।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
महाप्रभु की अलौकिक क्षमा
क्षमा बलमशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा।
क्षमा वशीकृतिर्लो के क्षमया किं न सिद्ध्यति।।
महापुरुषों के पास भिन्न भिन्न प्रकृति के भक्त होते हैं। बहुत से तो ऐसे होते हैं, जो उनके गुण अवगुण को समझते ही नहीं, उनके लिये वे जो भी कुछ करते हैं सब अच्छा ही करते हैं। महापुरुषों के कार्यों में उन्हें अनौचित्य दीखता ही नहीं। बहुत से ऐसे होते हैं, जो गुण दोषो का विवेचन तो कर लेते हैं, किन्तु महापुरुषों के दोषों के ऊपर ध्यान नहीं देते, वे अवगुणो की उपेक्षा करके गुणों को ही ग्रहण करते हैं। कुछ ऐसे होते हैं, हृदय से उनके गुणों के प्रति तो श्रद्धा के भाव रखते हैं, किन्तु जहाँ उन्हें कोई मर्यादा के विरुद्ध कार्य करते देखते हैं वहाँ उनकी आलोचना भी करते हैं और उन्हें उस दोष से पृथक रखने के लिये प्रयत्नशील भी होते हैं। कुछ ऐसे भी भक्त या कुभक्त होते हैं जो महापुरुषों के प्रभाव को देखकर मन ही मन डाह करते हैं और उनके कामों में सदा छिद्रान्वेषण ही करते रहते हैं। उपर्युक्त तीन प्रकार के भक्त तो महापुरुषों से यथाशक्ति लाभ उठाते हैं, किन्तु ये चौथे निन्दक महाशय अपना नाश करके महापुरुष का कल्याण करते हैं, अपनी नीचता के द्वारा महापुरुषों की सदवृत्तियों को उभाड़कर उन्हें लोगों के सम्मुख रखते हैं। उनके बराबर परोपकारी संसार में कौन हो सकता है, जो अपना सर्वस्व नाश करके लोक कल्याण के निमित्त महापुरुषों के द्वारा क्षमा और सहनशीलता का आदर्श उपस्थित कराते हैं।
महाप्रभु के दरबार में पहले और दूसरे प्रकार के भक्तो की संख्या ही अधिक थी। प्रायः उनके सभी भक्त उन्हें ‘सचल जगन्नाथ’ ‘संन्यास वेषधारी पुरुषोत्तम’ मानकर भगवदबुद्धि से उनकी सेवा पूजा किया करते थे, किन्तु आलोचक और निन्दकों का एकदम अभाव ही हो, सो बात नहीं थी। उनके बहुत से आलोचक भी थे, किन्तु प्रभु उनकी बातें ही नहीं सुनते थे। कोई भूल में आकर उनसे कह भी देता, तो वे उसे उस बात के सुनाने से एकदम रोक देते थे। यह तो बाहर के लोगों की बात रही, उनके अंतरंग भक्तों तथा साथियों में भी ऐसे थे, जो खरी कहने के लिये प्रभु के सामने भी नहीं चूकते थे, किंतु उनका भाव शुद्ध था। एक त्यागाभिमानी रामचन्द्रपुरी नाम के उनके घोर निन्दक संन्यासी भी थे, किन्तु प्रभु की अलौकिक क्षमा के सामने उन्हें अन्त में पुरी को ही छोड़कर जाना पड़ा। पहले दामोदर पण्डित की आलोचना की एक घटना सुनिये।
