परमात्मा आप ही जानता है, आप ही देता है। जानना उसका है, देना भी उसका है। हमें तो सिर्फ पात्र होना काफी है। ज्ञान उसका है। अस्तित्व उसका है। दोनों हमें मिल जाएंगे। सिर्फ हमें राजी होना जरूरी है। उन्मुख होना जरूरी है। उसकी तरफ आंखें उठाना जरूरी है। मन के जाल में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं। न तो मन ज्ञान दे सकता है, न अस्तित्व दे सकता है। मन तो सिर्फ झूठ दे सकता है। मन की जो सुनता है, वह झूठ में उतर जाता है। मन कुछ भी नहीं दे सकता।
तुमने शायद एक पुरानी कहानी सुनी होगी कि एक आदमी ने बड़ी भक्ति की। और देवता प्रसन्न हो गए। तो देवता ने उस आदमी को एक शंख दिया। शंख की खूबी यह थी कि जो तुम उससे मांगो, मिल जाए। कहो एक महल, तो तत्क्षण महल तैयार हो जाए। कहो सुस्वादु भोजन, तत्क्षण थाली लग जाए। बड़ा कीमती शंख था। वह आदमी बड़ा आनंदित हुआ। वह आदमी बड़े महलों में, बड़े सुख से रहने लगा।
फिर एक दिन एक धर्मगुरु यात्रा करते हुए उस महल में रुका। उसने भी इस शंख के बाबत बात सुनी। लालच पकड़ा। उसके पास भी एक शंख था। उस शंख का नाम महाशंख था। उसने इस आदमी को कहा कि क्या तुम शंख के पीछे पड़े हो! मैंने भी भक्ति की बहुत। मैंने महाशंख पाया। इस महाशंख की बड़ी खूबी है। तुम मांगो एक महल, यह देता है दो।
उस आदमी का लोभ जागा। उसने कहा कि बताओ! उसने महाशंख निकाला। बड़ा शंख था। उस धर्मगुरु ने उसे नीचे रखा और कहा कि भाई, एक महल बना दे। उसने कहा, एक क्यों? दो क्यों नहीं?
जंच गयी बात। उस आदमी ने अपना शंख गुरु को दे दिया, धर्मगुरु को। महाशंख ले लिया। फिर बहुत खोजा उस गुरु को, उसका पता न चला। क्योंकि वह महाशंख सिर्फ बोलता था। तुम कहो, दो, तो वह कहे, चार क्यों नहीं? तुम कहो, चार, तो वह कहे, आठ क्यों नहीं? मगर बस, इसी तरह बात चलती थी। लेने-देने का कोई काम ही न था। वह बिलकुल महाशंख था।
मन महाशंख है। जो कुछ मिलता है परमात्मा से, मन तो सिर्फ कहता है, इतना क्यों नहीं? और ज्यादा क्यों नहीं? मन तो बातचीत है। मन तो एक झूठ है। मन से कुछ भी नहीं घटता।
और तुम परमात्मा को छोड़ कर मन को पकड़ लिए हो। वह दोहरे की बात करता है। उससे लोभ जगता है। लेकिन कभी तुम सोचो, मन ने कभी कुछ दिया? मन से कुछ मिला?
नानक कहते हैं, ‘वह आप ही जानता और आप ही देता है। उसका वर्णन भी विरला कर सकता है। वह जिसे चाहे अपनी स्तुति का गुण प्रदान कर सकता है। नानक कहते हैं, वह बादशाहों का बादशाह है।’
और एक बात आखिरी, जो इस सूत्र में बहुत कीमती है।
झुन-नुन एक फकीर हुआ इजिप्त में। और जब उसे परमात्मा की प्रतीति हुई, तो उसने यह उदघोष सुना। परमात्मा ने कहा कि इसके पहले कि तू मुझे खोजने निकलता, मैंने तुझे पा लिया था। और अगर मैंने तुझे न पाया होता, तो तू मुझे खोजने ही न निकलता।
नानक यही कह रहे हैं कि वह जिसे चाहे उसे स्तुति का गुण प्रदान कर सकता है।
सच तो यह है, तुम उसे खोजने ही तब निकलते हो, जब उसने तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे दी। तुम अपने आप उसे खोजने भी कैसे निकलोगे? तुम्हें उसकी खोज का बोध भी कैसे आएगा? तुम्हें उसका स्मरण भी कैसे भरेगा? उसकी स्तुति भी कैसे पैदा होगी?
