ज्ञान_क्या_है

यह सृष्टि अखण्ड है। इसका बोध हो जाना ही ज्ञान है ।मनुष्य भी उसी का अभिन्न अंग है इस भावना को इस बात को स्मरण रखना चाहिए। कि ज्ञान माँगा नही जाता है । न वह किसी के द्वारा उपहार स्वरूप ही दिया जाता है ज्यों ज्यों चित्त शुद्धि होती जाती है वह क्रमश साधक के  भीतर से प्रकट होता जाता है ।
अशुद्ध चित्त वाला इससे वंचित रहता है सत्य को सीखा और सिखाया नही जाता है । यह स्वयं के अनुभव से ही प्राप्त होता है ।
आत्म चेतना स्वाभाविक रूप से विकसित हो ही रही है । यदि इसके विकास मे बाधा उपस्थित न की जाये तो यह निरन्तर प्रत्येक जीवन में प्राप्त अनुभवों ये आधार पर विकसित होती हुई एक दिन मोक्ष को प्राप्त हो ही जाये गी। किन्तु साधना द्वारा इसकी गति तीव्र करके इसे कुछ ही जन्मों मे प्राप्त किया जा सकता है ।
साधना की यही  उपयोगिता है किन्तु अध्यात्म ज्ञान को अभाव में मार्ग न मिलने के कारण यह आत्मा हजारों जन्मों तक भटकता ही रहती है एवं मोक्ष कि सम्भावना ही समाप्त हो जाती है ।
ज्ञान बुद्धि का नही आत्मा  विषय  है बुद्धि इसे कभी नही पा सकती। चेतना का अनुभव ह्रदय मे होता है । वह बुद्धि की पकड मे नही आता। बुद्धि से उसकी व्यवस्था भी नही की जा सकती।
इन चर्मचक्षुओं से संसार ही दिखाई देगा। आत्मज्ञान की चाहत है तो अपने दिव्य चक्षुओ काउपयोग करके साधक  को अध्यात्म मार्ग पर चलने से प्राप्त होगा।
चर्मचक्षुओ से देखने की मुढता को छोड़कर प्रकृति मे जो हो रहा है उसकी पहचान करना और उससे मुक्त होने या प्रयत्न करना चाहिए जब ही सत्य का ज्ञान होता है ।
यही प्रकृति ही माया है जिससे ज्ञान आच्छादित है सारा प्रयास इसी माया को हटाने का करना चाहिए ।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि भीतर गुप्त खजाना छिपा है उसी से अनभिज्ञ उसके थोड़े से ही अंश या उपयोग करके मनुष्य सन्तुष्ट हो गया है । मनुष्य को इसकी पूर्णता का ज्ञान हो जाये तो उसे परमानन्द सी प्राप्ति हो जाये।
यही अलौकिक विधा जिसे शास्त्रों मे पराविधा कहा गया है हंस के सदृश है । जिसमे नीर-क्षीर का विवेक होता है।
इसके बिना मनुष्य सत्यासत्य का निर्णय नही कर सकेगा।
अतः सत्य कि प्राप्ति के लिए मनुष्य को इसी का आश्रय लेना चाहिए ।
यह प्रकृति और पुरुष अन्न और भूसे के  समान अभिन्न है जो सदा साथ ही उत्पन्न होती है साधक को विवेक ज्ञान से इस भूसे को अलग करके इसके भीतर का अन्न प्राप्त करना चाहिए क्योंकि यही सार तत्त्व है ।
इस परमज्ञान की चाबी किसी गुरू के पास नही है जो शिष्य के माँगने पर उसे सौंप दे। इसे मनुष्य को सेवन ही अपने भीतर खोजना पडता है ।
इस परमज्ञान का द्वार तो सदा खुला ही रहता है तथा हर मनुष्य के लिए खुला है केवल माया ये अन्धेपन के कारण मनुष्य उसे नही देख पा रहा है तथा पाखण्ड व आडम्बर पूर्ण दीवारों से ही सिर टकराकर लहु लुहान हो रहा है ।
उसे पाने के लिए आँख खोलना ही पर्याप्त है यह सारी साधनाएँ मनुष्य की आँख की तैयारी के लिए है पाने ये लिए नही है  परम मुक्ति मनुष्य ये पुरुषार्थ से होती है कोई देवता इसे उपहार स्वरूप ला कर नही दे सकता है ।
अतः पुरुषार्थ ही एक मात्र मार्ग है ।
शरीर की अवस्था व भूमिकायें:–(१)अन्नमयशरीर–हमारा स्थूल शरीर अन्नमयशरीर है जिसके जीने मरने  का आधार अन्न ही है व्रतोपवास द्वारा इस शरीर को सात्विक बनाया जाता है
इस समय साधक सधारण ज्ञानसीमा मे रहकर प्रभुआश्रित होता है

