[169]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
शारदीय निशीथ में दिव्‍य गन्‍ध का अनुसरण

कुरंगमदजिद्वपु:परिमलोर्मिकृष्‍टांगन:
स्‍वकांगनलिनाष्‍टके शशियुताब्‍जगन्‍धप्रथ:।
मदेन्‍दुवरचन्‍दनागुरुसुगन्धिचर्चार्चित:
स मे मदनमोहन: सखि तनोति नासास्‍पृहाम्।।

विरहव्‍यथा से व्‍यथित व्‍यक्तियों के लिये प्रकृति के यावत् सौन्‍दर्यपूर्ण समान हैं वे ही अत्‍यन्‍त दु:खदायी प्रतीत होते हैं। सम्‍पूर्ण ऋतुओं में श्रेष्‍ठ वसन्‍त-ऋतु, शुक्ल पक्ष का प्रवृद्ध चन्‍द्र, शीतल, मन्‍द, सुगन्धित मलय मारुत, मेघ की घनघोर गर्जना, अशोक, तमाल, कमल, मृणाल आदि शोकनाशक और शीतलता प्रदान करने वाले वृक्ष तथा उनके नवपल्‍लव, मधुकर, हंस, चकोर, कृष्‍णसागर, सारंग, मयूर, कोकिल, शुक, सारिका आदि सुहावने सुन्‍दर और सुमधुर वचन बोलने वाले पक्षी ये सभी विरह की अग्नि को और अधिक बढ़ाते हैं सभी उसे रुलाते हैं। सभी को विरहिणी के खिझाने में ही आनन्‍द आता है। पपीहा पी-पी कहकर उसके कलेजे में कसक पैदा करता है, वसन्‍त उसे उन्‍मादी बनाता है। फूले हुए वृक्ष उसकी हँसी करते हैं और मलयाचल का मन्‍दवाही मारुत उसकी मीठी-मीठी चु‍टकियां लेता है। मानो ये सब प्रपंच विधाता ने विरहिणी को ही खिझाने के लिये रचे हों। बेचारी सबकी सहती है, दिन-रात रोती है और इन्‍हीं सबसे अपने प्रियतम का पता पूछती है, कैसी बेवशी है। क्‍यों है न? सहृदय पाठक अनुभव तो करते ही होंगे।

वैशाखी पूर्णिमा थी, निशानाथ अपनी सहचरी निशादेवी के साथ खिलखिलाकर हँस रहे थे। उनका सुमधुर श्‍वेत हास्‍य का प्रकाश दिशा-विदिशाओं में व्‍याप्‍त था। प्रकृति इन पति-पत्नियों के सम्‍मेलन को दूर से देखकर मन्‍द-मन्‍द मुसकरा रही थी। पवन धीरे-धीरे पैरों की आहट बचाकर चल रहा था। शोभा सजीव होकर प्रकृति का आलिंगन कर रही थी। समुद्रतट के जगन्‍नाथवल्‍लभ नाम के उद्यान में प्रभु विरहिणी की अवस्‍था में विचरण कर रहे थे। स्‍वरूपदामोदर, राम रामानन्‍द प्रभृति अन्‍तरंग भक्‍त उनके साथ थे। महाप्रभु के दोनों नेत्रों से निरन्‍तर अश्रु प्रवाहित हो रहे थे। मुख कुछ-कुछ म्‍लान था। चन्‍द्रमा की चमकीली किरणें उनके श्रीमुख को धीरे-धीरे चुम्‍बन कर रही थीं। अनजाने के उस चुम्‍बनसुख से उनके अरुरण रंग के अधर श्‍वेतवर्ण के प्रकाश के साथ और भी द्युतिमान होकर शोभा की भी शोभा को बढ रहे थे।

महाप्रभु का वही उन्‍माद, वही बेकली, वही छटपटाहट, उसी प्रकार रोना, उसी तरह की प्रार्थना करना था, इसी प्रकार घूम-घूमकर वे अपने प्रियतम की खोज कर रहे थे। प्‍यारे को खोजते-खोजते वे अत्‍यन्‍त ही करुणस्‍वर से इस श्‍लोक को पढ़ते जाते थे–

तच्‍छैशवं त्रिभुवनाद्भुतमित्‍यवेहि
मच्‍चापलंच तव वा मम वाधिगम्‍यम्।
तत् किं करोमि विरलं मुरलीविलासि
मुग्‍धं मुखाम्‍बुजमुदीक्षितमीक्षणाभ्‍याम्।।[1]

