गीता माधुर्य दसवाँ अध्याय

गीता माधुर्य
(स्वामी रामसुखदास)
दसवाँ अध्याय

इसके सिवाय क्या आप और भी कुछ करते हैं?
हाँ, उन भक्तों पर कृपा करने के लिये उनके स्वरूप में स्थित हुआ मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकार को देदीप्यमान ज्ञान-दीपक के द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ।।11।।

अर्जुन बोले- अहो! हे भगवन्! भक्तों पर आपकी अलौकिक, विलक्षण कृपा की बात सुनकर मैं गद्गद हो रहा हूँ! हे प्रभो! निर्गुण-निराकार ब्रह्म, सबके परम स्थान और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं-ऐसा सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।।12-13।।

मैं जो कहता हूँ, उस पर तुझे विश्वास है अर्जुन?
हाँ केशव, मेरे से आप जो कुछ कह रहे हैं वह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके प्रकट होने को न तो दिव्यशक्ति वाले देवता जानते हैं और न विलक्षण मायाशक्तिवाले दानव ही जानते हैं।।14।।

देवता भी नहीं जानते तो फिर कौन जानता है?
हे भूतभावन! हे भूतेश! हे देवदेव! हे जगत्पते! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं। इसलिये आप जिन विभूतियों से सम्पूर्ण संसार को व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियों को सम्पूर्णता से कहने में आप ही समर्थ हैं।।15-16।।

विभूतियों को सुनकर क्या करोगे?
हे योगिन्! हरदम सांगोपांग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ? और हे भगवन्! किन-किन भावों में आपका चिन्तन करूँ? इसलिये हे जनार्दन! आप अपनी विभूति और योग को विस्तार से फिर कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनकर मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।।17-18।।

भगवान् बोले- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये संक्षेप से कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है।।19।।

आपकी वे दिव्य विभूतियाँ कौन-सी हैं भगवन्?
हे गुडाकेश! सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में भी मैं ही हूँ; और प्राणियों के अन्तःकरण में आत्मरूप से भी मैं ही स्थित हूँ। अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) और प्रकाशमान चीजों में किरणों वाला सूर्य मैं हूँ। मरुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा मैं हूँ। वेदों में सामवेद, देवताओं में इन्द्र, इन्द्रियों में मन और प्राणियों की चेतना (प्राणशक्ति) मैं हूँ। रुद्रों में शंकर, यक्ष-राक्षसों में कुबेर, वसुओं में अग्नि और शिखर वाले पर्वतों में मेरु मैं हूँ। हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझ।

और आपकी कौन-सी विभूतियाँ हैं?
सेनापतियों में स्कन्द और जलाशय में समुद्र मैं हूँ। महर्षियों में भृगु, वाणियों (शब्द) एक एक अक्षर (प्रणव), सम्पूर्ण यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ। सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ। घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मान।।20-27।।

और किनको आपकी विभूतियाँ मानूँ भगवन्?
अस्त्र-शस्त्र में वज्र और धेनुओं में कामधेनु मैं हूँ। धर्म के अनुकूल सन्तान उत्पत्ति का हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पों में वासुकि मैं हूँ। नागों में शेषनाग, जल-जन्तुओं का अधिपति वरुण, पितरों में अर्यमा और शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ। दैत्यों में प्रह्लाद, गाना करने वालों में काल, पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ। पवित्र करने वालों में वायु, शस्त्रधारियों में राम, जल-जन्तुओं में मगर और बहने वाले स्त्रोतों में गंगाजी मैं हूँ।।28-31।।

और आप किन-किन में हैं?
हे अर्जुन! सम्पूर्ण सर्गों के आदि, मध्य और अन्त में मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का तत्त्वनिर्णय के लिये किया जाने वाला वाद मैं हूँ। अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व समास मैं हूँ। अक्षयकाल अर्थात् काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता भी मैं हूँ।।32-33।।

