चीरहरण के प्रसँग को लेकर कई तरह की शंकाएँ की जाती हैं, अतएव इस सम्बन्ध में कुछ विचार करना आवश्यक है। वास्तव में बात यह है कि सच्चिदानन्दघन भगवान की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओं का रहस्य जानने का सौभाग्य बहुत थोड़े लोगों को होता है। जिस प्रकार भगवान चिन्मय हैं, उसी प्रकार उनकी लीलाएँ भी चिन्मयी होती हैं। सच्चिदानन्दरसमय साम्राज्य जिन परमोन्नत स्तर में यह लीला हुआ करती है, उसकी ऐसी विलक्षणता है कि कई बार तो ज्ञान-विज्ञान स्वरूप विशुद्ध चेतन परमब्रह्म में भी उसका प्राकटय नहीं होता और इसीलिये ब्रह्मसाक्षातकार को प्राप्त महात्मा लोग भी इस लीला-रस का समास्वादन नहीं कर पाते। भगवान की इस परमोज्ज्वल दिव्य रस-लीला का यथार्थ प्रकाश तो भगवान की स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्ति नित्यनिकुंजेश्वरी श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी और तदंगभूता प्रेममयी गोपियों के ही हृदय में होता है और वे ही निरावरण होकर भगवान की इस परम अन्तरंग रसमयी लीला का समास्वादन करती हैं।
दशम स्कन्ध के इक्कीसवें अध्याय में ऐसा वर्णन आया है कि भगवान की रूपामाधुरी, वंशीध्वनि और प्रेममयी लीलाएँ देख-सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो जाती हैं। बाईसवें अध्याय में उसी प्रेम की पूर्णता प्राप्त करने के लिये वे साधन में लग जाती है। इसी अध्याय में भगवान आकर उनकी साधना पूर्ण करते हैं। यही चीर-हरण का प्रसंग है।
गोपियाँ क्या चाहती थीँ बात उनकी साधना से स्पष्ट है। वे चाहती थीं-श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण, श्रीकृष्ण के साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना कि उनका रोम-रोम, मन-प्राण, सम्पूर्ण आत्मा केवल श्रीकृष्णमय हो जाय। शरत्-काल में उन्होंने श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि की चर्चा आपस में की थी, हेमन्त के पहले ही महीने में अर्थात भगवान के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्ष में उनकी साधना प्रारम्भ हो गयी। विलम्ब उनके लिये असह्य था। जाड़े के दिनों में वे प्रातःकाल ही यमुना -स्नान के लिये जातीं, उन्हें शरीर की परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिनें एक साथ हो जातीं, उनमें ईष्र्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जाति वालों का भय नहीं था। वे घर में भी हविष्यान्न का ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्ण के लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करती थीं। अपने इस कार्य को सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं।एक वाक्य में-उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान के चरणों में सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणों के स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो वस्तुतः उनके स्वामी थे ही उनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करने के लिये उनका आवरण भंग कर देने की आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरूरी था और यही काम भगवान श्रीकृष्ण ने किया। इसी के लिये वे योगेश्वरों के ईश्वर भगवान अपने मित्र ग्वालबालों के साथ यमुना तट पर पधारे थे।
साधक अपनी शक्ति से, अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करने वाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है, जब भगवान स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करने वाले को स्वीकार करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य है-पूर्ण समर्पण की तैयारी! उसे पूर्ण तो भगवान ही करते हैं।भगवान श्रीकृष्ण यों तो लीला पुरुषोत्तम हैं फिर भी जब लीला प्रकट करते हैं, तब वे मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं। विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता परंतु हृदय की निष्कपटता, सच्चाई और सच्चा प्रेम विधि के अतिक्रमण को भी हलका कर देता है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादा का उल्लंघन करके निरावरण-स्नान करती थीं। यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था। भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित्त भी करवाया। जो लोग भगवान के प्रेम के नाम पर विधि का उल्लंघन करते हैं, उन्हें यह प्रसंग ध्यान से पढ़ना चाहिये और भगवान शास्त्रविधि का कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये।
वैसी भक्ति का पर्यवसान रागात्मि का भक्ति में है और रागात्मि का भक्तिपूर्ण समर्पण के रूप में परिणत हो जाती है। गोपियों ने वैधी भक्ति का अनुष्ठान किया, उनका हृदय तो रागात्मि का भक्ति से भरा हुआ था ही। अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये। गोपियों ने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनों की परवा नहीं की, उन्हीं की प्राप्ति के लिये ही उनका यह महान अनुष्ठान था।श्रीकृष्ण चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्वर हैं, समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वे ही हैं। ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है, जो बिना किसी परदे के उनके सामने न हो। वे ही सर्वव्यापक, अन्तर्यामी हैं। गोपियों के, गोपों के और निखिल विश्व के वे ही आत्मा हैं। उन्हें स्वामी, गुरु, पिता, माता, सखा, पति आदि के रूप में मानकर लोग उन्हीं की उपासना करते हैं।गोपियाँ उन्हीं भगवान को, यह जानते हुए कि ये ही भगवान हैं- ये ही योगेश्वरेश्वर, क्षराक्षरातीत पुरुषोत्तम हैं- पति के रूप मे प्राप्त करना चाहती थीं।
क्रमश:
