आदिगुरु शंकराचार्य का जन्म केरल के कालड़ी गांव में ब्राह्मण दंपत्ति शिवगुरु नामपुद्रि और विशिष्टा देवी के घर में भोलेनाथ की कृपा से हुआ था। इस संबंध में कथा मिलती है कि शिवगुरु ने अपनी पत्नी के साथ पुत्र प्राप्ति के लिए शिवजी की आराधना की। इसके बाद शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें एक पुत्र का वरदान दिया लेकिन यह शर्त रखी कि पुत्र सर्वज्ञ होगा तो अल्पायु होगा। यदि दीर्घायु पुत्र की कामना है तो वह सर्वज्ञ नहीं होगा। इस पर शिवगुरु ने अल्पायु सर्वज्ञ पुत्र का वरदान मांगा। इसके बाद भोलेनाथ ने स्वयं ही उनके घर पर जन्म लेने का वरदान दिया। इस तरह वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन आदि गुरु का जन्म हुआ और उनका नाम शंकर रखा गया।
बहुत ही कम उम्र में सिर से पिता का साया उठ गया। इसके बाद मां विशिष्टा देवी ने शंकराचार्य को वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया। गुरुजन इनके विलक्षण ज्ञान से चकित थे। शंकराचार्य को पहले से ही वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत सहित सभी धर्मग्रंथ कंठस्थ थे।
मां के स्नान के लिए शंकराचार्य ने
मोड़ दी नदी की दिशा-
शंकराचार्य जी अपनी मां की इतनी सेवा और सम्मान करते थे कि उनके गांव से दूर बहने वाली नदी को भी अपनी दिशा मोड़नी पड़ी। कथा मिलती है कि शंकराचार्य जी की मां को स्नान के लिए पूर्णा नदी तक जाना पड़ता था, वह गांव से बहुत दूर बहती थी। लेकिन शंकराचार्यजी की मातृ भक्ति को देखकर नदी ने भी अपना रुख उनके गांव कालड़ी की ओर मोड़ दिया।
कथा मिलती है कि एक दिन शंकराचार्य ने अपनी मां से संन्यास लेने की बात कही। एक मात्र पुत्र के संन्यासी बनने पर वह सहमत नहीं हुई। इसके बाद शंकराचार्यजी ने उनसे नारद मुनि के संन्यास जीवन में प्रवेश लेने की घटना का उदाहरण दिया कि किस तरह से वह संन्यासी बनने चाहते थे लेकिन उनकी मां ने आज्ञा नहीं दी। एक दिन सर्पदंश से उनकी मां का देहावसान हो गया। इसके बाद परिस्थितियों के चलते नारद मुनि संन्यासी बन गए। इसपर विशिष्टा देवी को काफी दु:ख हुआ। लेकिन शंकराचार्य ने कहा कि उनपर तो सदैव ही मातृछाया रहेगी।
साथ ही उन्होंने अपनी मां को यह वचन दिया कि वह जीवन के अंतिम समय में उनके ही साथ रहेंगे। साथ ही उनका दाह-संस्कार भी स्वयं ही करेंगे। इस तरह उन्हें संन्यासी बनने की आज्ञा मिली और वह संन्यासी जीवन में आगे बढ़ गए। एक अन्य कथा मिलती है कि एक बार नदी में मगरमच्छ ने उनके पांव पकड़ लिए। इसपर उन्होंने अपनी मां से कहा कि मुझे संन्यासी जीवन में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए तभी यह मेरे पैर छोड़ेगा। बेटे के प्राण संकट में जानकर मां ने संन्यास की आज्ञा दे दी। मगरमच्छ ने शंकराचार्य के पैर छोड़ दिए।
मां को दिए वचन के अनुसार जब शंकराचार्य को अपनी मां के अंतिम समय का आभास हुआ तो वह अपने गांव पहुंच गए। मां ने उन्हें देखकर अंतिम सांस ली। इसके बाद जब दाह-संस्कार की बात आई तो सभी ने उनका यह कहकर विरोध किया कि वह तो संन्यासी हैं और वह ऐसा नहीं कर सकते। इसपर शंकराचार्य ने कहा कि उन्होंने जब अपनी मां को वचन दिया था तब वह संन्यासी नहीं थे। सभी के विरोध करने के बाद भी उन्होंने अपनी मां का दाह-संस्कार किया। लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया। शंकराचार्य ने घर के सामने ही मां की चिता सजाई और अंतिम क्रिया की। इसके बाद यह पंरपरा ही बन गई। आज भी केरल के कालड़ी में घर के सामने ही दाह-संस्कार किया जाता है।
कैसे हुए अंतर्ध्यान हुए शंकराचार्य?
