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पुज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन बोध और अनुभूति में अन्तर है। बोध बाह्य विषय से और अनुभूति आन्तरिक विषय से सम्बंधित है। सबसे पहले आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है, आत्मतत्व का ज्ञान होता है, उसके बाद अनुभूति होती है। अनुभूति किसकी होती है ? आत्मा की और उसके बाद आत्म-खण्ड की। इस बात को हम इस प्रकार समझ सकते हैं। जैसे हमारे सामने आग है, उसे देखना केवल उसके अस्तित्व का बोध करना है और आग का स्पर्श करना उसकी अनुभूति है। इसी प्रकार आत्मा के अस्तित्व को जानना, समझना, देखना आदि उसका मात्र बोध है। उसके आन्तरिक स्वरूप, गुणधर्म आदि से परिचित होना तथा आत्मस्वरूप को उपलव्ध होना तथा साथ ही साथ 'आत्मखण्ड' से भी परिचित होना आत्मानुभूति के विषय हैं। 'आत्म-खण्ड' से क्या तात्पर्य है ? कोई भी आत्मा पूर्णात्मा नहीं है। पूर्णात्मा केवल परमात्मा है। आत्मा नाम की वस्तु तो एक ही है लेकिन देश, काल व पात्र के अनुसार भिन्न-भिन्न विशेषण उसके साथ जुड़ जाने के कारण वह जीवात्मा, मनुष्यात्मा, प्रेतात्मा, देवात्मा आदि संज्ञा ग्रहण कर लेती है। फिर भी आत्मा रहती है खण्डित ही। जीवों में नर जीव और मादा जीव, मनुष्यों में पुरुष और स्त्री, प्रेतों में भूत-पिशाच, प्रेत, और उनकी स्त्री सत्ता भूतिनी, पिशाचिनी, प्रेतिनी आदि। इसी प्रकार देवात्मा के विषय में भी समझ लेना चाहिए। सृष्टि के प्राक्काल में जैसे मूल 'परमतत्व' ने दो खण्डों में विभाजित होकर 'शिवतत्व' और 'शक्तितत्व' की संज्ञा धारण कर ली। उसी प्रकार उसी अखण्ड, अनन्त विराट सत्ता से निर्गत होने वाली आत्मा सबसे पहले 'अहम्' के रूप में निःसृत हुई और साथ ही उसकी विपरीत सत्ता जिसे 'प्रकृति' कहा जाता है, 'इदम्' के रूप में अवतरित हुई। 'अहम्' आत्मा है और 'इदम्' है आत्मा की प्रकृति। पहला खण्ड है पुरुषतत्व प्रधान और दूसरा खण्ड है स्त्रीतत्व प्रधान। दोनों एक ही सत्ता के दो रूप और दो खण्ड हैं। यह अध्यात्मशास्त्र का अति गम्भीर विषय है। किसी शास्त्र, किसी दर्शन में इस विषय का स्पष्ट उल्लेख नहीं हुआ है। सब ओर भ्रान्ति ही भ्रान्ति है। केवल वे ही लोग इस विषय का ज्ञान कर सके हैं जिन्होंने आत्मानुभति और आत्म-साक्षात्कार कर लिया है। उन्हीं के द्वारा अनुभूत होने के बाद ही यह गूढ़ और गहन विषय प्रकाश में आ सका है। इसी प्रकार मन के बारे में भी थोड़ा समझ लेना चाहिए। मन क्या है ?--इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। योगी के लिए, तान्त्रिक के लिए, ज्योतिषी के लिए और वैद्य के लिए मन का अस्तित्व भिन्न-भिन्न है। कोई-कोई लोग मन को पदार्थ के रूप में स्वीकार करते हैं।(पदार्थ के तीन रूप होते हैं--ठोस, द्रव और गैस या ऊर्जा रूप। मन के भी इसी प्रकार के तीत रूप हैं।) लेकिन जहां तक 'कुण्डलिनी योग' का सम्बन्ध है, उसमें मन को आत्मा का ही एक भाग माना गया है। वास्तव में आत्मा और मन एक ही वस्तु के दो रूप हैं। जो रूप स्थिर है, निष्क्रिय है--वह आत्मा है और जो रूप क्रियाशील है, चैतन्य है-- वह है मन। उसकी जो क्रियाशीलता और चैतन्यता है, उसकी साक्षी आत्मा है। बस, आत्मा और मन में यही भेद है। मूल में दोनों एक ही सत्ता का प्रतिपादन करते हैं। आत्मा की तरह मन के भी दो रूप हैं। पहला रूप आत्मा के