और आप किन-किन रूपों में हो?
सबका हरण करने वाली मृत्यु और उत्पन्न होने वालों की उत्पत्ति का हेतु मैं हूँ। स्त्री-जाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ। गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम और वैदिक छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनों में मार्गशीर्ष और छः ऋतुओं में वसन्त मैं हूँ। छल करने वालों में जूआ और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ। जीतने वालों की विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव मैं हूँ।।34-36।।

और आपके कौन-से स्वरूप हैं भगवन्?
वृष्णिवंशियों में वासुदेव, पाण्डवों में धनन्जय (तू), मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य मैं हूँ। दमन करने वालों में दण्ड, विजय चाहने वालों में नीति, गोपनीय भावों में मौन और ज्ञानवानों में ज्ञान मैं हूँ। और तो क्या कहूँ, सम्पूर्ण प्राणियों का बीज (कारण) मैं ही हूँ; क्योंकि हे अर्जुन! मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।।37-39।। क्या आपने अपनी पूरी विभूतियाँ कह दीं? नहीं परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियों का जो विस्तार कहा है, वह तो कवेल संक्षेप से कहा है; क्योंकि मैं अपनी विभूतियों को पूरी तरह तो कह ही नहीं सकता।।40।।

फिर भी आपकी विभूतियों की खास पहचान क्या है भगवन्?
संसार मात्र में जो-जो भी ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे ही तेज (योग) के किसी अंश से उत्पन्न हुई समझ। अरे भैया अर्जुन। सम्पूर्ण जगत् (अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों) को अपने किसी एक अंश में व्याप्त करके मैं तेरे सामने हाथ में लगाम और चाबुक लिये बैठा हूँ तेरी आज्ञा का पालन करता हूँ, फिर तुझे इस प्रकार की बहुत बातें जानने की क्या जरूरत है?।।41-42।।

ग्यारहवाँ अध्याय

अर्जुन बोले- हे भगवन्! केवल मेरे पर कृपा करने के लिये ही आपने जो परम गोपनीय आध्यात्मिक बात (सबके मूल में मैं हूँ) कही है, उससे मेरा मोह चला गया है। हे कमलनयन! मैंने आपसे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय की बातें सुनीं तथा आपका अविनाशी माहात्म्य भी विस्तार से सुना।।1-2।।

अब तुम और क्या चाहते हो?
हे पुरुषोत्तम! आप अपने को जैसा कहते हैं, बात वास्तव में ठीक ऐसी ही है। अब हे परमेश्वर! मैं आपका वह परम ऐश्वर रूप देखना चाहता हूँ, जिसके एक अंश में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड व्याप्त हैं। परन्तु हे प्रभो! मेरे द्वारा आपका वह परम ऐश्वर रूप देखा जा सकता है- ऐसा अगर आप मानते हैं तो हे योगेश्वर! आप अपने उस अविनाशी स्वरूप को मुझे दिखा दीजिये न।।3-4।।

भगवान् बोले- हे पार्थ! तू मेरे एक रूप को ही क्यों, मेरे सैकड़ों-हजारों रूपों को देख, जो कि दिव्य हैं, अनेक प्रकार के हैं, अनेक रंगों के हैं और अनेक तरह की आकृतियों के हैं।।5।।

और क्या देखूँ भगवन्?
हे भारत! तू आदित्यों को, वसुओं को, रुद्रों को, अश्विनीकुमारों को तथा मरुतों को भी देख। जिन रूपों को तूने पहले कभी नहीं देखा है, ऐसे बहुत-से आश्चर्यजनक रूपों को भी तू देख।।6।।

मैं कहाँ देखूँ?
हे नींद को जीवने वाले अर्जुन! मेरे इस शरीर के किसी भी एक अंश में चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् को तू अभी देख। अगर इसके सिवाय तू और भी कुछ देखना चाहता है तो वह भी तू देख[1]।।7।।