केदारनाथ के स्वामी आनंद स्वरूप ने बताया कि शिवलिंग के दर्शन के बाद आदि गुरु शंकराचार्य की भगवान शंकर से बात हुई। उन्होंने उनसे देह त्यागने की अनुमति ली। आदि शंकराचार्य मंदिर से बाहर आए। शिष्यों को रोका और कहा कि पीछे मुड़कर मत देखना। आदि शंकराचार्य यहां विलुप्त हो गए। जहां पर विलुप्त हुए उसी जगह पर शिवलिंग की स्थापना की गई। उनका समाधि स्थल बनाया गया। 2013 में आई त्रासदी में यह समाधि स्थल बह गया था।|| आदिगुरु शंकराचार्य स्वामी जी की जय हो ||
Adiguru Shankaracharya was born in the village of Kaladi in Kerala to a Brahmin couple Shivaguru Nampudri and Vishishta Devi by the grace of Bholenath. There is a story in this regard that Shiva Guru along with his wife worshiped Shiva to get a son. After this, Shiva was pleased and gave him the boon of a son, but kept the condition that if the son is omniscient, then he will be short-lived. If a long life son is desired, he will not be omniscient. On this Shivguru asked for the boon of a short-lived omniscient son. After this, Bholenath himself gave a boon to be born at his house. Thus Adi Guru was born on the day of Vaishakh Shukla Panchami and was named Shankar.
At a very young age, the shadow of the father rose from his head. After this Mother Vishishta Devi sent Shankaracharya to Gurukul to study the Vedas. The teachers were astonished by his extraordinary knowledge. Shankaracharya had already memorized all the scriptures including Vedas, Puranas, Upanishads, Ramayana, Mahabharata.
Shankaracharya for the mother’s bath Diverted the direction of the river-
Shankaracharya ji used to serve and respect his mother so much that even the river flowing away from his village had to divert its direction. Legend has it that Shankaracharya’s mother had to go to the Poorna river for bath, which used to flow far away from the village. But seeing the maternal devotion of Shankaracharya, the river also turned its direction towards his village Kaldi.
Legend has it that one day Shankaracharya told his mother to take retirement. She did not agree to the only son becoming a hermit. After this, Shankaracharya gave the example of Narada Muni taking admission in the sannyasin life, how he wanted to become a sannyasi but his mother did not give permission. One day his mother died of snakebite. After this, due to circumstances, Narada Muni became a sannyasi. Vishishta Devi felt very sad on this. But Shankaracharya said that there will always be a mother’s shadow on him.
At the same time, he promised his mother that he would be with her at the end of his life. Along with this, his cremation will also be done himself. In this way he was allowed to become a sannyasi and he went ahead in his life. Another story is told that once a crocodile caught his feet in the river. On this he asked his mother to allow me to enter the life of a sannyasin, only then it would leave my feet. Knowing that the son’s life was in danger, the mother gave the order for sannyasa. The crocodile left the feet of Shankaracharya.
According to the promise given to the mother, when Shankaracharya realized the last time of his mother, he reached his village. Mother breathed her last seeing him. After this, when it came to cremation, everyone opposed him saying that he is a sanyasi and he cannot do it. To this, Shankaracharya said that he was not a sanyasi when he had given his promise to his mother. He cremated his mother even after protesting from everyone. But no one supported him. Shankaracharya decorated the pyre of the mother in front of the house and performed the last action. After that it became a tradition. Even today the cremation is done in front of the house in Kaladi, Kerala.
How did Shankaracharya become enlightened? Swami Anand Swaroop of Kedarnath told that after the darshan of Shivling, Adi Guru Shankaracharya had a talk with Lord Shankar. He took permission from him to leave the body. Adi Shankaracharya came out of the temple. Stopped the disciples and told them not to look back. Adi Shankaracharya became extinct here. Shivling was established at the same place where it became extinct. His tomb was built. This tomb was washed away in the tragedy of 2013.|| Hail to Adiguru Shankaracharya Swami ji.