पुरुषतत्व प्रधान 'अहम्' के साथ और दूसरा रूप उसके स्त्रीतत्व प्रधान 'इदम्' के साथ संयुक्त है। मन का अस्तित्व मात्र मनुष्य में है--इसीलिए वह मनुष्य है। मानवेतर प्राणियों में केवल प्राण का आभास है, मन के अस्तित्व का नहीं। इसीलिए तो उन्हें 'प्राणी' कहा जाता है। प्राणी कहने से तात्पर्य प्राणतत्व मुख्य होने के कारण है। अपने-अपने मन के साथ आत्मा के दोनों खण्ड 'अहम्' और 'इदम्' सृष्टि के उन्मेष काल में ही काल के प्रवाह में पड़कर एक दूसरे से अलग हो गए। दोनों का वियोग कब, कैसे और किस अवस्था में हुआ--यह नहीं बतलाया जा सकता। लेकिन इतना तो निश्चित है कि आत्मा की तरह मन के दोनों खण्ड भी एक दूसरे से मिलने के लिए सदैव व्याकुल रहते हैं और फिर उसी वियोगजन्य व्याकुलता के फलस्वरूप पुनर्मिलन की आशा में 'अहम्' पुरुष शरीर में और 'इदम्' स्त्री शरीर में बार-बार जन्म ग्रहण करता रहता है। यही क्रम आदिकाल से चला आ रहा है। आत्मा और मन के अपने अपने-अपने दोनों खण्डों का मिलना आवश्यक है, तभी पूर्णात्मा होगी और तभी पूर्ण मन होगा। पूर्णात्मा होने का मतलब है--जन्म-मरण से मुक्ति, आवागमन से मुक्ति और भव-चक्र से मुक्ति। तान्त्रिक लोग इसी अवस्था को 'सामरस्य भाव' अथवा 'अद्वैत स्थिति-लाभ' कहते हैं। योगियों का 'परम निर्वाण' भी यही है। लेकिन परम निर्वाण, परम मुक्ति या अद्वैत स्थिति- लाभ उसी स्थिति में सम्भव है जब आत्मा के साथ उसका मनस्तत्व आत्मा से छूट जाता है। आत्मा और मन की मिलकर जो 'द्वैत स्थिति' है, वह हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है। यही है 'कैवल्य', यही है 'अदैतावस्था' जहाँ आत्मा के साथ कोई दूसरा तत्व नहीं बचता है।
———:आत्मबोध की उपलब्धि:———-
पुज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन बोध और अनुभूति में अन्तर है। बोध बाह्य विषय से और अनुभूति आन्तरिक विषय से सम्बंधित है। सबसे पहले आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है, आत्मतत्व का ज्ञान होता है, उसके बाद अनुभूति होती है। अनुभूति किसकी होती है ? आत्मा की और उसके बाद आत्म-खण्ड की। इस बात को हम इस प्रकार समझ सकते हैं। जैसे हमारे सामने आग है, उसे देखना केवल उसके अस्तित्व का बोध करना है और आग का स्पर्श करना उसकी अनुभूति है। इसी प्रकार आत्मा के अस्तित्व को जानना, समझना, देखना आदि उसका मात्र बोध है। उसके आन्तरिक स्वरूप, गुणधर्म आदि से परिचित होना तथा आत्मस्वरूप को उपलव्ध होना तथा साथ ही साथ ‘आत्मखण्ड’ से भी परिचित होना आत्मानुभूति के विषय हैं। ‘आत्म-खण्ड’ से क्या तात्पर्य है ? कोई भी आत्मा पूर्णात्मा नहीं है। पूर्णात्मा केवल परमात्मा है। आत्मा नाम की वस्तु तो एक ही है लेकिन देश, काल व पात्र के अनुसार भिन्न-भिन्न विशेषण उसके साथ जुड़ जाने के कारण वह जीवात्मा, मनुष्यात्मा, प्रेतात्मा, देवात्मा आदि संज्ञा ग्रहण कर लेती है। फिर भी आत्मा रहती है खण्डित ही। जीवों में नर जीव और मादा जीव, मनुष्यों में पुरुष और स्त्री, प्रेतों में भूत-पिशाच, प्रेत, और उनकी स्त्री सत्ता भूतिनी, पिशाचिनी, प्रेतिनी आदि। इसी प्रकार देवात्मा के विषय में भी समझ लेना चाहिए। सृष्टि के प्राक्काल में जैसे मूल ‘परमतत्व’ ने दो खण्डों में विभाजित होकर ‘शिवतत्व’ और ‘शक्तितत्व’ की संज्ञा धारण कर ली। उसी प्रकार उसी अखण्ड, अनन्त विराट सत्ता से निर्गत