भगवान ने क्यों धारण किए हैं विभिन्न रूप ?
परब्रह्म परमात्मा की इस सृष्टि प्रपंच में विभिन्न स्वभाव के प्राणियों का निवास है । इसलिए विभिन्न स्वभाव वाले प्राणियों की विभिन्न रुचियों के अनुसार भगवान भी विभिन्न रूप में प्रकट होते हैं।
किसी का चित्त भगवान के भोलेशंकर रूप में रमता है, तो किसी का शेषशायी विष्णु रूप पर मुग्ध होता है; किसी का मन श्रीकृष्ण के नटवर वेष में फंसता है, तो किसी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आकर्षित करते हैं । किसी को श्रीकृष्ण की आराधिका श्रीराधा की करुणामयी रसिकता अपनी ओर खींचती है तो किसी को जगदम्बा का दुर्गारूप सुहाता है । अत: भगवान के जिस रूप में प्रीति हो उसी रूप की आराधना करनी चाहिए ।
कैसे जाने परमात्मा का कौन-सा रूप है अपना इष्ट????
सनातन हिन्दू धर्म में तैंतीस कोटि देवता माने गए हैं जिनमें पांच प्रमुख देवता—सूर्य, गणेश, गौरी, शिव और श्रीविष्णु (श्रीकृष्ण, श्रीराम) की उपासना प्रमुख रूप से बतायी गयी है । कोई किसी देवता को तो कोई किसी और देवता को बड़ा बतलाता है, ऐसी स्थिति में मन में यह व्याकुलता बनी रहती है कि किसको इष्ट माना जाए ?
हृदय में जब परमात्मा के किसी रूप की लगन लग जाए, दिल में वह छवि धंस जाए, किसी की रूप माधुरी आंखों में समा जाए, किसी के लिए अत्यन्त अनुराग हो जाए, मन में उन्हें पाने की तड़फड़ाहट हो जाए तो वही हमारे आराध्य हैं—ऐसा जानना चाहिए ।
श्रीकृष्ण के मथुरा जाने के बाद जब उद्धवजी गोपियों को समझाने व्रज में आते हैं तब गोपियाँ उद्धवजी से कहती हैं–’यहां तो श्याम के सिवा और कुछ है ही नहीं; सारा हृदय तो उससे भरा है, रोम-रोम में तो वह छाया है । तुम्हीं बताओ, क्या किया जाय ! वह तो हृदय में गड़ गया है और रोम-रोम में ऐसा अड़ गया है कि किसी भी तरह निकल ही नहीं पाता; भीतर भी वही और बाहर भी सर्वत्र वही है।’
उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसे निकसैं वे ऊधौ, तिरछे आनि अड़े।।
आराध्य के प्रति कैसी निष्ठा होनी चाहिए
मनुष्य अनेक जन्म लेता है अत: जन्म-जन्मान्तर में जो उसके इष्ट रह चुके हैं, उनके प्रति उसके मन में विशेष प्रेम रहता है । पूर्व जन्मों की उपासना का ज्ञान स्वप्न में भगवान के दर्शन से या बार-बार चित्त के एक देव विशेष की ओर आकर्षित होने से प्राप्त हो जाता है । साधक के मन और प्राण जब परमात्मा के जिस रूप में मिल जाएं जैसे गोपियों के श्रीकृष्ण में मिल गए थे, तब उन्हें ही अपना इष्ट जानना चाहिए—
कान्ह भए प्रानमय प्रान भए कान्हमय ।
हिय मैं न जानि परै कान्ह है कि प्रान है ।।
पूर्वजन्मों की साधना के अनुकूल ही हमें परिवार या कुल प्राप्त होता है । परिवार में माता-पिता या दादी-बाबा के द्वारा जिस देवता की उपासना की जाती रही है, उनके प्रति ही हम विशेष श्रद्धावान होते हैं । अत: माता-पिता, दादा-परदादा ने जिस व्रत का पालन किया हो या जिस देव की उपासना की हो, मनुष्य को उसी देवता और व्रत का अवलम्बन लेना चाहिए । साघक को अपने इष्ट को कभी कम या अपूर्ण नहीं समझना चाहिए, उसे सदैव उन्हें सर्वेश्वर समझ कर उनकी उपासना करनी चाहिए ।
जब तुलसीदासजी की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण बने रघुनाथ
अपने आराध्य को श्रेष्ठ मानना और ईश्वर के अन्य रूपों को छोटा समझना, उनकी निन्दा करना सही नही है । क्योंकि सभी रूप उस एक परब्रह्म परमात्मा के ही हैं । जब मन में अपने आराध्य के प्रति सच्चा प्रेम और पूर्ण समर्पण होता है तो परमात्मा के हर रूप में अपने इष्ट के ही दर्शन होते हैं ।
