एक अद्वैत ही सिद्ध हैं।

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हरि ॐ तत् सत् जय सच्चिदानंद


बहुत से लोग पूजा पाठ व्रत उपवास को ही ईश्वर की प्राप्ति का साधन मानते हैं।
वो सोचते हैं कि
पूजा पाठ भजन, ध्यान समाधि आदि से ईश्वर की प्राप्ति हो जाएगी
जब कि
इन क्रियाओं का फल स्थिर नहीं नाशवान है।
ध्यान समाधि के बारे में तुलसीदास जी ने रामायण में कहा है कि,
शिव जी ने सतासी हजार वर्ष तक समाधि लगाई
लेकिन
उनकी समाधि टूटी
(निगम नेति शिव अंत न पावा)
आगे तुलसी दास जी ने रामायण में लिखा है कि
विधि,हर ,शम्भु नचावन हारे
अर्थात
जो ब्रह्मा विष्णु महेश को भी नचाने वाले हैं,उसका मर्म कोई नहीं जानता
तो फिर ध्यान समाधि के द्वारा कोन जान सकता है
वहां द्वैत की सिद्धि नहीं,
वहां केवल एक अद्वैत ही सिद्ध हैं।
जो वाणी से प्रकाशित नहीं होता
बल्की
वाणी उससे प्रकाशित होती है,
वहीं ब्रह्म है।
ऐसा जानना ही वास्तव में “भजन” है।
नाम रूप का जो हम भजन करते हैं वो कुछ समय के अनुसार छूट जाता है।
जैसे: मन्दिर गये
कितनी देर मन्दिर में बैठोगे?
घर तो आना ही पड़ेगा
कीर्तन किया,
उसे खत्म तो करना पड़ेगा
चौबीस घंटे कीर्तन तो नहीं कर सकते
ऐसे ही हम चौबीस घंटे भजन ,कीर्तन ,सिमरन ,जप ,तप व्रत,उपवास ,देवी देवताओं, की पूजा, आरती,वो ध्यान समाधि नहीं कर सकते
क्योंकि
हमें नहाना कपड़े धोना,खाना बनाना पढ़ाई करना, झाड़ू पोंछा बर्तन,बच्चों की देखभाल, शादी आदि और भी तो बहुत से काम है।
ओ करने है।नहीं करेंगे तो परिवार के लोग जीने नहीं देंगे
खाली खड़ताल बजाने से माई नहीं होगी
उसके लिए कमाना तो पड़ेगा इसलिए
हम लगातार ये पूजा पाठ नहीं कर सकते
ये बीच बीच में छूटते रहते हैं।
परमात्मा की असली पूजा वो है जो सांस सांस में सोहम का नित्य निरंतर जाप चलता रहे
जो अन्तिम सांस तक,अंत समय तक नहीं छूटता
उसको जानना,उसका बोध करना
वो ही प्रथम और वहीं अंतिम लक्ष्य है।
इसलिए
जो देश,काल,नाम, रूप का समय‌ के अनुसार अभाव हो जाता है,जो बदलता रहता है।,जो सदा नहीं रहता उसमें मन लगाना महा भूल है।
लेकिन
जो सदा उसके साथ विद्यमान रहता है,उसे अविद्दमान मानता है
उसे ही जानने के लिए “भजन “है।
क्योंकि
जिसे जानना होता है वो जानने से पहले होता है।
जबकि
कर्म उपासना से वह वस्तु प्राप्त होती है जो पहले न हो,
और बाद में प्राप्त होने वाली वस्तु सदा नहीं रहती
मेरा जो अपना आपा वो “स्व “है।उससे न हटना ही “भजन” है।
जानना भी एक क्रिया है।
किसी दूसरे से जानना वो भी बुद्धी जन्य है।
बुद्धि के द्वारा जाना गया सभी ज्ञान नष्ट हो जाता है।
जो सदा जानने को जो जानता है उसे जानना ही”भजन”है।
जहां समस्त क्रियाओं का अभाव का भी अभाव ,उसको जानना अक्रियाता है।
क्योंकि
जानने न जानने से पहले वह “स्व” प्रथम ही है ।
और रहेगा
उसी को भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि
वहीं एक अक्षर ॐकार जानने योग्य विभु मैं हूं
इसी को जानना ही वास्तव में”भजन”है।

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