।। श्रीहरि: ।।
स्मरण करने पर, सन्तुष्ट करने पर, पूजा करने पर भगवान का भक्त अनायास ही चाण्डाल तक को भी पवित्र कर देता है।
पुण्डरीकजी ऐसे ही महाभागवत हो गये हैं। पुण्डरीक का जन्म ब्राह्मण-कुल में हुआ था। वे वेद शास्त्रों के ज्ञाता, तपस्वी, स्वाध्याय प्रेमी, इन्द्रिय विजयी एवं क्षमाशील थे। वे त्रिकाल सन्ध्या करते थे। प्रातःसायं विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते थे।
बहुत दिनों तक उन्होंने गुरु की श्रद्धापूर्वक सेवा की थी और नियमित प्राणायाम तथा भगवान् विष्णु का चिन्तन तो वे सर्वदा ही करते थे। वे माता-पिता के भक्त थे। वर्णाश्रम-धर्मानुकूल अपने कर्तव्यों का भली भाँति विधिपूर्वक पालन करते थे।
धर्म के मूल हैं भगवान्। धर्म के पालन का यही परम फल है कि संसार के विषयों में वैराग्य होकर भगवान्के चरणों में प्रीति हो जाय। भगवान की प्रसन्नता के लिये ही लौकिक-वैदिक समस्त कर्मों का पुण्डरीक पालन करते थे। ऐसा करनेसे उनका हृदय शुद्ध हो गया।
संसार के किसी भी पदार्थ में उनकी आसक्ति, ममता, स्पृहा या कामना नहीं रह गयी। वे माता-पिता, भाई-बन्धु, मित्र-सखा, सुहृद्सम्बन्धी आदि स्नेह के मोह के बन्धनों से छूट गये। उनके हृदय में केवल एकमात्र भगवान को प्राप्त करने की ही इच्छा रह गयी। वे अपने सम्पन्न घर एवं परिवार को तृण के समान छोड़कर भगवत्प्राप्ति के लिये निकल पड़े।
भक्त पुण्डरीक साग, मूल, फल-जो कुछ मिल जाता, उसी से शरीर निर्वाह करते हुए तीर्थाटन करने लगे। शरीर के सुख-दुःख की उन्हें तनिक भी चिन्ता नहीं थी, वे तो अपने प्रियतम प्रभु को पाना चाहते थे।
घूमते-घूमते वे शालग्राम नामक स्थान पर पहुँचे। यह स्थान रमणीक था, पवित्र था।यहाँ अच्छे तत्त्वज्ञानी महात्मा रहते थे। अनेक पवित्र जलाशय थे। पुण्डरीक ने उन तीर्थकुण्डों में स्नान किया। उनका मन यहाँ लग गया। यहीं रहकर अब वे भगवान का निरन्तर ध्यान करने लगे। उनका हृदय भगवान के ध्यान से आनन्दमग्न हो गया। वे हृदय में भगवान का दर्शन पाने लगे।
अपने अनुरागी भक्तों को दयामय भगवान् सदा ही स्मरण रखते हैं। प्रभु ने देवर्षि नारदजी को पुण्डरीक के पास भेजा कि वे उसे भोले भक्त के भाव को और पुष्ट करें।
श्रीनारद जी परमार्थ के तत्त्वज्ञ तथा भगवान के हृदय-स्वरूप हैं। वे सदा भक्तों पर कृपा करने, उन्हें सहायता पहुँचाने को उत्सुक रहते हैं। भगवान की आज्ञा से हर्षित होकर वे शीघ्र ही पुण्डरीक के पास पहुँचे। साक्षात् सूर्यके समान तेजस्वी, वीणा बजाकर हरिगुण-गान करते देवर्षि को देखकर पुण्डरीक उठ खड़े हुए।
उन्होंने साष्टाङ्ग प्रणाम किया। देवर्षि के तेज को देखकर वे चकित रह गये। संसार में ऐसा तेज मनुष्य में सुना भी नहीं जाता। पूछने पर नारदजी ने अपना परिचय दिया। देवर्षि को पहचान कर पुण्डरीक के हर्ष का पार नहीं रहा। उन्होंने नारदजी की पूजा करके बड़ी नम्रता से प्रार्थना की- ’प्रभो! मेरा आज परम सौभाग्य है जो मुझे आपके दर्शन हुए। आज मेरे सब पूर्वज तर गये।