महाप्रभु श्री मन्दिर के समीप ही रहते थे। वहीं कहीं पास में ही एक उड़िया ब्राह्मणी का घर था। वह ब्राह्मणी विधवा थी, उसका एक तेरह-चौदह वर्ष का लड़का प्रभु के पास आया करता था। उस लड़के का सौन्दर्य अपूर्व ही था। उसके शरीर का रंग तप्त कांचन के समान बड़ा ही सुन्दर था, अंग प्रत्यंग सभी सुडौल-सुन्दर थे। शरीर में स्वाभाविक बालचापल्य था। अपनी दोनों बड़ी बड़ी सुहावनी आँखें से वह जिस पुरुष की भी ओर देख लेता वही उसे प्यार करने लगता। वह प्रभु को प्रणाम करने के लिये नित्य प्रति आता। प्रभु उससे अत्यधिक स्नेह करने लगे। उसे पास में बिठाकर उससें प्रेम की मीठी मीठी बातें पूछते, कभी कभी उसे प्रसाद भी दे देते। बच्चों का हृदय तो बड़ा ही सरल और सरस होता है, उनसे जो भी प्रेम से बोले वे उसी के हो जाते हैं। प्रभु के प्रेम के कारण उस बच्चे का ऐसा हाल हो गया कि उसे प्रभु के दर्शनों के बिना चैन ही नहीं पड़ता था। दिन में दो दो, तीन तीन बार वह प्रभु के पास आने लगा। दामोदर पण्डित प्रभु के पास ही रहते थे। उन्हें उस अद्वितीय रूप लावण्ययुक्त अल्पवयस्क बच्चे का प्रभु के पास इस प्रकार से आना बहुत ही बुरा लगने लगा। वे एकान्त में बच्चे को डाँट भी देते और उसे यहाँ आने का निषेध भी कर देते, किन्तु हृदय का सच्चा प्रेम किसकी परवा करता है। अत्यन्त प्रेम मनुष्यों को ढीक बना देता है।
पण्डित के मना करने पर भी वह लड़का बिना किसी की बात सुने निर्भय होकर प्रभु के पास चला जाता और घंटों उनके पास बैठा रहता। प्रभु बाल भाव में उससे भाँति-भाँति की बातें किया करते। मनुष्य के स्वभाव में एक प्रकार की क्रूरता होती है। जब हम किसी पर अपना पूर्ण अधिकार समझने वाला कोई दूसरा पुरुष भी हो जाता है तो हम मन ही मन उससे डाह करने लगते हैं, फिर चाहे वह कितना भी सर्वगुणसम्पन्न क्यों न हो, हमें वह राक्षस सा प्रतीत होता है। दामोदर पण्डित का भी यही हाल था। उन्हें उस विधवा के सुन्दर पुत्र की सूरत से घृणा थी, उसके नाम से चिढ़ थी, उसे देखते ही वे जल उठते। एक दिन उन्होंने उस लडत्रके को प्रभु के पास बैठा देचाा। प्रभु उससे हँस-हँस कर बातें कर रहे थे। उस समय तो उन्होंने प्रभु से कुछ नहीं कहा। जब वह लड़का उठकर चला गया तो उन्होंने कुछ प्रेम पूर्वक रोष के स्वर में कहा- ‘प्रभो ! आप दूसरों को ही उपदेश देने के लिये हैं, अपने लिये नहीं सोचते कि हमारे आचरण को देखकर कोई क्या समझेगा?
