदि खोटे पुरुषों का सौभाग्यवश किसी महापुरुष से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध हो जाता है तो उसके इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं।
साधु पुरुष तो सदा विषयी पुरुषों से दूर ही रहते हैं, किन्तु विषयी किसी भी प्रकार से उनके शरणापन्न हो जाय, तो फिर उसका बेड़ा पार ही समझना चाहिये। महापुरुषों को यदि किसी के दुःख को देखकर दुःख भी होता है तो फिर वह उस दुःख से छूट ही जाता है, जब संसारी दुःख महापुरुषों की तनिक सी इच्छा से छूट जाते हैं, तब शुद्ध हृदय से और श्रद्धाभक्ति पूर्वक जो उसकी शरण में जाता है उसका कल्याण तो होगा ही- इसमें कहना ही क्या? राजा भवानन्द जी शुद्ध हृदय से प्रभु के भक्त थे। उनके पुत्र गोपीनाथ पट्टनायक महान विषयी थे। पिता का महाप्रभु के साथ सम्बन्ध था। इसी सम्बंध से उनका प्रभु के साथ थोड़ा-बहुत सम्बन्ध था। इस सम्बन्धी के सम्बन्ध संसर्ग के ही कारण वे सूली पर चढ़े हुए भी बच गये। महापुरुषों की महिमा ऐसी ही है।
गोपीनाथ एक प्रदेश के शासक थे। सम्पूर्ण प्रान्त की आय उन्हीं के पास आती थी। वे उसमें से अपना नियत वेतन रखकर शेष रुपयों को राजदरबार में भेज देते थे। किन्तु विषयियों में इतना संयम कहाँ कि वे दूसरे के द्रव्य की परवा करें। हम बता ही चुके हैं कि अविवेक के कारण विषयी पुरुषों को बपने पराये का ज्ञान नहीं रहता। गोपीनाथ पट्टनायक भी राजकोष में भेजने वाले द्रव्य को अपने ही खर्च में व्यय कर देते। इस प्रकार उड़ीसा के महाराज के दो लाख रूपये उनकी ओर हो गये। महाराज ने इनसे अपने रुपये माँगे, किन्तु इनके पास रुपये कहाँ? उन्हें तो वेश्या और कलारों ने अपना बना लिया। गोपीनाथ ने महाराज से प्रार्थना की कि ‘मेरे पास नकद रूपये तो हैं नहीं। मेरे पास दस बीस घोड़े हैं कुछ और भी सामान है, इसे जितने में समझें ले लें, शेष रुपये मैं धीरे-धीेरे देता रहूँगा।’ महाराज ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और घोड़ों की कीमत निश्चय करने के निमित्त अपने एक लड़के को भेजा।
वह राजकुमार बड़ा बुद्धिमान था, उसे घोड़ों की खूब परख थी, वह अपने दस-बीस नौकरों के साथ घोड़े की कीमत निश्चय करने वहाँ गया। राजकुमार का स्वभाव था कि वह ऊपर को सिर करके बार-बार इधर-उधर मुँह फिरा फिराकर बातें किया करता था। राजपुत्र था, उसे अपने राजपाट और अधिकार का अभिमान था, इसलिये कोई उसके सामने बोलता तक नहीं था। उसने चारों ओर घोड़ों को देख-भालकर मूल्य निश्चय करना आरम्भ किया। जिन्हें गोपीनाथ दो चार हजार के मूल्य का समझते थे, उनका उसने बहुत ही थोड़ा मूल्य बताया। महाराज गोपीनाथ को भवानन्द जी के सम्बन्ध से पुत्र की भाँति मानते थे, इसलिये वे बड़े ढ़ीठ हो गये थे। राजपुत्रों को वे कुछ समझते ही नहीं थे। जब राजपुत्र ने दो चार घोड़ों का ही इतना कम मूल्य लगाया तब गोपीनाथ से न रहा गया। उन्होंने कहा- ‘श्रीमान ! यह तो आप बहुत ही कम मूल्य लगा रहे हैं।’
राजपुत्र ने कुछ रोष के साथ कहा- ‘तुम क्या चाहते हो, दो लाख रुपये इन घोड़ों में ही बेबाक कर दें? जितने के होंगे उतने ही तो लगावेंगे।’ गोपीनाथ ने अपने रोष को रोकते हुए कहा- ‘श्रीमान ! घोड़े बहुत बढि़या नस्ल के हैं। इनता मूल्य तो इनके लिये बहुत ही कम है।’
इस बात पर कुपित होकर राजपुत्र ने कहा- ‘दुनिया भर के रद्दी घोड़े इकट्ठे कर रखे हैं और चाहते हैं इन्हें ही देकर दो लाख रूपयों से बेबाक हो जायँ। यह नहीं होने का। घोड़े जितने के होंगे, उतने के ही लगाये जायँगे।’ राजप्रसाद प्राप्त मानी गोपीनाथ अपने इस अपमान को सहन नहीं कर सके। उन्होंने राजपुत्र की उपेक्षा करते हुए धीरे से व्यंग्य के स्वर में कहा- ‘कम से कम मेरे ये घोड़े तुम्हारी तरह ऊपर मुँह उठाकर इधर उधर तो नहीं देखते।’ उनका भाव था कि तुम्हारी अपेक्षा घोड़ों का मूल्य अधिक है।