अब आप अपने इस दास पर कृपा करके ऐसा उपदेश करें, जिससे इस संसार-सागर में डूबते इस अधम का उद्धार हो जाय। आप तो भगवान के मार्ग पर चलनेवालों की एकमात्र गति हैं, आप इस दीन पर दया करें।
पुण्डरीक की अभिमान रहित सरल वाणी सुनकर देवर्षि ने कहा- “द्विजोत्तम! इस लोक में अनेक प्रकार के मनुष्य हैं और उनके अनेक मत हैं। नाना तर्को से वे अपने मतों का समर्थन करते हैं। मैं तुमको परमार्थ-तत्त्व बतलाता हूँ। यह तत्त्व सहज ही समझ में नहीं आता। तत्त्ववेत्ता लोग प्रमाण द्वारा ही इसका निरूपण करते हैं। मूर्ख लोग ही प्रत्यक्ष तथा वर्तमान प्रमाणों को मानते हैं। वे अनागत तथा अतीत प्रमाणों को स्वीकार नहीं करते।
मुनियों ने कहा है कि जो पूर्वरूप है, परम्परा से चला आता है, वही आगम है। जो कर्म, कर्मफल-तत्त्व, विज्ञान, दर्शन और विभु है; जिसमें न वर्ण है, न जाति; जो नित्य आत्मसंवेदन है; जो सनातन, अतीन्द्रिय, चेतन, अमृत, अज्ञेय, शाश्वत, अज, अविनाशी, अव्यक्त, व्यक्त, व्यक्तमें विभु और निरञ्जन है- वही द्वितीय आगम है। वही चराचर जगत में व्यापक होने से ‘विष्णु’ कहलाता है। उसी के अनन्त नाम हैं। परमार्थ से विमुख लोग उस योगियों के परमाराध्य-तत्त्व को नहीं जान सकते।”
‘यह हमारा मत है’ यह केवल अभिमान ही है। ज्ञान तो शाश्वत है और सनातन है। वह परम्परा से ही चला आ रहा है। भारतीय महापुरुष सदा इतिहास के रूप में इसी से ज्ञान का वर्णन करते रहे हैं कि उसमें अपने अभिमान की क्षुद्रता न आ जाय। देवर्षि नारदजी ने कहा कि, “मैंने एक बार सृष्टिकर्ता अपने पिता ब्रह्माजी से पूछा था।
उस समय परमार्थ-तत्त्व के विषय में ब्रह्माजी ने कहा- ‘भगवान् नारायण ही समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। वे ही प्रभु जगदाधार हैं। वे ही सनातन परमात्मा पचीस तत्त्वों के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं। जगत्की सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय नारायण से ही होता है। विश्व, तैजस, प्राज्ञ- ये त्रिविध आत्मा नारायण ही हैं। वे ही सब के अधीश्वर, एकमात्र सनातन देव हैं। योगीगण ज्ञान तथा योग के द्वारा उन्हीं जगन्नाथ का साक्षात्कार करते हैं।
जिनका चित्त नारायण में लगा है, जिनके प्राण नारायण को अर्पित हैं, जो केवल नारायण के ही परायण हैं। वे नारायण की कृपा और शक्ति से जगत में दूर और समीप, भूत, वर्तमान और भविष्य, स्थूल और सूक्ष्म- सबको देखते हैं। उनसे कुछ अज्ञात नहीं रहता।
ब्रह्माजी ने देवताओं से एक दिन कहा था- ‘धर्म नारायण के आश्रित है। सब सनातन लोक, यज्ञ, शास्त्र, वेद, वेदाङ्ग तथा और भी जो कुछ है, सब नारायण के ही आधार पर हैं। वे अव्यक्त पुरुष नारायण ही पृथ्वी आदि पञ्चभूतरूप हैं। यह समस्त जगत् विष्णुमय है। पापी मनुष्य इस तत्त्व को नहीं जानता। जिनका चित्त उन विश्वेश्वर में लगा है, जिनका जीवन उन श्रीहरि को अर्पित है, ऐसे परमार्थ-ज्ञाता ही उन परम पुरुष को जानते हैं।