हे प्‍यारे, मुरलीविहारी ! तुम्‍हारा शैशवावस्‍था का मनोहर, माधुर्य-त्रिभुवनविख्‍यात है। संसार में उसकी मधुरिमा सर्वत्र व्‍याप्‍त है, उससे प्‍यारी वस्‍तु कोई विश्‍व में है ही नहीं और मेरी चपलता, चंचलता, उच्‍छ्रंखलता तुम पर विदित ही है। तुम ही मेरी चपलता से पूर्णरीत्‍या परिचित हो। बस मेरे और तुम्‍हारे सिवा तीसरा कोई उसे नहीं जानता। प्‍यारे ! बस, एक ही अभिलाषा है, इसी अभिलाषा से अभी तक इन प्राणों को धारण किये हुए हूँ। वह यह कि जिस मनोहर मुखकमल को देखकर व्रजवधू भूली-सी, भटकी-सी, सर्वस्‍व गंवाई-सी बन जाती हैं, उसी कमलमुख को अपनी दोनों आँखें फाड-फाड़कर एकान्‍त में देखना चाहती हूँ। हृदयरमण ! क्‍या कभी देख सकूँगी? प्राणवल्‍लभ ! क्‍या कभी ऐसा सुयोग प्राप्‍त हो सकेगा?

बस, इसी प्रकार प्रेम-‍प्रलाप करते हुए प्रभु जगन्‍नाथवल्‍लभ नामक उद्यान में परिभ्रमण कर रहे थे। वे प्रत्‍येक वृक्ष को आलिंगन करते, उससे अपने प्‍यारे का पता पूछते और फिर आगे बढ़ जाते। प्रेम से लताओं की भाँति वृक्षों से लिपट जाते, कभी मूर्च्छित होकर गिर पड़ते, कभी फिर उठकर उसी ओर दौडने लगते। उसी समय वे क्‍या देखते हैं कि अशोक के वृक्ष के नीचे खडे होकर वे ही मुरलीमनोहर अपनी मदमाती मुरली की मन्‍द-मन्‍द मुस्कान के साथ बजा रहे हैं। वे मुरली में ही कोई सुन्‍दर-सा मनोहारी गीत गा रहे हैं, न उनके साथ कोई सखा है, न पास में कोई गोपिका ही। अकेले ही वे अपने स्‍वाभाविक टेढ़ेपन से ललित त्रिभंगी गति से खड़े हैं। बांस की वह पूर्वजन्‍म की परम तपस्विनी मुरली अरुण रंग के अधरों का धीरे-धीरे अमृत पान कर रही है। महाप्रभु उसे मनोहर मूर्ति को देखकर उसी की ओर दौडे। प्‍यारे को आलिंगनदान देने के लिये वे शीघ्रता से बढ़े। हा सर्वनाश ! प्रलय हो गया ! प्‍यारा तो गायब ! अब उसका कुछ भी पता नहीं ! महाप्रभु वहीं मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
थोड़ी देर में इधर-उधर सूँ-सूँ करके कुछ सूँघने लगे ! उन्‍हें श्रीकृष्‍ण के शरीर की दिव्‍य गन्‍ध तो आ रही थी। गन्‍ध तो आ ही रही थी, किन्‍तु श्रीकृष्‍ण दिखायी नहीं देते थे। इसीलिये उसी गन्‍ध के सहारे-सहारे वे श्रीकृष्‍ण की खोज करने के लिये फिर चल पड़े।

अहा ! प्‍यारे के शरीर की दिव्‍य गन्‍ध कैसी मनोहारिणी होगी, इसे तो कोई रतिसुख की प्रवीणा नायिका ही समझ सकती है, हम अरसिकों का उसमें प्रवेश कहाँ? हाय रे ! प्‍यारे के शरीर की दिव्‍य गन्‍ध घोर मादकता पैदा करने वाली है, जैसे मद्यपीकी आँख से ओझल बहुत ही उत्‍तम गन्‍धयुक्‍त सुरा रखी हो, किन्‍तु वह उसे दीखती न हो। जिस प्रकार वह उस आसव के लिये विकल होकर तड़पता है, उसी प्रकार प्रभु उस गन्‍ध को सूँघकर तड़प रहे थे। उस गन्‍ध की उन्‍मादकता का वर्णन कविराज गोस्‍वामी के शब्‍दों में सुनिये–