आत्मसम्मानी राजपुत्र इस अपमान को सहन नहीं कर सका। वह क्रोध के कारण जलने लगा। उस समय तो उसने कुछ नहीं कहा। उसने सोचा कि यहाँ हम कुछ कहें तो बात बढ़ जाय और महाराज न जाने उसका क्या अर्थ लगावें। शासन में अभी हम स्वतन्त्र नहीं हैं, यही सोचकर वह वहाँ से चुपचाप महाराज के पास चला गया। वहाँ जाकर उसने गोपीनाथ की बहुत सी शिकायतें करते हुए कहा- ‘पिताजी ! वह तो महाविषयी है, एक भी पैदा देना नहीं चाहता। उलटे उसने मेरा घोर अपमान किया है। उसने मेरे लिये ऐसी बुरी बात कही है, जिसे आपके सामने कहने में मुझे लज्जा आती है। सब लोगों के सामने वह मेरी एक सी निन्दा कर जाय? नौकर होकर उसका ऐसा भारी साहस? यह सब आपकी ही ढील का कारण है। उसे जब तक चाँग पर न चढ़ाया जायेगा तब तक रुपये वसूल नहीं होंगे, आप निश्चय समझिये।’
महाराज ने सोचा- ‘हमें तो रुपये मिलने चाहिये। सचमुच जब तक उसे भारी भय न दिखाया जायगा, तब तक वह रुपये नहीं देने का। एक बार उसे चाँग पर चढ़ाने की आज्ञा दे दें। सम्भव है इस भय से रुपये दे दे। नहीं तो पीछे उसे अपनी विशेष आज्ञा से छोड़ देंगे। भवानन्द के पुत्र को भला हम दो लाख रुपयों के पीछे चाँग पर थोड़े ही चढ़वा सकते हैं। अभी कह दें, इससे राजकुमार का क्रोध भी शान्त हो जायगा और रुपये भी सम्भवतया मिल ही जायँगे। यह सोचकर महाराज ने कह दिया- ‘अच्छा भाई, वही काम करो, जिससे उससे रुपये मिलें। चढ़वा दो उसे चाँग पर।’
बस, फिर क्या था। राजपुत्र ने फौरन आज्ञा दी कि गोपीनाथ को यहाँ बाँधकर लाया जाय। क्षण भर में उसकी आज्ञा पालन की गयी। गोपीनाथ बाँधकर चाँग के समीप खड़े किये गये। अब पाठकों को चाँग का परिचय दें कि यह चाँग क्या बला है। असल में चाँग एक प्रकार से सूली का ही नाम है। सूली में और चाँग में इतना ही अन्तर है कि सूली गुदा में होकर डाली जाती है और सिर में होकर पार निकाल ली जाती है। इससे जल्दी प्राण नहीं निकलते- बहुत देर में तड़प तड़प कर प्राण निकलते हैं। चाँग उससे कुछ सुखकर प्राण नाशक क्रिया है। एक बड़ा सा मंच होता है। उस मंच के नीचे भाग में तीक्ष्ण धार वाला एक बहुत बड़ा खड्ग लगा रहता है। उस मंच पर से अपराधी को इस ढंग से फेंकते हैं कि जिससे उस पर गिरते ही उसके प्राणों का अन्त हो जाये। इसी का नाम ‘चाँग चढ़ाना’ है। बड़े बड़े अपराधियों को ही चाँग पर चढ़ाया जाता है।
‘गोपीनाथ पट्टनायक चाँग पर चढ़ाये जायँगे’ -इस बात का हल्ला चारों ओर फैल गया। सभी लोगों को इस बात से महान आश्चर्य हुआ। महाराज जिन राजा भवानन्द को अपने पिता के समान मानते थे, उनके पुत्र को वे चाँग पर चढ़ा देंगे, सचमुच इन राजाओं के चित्त की बात समझी नहीं जाती, ये क्षण भर में प्रसन्न हो सकते हैं और पल भर में क्रुद्ध। इनका कोई अपना नहीं। ये सब कुछ कर सकते हैं। इस प्रकार भाँति-भाँति की बातें कहते हुए सैंकड़ों पुरुष महाप्रभु के शरणापन्न हुए और सभी हाल सुनाकर प्रभु से उनके अपराध क्षमा करा देने की प्रार्थना करने लगे।
प्रभु ने कहा- ‘भाई ! मैं कर ही क्या सकता हूँ, राजा की आज्ञा को टाल ही कौन सकता है? ठीक ही है, विषयी लोगों को ऐसा ही दण्ड मिलना चाहिये। जब वह राद्रव्य को भी अपने विषय-भोग में उड़ा देता है तो राजा को उससे क्या लाभ? दो लाख रुपये कुछ कम तो होते ही नहीं। जैसा उसने किया, उसका फल भोगा। मैं क्या करूँ?’