नारायण ही सब भूतरूप हैं, वे ही सब में व्याप्त हैं, वे ही सबका पालन करते हैं। समस्त जगत् उन्हीं से उत्पन्न है, उन्हीं में प्रतिष्ठित है। वे ही सब के स्वामी हैं। सृष्टि के लिये वे ही ब्रह्मा, पालन के लिये विष्णु और संहार के लिये रुद्ररूप धारण किये हैं। वे ही लोकपाल हैं। वे परात्पर पुरुष ही सर्वाधार, निष्कल, सकल, अणु और महान् हैं। सबको उन्हींके शरण होना चाहिये।’
देवर्षि ने कहा- ‘ब्रह्माजी ने ऐसा कहा था, अत: द्विजश्रेष्ठ! तुम भी उन्हीं श्रीहरि की शरण लो। उन नारायण को छोड़कर भक्तों के अभीष्ट को पूरा करने वाला और कोई नहीं है। वे ही पुरुषोत्तम सबके पिता-माता हैं; वे ही लोकेश, देवदेव, जगत्पति हैं।
अग्निहोत्र, तप, अध्ययन आदि सभी सत्कर्मों से नित्य-निरन्तर सावधानी के साथ एकमात्र उन्हें ही सन्तुष्ट करना चाहिये। तुम उन पुरुषोत्तम की ही शरण लो। उनकी शरण होने पर न तो बहुत-से मन्त्रों की आवश्यकता है, न व्रतों का ही प्रयोजन है।
एक नारायण-मन्त्र- ‘ॐ नमो नारायणाय’ ही सब मनोरथों को पूरा करनेवाला है। भगवान की आराधना में किसी बाहरी वेष की आवश्यकता नहीं। कपड़े पहने हो या दिगम्बर हो, जटाधारी हो या मूंड़ मुड़ाये हो, त्यागी हो या गृहस्थ हो-सभी भगवान की भक्ति कर सकते हैं। चिह्न (वेष) धर्म का कारण नहीं है। जो लोग पहले निर्दय, पापी, दुष्टात्मा और कुकर्मरत रहे हैं, वे भी नारायण-परायण होने पर परम धाम को प्राप्त हो जाते हैं।
भगवान के परम भक्त पाप के कीचड़ में कभी लिप्त नहीं होते। अहिंसा से चित्त को जीत कर वे भगवद्भक्त तीनों लोकों को पवित्र करते हैं। प्राचीनकाल में अनेक लोग प्रेम से भगवान का भजन करके उन्हें प्राप्त कर चुके हैं। श्रीहरि की आराधना से सबको परम गति मिलती है और उसके बिना कोई परमपद नहीं पा सकता। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी-कोई भी हो, परमपद तो भगवान के भजन से ही मिलता है।
‘मैं हरिभक्तों का दास हूँ’ यह सुबुद्धि सहस्रों जन्मों के अनन्तर भगवान की कृपा से ही प्राप्त होती है। ऐसा पुरुष भगवान को प्राप्त कर लेता है। तत्त्वज्ञ पुरुष इसीलिये चित्त को सब ओर से हटाकर नित्य-निरन्तर अनन्यभाव से उन सनातन परम पुरुष का ही ध्यान करते हैं।
देवर्षि यह उपदेश देकर चले गये। पुण्डरीक की भगवद्भक्ति देवर्षि के उपदेश से और भी दृढ़ हो गयी। वे नारायण मन्त्र का अखण्ड जप करते और सदा भगवान के ध्यान में निमग्न रहते। उनकी स्थिति ऐसी हो गयी कि उनके हृदय कमल पर भगवान् गोविन्द सदा प्रत्यक्ष विराजमान रहने लगे। सत्त्वगुण का पूरा साम्राज्य हो जाने से निद्रा, जो पुरुषार्थ की विरोधिनी और तमोरूपा है, सर्वथा नष्ट हो गयी।
बहुत-से महापुरुषों में यह देखा और सुना जाता है कि उनके मन और बुद्धि में भगवान का आविर्भाव हुआ और वे दिव्य भगवद्रूप में परिणत हो गये। किंतु किसी का स्थूल-शरीर दिव्य हो गया हो, यह नहीं सुना जाता। ऐसा तो कदाचित् ही होता है।