होने वाली आत्मा सबसे पहले ‘अहम्’ के रूप में निःसृत हुई और साथ ही उसकी विपरीत सत्ता जिसे ‘प्रकृति’ कहा जाता है, ‘इदम्’ के रूप में अवतरित हुई। ‘अहम्’ आत्मा है और ‘इदम्’ है आत्मा की प्रकृति। पहला खण्ड है पुरुषतत्व प्रधान और दूसरा खण्ड है स्त्रीतत्व प्रधान। दोनों एक ही सत्ता के दो रूप और दो खण्ड हैं। यह अध्यात्मशास्त्र का अति गम्भीर विषय है। किसी शास्त्र, किसी दर्शन में इस विषय का स्पष्ट उल्लेख नहीं हुआ है। सब ओर भ्रान्ति ही भ्रान्ति है। केवल वे ही लोग इस विषय का ज्ञान कर सके हैं जिन्होंने आत्मानुभति और आत्म-साक्षात्कार कर लिया है। उन्हीं के द्वारा अनुभूत होने के बाद ही यह गूढ़ और गहन विषय प्रकाश में आ सका है। इसी प्रकार मन के बारे में भी थोड़ा समझ लेना चाहिए। मन क्या है ?–इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। योगी के लिए, तान्त्रिक के लिए, ज्योतिषी के लिए और वैद्य के लिए मन का अस्तित्व भिन्न-भिन्न है। कोई-कोई लोग मन को पदार्थ के रूप में स्वीकार करते हैं।(पदार्थ के तीन रूप होते हैं–ठोस, द्रव और गैस या ऊर्जा रूप। मन के भी इसी प्रकार के तीत रूप हैं।) लेकिन जहां तक ‘कुण्डलिनी योग’ का सम्बन्ध है, उसमें मन को आत्मा का ही एक भाग माना गया है। वास्तव में आत्मा और मन एक ही वस्तु के दो रूप हैं। जो रूप स्थिर है, निष्क्रिय है–वह आत्मा है और जो रूप क्रियाशील है, चैतन्य है– वह है मन। उसकी जो क्रियाशीलता और चैतन्यता है, उसकी साक्षी आत्मा है। बस, आत्मा और मन में यही भेद है। मूल में दोनों एक ही सत्ता का प्रतिपादन करते हैं। आत्मा की तरह मन के भी दो रूप हैं। पहला रूप आत्मा के पुरुषतत्व प्रधान ‘अहम्’ के साथ और दूसरा रूप उसके स्त्रीतत्व प्रधान ‘इदम्’ के साथ संयुक्त है। मन का अस्तित्व मात्र मनुष्य में है–इसीलिए वह मनुष्य है। मानवेतर प्राणियों में केवल प्राण का आभास है, मन के अस्तित्व का नहीं। इसीलिए तो उन्हें ‘प्राणी’ कहा जाता है। प्राणी कहने से तात्पर्य प्राणतत्व मुख्य होने के कारण है। अपने-अपने मन के साथ आत्मा के दोनों खण्ड ‘अहम्’ और ‘इदम्’ सृष्टि के उन्मेष काल में ही काल के प्रवाह में पड़कर एक दूसरे से अलग हो गए। दोनों का वियोग कब, कैसे और किस अवस्था में हुआ–यह नहीं बतलाया जा सकता। लेकिन इतना तो निश्चित है कि आत्मा की तरह मन के दोनों खण्ड भी एक दूसरे से मिलने के लिए सदैव व्याकुल रहते हैं और फिर उसी वियोगजन्य व्याकुलता के फलस्वरूप पुनर्मिलन की आशा में ‘अहम्’ पुरुष शरीर में और ‘इदम्’ स्त्री शरीर में बार-बार जन्म ग्रहण करता रहता है। यही क्रम आदिकाल से चला आ रहा है। आत्मा और मन के अपने अपने-अपने दोनों खण्डों का मिलना आवश्यक है, तभी पूर्णात्मा होगी और तभी पूर्ण मन होगा। पूर्णात्मा होने का मतलब है–जन्म-मरण से मुक्ति, आवागमन से मुक्ति और भव-चक्र से मुक्ति। तान्त्रिक लोग इसी अवस्था को ‘सामरस्य भाव’ अथवा ‘अद्वैत स्थिति-लाभ’ कहते हैं। योगियों का ‘परम निर्वाण’ भी यही है। लेकिन परम निर्वाण, परम मुक्ति या अद्वैत स्थिति- लाभ उसी स्थिति में सम्भव है जब आत्मा के साथ उसका मनस्तत्व आत्मा से छूट जाता है। आत्मा और मन की मिलकर जो ‘द्वैत स्थिति’ है, वह हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है। यही है ‘कैवल्य’, यही है ‘अदैतावस्था’ जहाँ आत्मा के साथ कोई दूसरा तत्व नहीं बचता है।