भवानन्द जी के सगे-सम्बन्धी और स्नेही प्रभु से भाँति-भाँति की अनुनय-विनय करने लगे। प्रभु ने कहा- ‘भाई ! मैं तो भिक्षुक हूँ, यदि मेरे पास दो लाख रुपये होते तो देकर उसे छुड़ा लाता, किन्तु मेरे पास तो दो कौड़ी भी नहीं। मैं उसे छुड़ाऊँ कैसे? तुम लोग जगन्नाथ जी से जाकर प्रार्थना करो, वे दीनानाथ हैं, सबकी प्रार्थना पर अवश्य ही ध्यान देंगे।’
इतने में ही बहुत से पुरुष प्रभु के समीप और भागते हुए आये। उन्होंने संवाद किया कि- ‘भवानन्द, वाणीनाथ आदि सभी परिवार के लोगों को राजकर्मचारी बाँधकर लिये जा रहे हैं।’
सभी लोगों को आश्चर्य हुआ। भवानन्द जी के बन्धन का समाचार सुनकर तो प्रभु के सभी विरक्त और अंतरंग भक्त तिलमिला उठे। स्वरूप दामोदर जी ने अधीरता के साथ कहा- ‘प्रभु ! भवानन्द तो सपरिवार आपके चरणों के सेवक हैं। उनको इतना दुःख क्यों? आपके कृपापात्र होते हुए भी वे वृद्धावस्था में इतना क्लेश सहें, यह उचित प्रतीत नहीं होता। इससे आपकी भक्त वत्सलता की निन्दा होगी।’
महाप्रभु ने प्रेम युक्त रोष के स्वर में कहा- ‘स्वरूप ! तुम इतने समझदार होकर भी ऐसी बच्चों की सी बातें कर रहे हो? तुम्हारी इच्छा है कि मैं राजदरबार में जाकर भवानन्द के लिये राजा से प्रार्थना करूँ कि वे इन्हें मुक्त कर दें? अच्छा, मान लो मैं जाऊँ भी और कहूँ भी और राजा ने कह दिया कि आप ही दो लाख रुपये दे जाइये तब मैं क्या उत्तर दूँगा? राजदरबार में साधु ब्राह्मणों को तो कोई घास फूस की तरह भी नहीं पूछता।’
स्वरूपगोस्वामी ने कहा- ‘आपसे राजदरबार में जाने के लिये कहता ही कौन है? आप तो अपनी इच्छा मात्र से ही इस विश्व ब्रह्माण्ड को उलट-पुलट कर सकते हैं। फिर भवानन्द को सपरिवार इस दुःख से बचाना तो साधारण-सी बात है। आपको बचाना ही पड़ेगा, न बचावें तो आपकी भक्त वत्सलता ही झूठी हो जायगी, वह झूठी है नहीं। भवानन्द आपके भक्त हैं और आप भक्तवत्सल हैं, इस बात में किसी को सन्देह ही नहीं।’
राजदरबार में चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। सभी के मुखों पर गोपीनाथ के चाँग पर चढ़ने की बात थी। सभी इस असम्भव और अद्भुत घटना के कारण भयभीत-से प्रतीत होते थे। समाचार पाकर महाराज के प्रधान मन्त्री चन्दनेश्वर महापात्र महाराज के समीप पहुँचे और अत्यन्त ही विस्मय प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘श्रीमन ! यह आपने कैसी आज्ञा दे दी ? भवानन्द के पुत्र गोपीनाथ पट्टनायक तो आपके भाई के समान हैं। उन्हें आप प्राणदण्ड दिला रहे हैं, सो भी दो लाख रुपयों के ऊपर? वे यदि देने से इन्कार करें तो भी वैसा करना उचित था? किन्तु वे तो देने को तैयार हैं। उनके घोड़े आदि उचित मूल्य पर ले लिये जायँ, जो शेष रहेगा, उसे वे धीरे धीरे देते रहेंगे।’
महाराज की स्वयं की इच्छा नहीं थी। महामन्त्री की बात सुनकर उन्होंने कहा- ‘अच्छी बात है। मुझे इस बात का क्या पता? यदि वे रुपये देना चाहते हैं, तो उन्हें छोड़ दो। मुझे तो रुपयों से काम है उनके प्राण लेने से मुझे क्या लाभ?’