एक बार तुलसीदासजी श्रीधाम वृन्दावन में संध्या के समय भक्तमाल के रचियता श्रीनाभाजी आदि वैष्णवों के साथ ‘ज्ञानगुदड़ी’ नामक स्थान पर मदनमोहनजी के दर्शन कर रहे थे । तब परशुराम नाम के पुजारी ने तुलसीदासजी पर कटाक्ष करते हुए कहा—
अपने अपने इष्ट को नमन करे सब कोय ।
इष्टविहीने परशुराम नवै सो निगुरा होय ।।
अर्थात् सभी को अपने इष्ट को नमन करना चाहिए । दूसरों के इष्ट को नमन करना तो निगुरा यानी बिना गुरु के होने के समान है ।
गोस्वामीजी के मन में श्रीराम और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं था, परन्तु पुजारी के कटाक्ष के कारण गोस्वामीजी ने हाथ जोड़कर श्रीठाकुरजी से प्रार्थना करते हुए कहा—‘हे प्रभु ! हे रामजी ! मैं जानता हूँ कि आप ही राम हो, आप ही कृष्ण हो । आज की आपकी मुरली लिए हुए छवि अत्यन्त मनमोहक है लेकिन आज आपके भक्त के मन में भेद आ गया है । आपको राम बनने में कितनी देर लगेगी, यह मस्तक आपके सामने तभी नवेगा जब आप हाथ में धनुष बाण ले लोगे ।’
कहा कहों छवि आज की, भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ ।।
भक्त के मन की बात मदनमोहनजी जान गए और फिर उनकी मुरली और लकुटी छिप गई और हाथ में धनुष और बाण आ गया । कहाँ तो श्रीकृष्ण गोपियों और श्रीराधा के साथ बांसुरी लेके खड़े होते हैं लेकिन आज भक्त की पुकार पर श्रीकृष्ण हाथ में धनुषबाण लिए साक्षात् रघुनाथ बन गए ।
मुरली लकुट दुराय के, धरयो धनुष सर हाथ ।
तुलसी रुचि लखि दास की, कृष्ण भये रघुनाथ ।।
कित मुरली कित चन्द्रिका, कित गोपिन के साथ ।
अपने जन के कारणे, कृष्ण भये रघुनाथ ।।
यह है भक्त और इष्ट का अलौकिक सम्बन्ध !
जो लोग अपने इष्ट की उपासना करते हैं तथा दूसरों के इष्ट को तुच्छ मानकर उसका तिरस्कार करते हैं, वास्तव में वह अपने ही इष्ट का तिरस्कार करते हैं क्योंकि किसी भी देवता की निन्दा करने का अधिकार किसी को नहीं है । जहां भावना छोटी और संकीर्ण होती है वहां फल भी छोटा होता है और जहां भावना महान होती है वहां फल भी महान होता है ।
एक पिता के दो पुत्र थे । उन्होंने अपने पिता के दोनों पैरों की सेवा बांट रखी थी । एक दिन जब वे दोनों अपने-अपने हिस्से के पैरों की सेवा कर रहे थे तब संयोग से एक पैर दूसरे पैर से जा लगा । उस पैर की सेवा करने वाले लड़के ने दूसरे के पैर पर घूंसा जमा दिया । दूसरे लड़के ने अपने पैर को मार खाते देखकर दूसरे के पैर पर घूंसा मार दिया।
इस तरह वे दोनों क्रोध में पिता के पैरों को पीटने लगे । पैरों में चोट लगने पर पिता ने उनकी मूर्खता पर अफसोस करते हुए कहा—‘जिसे तुम दोनों सेवा समझते हो वह वास्तव में सेवा नहीं थी वह तो तुम दोनों ने द्वेषवश अपनी मूर्खता से पिता का अनिष्ट ही किया है ।’
Why has God assumed different forms? In this world of creation of Supreme God, beings of different nature reside. Therefore, God also appears in different forms according to the different interests of beings with different natures.
Someone’s mind is engrossed in the innocent form of God, while someone else’s mind is fascinated by the Sheshashayi form of Vishnu; Some people’s mind gets entangled in the Natwar guise of Shri Krishna, while others are attracted by Maryada Purushottam Shri Ram. Some people are attracted by the compassionate charm of Shri Radha, the worshiper of Shri Krishna, while others like the Durga form of Jagadamba. Therefore, we should worship the form of God in which we love him.