प्रभु ने सम्भ्रम के साथ कहा- ‘क्यों, क्यों, पण्डित जी ! मैंने ऐसा कौन सा पापकर्म कर डाला?’ उसी प्रकार रोष के साथ दामोदर पण्डित ने कहा- ‘मुझे इस लड़के का आपके पास इस प्रकार निस्संकोच भाव से आना अच्छा प्रतीत नहीं होता। आपको पता नहीं, लोग क्या मन में सोचेंगे? संसारी लोग विचित्र होते हैं, अभी तो सब गुसाईं-गुसाईं कहते हैं। आपके इस आचरण से सभी आपकी निन्दा करने लगेंगे और तब सब ईश्वरपना भूल जायँगे।’
प्रभु ने सरलता पूर्वक कहा- ‘दामोदर ! इस लड़के में तो मुझे कोई भी दोष नहीं दीखता; बड़ा सरल, भोला-भाला और गौ के बछड़े के समान सीधा है।’
दामोदर पण्डित ने कहा- ‘आपको पता नहीं यह विधवा का पुत्र है, इसकी माता अभी युवती है, वैसे वह बड़ी तपस्विनी, सदाचारिणी तथा भगवत्परायणा है, फिर भी उसमें तीन दोष हैं। वह युवती है, अत्यधिक सुन्दरी है और विधवा है तथा अपने घर में अकेली ही है, आप अभी युवक हैं, अद्वितीय रूप लावण्ययुक्त हैं। हम तो आपके मनोभावों को समझते हैं, किन्तु लोक किसी को नहीं छोड़ता। वह जरा सा छिद्र पाते ही निन्दा करने लगता है। लोगों के मुखों को हम थोड़े पकड़ लेंगे। इतने दिन की जमी हुई प्रतिष्ठा सभी धूल में मिल जायगी।’
दामोदर पण्डित की बातों से प्रभु को हृदय में सन्तोष हुआ कि इन्हें मेंरी पवित्रता का इतना अधिक ध्यान रहता है, किन्तु उनके भोलेपन पर उन्हें हँसी भी आयी। उस समय तो उन्होंने उनसे कुछ भी नहीं कहा। दूसरे दिन एकान्त मे बुलाकर कहने लगे- ‘दामोदर पण्डित ! मैं समझता हूँ, तुम्हारा नवद्वीप में ही रहना ठीक होगा, वहाँ तुम्हारे भय से भक्तवृन्द मर्यादा के विरुद्ध आचरण न कर सकेंगे और तुम माता जी की भी देख-रेख करते रहोगे। वहीं जाकर माता के समीप रहो और बीच में मुझे देखने के लिये यहाँ आ जाया करना। माता जी के चरणों में मेरा प्रणाम कहना और उन्हें समझा देना कि मैं सदा उनके बनाये हुए व्यंजनों को खाने के लिये नवद्वीप में आता हूँ और प्रत्यक्षरीति से भगवान के भोग लगाये हुए नैवेद्य को पाता हूँ।’ इतना कहकर और जगन्नाथ जी का प्रसाद देकर उन्हें नवद्वीप को विदा किया। वे नवद्वीप में आकर शचीमाता के समीप रहने लगे, उनके भय से नवद्वीप के भक्त कोई भी मर्यादा के विरुद्ध कार्य नहीं करते थे। इनकी आलोचना बड़ी ही खरी तथा तीव्र होती थी।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Supernatural Forgiveness of Mahaprabhu
Forgiveness is the strength of the weak and the ornament of the strong. Forgiveness is submission to the world, what is not accomplished by forgiveness?
Great men have devotees of different nature. There are many who do not understand their merits and demerits, whatever they do for them, they do only good. He does not see any inappropriateness in the actions of great men. There are many who discuss the merits and demerits, but do not pay attention to the faults of great men, they ignore the demerits and accept the virtues only. Some are like this, they have feelings of reverence for their qualities from the heart, but wherever they see someone acting against the dignity, they criticize them and also try to keep them away from that fault. There are some such devotees or bad-devotees who, seeing the influence of great men, feel envious in their heart and always keep digging holes in their works. The above-mentioned three types of devotees take advantage of the great men as much as they can, but this fourth slanderer does good to the great man by destroying himself, by raising the good qualities of the great men by his meanness, he puts them in front of the people. Who can be equal to him in the philanthropic world, who destroys everything and presents the ideal of forgiveness and tolerance through great men for the welfare of the people.