महाराज की ऐसी आज्ञा मिलते ही उन्होंने दरबार मे जाकर गोपीनाथ जी को सपरिवार मुक्त करने की आज्ञा लोंगों को सुना दी। इस आज्ञा को सुनते ही लोगों के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। क्षणभर में बहुत से मनुष्य इस सुखद संवाद को सुनाने के निमित्त प्रभु के पास पहुँचे और सभी एक स्वर में कहने लगे- ‘प्रभु ने गोपीनाथ को चाँग से उतरवा दिया।’
प्रभु ने कहा- ‘यह सब उनके पिता की भक्ति का ही फल है। जगन्नाथ जी ने ही उन्हें इस विपत्ति से बचाया है।’
लोगों ने कहा- ‘भवानन्द जी तो आपको ही सर्वस्व समझते हैं और वे ही कह भी रहे हैं कि महाप्रभु की ही कृपा से हम इस विपत्ति से बच सके हैं।’
प्रभु ने लोगों से पूछा- ‘चाँग के समीप खड़े हुए भवानन्द जी का उस समय क्या हाल था?’
लोगों ने कहा- ‘प्रभो ! उनकी बात कुछ न पूछिये। अपने पुत्र को चाँग पर चढ़े देखकर भी न उन्हें हर्ष था न विषाद। वे आनन्द के सहित प्रेम में गद्गद होकर-
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
-इस मन्त्र का जप कर रहे थे। दोनों हाथों की उँगलियों के पोरों से वे इस मन्त्र की संख्या को गिनते जाते थे। उन्हें आपके ऊपर दृढ़ विश्वास था।’
प्रभु ने कहा- ‘सब पुरुषोत्तम भगवान की कृपा है। उनकी भगवत-भक्ति का ही फल है कि इतनी भयंकर विपत्ति से सहज में ही छुटकारा मिल गया, नहीं तो राजाओं का क्रोध कभी निष्फल नहीं जाता।’ इतने में ही भवानन्द जी अपने पाँचों पुत्रों को साथ लिये हुए प्रभु के दर्शनों के लिये आ पहुँचे। उन्होंने पुत्रों के सहित प्रभु के पापद्मों में साष्टांग प्रणाम किया अैर गद्गद कण्ठ से दीनता के साथ वे कहने लगे- ‘हे दयालो ! हे भक्तवत्सल !! आपने ही हमारा इस भयंकर विपत्ति से उद्धार किया है। प्रभो ! आपकी असीम कृपा के बिना ऐसा असम्भव कार्य कभी नहीं हो सकता कि चाँग पर चढ़ा हुआ मनुष्य फिर जीवित ही उतर आवे !’
प्रभु उनकी भगवद्भक्ति की प्रशंसा करते हुए कहने लगे- ‘इसे समझा दो, अब कभी ऐसा काम न करे। राजा के पैसे को कभी भी अपने खर्च में न लावे।’ इस प्रकार समझा बुझाकर प्रभु नेे उन सब पिता-पुत्रों को विदा किया। उसी समय काशी मिश्र भी आ पहुँचे। प्रभु को प्रणाम करके उन्होंने कहा- ‘प्रभो आज आपकी कृपा से ये पिता पुत्र तो खूब विपत्ति से बचे।’ प्रभु ने कुछ खिन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘मिश्र जी क्या बताऊँ? मैं तो इन विषयी लोगों के संसर्ग से बड़ा दुखी हूँ। मैं चाहता हूँ, इनकी कोई बात मेरे कानों में न पड़े। किन्तु जब यहाँ रहता हूँ, तब लोग मुझसे आकर कह ही देते हैं। सुनकर मुझे क्लेश होता ही है, इसलिये पुरी छोड़कर अब मैं अलालनाथ मेे जाकर रहूँगा। वहाँ न इन विषयी लोगों का संसर्ग होगा और न ये बातें सुनने में आवेंगी।’
मिश्र जी ने कहा- ‘आपको इन बातों से क्या? यह तो संसार है। इसमें तो ऐसी बातें होती ही रहती हैं। आप किस-किसका शोक करेंगे? आपसे क्या, कोई कुछ भी करे ! आपके भक्त तो सभी विषयत्यागी वैरागी हैं। रघुनाथदास जी को देखिये सब कुद छोड़ छाड़कर क्षेत्र के टुकड़ों पर निर्वाह करते हैं। रामानन्द तो पूरे संन्यासी हैं ही।’
प्रभु ने कहा- ‘चाहे कैसा भी क्यों न हो, अपना कुछ सम्बन्ध रहने से दुःख सुख प्रतीत होता ही है। ये विषयी ठहरे, बिना रुपया चुराये मानेंगे नहीं, महाराज कफर इन्हें चाँग पर चढ़ावेंगे। आज बच गये तो एक न एक दिन फिर यही होना है।’
मिश्र जी ने कहा- ‘नहीं, ऐसा नहीं होगा। महाराज भवानन्द जी को बहुत प्यार करते हैं।’ इसके अनन्तर और भी बहुत-सी बातें होती रहीं। अन्त में काशी मिश्र प्रभु की आज्ञा लेकर चले गये।