(२)प्राणमय शरीर—प्राणमयशरीर की शक्ति के आधार केन्द्र मुलाधार से नाभिपर्यन्त तक के लोक आते है साधक इस शरीर को वश मे कर लेवें तो वायु, जल आदि तत्वों के सहारे अपने शरीर को जीवित रख सकता है ।
प्राण अपानादि वायु का शमन करके साधक समाधि की अवस्था की ओर अग्रसर होता है प्रेतादि दिव्य अंतरिक्ष शक्ति यां इस शरीर को धारण कर विचरण करती है
(३)मनोमय शरीर—मनोमय शरीर  का मुख्य आधार हमारा मन ही है इसशरीर पर हमारा अधिकार होने पर शरीर देव शक्तियो का धनी होकर देवताओ के समा हो जाता है देवलोक मे गमन करने कीशक्ति प्राप्त हो जाते हैं मन की कल्पना मात्र से सब कार्य होने लगते है क्षुधा, तृषादि , दोष,शांत हो जाते है भक्तिभाव से विह्ललित होकर एक आनन्द की अनुभूति होने लगती है अनाहत चक्र इसका मुख्य केन्द्र है सुक्ष्म शरीर काआभास होता है ।

(४)–विज्ञानमयशरीर–आज्ञाचक्र एवं उनकेआगे सुक्ष्मशरीर अब कारणशरीर मे प्रवेश परमात्मा के विशुध्दज्ञान को अनुभव करने लगता है शिव के तेज कीअनुभुति करता है समाधि मे कारण शरीर व महाकारणशरीर की अनुभूति वभेद मालुम होने लगता है शब्द ब्रह्म एवं ईश्वर के निर्गुण स्वरूप से साक्षात्कार होता है सहस्त्रार के अनुभव प्राप्त होते है ।
अनेक तरह के नाद सुनाई देते है दिव्यआत्माओं से सकार रूप या समाधि मे संपर्क होने लगता है प्रभु की प्रतीत मालुम होने लगती है

(५)ज्ञानमयशरीर–हमारा चित मनोमय शरीर से हटकर विशुध्द चक्र मे प्रवेश करता है तो हमे ज्ञान की अनुभूति होने लगती है जीवात्मा पर लगे माया के आवरण छंटने लगते है एवं ज्ञानमयकोष काआनन्द प्राप्त होता है विशुध्द चक्र से आज्ञाचक्र तक सुक्ष्मशरीर की गतियों काआभास होता है उनके अनुभव वशक्ति प्राप्त करता है सगुण सृष्टि काअधिक आभास होता है निर्गुण का कम होता है