आप तो बार-बार ‘तू देख, तू देख’ ऐसा कह रहे हैं, पर मुझे तो वह नहीं दीख रहा है, कैसे देखूँ?
भैया! तू अपने इस चर्मचक्षु से मेरे को नहीं देख सकता। ले! मैं तुझे दिव्यचक्षु देता हूँ, उससे तू मेरी इस ईश्वर-सम्बन्धी सामर्थ्य को देख।।8।।

ऐसा कहकर भगवान् ने क्या किया संजय?
संजय बोले- हे राजन् ऐसा कहकर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्यमय रूप दिखाया।।9।।

किस तरह का रूप दिखाया?
जिसके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तरह के अद्भुत दर्शन हैं, अनेक दिव्य गहने हैं और जिसने हाथों में अनेक तरह के दिव्य अस्त्र-शस्त्र उठा रखे हैं, अनेक दिव्य मालाएँ और दिव्य वस्त्र धारण कर रखे हैं, शरीर पर अनेक दिव्य चन्दन आदि लगा रखे हैं, ऐसे सर्वथा आश्चर्यमय और चारों तरफ मुखवाले अपने अनन्त रूप को दिखाया।।10-11।।
क्रमशः



Gita Madhurya (Swami Ramsukhdas) CHAPTER TEN

Apart from this, do you do anything else? Yes, to show kindness to those devotees, I, situated in their form, completely destroy their darkness of ignorance with the help of the shining lamp of knowledge.11.

Arjun said- Hey! Oh God! I am filled with joy after hearing about your supernatural and extraordinary grace on your devotees! Oh, Lord! You are the nirgun-formless Brahma, the supreme place of all and the most holy one. You are eternal, divine man, Adidev, unborn and Vibhu (comprehensive) – all the sages, devarshi Narad, Asit, Deval and Vyas say this and you yourself also say this towards me. 12-13.

Do you believe what I say, Arjun? Yes Keshav, I accept everything you are saying to me as true. Oh God! Neither the Gods with divine powers nor the demons with extraordinary Maya powers know about your appearance. 14.

If even the gods don’t know then who knows? Oh ghostly spirit! Hey Bhootesh! O God! O Jagatpat! Hey Purushottam! You yourself know yourself. Therefore, only you are capable of fully describing all your divine personalities with whom you pervade the entire world. 15-16.

What will you do after listening to celebrities? Hey Yogini! Always thinking while singing, how do I know you? And oh my god! In what ways should I think of you? That’s why O Janardan! You tell your Vibhuti and Yoga in detail again; Because I am not satisfied after listening to your nectar words..17-18.

God said- Yes, okay. I will briefly describe my divine personalities for you; Because O the best of the Kurus! There is no end to the expansion of my personalities..19.

Lord, who are those divine personalities of yours? Hey Gudakesh! I am the beginning, middle and end of all beings; And I am also present in my soul in the hearts of living beings. Among the sons of Aditi, I am Vishnu (Vaman) and among the luminous things I am the Sun with rays. I am the moon, the glory of the Maruts and the lord of the stars. I am Samaveda among the Vedas, Indra among the gods, mind among the senses and consciousness (life force) of the living beings. I am Shankar among the Rudras, Kuber among the Yaksha-demons, Agni among the Vasus and Meru among the peaked mountains. Hey Parth! Consider Brihaspati, the chief among the priests, as my form.

And who are your personalities? I am Skanda among the commanders and I am the ocean among the reservoirs. Among the great sages I am Bhrigu, among the words (words) one by one (Pranav), among all the yagyas I am Japayagya and among those who remain steadfast, I am Himalaya. I am Peepal among all the trees, Narada among the Devarshis, Chitrarath among the Gandharvas and Kapil Muni among the Siddhas. Among the horses, consider the horse named Uchchaishrava, who appears from the ocean with nectar, among the best elephants, the elephant named Airavata and among the humans, consider the king as my presence..20-27.