महाराज प्रतापरुद्र जी अपने कुलगुरु श्री काशी मिश्र के अनन्य भक्त थे। पुरी में जब भी वे रहते, तभी रोज उनके घर आकर पैर दबाते थे। मिश्र जी भी उनसे अत्यधिक स्नेह मानते थे। एक दिन रात्रि में महाराज आकर मिश्र जी के पैर दबाने लगे। बातों ही बातों में मिश्र जी ने प्रसंग छेड़ दिया कि महाप्रभु तो पुरी छोड़कर अब अलालनाथ जाना चाहते हैं। पैरों को पकड़े हुए सम्भ्रम के साथ महाराज ने कहा- ‘क्यों, क्यों ! उन्हें यहाँ क्या कष्ट है? जो भी कोई कष्ट हो उसे दूर कीजिये। ! मैं आपका सेवक सब प्रकार से स्वयं उनकी सेवा करने को उपस्थित हूँ।’
मिश्र जी ने कहा- ‘उन्हें गोपीनाथ वाली घटना से बड़ा कष्ट हुआ है। वे कहते हैं, विषयियों के संसर्ग में रहना ठीक नहीं है।’
महाराज ने कहा- ‘श्रीमहाराज ! मैंने तो तुम्हें धमकाने के लिये ऐसा किया था। वैसे भवानन्द जी के प्रति मेरी बड़ी श्रद्धा है। इस छोटी सी बात के पीछे प्रभु पुरी को क्यों परित्याग कर रहे हैं। दो लाख रुपयों की कौन सी बात है? मैं रुपयों को छोड़ दूँगा। आप जैसे भी बने तैसे प्रभु को यहीं रखिये।’
मिश्र जी ने कहा- ‘रुपये छोड़ने को वे नहीं कहते। रुपयों की बात सुनकर तो उन्हें और अधिक दुःख होगा। वैसे ही वे इस झंझट से दूर रहना चाहते हैं। कहते हैं- रोज रोज यही झगड़ा चला रहेगा। गोपीनाथ फिर ऐसा ही करेगा।’
महाराज ने कहा- ‘आप उन्हें रुपयो की बात कहें ही नहीं। गोपीनाथ तो अपनी ही आदमी है। अब झगड़ा क्यों होगा? मैं उसे समझा दूँगा, आप महाप्रभु को जाने न दें। जैसे भी रख सकें अनुनय-विनय और प्रार्थना करके उन्हें यहीं रखें।’
महाराज के चले जाने पर दूसरे दिन मिश्र जी ने सभी बातें आकर प्रभु से कहीं ! सब बातों को सुनकर प्रभु कहने लगे- ‘यह आपने क्या किया? यह तो दो लाख रुपये आपने मुझे ही दिलवा दिये। इस राज प्रतिग्रह को लेकर मैं उलटा पाप का भागी बना।’
मिश्र जी ने सभी बातें प्रभु को समझा दीं। महाराज के शील, स्वभाव, नम्रता और सदगुणों की प्रशंसा की। प्रभु उनके भक्ति भाव की बातें सुनकर सन्तुष्ट हुए और उन्होंने अलालनाथ जाने का विचार परित्याग कर दिया।
इधर महाराज ने आकर गोपीनाथ जी को बुलाया और उन्हें पुत्र की भाँति समझाते हुए कहने लगे- ‘देखो इस प्रकार व्यर्थ व्यय नहीं करना चाहिये। तुमने बिना पूछे इतने रुपये खर्च कर दिये इसलिये हमें क्रोध आ गया। जाओ, वे रुपये माफ किये। अब फिर ऐसा काम कभी भी न करना। यदि इतने वेतन से तुम्हारा कान नहीं चलता है तो हमसे कहना चाहिये था। तब तक तुमने यह बात हमसे कभी नहीं कही। आज से हमने तुम्हारा वेतन भी दुगुना कर दिया।’ इस प्रकार दो लाख रुपये माफ हो जाने पर और वेतन भी दुगुना हो जाने से गोपीनाथ जी को परम प्रसन्नता हुई। उसी समय वे आकर प्रभु के पैरों में पड़ गये और रोते-रोते कहने लगे- ‘प्रभो ! मुझे अब अपने चरणों की शरण में लीजिये, अब मुझे इस विषय जंजाल से छुड़ाइये।’
प्रभु ने उन्हें प्रेमपूर्वक आलिंगन किया और फिर कभी ऐसा काम न करने के लिये कहकर विदा किया।
जब महापुरुषों की तनिक सी कृपा होने पर गोपीनाथ सपरिवार सूली से बच गये, दो लाख रुपये माफ हो गये, वेतन दुगुना हो गया और पहले से भी अधिक राजा के प्रीतिभाजन बन गये, तब जो अनन्यभाव से महापुरुषों के चरणों ही सेवा करते हैं और उनके ऊपर जो महापुरुषों की कृपा होती है, उस कृपा के फल का तो कहना ही क्या? उस कृपा से तो फिर मनुष्य का इस संसार से ही सम्बन्ध छूट जाता है। वह तो फिर सर्वतोभावेन प्रभु का ही हो जाता है। धन्य है ऐसी कृपालुता को !
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Gopinath Pattnaik escapes the gallows
He is unwilling, all-seeking or generous, seeking liberation. One should worship the Supreme Person with intense devotional Yoga.