In the court of Mahaprabhu, the number of first and second type of devotees was more. Often all his devotees considered him as ‘Sachal Jagannath’ ‘Sannyas Veshdhari Purushottam’ and worshiped him with Bhagavadbuddhi, but there was a complete absence of critics and slanderers, so it did not matter. He had many critics too, but the Lord did not listen to his words. Even if someone made a mistake and told them, they used to completely stop him from narrating that thing. It was a matter of outside people, there were such people among his intimate devotees and companions, who did not fail to tell the truth even in front of the Lord, but their feelings were pure. There was also a sacrificial sanyasi named Ramchandrapuri who criticized him, but in the end he had to leave Puri in front of the Lord’s supernatural forgiveness. First listen to an incident of Damodar Pandita’s criticism.
Mahaprabhu used to live near Shri Mandir. Somewhere nearby there was the house of an Oriya Brahmin. She was a Brahmin widow, her thirteen-fourteen year old son used to come to the Lord. The beauty of that boy was unique. The color of his body was very beautiful like hot Kanchan, all the limbs were curvy and beautiful. There was natural childishness in the body. He would fall in love with any man he looked at with his two big beautiful eyes. He used to come regularly to worship the Lord. The Lord started loving him a lot. By making him sit near him, he would ask him sweet words of love, sometimes he would also give him prasad. Children’s heart is very simple and sweet, whoever speaks to them with love, they belong to him. Due to the love of the Lord, the condition of that child was such that he could not feel at peace without seeing the Lord. Twice, thrice a day he started coming to the Lord. Damodar Pandit used to live near the Lord. He started feeling very bad that that unique graceful young child coming to the Lord in this way. They even scold the child in solitude and forbid him to come here, but who cares about the true love of the heart. Extreme love makes humans weak.
Even after the pundit’s refusal, that boy would fearlessly go to the Lord without listening to anyone and would sit with him for hours. Prabhu used to talk to him like a child. There is a kind of cruelty in human nature. When there is another man who considers us as our complete authority over someone, then we start envying him, no matter how perfect he is, he seems like a demon to us. Same was the condition of Damodar Pandit. He hated the face of that widow’s handsome son, was irritated by his name, he used to get jealous on seeing him. One day he made that girl sit near the Lord. The Lord was talking to him laughingly. At that time he did not say anything to the Lord. When that boy got up and left, he said in a voice of anger with some love – ‘Lord! You are there to preach to others, don’t think for yourself that what will anyone understand after seeing our conduct?
The Lord said with confusion – ‘Why, why, Pandit ji! What sin have I committed?’ Similarly, Damodar Pandit said with anger – ‘I do not like this boy coming to you in such an unhesitating manner. You never know what people will think? Worldly people are strange, now everyone is saying Gusaiin-Gusaiin. Due to this behavior of yours everyone will start criticizing you and then everyone will forget godliness.
The Lord simply said – ‘ Damodar! I do not see any fault in this boy; Very simple, innocent and as straight as a cow’s calf.
Damodar Pandit said- ‘You don’t know that this is the son of a widow, his mother is still a young woman, although she is a great ascetic, virtuous and devoted to God, yet she has three faults. She is young, extremely beautiful and widowed and alone in her house, you are still young, unique in beauty. We understand your feelings, but the world does not leave anyone. He starts criticizing as soon as he finds a slight hole. We will catch hold of people’s faces. The frozen reputation of so many days will all be mixed in the dust.
The Lord was satisfied with the words of Pandit Damodar that he cares so much for my purity, but he also laughed at his innocence. At that time he did not say anything to them. The next day he called in solitude and said – ‘Damodar Pandit! I understand, it will be better for you to stay in Navadweep, because of your fear, the devotees will not be able to behave against the code of conduct and you will continue to look after the mother. Go there and stay near mother and come here to see me in between. Saying my salutations at the feet of Mata ji and explaining to her that I always come to Navadweep to eat the dishes made by her and directly get the Naivedya offered by God. Farewell to Nabadwip. He came to Navadvipa and started living near Sachimata, fearing her, the devotees of Navadvipa did not act against any code of conduct. His criticism was very true and intense.
respectively next post [156] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]