फिर कितनी ही देर लग जाए खोजने में, असल में उसने तुम्हें पा ही लिया है। इसलिए तुम खोजने निकले हो। वह आ ही गया है तुम्हारे जीवन में, इसलिए तो खोज शुरू हुई है। उसकी प्यास जग गयी है। नानक कहते हैं, वह भी उसी ने ही जगायी है।
नानक का मार्ग यह है–सब उसी पर छोड़ देना है। अपने हाथ में कुछ मत रखना। क्योंकि अकड़ बड़ी सूक्ष्म है। तुम यह भी कहोगे कि मैं खोजी, मैं साधक, मैं जिज्ञासु, मैं मुमुक्षु हूं। मैं परमात्मा को खोज रहा हूं।…
यह मैं कहीं से भी निर्मित न हो, इसलिए नानक कहते हैं, तेरी मर्जी से ही स्तुति का गुण मिलता है। हम तो तेरी महिमा भी तभी गा सकेंगे जब तू गवाए। तेरे बिना हमसे तेरी स्तुति भी न हो सकेगी। और तो बात करनी फिजूल है। हम तेरी तरफ आंख भी नहीं उठा सकेंगे, अगर तू ही हमारी आंखों को सहारा न दे। हमारे पैर तेरी तरफ न जा सकेंगे, अगर तू ही उन्हें उस तरफ न ले जाए। हम तेरी धारणा का, तेरे विचार का भी, तेरा सपना भी न देख सकेंगे, अगर तूने पहले ही हमें चुन न लिया हो।
नानक इस भांति अहंकार की सारी जड़ काट देते हैं। और जहां अहंकार नहीं, वहां उसका द्वार खुला है। जहां अहंकार नहीं, वहां ओंकार का नाद अनायास शुरू हो जाता है। तुम्हारे अहंकार के शोरगुल के कारण ही वह धीमी और छोटी आवाज सुनायी नहीं पड़ती।
आज इतना ही।
ओशो
God himself knows, only he gives. It is his to know, it is his to give also. It is enough for us to be eligible. The knowledge is his. Existence is his. We will get both. We just need to agree. It is important to be oriented. It is necessary to raise our eyes towards him. There is no need to fall into the trap of the mind. Neither the mind can give knowledge nor it can give existence. The mind can only give lies. One who listens to the mind, falls into lies. The mind cannot give anything.
You might have heard an old story about a man who had great devotion. And the gods were pleased. So the god gave the man a conch. The specialty of the conch was that whatever you asked for from it, you would get it. Say a palace, the palace gets ready instantly. Say delicious food, the plate will be served immediately. It was a very expensive conch. That man was very happy. That man started living very happily in big palaces.
Then one day a religious leader while traveling stopped in that palace. He also heard about this conch. Caught the lure. He also had a conch. The name of that conch was Mahashankh. He asked this man, “Are you after the conch shell?” I also did a lot of devotion. I found the great conch. This Mahashankh has a great quality. You ask for one palace, he gives two.
That man’s greed awakened. He said tell me! He took out the great conch. It was a big conch. That religious leader put him down and said brother, build a palace. He said, why one? Why not two?
It was a good idea. That man gave his conch to the Guru, the religious leader. Took the conch. Then I searched a lot for that Guru but could not find him. Because that great conch only spoke. You say two, then he says, why not four? You say, four, then he says, why not eight? But that’s how things went. There was no work of giving or taking. He was absolutely great.
The mind is the great conch. Whatever we get from God, the mind just says, why not this much? Why not more? Mind is conversation. The mind is a lie. Nothing happens from the mind.
And you have left God and have taken hold of your mind. He talks about double. That awakens greed. But sometimes you think, has the mind ever given you anything? Did you find something in your mind?
Nanak says, ‘He knows it Himself and gives it Himself. It is difficult to even describe it. He can bestow his praise upon whomever he wishes. Nanak says, he is the king of kings.
And one last thing, which is very valuable in this sutra.
Jhun-Nun was a fakir in Egypt. And when he realized God, he heard this announcement. God said that before you set out to search for me, I had found you. And if I had not found you, you would not have set out to search for me.
Nanak is saying that he can give the virtue of praise to anyone he wants.
The truth is, you set out to find him only when he knocks at your door. How will you even go out to find him on your own? How will you even be aware of his discovery? How will you even remember him? How will his praise even arise?
Then no matter how long it takes to search, he has actually found you. That’s why you set out to search. He has already come into your life, that is why the search has begun. His thirst has awakened. Nanak says, he too has awakened her.
Nanak’s path is to leave everything to him. Don’t keep anything in your hand. Because arrogance is very subtle. You will also say that I am a seeker, I am a seeker, I am curious, I am Mumukshu. I am searching for God.…
This I cannot be created from anywhere, that is why Nanak says, the quality of praise is received only by your will. We will be able to sing your praise only when you sing. Without you we will not be able to praise you. And it is useless to talk. We will not be able to even look towards you, if you do not support our eyes. Our feet will not be able to go towards you, unless you take them in that direction. We will not be able to see your concept, your thought, even your dream, if you have not already chosen us.
Nanak thus cuts off all roots of ego. And where there is no ego, its door is open. Where there is no ego, the sound of Omkar starts spontaneously. It is because of the noise of your ego that small and quiet voice cannot be heard.
That’s all today.
Osho