Readers must not have forgotten Rai Ramanand’s father Raja Bhavanand. He had five sons like Rai Ramanand, Gopinath Pattnayak and Vaninath etc., whom the Lord used to give the likeness of five Pandavas and used to respect and honor Bhavanand ji by calling him Pandu. Vaninath was always in the service of the Lord. Rai Ramanand was earlier the ruler of Vidyanagar, leaving behind that work, he always used to reside in Puri near the lotus feet of the Lord and used to make Mahaprabhu listen to Shri Krishna’s story continuously. His younger brother Gopinath Pattanaik was the ruler of a province under the state of Orissa named ‘Mal Jathya Dandapat’. He was very fond of, his lifestyle, pomp, everything was of royal style. The way money-seekers often become subjects, they had become subjects of the same type. The desire of sensual people is like an all-consuming fire, no matter how much fuel in the form of money is put in it, it is not satisfied. That’s why the writers of the scriptures have called the subject men unbelievers. One should never believe the words of sensible people. By keeping a heritage thing with them, the hope of getting it again is futile. The subject happens only when there is indiscretion in the heart and in indiscretion, there is no care of own-stranger or loss-gain. That’s why a sensual man not only traps himself in the web of objections, but also keeps on causing trouble to his associates. Who has not suffered due to the association of objects. That is why the policy makers have said- Durvatsangatirnarthparamparaya Purpose: satan bhavati ki vachaniyamtra. Lankeshvaro Harati Dashrathe: Kaltram Prapnoti Bandhanmasou Kil Sindhuraj: ॥
‘ What is the point of listening to say anything special in this? It has been the practice of Sanatan that even good men get into trouble by having sex with sensual men. Look, that subject Ravana abducted Janakandini Sita ji and the poor sea was in bondage. Everyone has to enjoy the sorrows and happiness of the companions. He is not a relative who is involved in happiness and goes away in sorrow. But there is one thing, if fortunately false men have any kind of relationship with a great man, then both his world and the hereafter improve.
Sadhus always stay away from sensual men, but if a sensual person surrenders to them in any way, then his fleet should be considered as crossed. Even if the great men feel sad seeing someone’s sorrow, then he is freed from that sorrow, when the worldly sorrows are freed from the slightest desire of the great men, then the one who goes to his shelter with pure heart and devotion There will be welfare – what to say in this? Raja Bhavanand ji was a pure hearted devotee of the Lord. His son Gopinath Pattanayak was a great subject. Father had relation with Mahaprabhu. In this respect, he had some relation with the Lord. Due to the connection of this relative, he was saved even after being crucified. Such is the glory of great men.
Gopinath was the ruler of a state. The income of the entire province used to come to him. He used to keep his fixed salary from it and send the remaining money to the royal court. But where is the restraint in the subjects that they care about other’s money. We have already told that due to indiscretion, the subject men do not have the knowledge of the stranger. Gopinath Pattnaik also used to spend the money sent to the treasury at his own expense. In this way two lakh rupees of the Maharaja of Odisha went towards him. Maharaj asked him for his money, but where did he have the money? Prostitutes and artists made him their own. Gopinath prayed to Maharaj that ‘ I do not have cash money with me. I have 10-20 horses and some other stuff, take it as much as you want, I will pay the remaining amount gradually. Maharaj accepted his request and sent one of his boys to decide the price of the horses.
That prince was very intelligent, he had a lot of knowledge of horses, he went there with his ten-twenty servants to decide the price of the horse. It was the nature of the prince that he used to talk with his head up and repeatedly turning his face here and there. He was the son of a prince, he was proud of his royalty and authority, that’s why no one even spoke in front of him. He started fixing the price by looking around the horses. Those whom Gopinath considered to be worth two to four thousand, he told them to be of very little value. Maharaj considered Gopinath like a son in relation to Bhavanand ji, that’s why he became very stubborn. They didn’t understand the princes at all. When the prince put such a low price for two to four horses, then Gopinath could not stay. He said- ‘Sir! You are putting a very low value on this.
The prince said with some fury- ‘What do you want, give two lakh rupees to these horses without any fear? We will plant as many as we can.’ Gopinath stopped his anger and said – ‘Sir! The horses are of very good breed. Its value is very less for them.
Enraged at this, the prince said- ‘He has collected junk horses from all over the world and wants to be free of two lakh rupees by giving them only. Of not being this. Horses will be installed according to the number of horses they have. Ignoring the prince, he slowly said in a sarcastic tone – ‘At least these horses of mine do not raise their heads like you and look here and there.’ He felt that horses are more valuable than you.
The self-respecting prince could not tolerate this insult. He started burning with anger. At that time he did not say anything. He thought that if we say something here, then the matter will increase and Maharaj does not know what meaning he should apply to it. Thinking that we are not independent in the government yet, he silently went from there to Maharaj. After going there, he made many complaints about Gopinath and said- ‘Father! He is a great subject, does not want to give birth to even one. On the contrary, he has insulted me very much. He has said such a bad thing about me, which I am ashamed to say in front of you. Should he blaspheme me in front of everyone? Such great courage of his being a servant? All this is the reason for your laxity. The money will not be recovered until he is put on a pyre, be sure.’