पुण्डरीक में यही लोकोत्तर अवस्था प्रकट हुई। उनका निष्पाप देह श्यामवर्ण का हो गया, चार भुजाएँ हो गयीं; उन हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म आ गये। उनका वस्त्र पीताम्बर हो गया। एक तेजोमण्डल ने उनके शरीर को घेर लिया। पुण्डरीक से वे ‘पुण्डरीकाक्ष’ हो गये।
वन के सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर पशु भी उनके पास अपना परस्पर का सहज वैर-भाव भूलकर एकत्र हो गये और प्रसन्नता प्रकट करने लगे। नदी सरोवर, वन-पर्वत, वृक्ष-लताएँ-सब पुण्डरीक के अनुकूल हो गये। सब उनकी सेवा के लिये फल, पुष्प, निर्मल जल आदि प्रस्तुत रखने लगे।
पुण्डरीक भक्तवत्सल भगवान की कृपा से उनके अत्यन्त प्रियपात्र हो गये थे। प्रत्येक जीव, प्रत्येक जड-चेतन उस परम वन्दनीय भक्त की सेवा से अपने को कृतार्थ करना चाहता था!
पुण्डरीक के मन-बुद्धि ही नहीं, शरीर भी दिव्य भगवद्रुप हो गया था; तथापि दयामय करुणासागर प्रभु भक्त को परम पावन करने, उसे नेत्रों का चरम लाभ देने उनके सामने प्रकट हो गये।
भगवान का स्वरूप, उनकी शोभा, उनकी अङ्ग-कान्ति जिस मन में एक झलक दे जाती है, वह मन, वह जीवन धन्य हो जाता है। उसका वर्णन कर सके, इतनी शक्ति कहाँ किसमें है। पुण्डरीक भगवान के अचिन्त्य सुन्दर दिव्य रूप को देखकर प्रेमविह्वल हो गये। भगवान के श्रीचरणों में प्रणिपात करके भरे कण्ठ से उन्होंने स्तुति की। स्तुति करते-करते प्रेम के वेग से पुण्डरीक की वाणी रुद्ध हो गयी।
भगवान्ने पुण्डरीक को वरदान माँगने के लिये कहा। पुण्डरीक ने विनय पूर्वक उत्तर दिया- ‘भगवन्! कहाँ तो मैं दुर्बुद्धि प्राणी और कहाँ आप सर्वेश्वर, सर्वज्ञ। मेरे परम सुहृद् स्वामी! आपके दर्शन के पश्चात् और क्या शेष रह जाता है, जिसे माँगा जाय- यह मेरी समझ में नहीं आता। मेरे नाथ! आप मुझे माँगने का आदेश कर रहे हैं तो मैं यही माँगता हूँ कि मैं अबोध हूँ; अतः जिसमें मेरा कल्याण हो, वही आप करें।’
भगवान ने अपने चरणों में पड़े पुण्डरीक को उठाकर हृदय से लगा लिया। वे बोले- ‘वत्स ! तुम मेरे साथ चलो। तुम्हें छोड़कर अब मैं नहीं रह सकता। अब तुम मेरे धाम में मेरे समीप मेरी लीला में सहयोग देते हुए निवास करो।’ भगवान ने पुण्डरीक को अपने साथ गरुड़ पर बैठा लिया और अपने नित्यधाम ले गये।
।। ॐ नमो नारायणाय ।।
, Shri Hari:.
By remembering, by satisfying, by worshiping, the devotee of God without any effort purifies even the Chandal.
Pundrikji has become Mahabhagwat just like this. Pundarika was born in a Brahmin family. He was a knower of Vedas, ascetic, lover of self-study, conqueror of senses and forgiving. They used to do Trikal Sandhya. Used to perform Agnihotra methodically in the morning.
For many days, he served the Guru with devotion and used to do regular Pranayama and always meditated on Lord Vishnu. He was a devotee of his parents. Varnashram-Dharmanukul used to follow their duties properly.