(६)आनन्दमयशरीर–,सहस्त्रार चक्र मे महाकारणशरीर अपने प्रभु के सामीप्य काअनुभव करता है गुण अवगुण से परे होकर विचित्र आनन्द का अनुभव होता है समधि अवस्था मे भेद होने लगता है समना समाधि तक कर्ता का कुछ बोध रहता है पश्चात उन्मना एवं उन्मनातीत समाधि अवस्था को प्राप्त कर जीव ब्रह्म लोक मे प्रवेश कर अनेकानेक अनुभव प्राप्त करता है कर्ता व ध्याता का भान मिट जाता है यहॉ नमंत्र का ज्ञान रहता  और न किसी अन्य अवस्था का ज्ञान रहता  है विचित्र आनन्द को प्राप्त करने के लिये ब्रह्मानन्द रस को प्राप्त कर ने की लालसा बनी रहती है
इसी अवस्था मे रहकर ऋषि मुनि अपनी काया हजारो वर्ष तक जीवित रखते थे

नोट— इस ब्रह्मानन्दरस का पान जाग्रत अवस्था मे भी होता रहे इसके लिये साधक को प्रयास करते रहना चाहिये।इससे प्राप्त आनन्द को सहजानन्द कहते है एवं प्राप्त अवस्था को सहज समाधि कहते हैसष



यह सृष्टि अखण्ड है। इसका बोध हो जाना ही ज्ञान है ।मनुष्य भी उसी का अभिन्न अंग है इस भावना को इस बात को स्मरण रखना चाहिए। कि ज्ञान माँगा नही जाता है । न वह किसी के द्वारा उपहार स्वरूप ही दिया जाता है ज्यों ज्यों चित्त शुद्धि होती जाती है वह क्रमश साधक के भीतर से प्रकट होता जाता है । अशुद्ध चित्त वाला इससे वंचित रहता है सत्य को सीखा और सिखाया नही जाता है । यह स्वयं के अनुभव से ही प्राप्त होता है । आत्म चेतना स्वाभाविक रूप से विकसित हो ही रही है । यदि इसके विकास मे बाधा उपस्थित न की जाये तो यह निरन्तर प्रत्येक जीवन में प्राप्त अनुभवों ये आधार पर विकसित होती हुई एक दिन मोक्ष को प्राप्त हो ही जाये गी। किन्तु साधना द्वारा इसकी गति तीव्र करके इसे कुछ ही जन्मों मे प्राप्त किया जा सकता है । साधना की यही उपयोगिता है किन्तु अध्यात्म ज्ञान को अभाव में मार्ग न मिलने के कारण यह आत्मा हजारों जन्मों तक भटकता ही रहती है एवं मोक्ष कि सम्भावना ही समाप्त हो जाती है । ज्ञान बुद्धि का नही आत्मा विषय है बुद्धि इसे कभी नही पा सकती। चेतना का अनुभव ह्रदय मे होता है । वह बुद्धि की पकड मे नही आता। बुद्धि से उसकी व्यवस्था भी नही की जा सकती। इन चर्मचक्षुओं से संसार ही दिखाई देगा। आत्मज्ञान की चाहत है तो अपने दिव्य चक्षुओ काउपयोग करके साधक को अध्यात्म मार्ग पर चलने से प्राप्त होगा। चर्मचक्षुओ से देखने की मुढता को छोड़कर प्रकृति मे जो हो रहा है उसकी पहचान करना और उससे मुक्त होने या प्रयत्न करना चाहिए जब ही सत्य का ज्ञान होता है । यही प्रकृति ही माया है जिससे ज्ञान आच्छादित है सारा प्रयास इसी माया को हटाने का करना चाहिए । यह कितने आश्चर्य की बात है कि भीतर गुप्त खजाना छिपा है उसी से अनभिज्ञ उसके थोड़े से ही अंश या उपयोग करके मनुष्य सन्तुष्ट हो गया है । मनुष्य को इसकी पूर्णता का ज्ञान हो जाये तो उसे परमानन्द सी प्राप्ति हो जाये। यही अलौकिक विधा जिसे शास्त्रों मे पराविधा कहा गया है हंस के सदृश है । जिसमे नीर-क्षीर का विवेक होता है। इसके बिना मनुष्य सत्यासत्य का निर्णय नही कर सकेगा। अतः सत्य कि प्राप्ति के लिए मनुष्य को इसी का आश्रय लेना चाहिए । यह प्रकृति और पुरुष अन्न और भूसे के समान अभिन्न है जो सदा साथ ही उत्पन्न होती है साधक को विवेक ज्ञान से इस भूसे को अलग करके इसके भीतर का अन्न प्राप्त करना चाहिए क्योंकि यही सार तत्त्व है । इस परमज्ञान की चाबी किसी गुरू के पास नही है जो शिष्य के माँगने पर उसे सौंप दे। इसे मनुष्य को सेवन ही अपने भीतर खोजना पडता है । इस परमज्ञान का द्वार तो सदा खुला ही रहता है तथा हर मनुष्य के लिए खुला है केवल माया ये अन्धेपन के कारण मनुष्य उसे नही देख पा रहा है तथा पाखण्ड व आडम्बर पूर्ण दीवारों से ही सिर टकराकर लहु लुहान हो रहा है । उसे पाने के लिए आँख खोलना ही पर्याप्त है यह सारी साधनाएँ मनुष्य की आँख की तैयारी के लिए है पाने ये लिए नही है परम मुक्ति मनुष्य ये पुरुषार्थ से होती है कोई देवता इसे उपहार स्वरूप ला कर नही दे सकता है । अतः पुरुषार्थ ही एक मात्र मार्ग है । शरीर की अवस्था व भूमिकायें:–(१)अन्नमयशरीर–हमारा स्थूल शरीर अन्नमयशरीर है जिसके जीने मरने का आधार अन्न ही है व्रतोपवास द्वारा इस शरीर को सात्विक बनाया जाता है इस समय साधक सधारण ज्ञानसीमा मे रहकर प्रभुआश्रित होता है