Maharaj thought – ‘ We should get the money. In fact, until he is shown a huge threat, he will not give the money. Give permission to put him on Chang once. It is possible to give money out of fear. Otherwise, He will be left behind by His special order. We can hardly get Bhavanand’s son offered on Chang for two lakh rupees. Say it now, this will calm the prince’s anger and possibly the money will also be found. Thinking of this, Maharaj said- ‘Good brother, do that work, which will get money from him. Get him offered on Chang.’
So, all was set. The prince immediately ordered that Gopinath should be brought here tied. His orders were obeyed in a moment. Gopinath was tied up and made to stand near Chang. Now introduce Chang to the readers and what is this Chang. Actually, Chang is the name of Suli in a way. The only difference between a crucifix and a chang is that the crucifix is inserted through the anus and taken out through the head. Life doesn’t come out quickly from this – life comes out after a long time in agony. Chang is a more pleasant and life-killing action than that. There is a big stage. In the lower part of that platform, there is a very big pit with a sharp edge. The criminal is thrown from that platform in such a way that his life ends as soon as he falls on it. This is called ‘Chang Chadhana’. Only the biggest criminals are offered on the Chang.
The hue and cry of ‘Gopinath Pattanaik will be offered on Chang’e’ spread everywhere. Everyone was very surprised by this. King Bhavanand whom Maharaj considered as his father, he will put his son on Chang, really the mind of these kings is not understood, they can be happy in a moment and angry in a second. He doesn’t have anyone of his own. They can do everything. In this way, saying various things, hundreds of men surrendered to Mahaprabhu and started praying to God to forgive their crimes after telling all the circumstances.
The Lord said – ‘Brother! What can I do, who can avoid the king’s order? That’s right, subject people should get such punishment. When he makes Radravya fly away in his sensual pleasures, then what is the king’s benefit from him? Two lakh rupees is not less at all. As he did, he suffered the consequences. What should I do?’
Bhavanand ji’s relatives and friends started pleading with the Lord in various ways. The Lord said – ‘Brother! I am a beggar, if I had two lakh rupees, I would have given him and got him released, but I do not have even two pennies. How do I get rid of him? You people go and pray to Jagannath ji, he is Dinanath, he will definitely pay attention to everyone’s prayer.
Meanwhile, many men came running closer to the Lord. He communicated that- ‘Bhavanand, Vaninath etc. all the family members are being taken by tying up as state employees.’
Everyone was surprised. Hearing the news of Bhavanand ji’s bondage, all the detached and intimate devotees of the Lord were shocked. Swaroop Damodar ji said with impatience – ‘ Lord! Bhavanand, the whole family is the servant of your feet. Why is he so sad? Despite being blessed by you, it doesn’t seem fair that they should suffer so much in old age. This will condemn your devotional devotion.
Mahaprabhu said in the voice of anger with love – ‘ Swarup! Even after being so intelligent, you are talking like children? Do you wish that I should go to the royal court and pray to the king for Bhavanand to free him? Well, even if I go and say something and the king says that you only give two lakh rupees, then what will I answer? In the royal court, no one even asks the sage Brahmins like a straw.
Swaroop Goswami said- ‘Who is asking you to go to the royal court? You can turn this world universe upside down just by your wish. Then it is a simple matter to save Bhavanand and his family from this sorrow. You have to be saved, if you don’t save then your devotee’s affection will become false, it is not false. Bhavanand is your devotee and you are a devotee, no one has any doubt about this.’
There is hue and cry in the royal court. There was talk of climbing Gopinath’s chong on everyone’s face. Everyone seemed to be in awe of this impossible and wonderful event. After getting the news, Maharaj’s Prime Minister Chandaneshwar Mahapatra reached near Maharaj and expressed his astonishment and said- ‘Sir! How did you order this? Bhavananda’s son Gopinath Pattanayak is like your brother. You are giving him the death penalty, that too over two lakh rupees? Even if they refuse to give, was it right to do so? But they are ready to give. Their horses etc. should be taken at a reasonable price, whatever is left, they will continue to give it gradually.
It was not Maharaj’s own will. After listening to the General Secretary, he said – ‘It is a good thing. What do I know about this? If they want to give money, let them go. I am concerned with money, what is the use of taking his life?’
As soon as he received such an order from Maharaj, he went to the court and told the people to free Gopinathji with his family. On hearing this order, there was no place for the joy of the people. In a moment, many people reached the Lord to narrate this pleasant conversation and all of them started saying in one voice – ‘The Lord has got Gopinath removed from Chang’.
The Lord said- ‘All this is the result of devotion to his father. Jagannath ji has saved him from this calamity.
People said- ‘Bhavanand ji considers you everything and he is also saying that by the grace of Mahaprabhu we have been saved from this calamity.’
The Lord asked the people- ‘What was the condition of Bhavanand ji standing near Chang at that time?’