God is the root of religion. This is the ultimate result of following religion that by having disinterest in the subjects of the world, there is love in the feet of God. Pundrik used to follow all the worldly-Vedic deeds only for the pleasure of God. By doing this his heart became pure.
He had no attachment, affection, desire or desire for any object in the world. They were freed from the bonds of affection for parents, brothers, friends, close relatives etc. The only desire left in his heart was to attain the only God. They left their prosperous home and family like grass and set out for God-realisation.
Devotee Pundrik started going on pilgrimage while maintaining his body with greens, roots, fruits – whatever he could get. He was not at all worried about the happiness and sorrow of the body, he wanted to get his beloved Lord.
While roaming around, they reached a place called Shalagram. This place was delightful, holy. Good philosopher Mahatma used to live here. There were many sacred water bodies. Pundarika bathed in those holy places. His mind got here. Staying here, now he started meditating on God continuously. His heart became ecstatic with the attention of the Lord. They started getting the darshan of God in their heart.
The merciful Lord always remembers His loving devotees. The Lord sent Devarshi Naradji to Pundarika to further strengthen the feelings of an innocent devotee.
Srinard ji is the philosopher of God and the heart-form of God. He is always eager to show mercy to the devotees and help them. Delighted by the Lord’s order, they soon reached Pundarika. Pundarik got up seeing Devarshi singing Harigun-singing by playing the veena, as bright as the sun.
He prostrated. They were amazed to see the glory of Devarshi. In the world, such a sharpness is not even heard in a human being. On being asked, Naradji introduced himself. Pundrik’s joy could not be crossed after recognizing Devarshi. He worshiped Naradji and prayed very humbly – ‘ Lord! Today I am extremely fortunate that I got to see you. Today all my ancestors passed away.
Now please give such a sermon to this servant of yours, so that this wretch who is drowning in this world-ocean can be saved. You are the only speed of those who walk on the path of God, you have mercy on this poor.
Hearing the simple speech of Pundrik without pride, Devarshi said – “Dwijottam! There are many types of human beings in this world and they have many opinions. They support their views with various arguments. I tell you the essence of Paramarth. This element is not easily understood. Philosophers describe it only through evidence. Only foolish people believe in visible and present proofs. They do not accept the anagat and past evidences.
Sages have said that the one who is in the form, comes from the tradition, that is the Aagam. Who is Karma, Karma-tattva, Vigyan, Darshan and Vibhu; In which there is no character, no caste; which is eternal self-sensation; The one who is eternal, transcendental, conscious, nectar, unknowable, eternal, ageless, imperishable, unmanifest, manifest, omnipresent and niranjan – that is the second Agama. The same pasture is called ‘Vishnu’ because of being widespread in the world. He has infinite names. People who are alienated from God cannot know the supreme essence of those Yogis.
‘This is our opinion’ is just pride. Knowledge is eternal and eternal. It is going on from the tradition itself. Indian great men have always been describing knowledge in the form of history so that the pettiness of their pride does not come in it. Devarshi Naradji said that, “I once asked my father Brahmaji, the creator.
At that time, Brahma said about the ultimate essence: ‘Lord Narayana is the soul of all beings. He is the Lord of the universe. He is the eternal God who is manifesting Himself in the form of twenty-five elements. The creation, protection and annihilation of the universe is from Narayana. Visva, Taijas, Prajna- these threefold souls are Narayana. He is the Lord of all, the only eternal God. The yogis realize the same Jagannath through knowledge and yoga.
Whose mind is engaged in Narayan, whose soul is dedicated to Narayan, who is devoted only to Narayan. He sees everything in the world, far and near, past, present and future, gross and subtle, by the grace and power of Narayana. Nothing remains unknown to him.
One day Brahmaji had said to the gods- ‘Religion is dependent on Narayan. All Sanatan Lok, Yagya, Shastra, Vedas, Vedang and whatever else is there, all are on the basis of Narayan. That unmanifested man Narayan is the earth etc. five forms. This whole world is Vishnumay. Sinful man does not know this principle. Whose mind is fixed on that Vishweshwar, whose life is dedicated to that Sri Hari, only such a knower of the divine knows that supreme man.