सेहे गन्‍ध वश नासा, सदा करने गन्‍धेर आशा।
कभू पाय कभू ना पाय।।
पाइले पिया पेट भरे, पिड. पिड. तवू करे।
ना पाइल तृष्‍णाय मरिजाय।।
मदन मोहन नाट, पसारि चांदेर हाट।
जगन्‍नारी-ग्राहक लोभाय।।
विना-मूल्‍य देय गन्‍ध, गन्‍ध दिया करे अन्‍ध।
धर याइते पथ नाहि पाय।।
एइ मत गौर‍हरि, गन्‍धे कैल मन चुरि।
भृंग प्राय इति उति धाय।।
जाय वृक्ष लता पाशे, कृष्‍ण-स्‍फुरे सेइ आशे।
गन्‍ध न पाय, गन्‍ध मात्र पाय।।

श्रीकृष्‍ण के अंग की उस दिव्‍य गन्‍ध के वश में नासिका हो गयी है, वह सदा उसी गन्‍ध की आशा करती रहती है। कभी तो उस गन्‍ध को पा जाती है और कभी नहीं भी पाती है। जब पा लेती है तब पेट भरकर खूब पीती है और फिर भी ‘पीऊँ और पीऊँ’ इसी प्रकार कहती रहती है। नहीं पाती तो प्‍यास से मर जाती है। इस नटवर मदनमोहन ने रूप की हाट लगा रखी है। ग्राहकरूपी जो जगत की स्त्रियां हैं उन्‍हें लुभाता है। यह ऐसा विचित्र व्‍यापारी है कि बिना ही मूल्‍य वैसे ही उस दिव्‍य गन्‍ध को दे देता है और गन्‍ध को देकर अन्‍धा बना देता है। जिससे वे बेचारी स्त्रियों अपने घर का रास्‍ता भूल जाती हैं। इस प्रकार गन्‍ध के द्वारा जिनका मन चुराया गया है, ऐसे गौरहरि भ्रमर की भाँति इधर-उधर दौड रहे थे। वे वृक्ष और लताओं के समीप जाते हैं कि कहीं श्रीकृष्‍ण मिल जायँ किन्‍तु वहाँ श्रीकृष्‍ण नहीं मिलते, केवल उनके शरीर की दिव्‍य गन्‍ध ही मिलती हैं।
इस प्रकार श्रीकृष्‍ण की गंध के पीछे घूमते-घूमते सम्‍पूर्ण रात्रि व्‍यतीत हो गयी। निशा अपने प्राणनाथ के वियोगदु:ख के स्‍मरण से कुछ म्‍लान-सी हो गयी। उसके मुख का तेज फीका पडने लगा। भगवान भुवनभास्‍कर के आगमन के भय से निशानाथ भी धीरे-धीरे अस्‍ताचल की ओर जाने लगे। स्‍वरूप गोस्‍वामी और राय रामानन्‍द प्रभु को उनके निवास स्‍थान पर ले गये।

क्रमशः अगला पोस्ट [170]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Following the Divine Smell in Sharadiya Nishith

Kurangamadajidvapu:parimlormikrishtangan: The first of the world’s fragrant lotuses with the moon in the eighth stage of his own fireplace. Maden Duvarachandanagurusugandhicharchita: That Madanmohana, my friend, is making my nose crave.

For persons suffering from separation, the most beautiful objects of nature appear to be very sad. The best of all seasons is the spring season, the growing moon of the Shukla Paksha, cool, slow, fragrant Malay Marut, thunderous thunder of clouds, Ashoka, Tamal, Kamal, Mrinal etc. mourning and cooling trees and their Navpallav, Madhukar, Hans, Chakor, Krishnasagar, Sarang, Mayur, Kokil, Shuk, Sarika etc. birds who speak pleasant, beautiful and melodious words, all these increase the fire of separation more and all make him cry. Everyone takes pleasure in irritating Virhini. Papiha creates a pang in his heart by saying Pee Pee, Vasant makes him frenzied. The blossoming trees laugh at him and the slow-witted Marut of Malayachal takes sweet jokes at him. It is as if the Creator has created all these worlds to annoy Virhini only. The poor thing tolerates everyone, cries day and night and asks all of them the address of her beloved, how helpless she is. Why isn’t it? Hearty readers must be experiencing it.

It was Vaishakhi full moon, Nishanath was laughing with his companion Nishadevi. The light of his melodious white humor spread in every direction. Prakriti was smiling dimly watching the meeting of these husband and wives from a distance. Pawan was walking slowly keeping the sound of his feet. Shobha was embracing nature alive. In the garden named Jagannathvallabh on the beach, the Lord was roaming in the state of Virahini. Swarupadamodar, Ram Ramanand Prabhriti Antrang Bhakt were with him. Tears were flowing continuously from both the eyes of Mahaprabhu. The face was somewhat droopy. The bright rays of the moon were gently kissing his head. Unknowingly, with the light of white color, their dark colored lips were increasing the beauty of Shobha by becoming even more dazzling.