People said – ‘ Lord! Don’t ask anything about them. He was neither happy nor sad even after seeing his son mounted on Chang. Deeply in love with joy they
Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.
Were chanting this mantra. He used to count the number of this mantra with the tips of the fingers of both the hands. He had strong faith in you.
The Lord said – ‘ Everything is the grace of the Supreme Lord. It is the result of his devotion to God that he got rid of such a terrible calamity easily, otherwise the anger of the kings would never have been in vain.’ Meanwhile, Bhavanand ji came to see the Lord with his five sons. . Along with his sons, he prostrated at the feet of the Lord and with humility from Gadgad’s voice, he started saying – ‘ O merciful! O devotee!! You have saved us from this terrible calamity. Lord! Without your infinite grace, such an impossible task can never happen that a person who has climbed on Chang comes down alive again!’
Prabhu praised his devotion to God and said- ‘Make him understand, never do such a thing now. Never use the king’s money for your own expenses.’ After persuading them in this way, the Lord bid farewell to all those fathers and sons. At the same time Kashi Mishra also reached. After saluting the Lord, he said- ‘Lord, today by your grace, this father and son were saved from a lot of calamity.’ The Lord expressed some sadness and said- ‘What should I tell Mishra ji? I am deeply saddened by the association of these sensual people. I want none of their words to fall into my ears. But when I live here, people come and tell me. Hearing this, I feel distressed, so leaving Puri, I will now go to Alalnath. There will be no contact with these sensual people, nor will these things be heard.
Mishra ji said- ‘What do you have to do with these things? This is the world. Such things keep happening in this. Whom will you mourn? What can anyone do to you! Your devotees are all renounced subjects. Look at Raghunathdas ji, leaving everything aside, they survive on the pieces of the area. Ramanand is a complete sannyasin. The Lord said- ‘No matter how it is, having some relation with oneself seems to be happiness and sorrow. If they remain subject, they will not agree without stealing money, Maharaj will then offer them to Chang. If you are saved today, then one day or the other this will happen again.
Mishra ji said – ‘ No, it will not happen. Maharaj loves Bhavanand ji a lot.’ Many other things kept happening after this. In the end, Kashi Mishra left after taking the permission of the Lord.
Maharaj Prataparudra ji was an exclusive devotee of his Vice-Chancellor Shri Kashi Mishra. Whenever he lived in Puri, he used to come to his house everyday and press his feet. Mishra ji also used to have great affection for him. One day Maharaj came in the night and started pressing the feet of Mishra ji. While talking, Mishra ji raised the issue that Mahaprabhu wants to leave Puri and now go to Alalnath. Holding the feet, Maharaj said with confusion – ‘Why, why! What’s wrong with them here? Remove whatever is the problem. , I am your servant present to serve him in every way.
Mishra ji said- ‘He has suffered a lot because of the Gopinath incident. They say, it is not good to be in the company of sensual beings.
Maharaj said – ‘Shri Maharaj! I did this to threaten you. By the way, I have great respect for Bhavanand ji. Why is Prabhu abandoning Puri because of this small matter. What is the matter of two lakh rupees? I’ll leave the money. Keep the Lord here as you are.’
Mishra ji said- ‘They don’t ask you to leave the money. They will be more sad to hear about the money. Similarly, they want to stay away from this mess. It is said that this quarrel will continue everyday. Gopinath will do the same again.
Maharaj said – ‘ You should not tell them about money. Gopinath is his own man. Why would there be a fight now? I will make him understand, don’t let Mahaprabhu go. Keep them here by persuasion and prayer as much as you can.
On the second day after Maharaj left, Mishra ji came and told all the things to the Lord. After listening to everything, the Lord started saying – ‘ What have you done? You got me this two lakh rupees only. By taking this royal oath, I became a part of the opposite sin.
Mishra ji explained everything to the Lord. Praised Maharaj’s modesty, nature, humility and virtues. Prabhu was satisfied after listening to his words of devotion and he gave up the idea of going to Alalnath.
Here Maharaj came and called Gopinath ji and explaining to him like a son, said- ‘Look, there should be no wasteful expenditure like this. You spent so much money without asking, that’s why we got angry. Go, they forgave Rs. Never do such a thing again. If your ears do not work with this much salary, then you should have told us. Till then you never said this to us. From today onwards, we have doubled your salary as well.’ Gopinath ji was very happy when two lakh rupees were waived off and the salary was also doubled. At the same time they came and fell at the feet of the Lord and started crying and saying – ‘Lord! Now take me in the shelter of your feet, now free me from this subject.’
The Lord hugged him lovingly and sent him away asking him not to do such a thing ever again.
When Gopinath and his family were saved from crucifixion due to a little grace of great men, two lakh rupees were waived off, the salary was doubled and became the favorite of the king even more than before, then those who serve exclusively at the feet of great men and their What to say about the fruit of the grace of great men above? With that grace, then man’s relation with this world is lost. He then all the time becomes of the Lord. Blessed to have such kindness!
respectively next post [153] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]