Who else should I consider as your personalities, Lord? I am the thunderbolt among weapons and Kamadhenu among the Sagittarius. I am Kamdev and among the snakes I am Vasuki, who is responsible for the birth of children in accordance with religion. Among the snakes, I am Sheshnag, among the water animals I am Varun, among the ancestors I am Aryama and among those who rule, I am Yamraj. I am Prahlad among the demons, Kaal among the singers, Leo among the animals and Garuda among the birds. I am the air among those who purify, Ram among the weapon bearers, crocodile among the water animals and Gangaji among the flowing sources. 28-31.

And which ones are you in? Hey Arjun! I am the beginning, middle and end of all the cantos. I am the one who debates among the scholars about spiritual knowledge and the principles of debate among themselves. I am formless in letters and duality in compound words. Akshaykaal i.e. the great time of time and I am also the material having faces everywhere..32-33.

And in what forms are you? I am the cause of death which takes away all and the origin of all those who are born. Among women, I am fame, glory, speech, memory, intelligence, perseverance and forgiveness. Among the sung Shrutis, I am Brihatsam and among the Vedic verses, I am Gayatri Chand. I am Margashirsha in twelve months and spring in six seasons. I am the yoke among the deceitful and the brightest among the brilliant. I am the victory of those who conquer, the determination of those who are determined and the satvik feeling of satvik men..34-36.

And what are your forms, Lord? I am Vasudev among the Vrishni dynasty, Dhananjay (you) among the Pandavas, Ved Vyas among the sages and Shukracharya among the poets. I am punishment among those who oppress, policy among those who seek victory, silence among those who have secret feelings and knowledge among those who are knowledgeable. What more can I say, I am the seed (cause) of all living beings; Because O Arjun! Without me there is no variable or immovable being, that is, I am everything, variable and immovable. 37-39. Have you told all your personalities? No Parantap, there is no end to my divine powers. Whatever I have told you in detail about my qualities, I have told it very briefly; Because I cannot tell my qualities completely…40.

Still, what is the special identity of your personalities, Lord? Whatever opulent, beautiful and powerful thing there is in the world, consider it to have arisen from some part of my brilliance (yoga). Hey brother Arjun. I am sitting in front of you with reins and whip in my hand, having pervaded the entire world (infinite universes) in one part of me, I follow your orders, then why do you need to know many such things?…41-42 ..

CHAPTER XI

Arjun said- Oh God! I have lost my attachment to the most confidential spiritual statement (I am at the root of everything) that you have said just to show your kindness to me. O lotus flower! I heard from you about the origin and destruction of all living beings and also heard in detail about your imperishable greatness. 1-2.

Now what more do you want? Hey Purushottam! It really is exactly what you say you are. Now O God! I want to see that supremely divine form of yours, a part of which contains infinite universes. But O Lord! That supreme divine form of yours can be seen through me – If you believe so, then O Yogeshwar! Please show me that indestructible form of yours..3-4.

God said- O Partha! Why should you see only one form of mine, see hundreds and thousands of my forms, which are divine, of many types, of many colors and of many shapes.5.

What else should I see, God? Hey India! You see the Adityas, the Vasus, the Rudras, the Ashwinikumars and also the Maruts. You will also see many amazing forms which you have never seen before. 6.

Where should I look? O Arjun who survives sleep! You can now see the entire world including its creatures in any one part of my body. If apart from this you want to see something else, then see that too[1].7.

You are repeatedly saying ‘you see, you see’, but I am not seeing it, how should I see? Brother You cannot see me with this leather eye of yours. Take! I give you divine eyes, through them you can see this God-like power of mine.8.

What did God do by saying this, Sanjay? Sanjay said – Oh King, saying this, Mahayogeshwar Lord Shri Krishna showed his most glorious form to Arjun.9.

What kind of form did you show? Who has many faces and eyes, has many types of wonderful visions, has many divine ornaments and who has many types of divine weapons in his hands, is wearing many divine garlands and divine clothes, many divine sandalwood etc. on his body. He has shown His infinite form in such a completely surprising way and having faces on all sides. 10-11. respectively

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