Mahaprabhu had the same frenzy, the same bewilderment, the same crying, the same prayer, in the same way he was searching for his beloved. While searching for the beloved, he used to recite this verse with great compassion-

Know that childhood to be wonderful in the three worlds My chaplain is either yours or mine. That’s what I’m doing, rare fiddle luxury Her face was fascinated by the lotus, her eyes looking at him.

Hey dear, Murlivihari! The beauty of your childhood, Madhurya-Tribhuvan is famous. Her sweetness pervades everywhere in the world, there is no other thing more lovely than her and my agility, fickleness, disorderliness is known to you. You are fully aware of my agility. Except me and you no one else knows him. Dear! There is only one desire, with this desire I am still holding on to these lives. That is, seeing the beautiful face of the lotus, the Vrajvadhu becomes forgetful, wandering, lost in everything, I want to see the same lotus face with tears in both my eyes in solitude. Hridayaraman! Can I see you sometime? Pranvallabh! Will such an opportunity ever be available?

Just like this, Lord Jagannath was roaming in the garden named Vallabh while raving about love. They would hug each tree, ask it for the address of their beloved, and then move on. They used to cling to the trees like vines with love, sometimes they would fall unconscious, sometimes they would get up again and start running in the same direction. At the same time, what do they see that standing under the Ashoka tree, they themselves are playing Murlimanohar with a soft smile of their intoxicating Murli. He is singing a beautiful song in Murli itself, neither is there any friend with him, nor is there any gopika nearby. Alone they stand in graceful tribhangi motion with their natural crookedness. The supreme ascetic murli of the past birth of bamboo is slowly drinking the nectar of the Arun-coloured adhras. Mahaprabhu saw him as a beautiful idol and ran towards him. He hastened to give a hug to the Beloved. Oh apocalypse! Holocaust happened! Love is missing! He doesn’t know anything now! Mahaprabhu fell unconscious there. In a short while, sniffing here and there, they started sniffing something. He could smell the divine smell of Shri Krishna’s body. The smell was coming, but Shri Krishna was not visible. That’s why with the help of the same smell, they started again to search for Shri Krishna.

Aha! The divine smell of the beloved’s body would be so enchanting, it can only be understood by a proficient heroine of Ratisukh, where can we Arsikas enter it? Hi Ray! The divine smell of the body of the Beloved is intoxicating, like a well-smelling wine hidden from the eyes of a drunkard, but not visible to him. Just as he yearns for that infusion, in the same way the Lord was yearning after smelling that fragrance. Listen to the description of the frenzy of that smell in the words of Kaviraj Goswami-

Sehe Gandh Vash Nasa, Sada Karne Gandher Asha. Sometimes I can’t get it, sometimes I don’t get it. Piles drank full stomach, Pid. Pid. Tavu do. Na pile trishnaya marijaya. Madan Mohan Nat, Pasari Chander Haat. Jagannari-The customer is greedy. The smell is given without any cost, the smell is given to the blind. Dhar yaite path nahi paaye. Hey Mat Gaurhari, Gandhe Kail Man Churi. Beetles are often so much milk. Jay vriksha lata paashe, Krishna-spure sei aashe. Didn’t get the smell, only got the smell.

Nasika has become under the control of that divine smell of Shri Krishna’s organ, she always keeps hoping for that smell. Sometimes she gets that smell and sometimes she doesn’t. When she gets it, she drinks to her fill and still keeps on saying ‘drink and drink’ like this. If not, she dies of thirst. This Natwar Madan Mohan has set up a Roop market. He woos the women of the world who are his customers. He is such a strange businessman that he gives that divine smell without any price and by giving it the smell makes him blind. Due to which those poor women forget their way home. In this way, whose mind has been stolen by the smell, such Gauraharis were running hither and thither like Bhramar. They go near trees and vines to find Shri Krishna, but Shri Krishna is not found there, only the divine smell of his body is found. In this way the whole night was spent wandering after the scent of Shri Krishna. Nisha became somewhat melancholic at the recollection of the sorrow of her Prannath’s loss. The brightness of his face started to fade. Fearing the arrival of Lord Bhuvanbhaskar, Nishanath also slowly started moving towards Astachal. Svarupa Goswami and Raya Ramananda took Prabhu to his abode.

respectively next post [170] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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