Narayan is all the ghost forms, he is pervaded in all, he is the one who takes care of all. The whole world originated from him, is established in him. He is the master of all. He has assumed the form of Brahma for creation, Vishnu for maintenance and Rudra for destruction. He is the Lokpal. That Paratpar Purush is all base, perfect, gross, atomic and great. Everyone should take refuge in him.’
Devarshi said- ‘Brahmaji had said this, so Dwijshrestha! You also take refuge in the same Sri Hari. Except that Narayan, there is no one else who can fulfill the wishes of the devotees. He is the Supreme Being, the father and mother of all; He is Lokesh, Devdev, Jagatpati.
He alone should be satisfied with all the good deeds like Agnihotra, penance, study etc. with constant caution. You take refuge in that Purushottam only. There is no need for many mantras, nor is there any purpose of fasting when he takes refuge in him.
One Narayan-mantra- ‘Om Namo Narayanay’ is the one who fulfills all the wishes. There is no need of any external dress in the worship of God. Whether dressed or digambara, braided or shaved, renunciate or householder – all can worship God. Mark (dress) is not the reason for religion. Those who have been unkind, sinful, evil spirits and doing misdeeds before, they also attain the supreme abode after being devoted to Narayan.
The supreme devotees of the Lord never indulge in the mire of sin. By conquering the mind with non-violence, those devotees of the Lord purify the three worlds. In ancient times, many people have attained Him by worshiping God with love. Everyone gets the ultimate speed by worshiping Shri Hari and without him no one can attain the supreme position. Brahmachari, householder, vanprastha, sannyasin – whoever he is, the supreme position is attained only by worshiping God.
‘I am the servant of the devotees of Hari’ This wisdom is obtained only by the grace of God after thousands of births. Such a man attains God. Philosophical men, therefore, removing their mind from all sides, constantly meditate exclusively on that eternal supreme man.
Devarshi left after giving this advice. Pundarika’s devotion to God became even more determined by Devarshi’s advice. He used to chant Narayan Mantra incessantly and was always engrossed in the meditation of God. His condition became such that Lord Govind always started sitting directly on the lotus of his heart. Sleep, which is an opponent of effort and a form of Tamorupa, was completely destroyed due to the complete dominance of sattvagun.
In many great men it is seen and heard that the Lord appeared in their mind and intellect and they were transformed into the divine form of the Lord. But it is not heard that someone’s gross body has become divine. This happens probably only.
This transcendental state was manifested in Pundarika. His sinless body became black, four arms were formed; Conch, Chakra, Gada, Padma came in those hands. His clothes became Pitambar. A halo surrounded his body. From Pundarik they became ‘Pundarikaksh’.
Even the ferocious animals of the forest like lions, tigers etc., forgetting their natural enmity with each other, gathered around him and started expressing happiness. Rivers, lakes, forests-mountains, trees-creepers-all became favorable to Pundrik. Everyone started presenting fruits, flowers, pure water etc. for his service.
Pundrik Bhaktavatsal had become very dear to him by the grace of God. Every living being, every living being wanted to fulfill himself by the service of that most worshipable devotee!
Not only the mind-intellect of Pundrik, the body also had become divine; However, the merciful Karunasagar Lord appeared in front of the devotee to purify him, to give him the ultimate benefit of the eyes.
The mind in which a glimpse is given of God’s form, His beauty, His body-glory, that mind, that life becomes blessed. Can describe it, who has so much power. Pundarika fell in love seeing the unimaginably beautiful divine form of the Lord. He praised with a voice filled with falling at the holy feet of God. While praising, Pundrik’s speech stopped due to the speed of love.
God asked Pundrik to ask for a boon. Pundrik humbly replied – ‘ God! Somewhere I am a foolish creature and where you are the Supreme Lord, the All-Knowing. My dearest lord! I do not understand what else remains after your darshan, which should be asked for. My Lord! You are ordering me to ask, so I ask that I am innocent; Therefore, whatever is beneficial for me, do the same.’
God picked up Pundrik lying at his feet and hugged him to his heart. They said – ‘ Vats! you come with me. I can’t live without you anymore. Now you reside near me in my abode, helping me in my pastimes.’ God made Pundarika sit with him on Garuda and took him to his eternal abode.
।। Om Namo Narayanaya.