(2) Pranamaya body—The base center of the power of Pranamaya body is from Muladhar to Navel. If a seeker can control this body then he can keep his body alive with the help of elements like air, water etc. By suppressing the Prana Apanadi Vayu, the seeker moves towards the state of Samadhi. The ghostly divine space power or wanders around in this body. (3) Manomaya body—The main basis of manomaya body is our mind. When we have control over this body, the body becomes rich in divine powers and becomes equal to the gods. We get the power to go to the world of gods, we get everything just by imagining the mind. The hunger, cravings, vices subside, the feelings of devotion subside, a feeling of joy begins, Anahata Chakra is its main centre, a subtle body is felt.

(4) – Vijnanamaya Sarir – Agyachakra and the subtle body in front of them. Now entering the causal body, one starts experiencing the pure knowledge of God. One experiences the glory of Shiva. In Samadhi, the experience of the causal body and the great causal body starts becoming different. The word Brahma and the formless form of God begin to appear. One gets interview with Sahasrara and experiences Sahasrara. Many types of sounds are heard, contact with divine souls starts in corporeal form or samadhi, God’s presence starts appearing.

(5) Knowledge body – When our mind moves away from the mental body and enters the Vishuddha Chakra, we start experiencing knowledge, the veil of illusion on the soul begins to dissipate and we get the joy of the Gyanmaykosh. From the Vishuddha Chakra to the Ajna Chakra, we feel the movements of the subtle body. He experiences and acquires power; Saguna creation is more visible; Nirguna is less.

(6) Anandmaysarir – In the Sahasrara Chakra, the Mahakaran body experiences the closeness of its Lord, goes beyond the merits and demerits and experiences strange joy. In the Samadhi state, differentiation begins, till Samana Samadhi, some awareness of the doer remains, after that, Unmana and Unmanatit Samadhi. After attaining this state, the living being enters the world of Brahma and experiences many experiences. The consciousness of the doer and the meditator is erased. Here the knowledge of Namantra remains and neither does the knowledge of any other state remain. To attain strange bliss, attain Brahmananda Rasa. the longing remains By staying in this state, sages and sages kept their bodies alive for thousands of years.

Note—The seeker should keep making efforts to keep drinking this Brahmanandras even in the waking state. The joy obtained from this is called Sahajanand and the state obtained is called Sahaja Samadhi.

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