मैं तो जब इस क्षणभंगुर संसार में आया था,तब तो अबोध शिशु था परन्तु पूर्वाग्रहों मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर “मै-मेरा” “तू-तेरा” का की शिक्षा प्रदान की गई जो संस्कार बनते गए और प्रगाढ़ हो गये। उन्हीं संस्कारों के कारण स्वयं को शरीर नाम रूप मानने लगा।
यद्यपि मैं स्वयं के शरीर के जन्म का दृष्टा और साक्षी नहीं था परन्तु औरों के द्वारा ऐसा कहा गया कि तेरा जन्म अमुक दिन व समय पर हुआ था,तेरा नाम फलां है,तू मेरा पुत्र है पौत्र है,पति है, पिता है,भतीजा है,भांजा है,भाई है, चाचा है, मामा है आदि-आदि। मैं तो जब एक ही हूं तो भिन्न भिन्न कैसे हो सकता हूं?
मुझे किसी ने यह सत्य नहीं बताया कि तू नाशवान शरीर नहीं वरन् अजन्मा अविनाशी नित्य चेतन आनंद स्वरूप अक्षय अव्यक्त अकर्ता अच्युत अविकारी निर्गुण निराकार अकर्ता आत्मा है।
शरीर के माध्यम से तो मेरा प्राकट्य हुआ है और इसकी एक न एक दिन इसकी मृत्यु भी होनी है परन्तु शरीर की मृत्यु के बाद मैं तो अप्रकट्य हो जाउंगा। उक्तदशा कैसा मेरा जन्म कैसी मृत्यु,कैसा सबेरा? कैसी दोपहर,कैसी शाम और कैसी रात और कैसी शाम? मैं तो अपने भौतिक मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा अनुभव करता हूं,उनका दृष्टा और साक्षी मात्र हूं।
वास्तव में भगवान को तो अपने भौतिक अपनी आंखों से किसी ने नहीं देखा और न ही देख सकता है क्योंकि जब भगवान मुझ अद्वैत आत्मस्वरूप से पृथक कोई सत्ता ही नहीं है तो भला उसे कौन देख सकता है? कैसे देख सकता है?
गीता प्रमाण है कि सच्चिदानन्द होने के कारण आत्मा ही परमात्मा है जो कि हम सभी का अपना ही स्वरूप है। ब्रह्म, परमात्मा, ईश्वर, भगवान, एक ही शुद्ध परमचैतन्य तत्व के भिन्न-भिन्न नाम हम मनुष्यों द्वारा दिए गए हैं न कि उनके द्वारा।
वेद, ग्रंथ, शास्त्र आदि प्रमाण हैं कि ध्यान और मौन की दशा में समाधि लगती है और तभी अपने सत्य स्वरूप ब्रह्म होनेपर “अहम् ब्रह्मास्मि” अर्थात् मैं ब्रह्म हूं। “तत्वमसि” अर्थात् तू वह है और “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” का अनुभव होता है।