Many types of doubts are raised regarding the context of rip-off, so it is necessary to give some thought in this regard. In fact, the matter is that very few people have the fortune of knowing the secret of the divine sweet and ritual pastimes of Lord Sachchidanandaghan. As the Lord is Chinmaya, similarly His pastimes are also Chinmaya. Sachchidanandarasamy kingdom in the exalted level in which this pastime takes place, it has such a peculiarity that sometimes it does not appear even in pure conscious Parambrahma in the form of knowledge and science, and that is why even the Mahatmas who have attained Brahman are not able to enjoy this pastime. . The real light of this supremely divine rasa-leela of God is only in the heart of God’s Swaroopbhuta Hladini Shakti Nityanikunjeshwari Shri Vrishabhanunandini Shriradhaji and Tadangabhuta Premmayi Gopis and they are the ones who become free and enjoy this ultimate intimate Rasamayi Leela of God.
In the twenty-first chapter of Dasam Skandha, such a description has come that the Gopis get mesmerized by seeing and hearing the beauty of God, Vanshidhvani and loving pastimes. In the twenty-second chapter, she engages in means to attain the perfection of that love. In this chapter, God comes and completes his meditation. This is the context of rip-off.
What the gopis wanted is clear from their meditation. She wanted-complete self-surrender to Shri Krishna, to merge with Shri Krishna in such a way that her every pore, mind-life, whole soul becomes only Shri Krishna. In autumn, they had discussed among themselves the sound of Shri Krishna’s lineage, in the very first month of Hemant, that is, their spiritual practice started in Margashirsh, the Vibhutiswarup of God. The delay was unbearable for him. In the winter days, she used to go to Yamuna-bathing early in the morning, she did not care about her body. Many virgin cowherds would have joined together, there was no jealousy and hatred among them. She used to go chanting the name of Shri Krishna in a loud voice, she had no fear of the village and caste people. She used to eat Havishyanna only at home, she was so distraught for Shri Krishna that she didn’t even hesitate to talk to her parents. She used to ritually worship and chant mantras by making a sand idol of the goddess. She considered this work of hers to be completely appropriate and expansive. In one sentence – she had completely surrendered her family, family, religion, hesitation and personality at the feet of God. She used to chant that only Nandanandan should be the master of our lives. In fact, Shri Krishna was his master, and to complete his devotion, there was a need to dissolve his cover, it was necessary to rip off his cover and Lord Krishna did the same thing. For this reason, the God of the Yogeshwars had come to the banks of the Yamuna with his friend the cowherd boys.
The seeker cannot surrender completely with his power, his strength and determination only with his determination. Surrender is also an action and the one who does it remains unsurrendered. In such a situation, complete surrender of the soul takes place when God Himself comes and accepts that resolution and accepts the one who makes the resolution. This is where the dedication becomes complete. The duty of a seeker is to prepare for complete surrender. Only God fulfills it. Although Lord Krishna is the Supreme Personality of Godhead, yet when He manifests His Leela, He does not violate the norms, He only establishes. No one can move forward in the path of spiritual practice by transgressing the law, but the sincerity of the heart, truthfulness and true love lighten the encroachment of the law. There was a mistake in the meditation that the gopis were doing to get Shri Krishna. She used to bathe in defilement by violating the scriptural norms and traditional eternal norms. Although this action of his was done out of ignorance, yet it had to be rectified by the Lord. God also got the gopis to atone for this. Those who violate law in the name of love of God should read this passage carefully and see how much God respects scriptural law.
Such bhakti culminates in devotion of the soul of passion and turns into devotional surrender of the soul of passion. The Gopis performed the rituals of lawful devotion, their heart was full of devotion of Ragatmi. Now there should be complete surrender. Gopis for whom they did not care about world-world, self-interest, caste-family, ancestors-kin and teachers, this was their great ritual only for their attainment. Shri Krishna Charachar is the only god of nature, the doer of all actions. He is also the enjoyer and the witness. There is not a single visible or unmanifested substance which is not in front of him without a veil. He is the all-pervasive, the innermost. He is the soul of the Gopis, of the Gopas and of the whole world. People worship Him considering Him as Swami, Guru, Father, Mother, Friend, Husband etc. wanted to get respectively