How to know which form of God is our favorite????
In Sanatan Hindu religion, thirty-three crore gods are considered, in which the worship of five main gods – Surya, Ganesha, Gauri, Shiva and Shri Vishnu (Shri Krishna, Shri Ram) is mentioned mainly. Some people consider some gods to be greater and others consider some other gods to be greater, in such a situation there remains a dilemma in the mind as to whom should be considered as the favourite?
When there is a passion for some form of God in the heart, when that image sinks into the heart, when someone’s form gets absorbed in the sweet eyes, when there is immense affection for someone, when there is a yearning in the mind to attain him, then only he is our worshipper. This should be known.
After Shri Krishna goes to Mathura, when Uddhavji comes to Vraj to explain to the Gopis, the Gopis say to Uddhavji – ‘There is nothing else here except Shyam; The whole heart is filled with Him, His shadow is present in every pore. You tell me, what should be done! It is buried in the heart and is so stuck in every pore that it cannot come out in any way; It is the same inside and everywhere outside.’
Butter thieves buried in Ur. Now how can they get out, upside down, sideways and stuck.
What kind of loyalty should one have towards a loved one?
Man takes many births, hence he has a special love in his mind for those who have been his favorites in many births. Knowledge of worship in previous births is acquired by seeing God in dreams or by repeatedly getting the mind attracted towards a particular God. When the mind and soul of the seeker merge with the form of God as the Gopis merged with Shri Krishna, then only he should know his Ishta –
If there is love, if there is life, there is love. Hey, I don’t know whether the stranger has ears or life.
We get a family or clan only according to the sadhana of our previous births. We have special devotion towards the God who has been worshiped by our parents or grandparents in the family. Therefore, whatever fast was observed by the parents, grandparents or whatever god was worshipped, a person should take support of that god and fast. A seeker should never consider his beloved as less or incomplete, he should always worship Him considering Him as the Supreme God.
When Shri Krishna became Raghunath on the prayer of Tulsidasji
It is not right to consider one’s deity as superior and to consider other forms of God inferior and to criticize them. Because all forms are of that one Supreme God. When there is true love and complete dedication towards one’s deity in the mind, one sees one’s favorite person in every form of God.
Once Tulsidasji was having darshan of Madanmohanji at a place called ‘Gyangudari’ along with other Vaishnavas like Shreenabhaji, the author of Bhaktamal, in Sridham Vrindavan in the evening. Then a priest named Parshuram said sarcastically at Tulsidasji-
Everyone should bow to their respective deities. Parashurama, without the favor, is the only one who is helpless.
That means everyone should bow to their favorite. Paying obeisance to the wishes of others is like being Nigura i.e. being without a Guru.
In Goswamiji’s mind there was no difference between Shri Ram and Shri Krishna, but due to the sarcasm of the priest, Goswamiji folded his hands and prayed to Shri Thakurji and said – ‘O Lord! O Lord Rama ! I know that you are Ram, you are Krishna. Today’s image of you holding the Murli is very charming but today there is a difference in the mind of your devotee. How long will it take you to become Ram, this head will appear in front of you only when you take bow and arrow in your hand.
What can be said about today’s image, even if you have become a Nath. Tulsi’s head is new, take the bow and arrow in your hand.
Madan Mohanji came to know what was in the mind of the devotee and then his flute and lakuti got hidden and the bow and arrow came in his hand. Where Shri Krishna stands with the Gopis and Shri Radha with a flute, but today on the call of the devotee, Shri Krishna became Raghunath in person with a bow and arrow in his hand.
Murali lakut durai ke, dharyo dhanush sar haath. Tulsi Ruchi Lakhi Das Ki, Krishna Bhaye Raghunath ।। Where is Murali, where is Chandrika, where is Gopin? Because of his people, Krishna became Raghunath.
This is the supernatural relationship between the devotee and the beloved!
Those who worship their favorite and despise others’ favorite, in reality they despise their own favorite because no one has the right to criticize any god. Where the feeling is small and narrow, the result is also small and where the feeling is great, the result is also great.
A father had two sons. He had divided the service between his father’s two feet. One day when both of them were serving their respective feet, one foot accidentally touched the other. The boy serving that foot punched the other foot. The other boy, seeing his leg getting hit, punched the other boy’s leg.
In this way both of them started beating their father’s feet in anger. When his legs got hurt, the father regretted their foolishness and said, ‘What you both consider to be service was not actually service, instead you both have done harm to your father out of malice and your foolishness.’